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प्रिय मित्रो,
            यह वर्ष का अन्तिम सम्पादकीय है और मुझे खेद है कि कल मैं वेबसाइट को समय पर अपलोड नहीं कर पाया। एक दिन पहले से यानी 13 दिसम्बर से ही मुझे अनुभव होने लगा था कि कोई समस्या उत्पन्न हो रही है; पर मैं प्रोग्रामर से सम्पर्क नहीं कर पा रहा था। सारा दिन चिन्ता में बीता, कई सन्देश उसके लिए छोड़े। रात होते-होते (यानी भारत की सुबह होते-होते) मेरी चिन्ता का केन्द्र वेबसाइट की अपेक्षा प्रोग्रामर की चिन्ता में बदल गया। परमात्मा से यही मनाने लगा कि वह ठीक हो और उसका परिवार ठीक हो। रात इसी चिन्ता के साथ सोया। आज सुबह उठा तो सबसे पहले प्रोग्रामर का व्हाट्स ऐप पर संदेश मिला कि वेबसाइट में समस्या पुस्तक बाज़ार के स्लाईडर के कारण थी। अभी अस्थायी तौर पर उसे हटा दिया है। अब सब सामान्य है, पर अभी इस पर विचार करना शेष है कि ऐसा हुआ क्यों? इसका निदान भी आज खोजना होगा।

कल संध्या में हताश होने के बाद मैंने समस्याओं की चिन्ताओं से उबरने के लिए टीवी पर नेटफ़्लिक्स का सहारा लिया। प्रायः ऐसा ही करता हूँ। सम्भवतः व्यक्ति अवसाद से बचने के लिए यही करता है; मनोरंजन में आश्रय खोजता है। टीवी के रिमोट से नेटफ़्लिक्स के मेन्यू में कुछ खोज रहा था, क्या खोज रहा था, शायद मुझे स्वयं ही मालूम नहीं था। मन पर तो अभी भी असहाय होने का भाव छाया हुआ था। धीरे-धीरे मैं टीवी की स्क्रीन में स्वयं को खोने लगा। सोचने लगा कि जिस समस्या को मैं सुलझा नहीं सकता तो उसके बारे में चिन्ता करने से कुछ नहीं हो सकता। उठा और व्हाट्स ऐप के साहित्य कुञ्ज समूह में अपनी चिन्ता को अपने साहित्यिक परिवार के साथ साझा किया, कुछ ही क्षणों में (सबसे पहले यू.के. से दिव्या माथुर जी की) प्रतिक्रिया मिली। मानसिक बोझ कम होने लगा और मैं फिर से टीवी रिमोट के बटनों से खेलने लगा। 

व्यक्ति कि मानसिकता भी कितनी शक्तिशाली है। जब अवसाद के बादल छाते हैं तो मानसिकता संकल्प शक्ति को छिन्न-भिन्न कर देती है और आशा की किरण दिखते ही आशंकाओं की उत्ताल उफनती लहरों को मानसिकता ही स्थिर करने लगती है। मैं अब इसी स्थिति में था। पहले टीवी की स्क्रीन को देख तो रहा था पर कुछ दिख नहीं रहा था। अब बादल छँटने लगे और सब स्पष्ट दिखने लगा था। 

मंगलवार यानी 14 दिसम्बर को जब साहित्य कुञ्ज के अंक को समेट रहा था तो राजनन्दन सिंह जी का सांस्कृतिक आलेख मिला था। बहुत अच्छा आलेख था जो कि मैंने तुरंत अपलोड कर दिया था। परन्तु सारा दिन उसी के बारे में सोचता रहा था। नवम्बर के मास में ही सांस्कृतिक आलेखों को एक उपविधा के रूप में प्रकाशित करना आरम्भ किया था। इस पर डॉ. उषा रानी बंसल, डॉ. आरती स्मित और डॉ. शैलजा सक्सेना से बात भी हुई थी। सभी से प्रोत्साहन मिला था और मेरे निर्णय का उन्होंने अनुमोदन किया था। आपके ई-मेल द्वारा मिले सन्देशों से सुखद अनुभूति हुई थी। नवम्बर के सम्पादकीय में ही मैंने संस्कृति पर स्थानीय प्रभावों के विषय पर भी लिखा था।

इस समय मैं टीवी के सामने बैठा था। मन में साहित्यिक कुञ्ज में प्रकाशित सांस्कृतिक आलेखों की उष्णता अनुभव हो रही थी। अब उत्ताल लहरें शान्त हो चुकी थीं। इस समय मैं टीवी पर कुछ भी गंभीर या मन को उद्वेलित करने वाला नहीं देखना चाहता था। वैसे भी दिसम्बर का आरम्भ होते ही यहाँ, पश्चिमी जगत में हर ओर क्रिसमस की प्रसन्नता और सौहार्द बिखरने लगता है। इस त्योहार का जो धार्मिक महत्व है सो है (इसके बारे में भी कई संदेह हैं; इसके बारे में फिर कभी चर्चा करेंगे) परन्तु इन दिनों यह सद्‌भावना का त्योहार अधिक है। दिसम्बर के आरम्भ होते ही टीवी पर सब कुछ क्रिसमसमय हो जाता है। वही पुरानी फ़िल्में दोहरायी जाती हैं जो किसी न किसी ढंग से ईसा मसीह से संबंधित हैं। नयी फ़िल्मों और टीवी शोज़ के कथानकों में क्रिसमस का ज़िक्र अवश्य होता है। कुछ विशेष चैनल तो “मेड फ़ॉर टीवी मूवीज़” कि शृंखला आरम्भ कर देते हैं जो केवल क्रिसमस पर आधारित होती हैं और सभी सुखांत होती हैं। हर वर्ष मैं इन्हें अवश्य देखता हूँ और हर संध्या को कम से कम दो तो देखता ही हूँ।  

हल्का-फुल्का मनोरंजन, जिसकी आज मुझे बहुत आवश्यकता थी। इसकी शरण ली। हालाँकि इन फ़िल्मों का कथानक एक-सा ही होता है। शहर की युवा लड़की को, जो जीवन-साथी की खोज में निराश हो चुकी होती है किन्हीं कारणों से, महानगर से  छोटे क़स्बे या गाँव में जाना पड़ता है। गाँव भी कैसा, बस बिल्कुल वैसा, जैसा कि क्रिसमस की शुभकामनाओं के कार्डों पर दिखाया जाता है। सभी मुस्कुराते हुए चेहरे, क़स्बे के सभी निवासी एक दूसरे से परिचित, सभी आत्मीयता से सराबोर। महानगर में पैदा हुई लड़की को पूरा गाँव या क़स्बा अपनी खुली बाँहों में शरण देता है। बेचारी बर्फ़बारी के कारण गाँव या क़स्बे में ही फँस जाती है और क्रिसमस की संध्या को अपने परिवार में लौट पाने में असमर्थ हो जाती है। फिर कथानक में आता है एक ख़ूबसूरत युवक; आप समझ ही गए होंगे कि यह फ़िल्म का नायक है। यह वही  व्यक्ति होता है जिससे नायिक क़स्बे में पहुँचते ही टकरायी या मिली होती है। इस आरम्भिक मिलन की टकराहट से ही नायक नायिका में प्रतिद्वंद्विता की परिस्थिति बनती है (सद्‌भावना यहाँ भी बनी रहती है)। फिर परिस्थितियाँ बदलती हैं, 24  दिसम्बर की शाम आते-आते प्रतिद्वंद्वी प्रेमी बन जाते हैं और 25 दिसम्बर यानी क्रिसमस का दिन तो क्रिसमस का दिन होता ही है। इस दिन तो कथानक के हल्के-फुल्के खलनायक का हृदय परिवर्तन भी हो जाता है। सब ख़ुश!

सोचता हूँ मुझ पर भी तो स्थानीय प्रभाव पड़ने लगे हैं। मेरी सोच और विचार, सब बदल गए हैं। मैं ही क्या पूरे प्रवासी समाज के लिए यह कहा जा सकता है। अन्य शब्दों में कहें प्रवासी संस्कृति पर स्थानीय प्रभाव दिखाई देने लगे हैं। भय लगता है कि क्या दो-तीन पीढ़ियों में हमारे वंशज मूल-संस्कृति से अलग हो जाएँगे? क्या हमारी यही धरोहर होगी कि हम उस संस्कृति को बचा नहीं पाए, जिसमें हम पले-बढ़े? जिस संस्कृति ने हमारे जीवन-मूल्य, मान्यताएँ और नैतिकता के सिद्धांत गढे़, उसीको क्या खोना आरम्भ कर चुके हैं? फिर सोचता हूँ कि भारत में भी तो यह सब बदल रहा है। भारत क्या पूरे विश्व के समाजों की यही चिन्ता है। वैश्विक संस्कृति घुल-मिल रही है। संभवतः साहित्य कुञ्ज में “सांस्कृतिक आलेख” उपविधा आरम्भ करने का यही कारण रहा होगा। मन के किसी कोने में तो यह बैठा ही हुआ है कि अपनी संस्कृति को सँजोए रखना है सँभाले रखना है। इसीलिए सांस्कृतिक आलेखों का महत्व समझ आने लगा है। सांस्कृतिक प्रथाओं में ही हमारे समाज का उद्‌भव निहित है। यही संस्कृति की नींव है। शायद अनजाने में ही सही लिख गया हूँ। नींव पर निर्मित भवन का आधुनिककरण समय के साथ होता रहता है। नींव नहीं बदली जाती। यही सत्य है। 

— सुमन कुमार घई

टिप्पणियाँ

Ritu Khare 2021/12/20 10:15 PM

घई जी सबसे पहले तो आपको और आपके परिवार को नववर्ष की शुभकामनाएं। आशा करती हूँ कि २०२२ में साहित्य कुञ्ज को अपूर्व प्रसिद्धि मिले एवं सारी तकनीकी समस्याओं का हल मिले। आपने बहुत कठिन सवाल उठाया है "भय लगता है कि क्या दो-तीन पीढ़ियों में हमारे वंशज मूल-संस्कृति से अलग हो जाएँगे?" "सांस्कृतिक आलेख" के आरम्भ करने के मूल कारण को आज शायद थोड़ा समझ रही हूँ। सोच में पड़ गयी हूँ कि मैं व्यक्तिगत स्तर पर क्या कर सकती हूँ। और आपके इस संपादकीय की एक पंक्ति मुझे बहुत भा गयी और इस पंक्ति से आपमें छुपी सम्वेदना झलकती है " मेरी चिन्ता का केन्द्र वेबसाइट की अपेक्षा प्रोग्रामर की चिन्ता में बदल गया"

एक दम सही। जब तक नींव मज़बूत है तब तक भूचाल भी उसे नहीं हिला सकते। आभार सुंदर आकलन 2021/12/19 07:42 AM

एक दम सही आकलन। रेत पर बने घर कहाँ टिक पाते हैं उषा बंसल

राजनन्दन सिंह 2021/12/16 08:21 PM

माननीय संपादक जी, साहित्यकुञ्ज का यह अंक मात्र एक दिन विलम्ब हुआ और आप परेशान हो गए। वास्तव में इसमें आपका अपने कार्य के प्रति जुनून एवं साहित्य के प्रति आपके अगाध प्रेम का दर्शन होता है। मन बहलाने के लिए आपने नेटफ़्लिक्स का सहारा भी लिया मगर ध्यान साहित्यकुञ्ज के प्रकाशन में हो रही विलम्ब एवं अपनी संस्कृति के मूल से नहीं हटा पाए। हिन्दी साहित्य एवं संस्कृति के प्रति आपके इस संपूर्ण समर्पित भाव को हम साहित्यकुञ्ज के समस्त लेखक एवं पाठक परिवार की तरफ से सादर नमन करते हैं। 1990 के बाद भारत की बदली हुई शैक्षणिक एवं आर्थिक समृद्धि के परिणाम स्वरूप बदल रही जीवन शैली के कारण राष्ट्र की बहुत सारी संस्कृति, परंपराएँ रहन-सहन एवं आदतें या तो बदल रही है या लुप्त हो रही हैं जिनका इतिहास में संभवतः कोई जिक्र नहीं होगा। ऐसे में सत्तर के दशक या उससे पहले के जन्में हुए जीवित लोग हीं अंतिम पीढ़ी के रुप में हमारी उन लुप्त हो रही सभी संस्कृतियों के अंतिम साक्षी हैं। इसलिए वर्तमान पीढ़ी के साहित्यकारों को सांस्कृतिक एवं संस्मरण साहित्य पर जोर देना बहुत हीं आवश्यक है। हमारे इस प्रयास से न सिर्फ हमारी लुप्तप्राय संस्कृति का साहित्यिक संरक्षण होगा बल्कि भविष्य में यही हमारा सामाजिक इतिहास भी बनेगा। मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि साहित्य कुञ्ज में सांस्कृतिक आलेख शुरु करने का निर्णय एक बहुत हीं महत्वपूर्ण एवं दूरदर्शी निर्णय है। सादर

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