प्रिय मित्रो,
नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ! (हम सभी को शुभकामनाओं की आवश्यकता है)
गत वर्ष एक त्रासदी भरा वर्ष रहा है। कोरोना की त्रासदी से हम सभी परिचित हैं और अब तो हम इसके साथ जीने के इतने अभ्यस्त हो चुके हैं कि हमारी जीवन शैली ही बदल चुकी है। पिछले सप्ताह तक सोच रहा था कि अपने वर्ष के अंतिम सम्पादकीय में या कहें वर्ष के पहले सम्पादकीय में साहित्य कुञ्ज की गत वर्ष की उपलब्धियों की चर्चा करूँगा। परन्तु होनी को यह स्वीकार नहीं था। पिछले सप्ताह 27 तारीख़ को महाकवि हरिशंकर आदेश जी का स्वर्गवास हो गया। आदेश जी वास्तव में इस युग के बहुत बड़े साहित्यकार थे। क्योंकि अधिकतर वह भारत से बाहर ही रहे इसलिए भारत में अकादमिक वृत्त से बाहर शायद बहुत लोग उन्हें न जानते हों। उन्होंने आठ महाकाव्य लिखे और सैंकड़ों अन्य पुस्तकें लिखीं। जितने बड़े साहित्यकार थे, उतने ही बड़े शास्त्रीय संगीत के विद्वान भी थे। उन्होंने दर्जनों पुस्तकें शास्त्रीय संगीत की भी लिखी हैं। यह मेरा सौभाग्य रहा है कि मुझे उनका सान्निध्य मिला। साहित्य कुञ्ज के वह संरक्षक थे।
जब से उनकी मृत्यु का समाचार मिला है तब से मैं उनके बारे में न तो कहीं लिख पाया हूँ और न ही किसी से बात ही कर पाया हूँ। अब, जब सम्पादकीय लिखने बैठा हूँ तो एक स्मृतियों की बाढ़ सी आ गई है और मैं अपने आप को उसमें डूबता अनुभव कर रहा हूँ। यह स्मृतियाँ एक चलचित्र के दृश्यों की तरह मनःस्तल उभरती हैं फिर सागर की लौटती लहर की तरह अनन्त में लीन हो जाती हैं।
पहली स्मृति उनसे परिचय की है। ४ मई २००२ में टोरोंटो (कैनेडा) में हिन्दी साहित्य सभा का एक भव्य कवि सम्मेलन आयोजित किया गया। उन दिनों मैं कैनेडा की साहित्यिक गतिविधियों से अनभिज्ञ था परन्तु अंतरजाल पर सक्रिय था। अनुभूति-अभिव्यक्ति की सम्पादिका श्रीमती पूर्णिमा वर्मन जी ने मुझसे सम्पर्क करके इस कवि सम्मेलन के बारे में बताया और कहा कि मैं अनुभूति-अभिव्यक्ति के प्रतिनिधि के रूप में जाऊँ और इसकी रिपोर्ट लिखूँ। वहाँ पर पहली बार आदेश जी से परिचय हुआ और उनकी कविता सुनने को मिली। सच कहूँ तो मैं आश्चर्यचकित था कि कोई इस स्तर का कवि एक स्थानीय कवि सम्मेलन में काव्य-पाठ कर रहा था। कार्यक्रम के बाद मैं उनसे मिला। बातों-बातों में पता चला कि वह मेरे घर से कार द्वारा केवल तीन-चार मिनट की दूरी पर रहते हैं। अगले दिन उनके घर पर मिलना तय हुआ। इस तरह से मेरी वास्तविक साहित्यिक शिक्षा या यात्रा आरम्भ हुई। उनकी बातें सुनते हुए मैं विस्मित था और रोमांचित भी। मुझे दरवाज़े तक जब छोड़ने आए तो अनायास मैं उनके पाँव छूने के लिए झुकने लगा। वह पीछे हट गए, कहने लगे, “सुमन जी आप भी?” मैंने प्रश्न किया, “मैं क्यों नहीं? आप मुझसे बड़े हैं, साहित्य में गुरु समान है।” वह मुस्कुरा दिए, कहने लगे, “आपसे संबंध दूसरा होगा।” मैं समझा नहीं और लौट आया। घर आते ही मैंने उनकी कुछ कविताएँ टाईप करके पूर्णिमा वर्मन जी को भेजीं और उन्होंने आदेश जी को गौरव ग्राम में स्थान दिया।
इसके बाद टोरोंटो क्षेत्र के सभी साहित्यिक कार्यक्रमों में वह मेरे साथ ही जाते। आत्मीयता बढ़ती गई। आदेश जी तब तक दो महाकाव्य लिख चुके थे। अनुराग उनका पहला महाकाव्य था और दूसरा शकुन्तला था। शकुन्तला को मैंने एक पाठ्यक्रम की पुस्तक की तरह पढ़ा। मेरा हिन्दी का ज्ञान बहुत सीमित था। दसवीं कक्षा के बाद हिन्दी नहीं पढ़ी थी और रही-सही क़सर कैनेडा वास ने पूरी कर दी थी। केवल एक शब्दकोश का सहारा था। शकुन्तला हर शनिवार और रविवार को सुबह उठकर पढ़ता। हर पृष्ठ के कठिन शब्दों को एक पन्ने पर लिखकर शब्दकोश में उनके उत्तर देखने के बाद महाकाव्य के पृष्ठ को फिर से पढ़ता ताकि कविता समझ आ सके और उसे आत्मसात कर सकूँ। आदेश जी के शब्दों का भण्डार किसी भी शब्दकोश से बढ़ा था। जब शब्दकोश में अर्थ नहीं मिलता था तो उन्हें फोन करके पूछता। वह समझा देते। उन्हीं दिनों मैंने “हिन्दी चेतना” साहित्यिक पत्रिका में सह-सम्पादक के रूप में श्याम त्रिपाठी जी की सहायता करनी आरम्भ की थी। मैंने “शकुन्तला” की समीक्षा लिखी थी जो हिन्दी चेतना के तीन अंकों में पूरी हुई थी।
आदेश जी जब भी कुछ लिखते, जिसे वह किसी को तुरंत सुनाना चाहते, तो मुझे फोन करके पूछते, “सुमन जी कुछ कर रहे हैं क्या?” मैं समझ जाता और तुरंत उनके पास पहुँच जाता। उनके पास बैठ कर उनकी कविता का आनन्द लेता और अंत में वह आग्रह करते कि मैं भी कुछ सुनाऊँ। आदेश जी यह एक विशेषता थी, जितना वह नवोदित कवियों को प्रोत्साहित करते थे, मैंने किसी और प्रतिष्ठित कवि को करते नहीं देखा।
२००३ में मैंने साहित्य कुञ्ज का प्रकाशन आरम्भ किया तो वह बहुत प्रसन्न हुए। वह अपना तीसरा महाकाव्य महारानी दमयन्ती लिख रहे थे। प्रायः मुझे उसके अंश सुनाते और मेरी प्रतिक्रिया सुनने को उत्सुक रहते। कई बार मुझसे पूछते कि क्या यह कविता इस संदर्भ में सही रहेगी। मैं हैरान होता और बोलते हुए झिझकता कि इतने बड़े महाकवि की कविता के बारे में मैं क्या कह सकता हूँ। एक दिन उन्होंने भाँप लिया, बोले, “बेझिझक बोलो। मैं जानता हूँ कि आप झूठ नहीं बोलते। इसीलिए पूछ रहा हूँ।” मैंने भी स्पष्ट किया कि मुझमें आपकी कविता की आलोचना करने की योग्यता नहीं है। उन्होंने फिर आग्रह करते हुए कहा, “सुमन जी टोरोंटो क्षेत्र में केवल दो या तीन लोग हैं जो मेरी कविता को वास्तव में और सही रूप में समझते हैं, आप उनमें से एक हो।” मैं नतमस्तक हो गया। उसके बाद जब भी मुझसे उन्होंने कोई साहित्यिक परामर्श माँगा, मैंने अपनी समझ के अनुसार दिया।
फिर एक दिन फोन आया, “सुमन जी समय है क्या आपके पास। महारानी दमयन्ती की एक प्रति मेरे पास आई है।” मुझे उनका स्वर कुछ बुझा-बुझा सा लगा।
मैंने पूछा, “आदेश जी यह तो बहुत प्रसन्नता की बात है पर आप . . .”
उन्होंने कहा, “आप बस चले आइये।”
मैं जैसे बैठा था वैसे ही पहुँच गया। कमरे में आदेश जी और निर्मला जी बैठे थे और दोनों के चेहरे पर उदासी थी। उन्होंने महाकाव्य मेरे हाथ में पकड़ा दिया। आवरण देखा और मेरा दिल भी बैठ गया। मेरे चेहरे के भाव भी उन्होंने देखे बोले, “क्या कहते हैं आप? कैसा लगा?”
मैंने साफ़ कह दिया, “आदेश जी यह तो वैसा है जैसा कि ’चन्दामामा’ (बाल पत्रिका) की कहानियों के चित्र होते थे?”
बोले, “आपने ठीक कहा। आप महारानी दमयन्ती का आवरण चित्र बनाइये।”
मैं हक्का-बक्का रह गया। मैं कोई चित्रकार तो नहीं था। हाँ, मेरे पास पैड और स्टालिस था जिससे मैं डिजिटल आड़ी-तिरछी रेखाएँ खींचता रहता था। महाकाव्य “शकुन्तला” का आवरण हरिपाल जी का बनाया हुआ था। अब आदेश जी अपने तीसरे महाकाव्य के आवरण को बनाने का दायित्व मुझे सौंप रहे थे। निर्मला जी ने भी आग्रहपूर्वक कहा कि मैं ही बनाऊँ। मैं एक बोझ लेकर घर लौट आया। दो दिन के बाद उन्हें आवरण का चित्र दिखाया। उन्हें पसन्द आया।
आदेश जी के चौथे महाकाव्य “निर्वाण” और एक कविता की पुस्तक “मदिरालय” के आवरण भी मैंने ही बनाए।
आदेश जी की स्मृतियाँ तो इतनी हैं कि एक पुस्तक बन सकती है। मैंने उनसे बहुत कुछ सीखा। उन्होंने अपने पाँव छूने का अधिकार कभी भी मुझे नहीं दिया। कई बार मैंने हँसकर कहा भी– आदेश जी मैं एकलव्य की तरह हूँ; सीख रहा हूँ पर आपका शिष्य नहीं। वह भी मुस्कुरा देते। अन्तिम बार २८ नवम्बर को आदेश जी को ज़ूम पर देखा। अंतिम क्षणों तक हमें नहीं मालूम था कि वह आ पाएँगे कि नहीं। राइटर्स गिल्ड ने विश्वरंग सम्मेलन के अवसर पर कैनेडा के लेखकों के गद्य और पद्य के दो संकलन ई-पुस्तक के रूप में प्रकाशित किए थे। उसी का उत्सव हम उनकी उपस्थिति में मनाना चाहते थे। आदेश जी अपने बिस्तर से मीटिंग में आए। उन्होंने दो घंटे तक हर कवि की कविता सुनी और हर कविता पर टिप्पणी की। यानी आदेश जी अभी भी पुराने आदेश जी ही थे - प्रत्येक नवोदित कवि को प्रोत्साहित करते हुए। उपस्थित कवियों में से बहुत से ऐसे थे जिन्होंने आदेश जी के बारे में सुना ही था, आज साक्षात् उन्हें देखने का अवसर मिला। वह भी जान पाए कि आदेश जी किस तरह से प्रत्येक कवि की कविता का एक-एक अक्षर सुनते हैं, हर भाव को पकड़ते हैं और तब टिप्पणी करते हैं।
अंत में इसी संदर्भ में एक और संस्मरण लिख रहा हूँ। एक बार हम कवि गोष्ठी से लौट रहे थे। सदा की भाँति इस बार भी लौटते हुए रास्ते में कविताओं की ही चर्चा हो रही थी। आदेश जी ने कहा कि कविताओं के लेखन का स्तर बढ़ रहा है। मैं कुछ कवियों की कविता से खिन्न था। मैंने अचानक कह दिया, “आदेश जी आप हर कवि की रचना की प्रशंसा क्यों करते हैं? अमुक कवि तो आज अच्छा नहीं था।”
वह मुस्कुराए, “सुमन जी, मैं सबका स्तर भी समझता हूँ और उनके स्तर के अनुसार ही वाह करता हूँ।”
मेरे चेहरे पर प्रश्न देखकर बोले, “देखिए अगर कोई तीसरी कक्षा का विद्यार्थी आठवीं कक्षा के स्तर की बात कह दे तो मैं तो प्रशंसा करूँगा ही। अगर कोई एम.ए. में है तो मेरी अपेक्षा भी उसी स्तर की होगी।”
यह थी आदेश जी समालोचना प्रक्रिया। शेष फिर कभी।
एक बार फिर आप सभी को नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ!
– सुमन कुमार घई
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होम सुवेदी 2021/01/11 12:03 PM
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