प्रिय मित्रो,
पिछले कुछ महीनों से कुछ साहित्यिक मित्रों के साथ हिन्दी साहित्य के अँग्रेज़ी अनुवाद के महत्त्व पर चर्चा होती रही है। चाहे हमारे भारत में अँग्रेज़ी भाषा के प्रचलन के बारे में कितने भी संशय या आपत्तियाँ हों पर एक बात तय है कि विश्व की सम्पर्क भाषा के रूप में अँग्रेज़ी स्थापित हो चुकी है। अगर हम विश्व पटल पर हिन्दी साहित्य का परिचय प्रस्तुत करना चाहते हैं तो हिन्दी साहित्य का अँग्रेज़ी में अनुवाद होना और भी महत्त्वपूर्ण हो जाता है। इसी विषय पर अपने विचार प्रस्तुत करना चाहता हूँ और आपकी प्रतिक्रिया या चर्चा की अपेक्षा भी करता हूँ।
संचार के साधनों की प्रगति और सुलभता से विश्व छोटा हो गया है। दूरियाँ अब केवल भौतिक दूरियाँ ही रह गई हैं। आचार, विचार और व्यवहार मिश्रित होते दिखाई दे रहे हैं।
सोशल मीडिया की क्रांति वास्तविकता में वैचारिक क्रांति है। यह क्रांति विभिन्न देशों, संस्कृतियों और भाषाओं की सीमाओं को तोड़ते हुए विश्व को विश्वग्राम में परिवर्तित कर रही है। संस्कृतियाँ घुलमिल रही हैं। क्या यह चिन्ता का विषय है या हर्ष का? क्या हमें चिन्तित होना चाहिए कि भारतीय संस्कृति प्रदूषित हो रही है या हर्षित होना चाहिए कि इसमें नए आयाम जुड़ रहे हैं। वैसे भी किसी भी देश या प्रदेश की संस्कृति स्थानीय जनजीवन और सभ्यता की साझी और थाती में मिली समझ से ही उत्पन्न होती है। इस तथ्य को कहने के लिए हम कितनी भी विषम भाषा का प्रयोग कर लें पर मूल परिभाषा यही निकल कर आती है। सबका अपना एक अलग-अलग दृष्टिकोण हो सकता है। मेरा मत है कि हमें मानवीय संवेदनाओं का आदर करने वाले और इन्हें परिमार्जित करने वाले जीवन-मूल्यों को स्वीकार करना चाहिए, चाहे वह किसी भी संस्कृति या सभ्यता के हों। यह अवश्य है कि कई बार हम इन्हें ज्यों का त्यों स्वीकार नहीं कर पाएँगे क्योंकि जीवन मूल्यों को निर्धारित करने वाले कई बाह्य कारक भी होते हैं जैसे कि स्थानीय सामाजिक, राजनैतिक परिस्थितियाँ, धार्मिक, भौगोलिक और पर्यावरणीय प्रभाव इत्यादि।
सोशल मीडिया के बारे में भी आप सभी के मत अलग-अलग हो सकते हैं। यह व्यक्तिगत विचारों और मानसिकता पर निर्भर करता है कि इंटरनेट पर आप किस समूह के लोगों के साथ बातचीत करना चाहेंगे। अगर सोशल मीडिया न भी हो, तब भी हम यही तो करते हैं कि अपने-से लोगों से ही मिलना पसंद करते हैं। सोशल मीडिया बस एक विस्तृत पटल है और निर्णय आपको लेना है कि आप इसका उपयोग कैसे करते हैं।
अभी मैंने विस्तृत-पटल लिखा, यहाँ विस्तृत को इंटरनेट के संदर्भ में समझें, सीमा रहित, सम्पूर्णतः वैश्विक, निरंकुश! इस पटल पर आपकी बात कितने लोगों तक पहुँच पाती है उसका केवल एक बंधन है वह है भाषा का। है न आश्चर्य की बात, संवेदनाएँ एक-सी हैं, मूलतः समस्याएँ और उपलब्धियाँ एक-सी हैं जिन्हें हम सोशल मीडिया की छत पर चढ़ कर चिल्लाकर दुनिया से साझा करना चाहते हैं, पर भाषा की बेड़ी हमें छत पर चढ़ने ही नहीं देती। अगर छत पर पहुँच भी जाएँ तो वह भाषा नहीं बोल सकते जो अन्य संस्कृतियों के साथ सम्पर्क की भाषा है। यहीं पर हिन्दी साहित्य का अँग्रेज़ी अनुवाद महत्त्वपूर्ण हो जाता है।
अगस्त के द्वितीय अंक में दिनेश कुमारी माली का एक महत्त्वपूर्ण आलेख प्रकाशित हुए था—रेत समाधि : कथानक, भाषा-शिल्प एवं अनुवाद। इस आलेख में दिनेश जी ने साहित्य को मूल भाषा से किसी भी अन्य भाषा में अनूदित करने की प्रक्रिया में आने वाली समस्याओं की कुछ चर्चा की है।
मेरा विचार है कि किसी भी साहित्यिक कृति के अनुवादक के लिए रचना के सृजन की और अनूदित रचना की भाषा पर पूर्ण अधिकार होना आवश्यक है। इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण है कि उसे केवल भाषा ही नहीं बल्कि दोनों संस्कृतियों की समझ और दोनों भाषाओं के मुहावरे का ज्ञान होना भी अति आवश्यक है। मुहावरे को हम अँग्रेज़ी में स्लैंग या इडियम कहते हैं। हिन्दी से अँग्रेज़ी में अनुवाद की एक और विषमता है। हमने उर्दू के माध्यम से फारसी और अरबी भाषा के बहुत से शब्दों को दैनिक बोलचाल की भाषा में अपना लिया है यानी यह हिन्दी का मुहावरा बन चुकी भाषा है। हिन्दी के विदेशी छात्र क्या शुद्ध हिन्दी को सीखते हैं या दैनिक बोलचाल की प्रचलित भाषा सीखते हैं? और बहुत से शब्द, लकोक्तियाँ या मुहावरे स्थानीय बोली, संस्कृति या धर्म से उपजते हैं। इसका अर्थ यह है कि विदेशी अनुवादक के लिए साहित्य के सृजन की पृष्ठभूमि का सम्पूर्ण ज्ञान होना अनिवार्य हो जाता है जो कि लगभग असंभव ही है। फिर इसका समाधान क्या है? जहाँ तक मैं समझता हूँ संपूर्ण अनुवाद प्रक्रिया में अनुवाद और लेखक का निरन्तर संवाद अनिवार्य है। अनुवादक अनुमान से भावार्थ या शब्दार्थ नहीं लिख सकता अगर ऐसा होता है तो अर्थ का अनर्थ होने की सम्भावना निरन्तर बनी रहती है। अगर आप “रेत समाधि” के विषय में दिनेश कुमार माली का आलेख पढ़ेंगे तो उनके द्वारा दिए गए उदाहरणों से मेरा कथन प्रमाणित हो जाता है।
समय-समय पर यहाँ की कुछ अनुवाद करने वाली व्यवसायिक कंपनियाँ फ़िल्मों के अनूदित संवाद पुनरवलोकन के लिए मुझे भेज देते थे। कई बार ऐसा होता था कि फ़िल्म की डबिंग होने के बाद मुझे हिन्दी स्क्रिप्ट भेजी जाती थी। उसमें संस्कृति की नासमझी के कारण अर्थ का अनर्थ होता था। एक उदाहरण देना चाहूँगा। भारत में मुम्बई में दिखाई जाने वाली आई-मैक्स मूवी के लिए कैनेडा में खनन उद्योग से संबंधित एक-दो दृश्य दिखाए गए थे। खदान में चट्टानों को तोड़ने के लिए डाइनामाइट (बारूद) का उपयोग किया जाता है। चट्टान में ड्रिल से गहरा छेद करके उसमें डाइनामाइट भरकर खान मजदूर पलीते को आग लगाने के बाद भाग कर सुरक्षित दूरी पर चले जाते हैं। पलीते में आग लगाने के बाद वह ज़ोर-ज़ोर से बार-बार चिल्लाते हैं—फ़ायर इन द होल (Fire in the hole), अर्थात छेद में ठूँसे गए डायनामाइट के पलीते को आग लगा दी गई है, अतः सब लोग सुरक्षित स्थान पर चले जाएँ। भारतीय अनुवादक को न तो खनन उद्योग का पता था और न ही खनन उद्योग के मुहावरों का ज्ञान था। उसने फ़िल्म में पहाड़ में विस्फोट देखा, धुआँ देखा और चट्टानें उड़ती देखीं। उसने अनुवाद कर दिया, “भागो, भागो! पहाड़ी में आग लग गई।” जब मैंने फ़िल्म के निर्देशक को ग़लती का बताया तो उसने हताशा प्रकट करते हुए कहा कि “अब तो फ़िल्म डब हो चुकी है, रिलीज़ होने वाली है। अब इतना बड़ा संशोधन करना कठिन है। जैसी है चलने दो।” उसके बाद अन्य छोटी-छोटी ग़लतियों की मैंने चर्चा करना उचित नहीं समझा।
अब मैं लौट कर सोशल मीडिया पर आता हूँ। सोशल मीडिया से हम लोग विदेशी संस्कृतियों को केवल ऊपरी सतह तक जान पाए हैं। यह जानकारी अधूरी है और अधूरी जानकारी सदा अंततः हानिकारक ही होती है। कई भारतीय लोगों को देखता हूँ कि वह अँग्रेज़ी भाषा के मुहावरे/स्लैंग/इडियम का ग़लत प्रयोग करते हुए अपने मित्रमंडली में धाक जमाते हैं। ऐसा करते हुए वह दोनों भाषाओं यानी हिन्दी और अँग्रेज़ी दोनों का दुरुपयोग/अपमान करते हैं।
सम्पादकीय बहुत लम्बा हो रहा है। इसी शृंखला को अगले सम्पादकीय में आगे बढ़ाते हुए, भाषा, संस्कृति और स्थानीय बोली के संदर्भ में चर्चा करूँगा।
आपके विचारों की भी प्रतीक्षा रहेगी।
— क्रमशः
सुमन कुमार घई
टिप्पणियाँ
सरोजिनी पाण्डेय 2022/09/01 05:49 PM
संपादक महोदय हिंदी साहित्य का अंग्रेजी अनुवाद करके हम भारतीय विचारधाराओं को विश्व पटल पर अवश्य स्थापित कर सकते हैं ,इसमें दो राय नहीं हो सकती, परंतु जहां तक संस्कृति और माटी की गंध का सवाल है ,वह अनुवाद द्वारा संभव नहीं है जो उदाहरण आपने रेत समाधि का दिया है वह इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है।
राजनन्दन सिंह 2022/09/01 06:44 AM
अपनी बातों को वैश्विक बनाने के लिए हिन्दी को विश्व की अन्य भाषाओं में अनुवाद किया जाना बहुत जरूरी है और उससे भी ज्यादा जरूरी है विश्व की अन्य भाषाओं के महत्वपूर्ण साहित्यों का हिन्दी में अनुवाद होना। आज हम जापान की काव्य विधा 'हाईकु, हाइगा' इत्यादि से परिचित हैं। मगर विश्व में और भी अनगिनत काव्य विधाएँ संभव है जो वहाँ की भाषाओं में है और हमें नहीं मालुम। चीनी भाषा में भी ऐसी बहुत सी काव्य विधाएँ है जिसके बारे में दुनिया को नहीं पता। हिन्दी एवं भारत की अन्य भाषाओं के पास तो रस, छंद अलंकार इत्यादि का एक पुरा का पुरा काव्य शास्त्र है। जिससे दुनिया की अन्य भाषाओं का परिचय होना अभी शेष है। अभी इस वर्ष रेत समाधि को जो पुरस्कार मिला वह अनुवाद के बाद हीं संभव हो सका। इस संपादकीय का अनुवाद विमर्श बहुत हीं महत्वपूर्ण है। वैश्विक होना है तो भाषाओं का आदान-प्रदान एवं अनुवाद जरूरी है। बहुत जरूरी है।
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उषा बंसल 2022/09/01 11:48 PM
बहुत सही आकलन है। अनुवादक को बहुत सी बाधायें पार करनी होती हैं , तभी अनुवाद भावनात्मक स्तर पर कम प्रभावी हो पाते हैं। कई बार समाज में विकृत रुप में प्रचलित हो जाते हैं। बहुत विचारणीय रिश्वत है। आभार