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प्रिय मित्रो, 

आज सम्पादकीय तो मैं ‘आर्टिफ़िशल इंटैलिजेंस’ पर लिखने बैठा था। कुछ पंक्तियाँ लिख भी ली थीं कि नीरा, मेरी पत्नी, पूछने लगी कि आज हम लोग कौन-सी पंजाबी मूवी देखने जा रहे हैं? यह प्रश्न सुनते ही मैं एक क्षण के लिए रुका और मेरी विचारधारा की दिशा ही बदल गई। मन में एकाएक प्रश्न उठा कि पिछले दो-तीन महीने से मैं केवल पंजाबी फ़िल्में ही क्यों देख रहा हूँ? कल एक हिन्दी (बॉलीवुड) की फ़िल्म देखनी आरम्भ की और दस-पन्द्रह मिनट से अधिक उसे नहीं देख पाया। टीवी बन्द कर दिया और सोने चला गया। 

भारत में रहते हुए शायद मैंने तीन-चार से अधिक पंजाबी फ़िल्में नहीं देखीं। उन दिनों पंजाबी की फ़िल्में बनती ही कितनी थीं और जो बनती थीं वह भी बहुत घटिया होती थीं। ‘नानक नाम जहाज़ है’ संभवतः पहली फ़िल्म थी जो कि बहुत चली थी। प्रायः फ़िल्मों में एक बौना, एक भैंगा, एक अफ़ीमची, बेईमान पंडित और धूर्त्त मुनीम होना अनिवार्य था। कैनेडा आने के बाद भी (3 मई को 50 वर्ष हो जाएँगे) अभी तक पंजाबी फ़िल्म देखने का साहस नहीं कर पाया। परन्तु अब कहानी अलग है। 

मैं तो ख़ैर पंजाब में पला-बड़ा (खन्ना, लुधियाना) हुआ हूँ, परन्तु मेरी पत्नी नीरा तो दिल्ली में ही पली-बढ़ी है। अगर मैं पंजाबी फ़िल्मों में रुचि लूँ, तो स्वाभाविक है परन्तु अब तो नीरा भी, उन्हें शायद मुझसे अधिक पसन्द करती है। सम्पादकीय लिखते हुए एक प्रश्न मन में उठ रहा है—ऐसा क्या है पंजाबी फ़िल्मों में जो कि बॉलीवुड की “मैगाबजट” फ़िल्मों को पीछे छोड़ जाता है? मन के एक कोने से यह स्वर भी उठ रहा है कि साहित्य कुञ्ज एक साहित्यिक वेबसाइट है, उसमें आंचलिक सिनेमा की चर्चा क्या उपयुक्त रहेगी? अच्छा हुआ कि यह प्रश्न उठा और एक विचार प्रक्रिया आरम्भ हुई। 

साहित्य और सिनेमा एक दूसरे के पूरक भी हैं और एक दूसरे के पर्याय भी हैं। बस माध्यम अलग हैं। अच्छे और घटिया सिनेमा का अन्तर भी वही है जो कि श्रेष्ठ साहित्य और लुगदी साहित्य का होता है। वर्ष में मुट्ठी भर फ़िल्मों को छोड़ कर अधिकतर बॉलीवुड की फ़िल्में लुगदी साहित्य के वर्ग में ही आती हैं। मेरा आकलन है कि बॉलीवुड में दो प्रकार के निर्माता, लेखक, निर्देशक और अभिनेता/अभिनेत्रियाँ है। एक वर्ग केवल पैसे के दम पर फ़िल्मों को सफल बनाना चाहता है दूसरा वर्ग अपनी कार्य कुशलता, और कला कौशल के दम पर दिल को छूने वाले सिनेमा का निर्माण कर रहा है। आंचलिक सिनेमा में भी ऐसा ही होता होगा—पंजाबी सिनेमा में तो निस्संदेह ऐसा ही है। 

लिखित साहित्य में लेखक अपने शब्दों में ‘सन्नाटे से लेकर हृदय में तरंगित संवेदनाओं’ को बुनता है। परिदृश्य उकेरता है। सिनेमा में लेखक कथानक संवादों द्वारा आगे बढ़ाता है, संवेदनाओं का संप्रेषण अभिनय और कैमेरे की जादूगरी से होता है। साहित्य दोनों माध्यमों में रचा जाता है। 

अधिकतर फ़िल्में पंजाब के ठेठ ग्रामीण क्षेत्र की पृष्ठभूमि को दर्शाती हैं। अधिक से अधिक वह चंडीगढ़ अमृतसर या किसी क़स्बे से आगे नहीं बढ़तीं। हाँ, पंजाबी सिनेमा में अब ऐन आर आई और कैनेडा, इंग्लैंड इत्यादि का एक नया आयाम अवश्य जुड़ गया है। ऐन आर आई भी दो प्रकार के दिखाए जाते हैं। पहली प्रकार तो दूसरी पीढ़ी के प्रवासी हैं जो किसी कारण से पंजाब आते हैं और फिर वापस नहीं लौटते। दूसरी प्रकार उनकी है जो भारत शादी के बहाने ठगी करने के लिए आते हैं। दुर्भाग्यवश दूसरे वर्ग के ऐन आर आई अख़बारों की सुर्ख़ियों में अधिक आते हैं। 

ग्रामीण जीवन मेरा अपना जाना-पहचाना है, कुछ सीमा तक बचपन में जीया भी है और बहुत समीप से देखा भी है। पंजाबी सिनेमा के ग्रामीण पात्र मुझे जाने-पहचाने से लगते हैं। गाँवों को ज्यों का त्यों कैमरे में उतारना पूरी कहानी को स्वाभाविक बना देता है। लगता है कि इन गलियों में ही खेलते हुए बड़े हुए हैं। जिन दिनों हम लोग खन्ना में थे, तो क़स्बे के बाहरी क्षेत्र ग्रामीण क्षेत्र ही थे। वही कच्चे घर और गोबर से लीपे-पुते आँगन। कभी दोस्त के घर पहुँच गए तो दादी के हाथों की गुड़ की मिठास लिए काँसे के कटोरे में मिली दो घूँट चाय। (बच्चों को चाय नहीं दी जाती थी)। गली के एक कोने पर खेत था, प्रायः नहाने के लिए ‘हल्ट’ के हौदे पर चले जाते। किसी को कोई आपत्ति नहीं होती थी, बस साबुन लगाने की अनुमति नहीं होती थी। अब पंजाबी फ़िल्म देखता हूँ तो बस उसी समय में लौट जाता हूँ। 

अब तो बहुत कुछ बदल गया है। वही इन फ़िल्मों में दिखलाया भी जाता है। घर पक्के तो हो गए हैं परन्तु उनमें रहने वाले लोग मूलतः वैसे ही हैं। रीती-रिवाज़, रहन-सहन भी वही है। बैलगाड़ियों की जगह ट्रैक्टरों ने ले ली है। पंजाबी फ़िल्म को देखते हुए मुझे कई बार टीवी को “पॉज़” करके नीरा को समझाना पड़ता है या पंजाबी के मुहावर और लकोक्तियों के अर्थ बतलाने पड़ते हैं। 

एक बहुत बड़ा अन्तर मैं पंजाबी सिनेमा में देख पा रहा हूँ वह है भाषा/बोली का अन्तर। वास्तव में भारत विभाजन से पहले सिनेमा-नगरी लाहौर था। इसका प्रभाव पंजाबी सिनेमा की बोली पर भी था। इन फ़िल्मों की बोली ‘माझे’ की पंजाबी थी जो कि लाहौर, अमृतसर के इलाक़े में बोली जाती थी। ‘दोआबा’ और ’मालवा/वेट’ की बोली और उच्चारण पंजाबी होते हुए भी अलग है। वर्तमान की पंजाबी सिनेमा में पात्र की पृष्ठभूमि के अनुसार उसकी बोली भी सटीक होती है। कहानियों में भी विविधता है। पंजाब की समस्याओं से लेकर सफलताओं तक की कहानी कहता यह पंजाबी सिनेमा वास्तव में साधुवाद का पात्र है। 

अगर पूरे भारत का आंचलिक सिनेमा ऐसा ही हो जाए तो भारतीय होने की कहानी का यथार्थ इन फ़िल्मों में देखने को मिलेगा। 

— सुमन कुमार घई

टिप्पणियाँ

Anima Das 2023/05/14 11:24 AM

अत्यंत सुंदर एवं नव्य दिशा में गतिमान भावव्यक्ति.... आपको साधुवाद सर

Sarojini Pandey 2023/05/02 01:19 PM

आदरणीय संपादक महोदय, भारतीय सिनेमा की विकास यात्रा में पंजाब से आए लोगों का बहुत बड़ा योगदान रहा है ,चाहे वह अभिनय का क्षेत्र हो अथवा निर्माण और निर्देशन का ।शायद यही कारण है कि पंजाब की आंचलिक फिल्में बहुत जल्दी सही रास्ते पर आ गई। जिस क्षेत्र से मैं आती हूं वहां पर भोजपुरी भाषा बोली जाती है और इस भाषा को बॉलीवुड की फिल्मों में मूर्ख और नीचे तबकों के लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषा के रूप में प्रयोग किया गया। आज भी स्थिति कुछ विशेष बदली नहीं है। इस अंचल पर आधारित कुछ फिल्में बनी जिनमें भाषा तो भोजपुरी ना थी परंतु उस अंचल के रीति-रिवाजों ,मान्यताओं को बड़ी कोमलता और सहृदयता से उभारा गया, जिसमें एक थी नदिया के पार ,गंगा मैया तोहे पियरी चढ़ाइबो । गिनी चुनी फिल्मों ने इस भाषा और इस अंचल के साथ न्याय किया ।आजकल तो यह माहौल है की भोजपुरी फिल्में अश्लीलता का पर्याय मानी जाने लगी है। न जाने कब स्थिति में सुधार होगा ।आप भाग्यशाली हैं कि आपकी आंचलिक फिल्में अच्छी और प्रभाव कारी बन रही हैं। हमें अपनीआंचलिक फिल्मों के विकास की प्रतीक्षा है । काश आप विष्यवाणी निकट भविष्य में सत्य सिद्ध हो!!

प्रीति अग्रवाल 2023/05/01 08:11 AM

आदरणीय सुमन जी एक और सुंदर अंक और हमेशा की तरह एक और रोचक सम्पादकीय, हार्दिक बधाई स्वीकारें। "बच्चों को चाय नहीं दी जाती थी" आप की इस बात ने बचपन याद दिला दिया। जब पहली बार पूरा कप चाय पी थी तो सच मे लगा था जैसे आज हम 'एडल्ट'हो गए!!

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