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प्रिय मित्रो,

आज सुबह से रह-रहकर आनन्द की अनुभूति हो रही है। साहित्य कुञ्ज के लिए रचनाओं को सम्पादित करते हुए बार-बार रोमांचित हो रहा हूँ। कौन कहता है कि अच्छे साहित्य का सृजन नहीं हो रहा! साहित्य का सृजन तो हो रहा है बस पाठक को अपने पूर्वाग्रहों के चश्मों को पहले उतारना होगा। शब्दों के अर्थ कई बार पुराने मापदण्डों के खाँचों में सटीक नहीं बैठते। लेखक शब्द शिल्पी है, इसका अर्थ यह भी नहीं है कि वह शब्द बनाता है; वह बस शब्दों को नए अर्थ देता है। आप पूछ सकते हैं—क्या यह संभव है? बिल्कुल! संवेदनाएँ केवल दो रंगों यानी काली-सफ़ेद नहीं होतीं। वह मनोदशा के प्रिज़्म से जब झरकर हृदय में उतरतीं हैं तो वह विभिन्न रंगों बिखेरती हैं। फिर उस भाव को सम्प्रेषित करता शब्द केवल दो रंग का कैसे हो सकता है? शायद मेरे विचार इस अंक में शैली जी की कविता "शब्दार्थ" से प्रभावित हो रहे हैं। 

साहित्यिक पूर्वाग्रह शब्द में ही मुझे विरोधाभास प्रतीत होता है। शुद्ध साहित्य क्या किसी पूर्वनिश्चित सुनियोजित प्रक्रिया से पूर्वनिर्धारित परिकल्पना को प्रमाणित करने के लिए रचा जाता है? मेरे विचार से तो नहीं, यह संभव नहीं है। इस कथन में “शुद्ध साहित्य” की परिभाषा महत्त्वपूर्ण है। परन्तु यहाँ भी एक प्रश्न खड़ा हो जाता है कि परिभाषा को मान्यता कौन दे रहा है? क्या साहित्य की कोई परिभाषा सार्वभौमिक मान्यता प्राप्त कर सकती है? साहित्य में मान्यता का प्रश्न ही क्यों पूछा जाए? साहित्य को मान्यता कोई आलोचक नहीं बल्कि पाठक देता है। पाठक किसी रचना का आनन्द किसी निर्धारित मापदण्ड के अनुसार नहीं उठाता। यह आनन्द उस समय पाठक की क्षणिक मानसिकता तय करती है। मेरे अनुसार शुद्ध साहित्य वह है जो सभी विमर्शों को त्याग कर मानवीय अनुभवों और संवेदनाओं को प्रकट करे, मानवीय धर्म को निबाहे और मानव मन में कोई विकार उत्पन्न न करे। विमर्श भी बात तो मानवीय संवेदनाओं, अनुभवों और धर्म की करते हैं परन्तु सभी विमर्श किसी न किसी पूर्वाग्रह द्वारा ग्रसित होते हैं। साहित्य की मन्दाकिनी को वह इन पूर्वाग्रहों की सीधी रेखा में बाँध देते हैं। नदी का धर्म तो भूमि की सतह की ऊँचाइयों और ढलानों का अनुसरण करना है। संवेदनाओं की मन्दाकिनी पर पूर्वाग्रहों के बाँध उसकी प्रकृति से विलग कर देते हैं। इसलिए साहित्य में तो पूर्वाग्रह हो ही नहीं सकते। वही साहित्य शुद्ध साहित्य कहला सकता है जो किसी भी प्रकार के पूर्वाग्रह को नकार दे।

मैं कहाँ गम्भीर बातें करने बैठ गया।  इस समय तो अपने सौभाग्य पर प्रसन्न हो रहा हूँ, ईश्वर का धन्यवाद कर रहा हूँ। बार-बार शब्द कौंध रहे हैं, “कितने लोग होंगे, जिन्हें मनचाहा मिला होगा”। मैं भौतिक वस्तुओं की बात नहीं कर रहा। भौतिक तो ख़रीदा जा सकता है। भौतिक से आनन्द की अनुभूति होती है क्या? नहीं . . . आनन्द तो आत्मा की अनुभूति है। मैं कहाँ साहित्यिक चर्चा से अध्यात्म की ओर फिसलने लगा हूँ। सीधे शब्दों में मेरा आनन्द अच्छी रचनाओं को पढ़ने से पैदा होता है। सौभाग्यशाली इसलिए हूँ, कि कैनेडा में रहते हुए, भारत से सुदूर देश में हर सुबह कंप्यूटर ऑन करते हुए सोचता हूँ कि आज क्या अच्छा पढ़ने को मिलेगा! कौन-सा नया उभरता लेखक मेरी बात सुनने के लिए तैयार होगा और मेरी बिन माँगी सलाह को मानेगा! और यह सब मुझे दिन-प्रतिदिन मिल जाता है इसलिए मैं सौभाग्यशाली हूँ!

कभी अच्छी रचनाओं को पढ़कर रोमांच होता है तो किसी नए लेखक के प्रयास में मुझे सम्भावना दिखाई देती है। सन्तोष होता है कि साहित्य की नई पीढ़ी तैयार हो रही है। साहित्य और भाषा सुरिक्षित हाथों में है!

— सुमन कुमार घई

टिप्पणियाँ

Hindi Magazine 2022/06/06 04:21 PM

इस ब्लॉग को पढ़ कर अच्छा लगा, भारतीय साहित्य कही खोना नहीं चाहिए | आपको और भारत के साहित्य के बारे में जान न है तो हमारी वेबसाइट https://thehindi.in/ पर जाए.

राजनन्दन सिंह 2022/06/02 04:34 PM

"कौन कहता है कि अच्छे साहित्य का सृजन नहीं हो रहा! साहित्य का सृजन तो हो रहा है बस पाठक को अपने पूर्वाग्रहों के चश्मों को पहले उतारना होगा।" संपादकीय का यह वाक्य आधुनिक लेखन को बल एवं समृद्धि देता है। लेखन तो हो रहा है पर किसी कारणवश पर्याप्त पाठन नहीं हो रहा है। क्या अच्छा हो यदि हम सब पाठन भी करे। एक दुसरे को पढें और उस पर अपनी ईमानदार प्रतिक्रिया भी दें। स्वयं से बाहर निकलकर हमें देखना हीं होगा कि हमसे अच्छा और कहाँ? किसके द्वारा और क्या-क्या हो रहा है तभी हमारे पास एक सूची आएगी कि किसे पढना आवश्यक है और किसे नहीं। यह बात तो सही है कि यदि पाठन हीं नहीं होगा तो लेखन की समीक्षा कैसे होगी?

Sarojini Pandey 2022/06/01 09:17 PM

आदरणीय संपादक महोदय इस अंक के संपादकीय ने मेरा मन आह्लादित कर दिया ।बहुत दिनों से यह वह बात मेरे मन में चल रही थी कि वास्तव में साहित्य की परिभाषा क्या है? कई बार मन में यह भी आया कि साहित्य कुंज व्हाट्सएप ग्रुप पर यह प्रश्न पूछूँ परंतु संकोच वश ऐसा कर ना सकी।आज का संपादकीय पढ़कर मुझे यह संतोष हो गया कि मेरी तरह सोचने वाले और भी कई लोग हैं जो स्वयं साहित्यकार भी है ।मैं तो मात्र साहित्य में रुचि लेने वाली और कभी-कभी आत्म सुख के लिए कुछ लिख लेने वाली स्त्री हूँ। हार्दिक धन्यवाद।

पाण्डेय सरिता 2022/06/01 10:57 AM

संभावना की यात्रा चलती रहे....

महेश रौतेला 2022/06/01 08:36 AM

आपका यह कथन बहुत सुन्दर और सार्वभौमिक है- "मेरे अनुसार शुद्ध साहित्य वह है जो सभी विमर्शों को त्याग कर मानवीय अनुभवों और संवेदनाओं को प्रकट करे, मानवीय धर्म को निबाहे और मानव मन में कोई विकार उत्पन्न न करे।"

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