प्रिय मित्रो,
अवश्य ही आपको सम्पादकीय का शीर्षक विस्मित कर रहा होगा। इस बार सम्पादकीय नितांत असाहित्यिक ही कहा जाएगा परन्तु अव्यवहारिक नहीं है। विषय अरुचिकर होगा परन्तु साहित्यिक जगत के लिए स्वास्थ्यप्रद समझा सकता है। यह सम्पादकीय किस दिशा में जा रहा वह तो स्पष्ट नहीं लग रहा परन्तु अभी से स्पष्टतः यह किसी दवा का विज्ञापन अधिक लगने लगा। बात को इधर-उधर न भटकाते हुए सीधा मुद्दे पर आ रहा हूँ—हिन्दी की साहित्यिक वेबसाइट्स किस तरह से आर्थिक रूप से स्वसंपोषित हों। यह प्रश्न महत्त्वपूर्ण है। आइये इस विषय पर तनिक गहराई से विचार करें।
मूलतः आप किसी भी भाषा की साहित्यिक वेबसाइट्स को तीन या चार वर्गों में रख सकते हैं।
प्रथम वह वेबसाइट्स हैं जिनको केवल धनोपार्जन के लिए संचालित किया जाता है। मैं किसी वेबसाइट का नाम लिए बिना ही चर्चा कर रहा हूँ। आप इन्हें इन वेबसाइट्स पर प्रकाशित सामग्री से पहचान सकते हैं। प्रायः यहाँ प्रकाशित सामग्री सम्पादित नहीं होती। कई बार स्वप्रकाशन की सुविधा भी प्रदान की जाती है। यानी पूरा परिश्रम लेखक का ही होता है। आपका जो जी चाहे, बॉक्स में पेस्ट कर दें और वह प्रकाशित हो जाएगी। इन वेबसाइट्स की प्रोग्रामिंग बेहतरीन होती है, क्योंकि यह आपकी रचना की पीडीएफ़, या ई-पुस्तक की तरह प्रकाशित करेंगे चाहे पूरी पुस्तक में एक ही कहानी हो। प्रकाशित आवरण के नीचे आँकड़े भी प्रकाशित किए जाते हैं कि कितने लोगों ने पुस्तक पढ़ी। क्या यह आँकड़े सही होते हैं? नहीं यह संख्या संदिग्ध होती है। क्योंकि यह संख्या ‘हिट्स’ को दिखाती है, पाठकों की संख्या को नहीं।
हिट्स को समझना आवश्यक है। अगर आप इंटरनेट को समझना चाहें तो कल्पना करें कि यह एक मकड़ी के जाले की तरह है (इसीलिए इसे वेब कहते हैं)। पाठक एक मकड़ी की तरह जाले के किसी भी तंतु पर चलता हुआ, विभिन्न मार्गों से निर्दिष्ट स्थान या अभीष्ट स्थान तक पहुँच जाता है। इस मार्ग पर चलते हुए आपने जिन-जिन लिंक्स को क्लिक किया या जो-जो पेज आपके सामने खुले आपने उनको ‘हिट’ किया है। यहाँ मैं आपको एक और तथ्य से अवगत करवाना चाहता हूँ। यह हिट करने वाले सभी व्यक्ति नहीं होते। अधिकतर हिट करने वाले रोबोट, स्पाइडर और वेब क्रालर्ज़ होते हैं। आप पूछेंगे कि भला यह क्या है? चलिए थोड़ा समझाता हूँ। पूरे विश्व का डैटा विश्व भर के सर्वर्ज़ पर संचित, संकलित है। यह सभी वेब के माध्यम से एक दूसरे से संपर्क में रहते हैं, जैसे मैंने ऊपर मकड़ी के जाले का उदाहरण दिया है, ठीक उसी तरह। यह सभी सर्वर दुनिया भर के अन्य सर्वरों पर संकलित डैटा को ‘पोल’ करते रहते हैं यानी एक सूची बनाते रहते हैं, यह सूची खोज/सर्च के लिए उपयोगी होती है। जिस माध्यम से यह सूची संकलित होती है उसके लिए रोबोट, स्पाइडर या वेब क्रालर्ज़ को प्रयोग किया जाता है। इन नामों से यह मत समझिए कि यह कोई भौतिक चीज़े होतीं हैं बल्कि यह छोट-छोटे प्रोग्राम होते हैं, जो सर्वर्ज़ में जाकर डैटा संकलित करते हैं। यह प्रक्रिया क्षणिक होती है परन्तु इसे भी हिट मान लिया जाता है। एक ही डैटा रिकॉर्ड (आपकी रचना) को दिन में सैंकड़ों बार हिट किया जाता है। इसलिए व्यवसायिक वेबसाइट में लेखकों को प्रसन्न करने के लिए संख्या पाठकों की नहीं हिट्स की दिखाई जाती है। अब देखते हैं कि ये वेबसाइट्स किस तरह इस डैटा से पैसा अर्जित करती है।
पहला प्रत्यक्ष ढंग है। लेखक से शुल्क लेना। पाठक से शुल्क लेना। पाठक को रचना पढ़ने के लिए ऐप्प डाउनलोड अनिवार्य कर देना। इस ऐप्प पर एक दिन में पढ़ने के लिए रचनाओं की सीमा रख देना। इस सीमा से अधिक पढ़ने के लिए शुल्क की शर्त रखना। दूसरा अप्रत्यक्ष ढंग है कि रचना पढ़ने के लिए सदस्यता अनिवार्य होना, या अन्य शब्दों में सशुल्क स्बस्क्राइब करवाना। आपकी सदस्यता का व्यक्तिगत डैटा विज्ञापन करने वाली कम्पनियों को बेचने से भी मुद्रा अर्जित की जाती है। इस वर्ग की वेबसाइट्स ‘बिग बिज़नेस’ द्वारा संचालित होती हैं।
दूसरे पायदान पर आती हैं स्वनिर्मित वेबसाइट्स। अधिकतर यह उन प्रोग्रामरों द्वारा बनाई जाती हैं, जिनकी साहित्यिक रुचि तो होती है परन्तु उनकी कमाई का मुख्य स्रोत उनकी नौकरी होती है। आप इन्हें “हॉबी वेबसाइट्स” के वर्ग में रख सकते हैं। इन वेबसाइट्स का प्रकाशन अनियमित होता है। उसका कारण जीवन यापन की प्राथमिकताएँ होता है। इनकी वेबसाइट्स पर गूगल के विज्ञापन दिखाई देंगे। अगर आप सोचते हैं कि इन विज्ञापनों से वेबसाइट का ख़र्चा निकल जाता होगा, यह आपका भ्रम है।
तीसरा वर्ग है ब्लॉग्स का। इसके लिए प्रोग्रामर होना भी आवश्यक नहीं। कुछ कंपनियाँ आपको ब्लॉग स्पेस देती हैं। मौलिक रूप से ब्लॉग में डायरी जैसी सुविधा होती है। अगर आप ई-मेल लिख सकते हैं तो ब्लॉग भी संचालित कर सकते हैं। इसकी संरचना डायरी जैसी ही होती है क्योंकि आपकी रचनाएँ तिथि के क्रमानुसार संकलित होती हैं। इस पर भी गूगल के विज्ञापन दिखाई देते हैं। इस माध्यम का सबसे बड़ा आकर्षण, सुविधा का निःशुल्क होना है। ब्लॉगर को “होस्टिंग” या “डोमेन” का शुल्क भी नहीं देना पड़ता। होस्टिंग शुल्क—उस सर्वर का शुल्क है जहाँ आपका डैटा संकलित होता है। डोमेन शुल्क—आपकी वेबसाइट के नाम के कॉपीराइट का शुल्क है। यह दोनों शुल्क वार्षिक होते हैं। केवल ब्लॉग ही ऐसा माध्यम है, जहाँ यह सब निःशुल्क है। अन्य सभी वर्गों की वेबसाइट्स को यह शुल्क देने पड़ते हैं।
चौथा वर्ग है जिसमें साहित्य कुञ्ज जैसी वेबसाइट्स आती हैं। यह वेबसाइट्स किसी प्रोग्रामिंग कम्पनी से प्रकाशक अपनी रुचि अनुसार निर्मित करवाता है। होस्टिंग और डोमेन का शुल्क भी देता है। डैटा को सुरक्षित रखने के लिए एक अन्य शुल्क भी देता है। इस श्रेणी कि वेबसाइट्स को पहचानना आसान है। आप पाएँगे कि प्रकाशक/सम्पादक अपने लेखकों और पाठकों के साथ सम्पर्क में रहता है। रचनाओं की गुणवत्ता का ध्यान रखना प्रकाशक/सम्पादक की अपनी कुशलता पर निर्भर रहता है। इन प्रकाशकों का उद्देश्य हिन्दी साहित्य को इंटरनेट पर प्रस्तुत करना है। अधिकतर अपनी जेब से ख़र्च करके ही ऐसा कर पाते हैं।
लौट कर अब मैं इस सम्पादकीय के मुख्य उद्देश्य/विषय पर आता हूँ। प्रथम वर्ग को अगर छोड़ दें तो दूसरे और चौथे वर्ग की वेबसाइट्स को आर्थिक रूप से संपोषित करने आवश्यकता होती है। कुछ वेबसाइट्स के संचालक प्रायोजक खोज कर कुछ वार्षिक राशि का प्रबन्ध कर लेते हैं। परन्तु एक अन्य स्रोत भी है इस सम्पोषण का जिसमें पाठक वर्ग या हिन्दी साहित्य/भाषा प्रेमी सहायक हो सकता है। कैसे? यह मैं बताता हूँ।
आज के इंटरनेट के युग में हम बहुत सी ख़रीददारी ऑनलाइन करते हैं। आप ने भी अनुभव किया होगा कि जब भी हम इंटरनेट पर किस भी वस्तु या सेवा (सर्विस) के बारे में खोज/सर्च करते हैं, तो हमें स्क्रीन पर उसी वस्तु या सेवा के विज्ञापन दिखाई देने लगते हैं। उन विज्ञापनों के द्वारा ही हम उस वस्तु और सेवा की और अधिक जानकारी प्राप्त करते हैं और संतुष्ट होने के बाद ख़रीद भी लेते हैं। आप से आग्रह है कि अपनी प्राथमिक खोज के बाद अपनी मनपसन्द हिन्दी वेबसाइट पर जाएँ। वहाँ पर दिए गए विज्ञापनों पर क्लिक करके जानकारी प्राप्त करें और संतुष्ट होने पर ख़रीददारी करें। ऐसा करने से हिन्दी साहित्यिक वेबसाइट को विज्ञापनों से कुछ आमदनी होगी, इतनी तो नहीं कि पूरे ख़र्चे निकल जाएँ, परन्तु कुछ तो आर्थिक सहायता मिल ही जाएगी। एक बात का अवश्य ध्यान रखें—एक ही बार में या एक ही विज्ञापन पर निरंतर क्लिक मत करें। गूगल ऐसे क्लिक को पहचान जाता है और एक महीने तक के लिए विज्ञापन पर मिलने वाले पैसे पर प्रतिबंध लगा देता है। क्लिक स्वाभाविक होने चाहिएँ, केवल धनोपार्जन के लिए नहीं।
मेरा दृष्टिकोण है कि इंटरनेट पर विज्ञापन के माध्यम से पैसे बिखरे पड़े हैं, क्यों न हम उन्हें हिन्दी साहित्यिक वेबसाइट्स के लिए बटोर दें। इसे ही तो कहते हैं—हींग लगे न फिटकिरी और रंग भी . . .!
— सुमन कुमार घई
टिप्पणियाँ
धर्मपाल महेंद्र जैन 2024/05/01 05:16 PM
सहज और सरल भाषा में आपने बढ़िया तकनीकी जानकारी दी। आप जो अथक कर रहे हैं उसने हिंदी को कई अच्छे लेखक दिए हैं। हिंदी की वेब पत्रिकाओं में जो स्तरीय स्थान साहित्य कुञ्ज ने बनाया है, उसमें आपका श्रम झाँकता है। हार्दिक शुभकामनाएँ।
सुमन कुमार घई 2024/05/01 08:08 AM
राजनन्दन जी, एवं शैलजा जी, आपके विचारों और सहानुभूति के लिए धन्यवाद! कृपया एक ही बार में विभिन्न विज्ञापनों पर क्लिक मत करें। गूगल ऐसे क्लिक्स को पहचान लेता है। स्वाभाविक रूप से जब भी कोई रचना पढ़ें तो विज्ञापन पर क्लिक करके वह भी पढ़ लें । कुछ सेकेंड के लिए विज्ञापन पर रुकना आवश्यक होता है। बार-बार एक ही विज्ञापन क्लिक करने से गूगल विज्ञापन से मिलने वाले पैसे पर प्रतिबंध लगा सकता है।
राजनन्दन सिंह 2024/05/01 07:46 AM
बहुत हीं महत्वपूर्ण संपादकीय। जानकर विस्मय और थोड़ा दुख भी हुआ कि साहित्यकुञ्ज का पुरा खर्च अकेले संपादक महोदय की जेब से जाता है। पेज पर दिखनेवाले विज्ञापन लिंक को टोकने से कुछ सहायता मिल सकती है। परंतु संभवतः यह पर्याप्त नहीं होगा। फिर भी प्रत्येक पाठकों को कम से कम चालीस पचास बार विज्ञापन बाॅक्स खोलकर देखना चाहिए कि उसमें क्या है? निश्चय रुप से हीं हमारे काम की बहुत सी चीजें मिल सकती है। खरीदना जरूरी नहीं है। लिंक टोकना भी संभवतः हीट की गिनती बढा सकता है। साथ हीं मुझे लगता है कि कुछ समर्थ पाठकों एवं लेखकों को आर्थिक एवं संचालन सहयोग के लिए आगे आना चाहिए। क्योंकि साहित्यकुञ्ज एक समष्टिगत साहित्यिक यज्ञ है। जिसे अकेला एक हीं यज्ञमान लगभग पिछले दो दशकों से निरंतर करता आ रहा है।
शैलजा सक्सेना 2024/05/01 03:08 AM
आपने वेबसाइट्स के प्रकार बता कर जानकारी दी, उसके लिए धन्यवाद। नि:संदेह अपने पैसे खर्च करके हर पंद्रह दिन में अनेक रचनाओं को केवल अपने अकेले के श्रम से प्रकाशित करना बहुत बड़ा काम है। रचनायें प्राय: ऐसी रोचक होती हैं कि विज्ञापन पर निगाह ठहरती नहीं। लेकिन आपकी बात सही है कि यदि उससे वेब पत्रिका को लाभ हो सकता है तो देखना चाहिए। आपका श्रम, समय, ऊर्जा और धन साहित्य के इस महायज्ञ में वर्षों से आहुति रूप जा रहा है, यह अद्भुत और प्रणम्य है।
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मधु शर्मा 2024/05/01 10:15 PM
यह कदापि उचित नहीं है कि कोई संपादक 24/7 कड़ा परिश्रम भी करता रहे और ऊपर से समय पर पत्रिका प्रकाशित करने के लिए अपनी ही पूँजी लगाता रहे। आपके इस सम्पादकीय से विज्ञापनों से सम्बंधित नयी जानकारी मिली। एक पाठक होने के नाते मेरा पूरा सहयोग आपको मिलेगा ही। भगवान न करें यदि फिर भी ऐसी कभी स्थिति आन पड़ी तो रचनाएँ पढ़ने के साथ-साथ भेजने के लिए यदि शुल्क भी देना पड़ा तो बेझिझक आदेश दीजिएगा।