प्रिय मित्रो,
वर्ष का पहला महीना बीत भी गया। समय कितनी तेज़ गति से भागता है। समय की अवधारणा क्या है, क्या समय की परिभाषा वैश्विक रूप से नैसर्गिक है? क्या मानव समय को अपने साँचे में ढाल लेता है ताकि वह समय को समझ सके। क्या वास्तव में मनुष्य समय को अपने साँचे में ढालता है या समय व्यक्ति को अपने साँचे ढालता है। यह प्रश्न भी उलझाने वाला है। यह प्रश्न ही व्यक्तिपरक है। ठीक अल्बर्ट आइंस्टाइन के सापेक्षता के सिद्धांत की तरह। समय की गति कम और अधिक होती रहती है परिस्थितियों के कारण।
संपादकीय बहुत अधिक अमूर्त विचार पर आधारित हो रहा है। यह विचार मन में उठा ही क्यों? सोच रहा हूँ . . .
पूरा अंक समेट चुका था। बाहर तापमान शून्य के आसपास था। हिमपात हो रहा था। जब तापमान शून्य के आस-पास होता है हिमकण रूई के फाहे की तरह हल्के नहीं होते बल्कि गीले होते हैं। इसे वैट स्नो (wet snow) कहा जाता है। लगभग वैसी ही जैसे कि हम बचपन में बर्फ़ के गोले खाते थे . . . हाँ वैसी ही।
आज शुक्रवार की सन्ध्या को निर्धारित था कि मेरा बेटा सुमित, युवान और मायरा को हमारे पास छोड़ जाएगा ताकि वह दम्पती अपने अटके हुए काम पूरे कर सके। नीरा, मेरी पत्नी, गैराज में अपने प्रिय पोते की प्रतीक्षा में बाहर खड़ी थी। युवान दादी-दादी पुकारता हुआ गाड़ी में से निकला। उसकी आवाज़ सुनकर मैंने जैसे ही गैराज का दरवाज़ा खोला, मायरा घर में प्रवेश करने वाली सीढ़ियों पर खड़ी मिली। बाहर युवान बर्फ़ के ऊपर गुलाटियाँ मार रहा था। मैंने मायरा से पूछा,”बाहर नहीं खेलना क्या?”
उसका संक्षिप्त उत्तर था, “नो।”
“क्यों?”
“इट इज़ कोल्ड।”
वह कह तो ठीक रही थी। मैंने उसे कहा, “चल सामने वाली खिड़की से देखते हैं।” युवान कभी स्नो बाल बना कर दादी पर फेंकता या वैसे ही उछल-कूद करता। फिर बर्फ़ पर लेट कर स्नो एंजल बनाने लग गया। यहाँ बताता चलूँ कि स्नो एंजल होता क्या है। बच्चे बर्फ़ के ऊपर हाथ पाँव फैला कर लेट जाते हैं और अपनी बाँहों और टाँगों को पक्षी के परों की तरह खोलते और बंद करते हैं। इससे जो आकृति बर्फ़ की सतह पर बनती है वह लगभग पंखों वाले फ़रिश्ते की होती है। यह होता है स्नो एंजल! सोचने लगता हूँ—युवान ने जब होश में पहली बार हिमपात देखा था उसका विस्मित चेहरा अभी तक याद है। हम दोनों उसकी देखभाल करने के लिए अपने बेटे के घर में थे। हिमपात देख कर मैं युवान को गोद में उठा बालकनी में ले गया था। उसकी गोल गोल विस्मित आँखें कभी झरती बर्फ़ को देखतीं और कभी मेरी आँखों पर आ टिकतीं। मैंने उसका खुला हाथ कुहनी से पकड़ कर आगे बढ़ा दिया ताकि बर्फ़ उसकी हथेली पर गिर सके। उसने बर्फ़ की ठंडक को महसूस किया, फिर उस तरलता को भी, जो उसकी उष्णता से उसकी हथेली पर पानी बन चुकी थी। और आज वही युवान बर्फ़ पर बंदरों की तरह गुलाटियाँ मार रहा है। समय कितनी शीघ्रता से बीत रहा है।
शाम के खाने के बाद बच्चे जा चुके हैं। मैं कम्प्यूटर पर बैठा अपने आँखों को हथेलियों से ढाँप, कुहनियों को मेज़ पर टिकाये, आज के सम्पादकीय के विषय को खोज रहा हूँ। समय कितनी द्रुत गति से भाग रहा है। एक विरोध का स्वर उभरा—कैसे कह सकते हो कि समय गति तेज़ है? जबसे सेवानिवृत्त हुए हो, कभी कहने लगते हो कि समय काटे से नहीं कटता। दोनों हाथ पीठ के पीछे बाँधे एक कमरे से दूसरे में घूमते रहते हो। फिर नीरा के पास पहुँच कर दार्शनिक बन जाते हो—अब क्यों फ़िजूल में जीए जा रहे हैं। जो करना था कर चुके। दोनों बेटे सैटल हो गए। पोते पोतियों के साथ खेल लिए। अब क्यों और जीए जाना है?
नीरा पलट कर मेरी तरफ़ देखती है, उसकी आँखों में शरारत भरी चमक है, कहती है, “तो फिर? . . .”
यह उसका उत्तर है या उसने भी अपना एक प्रश्न मेरे सामने उछाल दिया है, ठीक बॉलीबाल की तरह।
यह समय का दूसरा रूप है। जहाँ अमूर्त प्रश्न होते हैं अमूर्त उत्तर होते हैं और अमूर्त वक्तव्य होते हैं।
यह समय का सापेक्षता का सिद्धांत है जो व्यक्तिपरक है। समय की कोई परिभाषा नहीं।
मैं भी वार्तालाप को उलझा देता हूँ, “दो जिस्म एक जान हैं हम. . .” और पीठ के पीछे बाँधे पलट कर चल देता हूँ।
इस बेतुके समय पर बेतुके वाक्य को क्या वह समझेगी? क्या यह वाक्य समझा भी जा सकता है या बस यूँ ही कहने को कह दिया। इसे वही समझ सकता है जो अल्बर्ट आइंस्टाइन के सापेक्षता के सिद्धांत को समझता हो।
—सुमन कुमार घई
टिप्पणियाँ
हेमन्त 2025/02/02 10:34 PM
आचार्य रजनीश ने इस सिद्धांत पर सरल तरीके से प्रकाश डाला है।प्रेमिका के हाथ को पकड़ कर बैठने पर घंटों बीत जाने पर भी ऐसा लगता है जैसे कुछ ही क्षण हुए हैं।और जलते हुए स्टोव पर सैकिंड हाथ रखने पर वह ऐसा प्रतीत होता है कि पता नहीं कितनी देर हो गई। कहने का तात्पर्य यह है कि मन पसंद समय द्रुतगति से बीतता है। और दुख का समय, चाहे क्षण का ही हो बीतता ही नहीं। ----हेमन्त।
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अब क्यों फ़िजूल में जीए जा रहे हैं। जो करना था कर चुके...", इस मनोरम सम्पादकीय की यह पंक्ति पढ़कर अंताक्षरी खेल आरम्भ करने समय की पंक्ति याद आ गई, 'समय बिताने के लिए करना है कुछ काम..।' इस संदर्भ में पाश्चात्य व पूर्वी देशों की कुछ विचारधाराएँ जीवन के प्रति विभिन्न नहीं। हम भारतीय जब अपने-अपने पारिवारिक कर्तव्यों को बहुत प्रसन्नता व मन से निभा रहे होते हैं, तो समय पंख लगाए फुर्र से उड़ान भरता महसूस होता है। परन्तु कर्तव्य पूरे होते ही हमारा समय थम सा जाता है। संभवत: इसीलिए हमारे शास्त्रों में गृहस्थ-आश्रम के उपरान्त वानप्रस्थ-आश्रम की महत्ता बताई गई है। और उसी से मिलती-जुलती पाश्चात्य रीति के अनुसार सेवानिवृत्त होते ही या तो किसी न किसी लोक-सेवा में स्वयं को भर्ती करवा लेना, या फिर बोरिया-बिस्तर बाँध पर्यटन के लिए निकल जाना (जो सभी के लिए सम्भव नहीं) शेष जीवन बिताने हेतु ये दो-एक समाधान लोग अपना लिया करते हैं। आदरणीय सुमन जी ने तो अपना सारा समय परिवार और साहित्य-सेवा के लिए अर्पित किया हुआ है...इसलिए आप 'फ़िज़ूल' में जीये नहीं जा रहे, अपितु इतने महत्वपूर्ण उद्देश्य को लेकर एक लक्ष्य की ओर अग्रसर हैं।