प्रिय मित्रो,
साहित्य कुञ्ज ने 5 फरवरी 2022 को “कैनेडा का हिन्दी साहित्य” विशेषांक प्रकाशित किया। इसके लिए डॉ. शैलजा सक्सेना और श्रीमती आशा बर्मन जी कई महीनों से काम कर रही थीं। यद्यपि वह आरम्भ से ही सामग्री को अपलोड करने के लिए मुझे भेजती रही थीं, परन्तु कुछ कारणों से मैं उतनी गति से अपलोड नहीं कर पाया जितनी गति से वह मुझे भेज रही थीं। फरवरी के पहले अंक के प्रकाशन के बाद तय हुआ कि अब हम इस विशेषांक को और नहीं रोक सकते; हमें हर दशा में इसे 5 फरवरी 2022 को प्रकाशित करना ही है। फिर युद्ध-स्तर पर काम शुरू हुआ और अंततः समय पर प्रकाशित हो गया। ऐसे विशेषांकों के प्रकाशन के बाद का अनुभव वैसा ही होता है जो बेटी की डोली विदा होने के बाद माँ-बाप का होता है। शारीरिक और मानसिक शैथिल्य होते हुए भी संतोष की भावना के आनन्द से प्लावित अन्तर्मन पूरे परिश्रम की प्रक्रिया को उचित ठहरा देता है।
एक विशेषांक को प्रकाशित करने के लिए पूरी टीम कितना समय अपने परिवार और व्यक्तिगत जीवन से निकाल प्रक्रिया में लगाती है, उसका अनुमान भी लगाना कठिन है। यह केवल कहने की बात नहीं है क्योंकि यह वास्तविकता है। जिस दिन शैलजा का फोन करके मुझे अगले विशेषांक के विषय के बारे में बताती हैं, उससे पहले ही वह कितना समय इस निर्णय तक पहुँचने के लिए लगा चुकी हैं, वह मैं भी नहीं जानता। साहित्य प्रकाशन केवल शारीरिक परिश्रम नहीं है; इसके लिए मानसिक, आत्मिक ऊर्जा भी निवेश करनी पड़ती है। यह मेरा व्यक्तिगत अनुभव है। कई बार यह प्रश्न स्वयं से पूछता हूँ कि यह अगर यह काम मुझे जीविकोपार्जन के लिए करना पड़ता तो क्या मैं करता? भारत में रहते हुए करना अलग बात है और विदेश में रहते हुए करना अलग बात है। इन दो अनुभवों और वास्तविकताओं की तुलना करना असम्भव है। कई बार मैं अपने आपको सौभाग्यशाली मानता हूँ कि इस परियोजना की यात्रा के लिए मुझे सही समय पर सही सहयात्री मिलते गए। परिणामस्वरूप वर्तमान का साहित्य कुञ्ज आपके सामने है। यह प्रेम-परिश्रम है जिसमें स्वार्थ या व्यक्तिगत लाभ का अंश मात्र भी नहीं है, अन्यथा यह सफलता कभी मिलनी सम्भव ही न होती।
जिस दिन डॉ. शैलजा सक्सेना ने कैनेडा के हिन्दी साहित्य के विशेषांक प्रकाशन की प्रस्तावना की थी उसी दिन हम दोनों इस बात पर सहमत थे कि यह उचित समय है। यह उचित समय है क्योंकि अब कैनेडा का साहित्य इस स्तर पर है कि हम इसे समग्र रूप से विश्व मंच पर प्रस्तुत कर सकते हैं। इस स्तर पर पहुँचने की यात्रा तो दो-तीन दशक पहले आरम्भ हो चुकी थी। परन्तु मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि इस स्तर तक पहुँचने के लिए एक मुट्ठी भर ही कर्मठ लोग थे। संस्थाएँ बनीं, लुप्त हुईं पर यह टीम, साझी समझ और ऊर्जा निरन्तर बनी रही। कई बार कैनेडा के साहित्यिक स्तर पर चर्चाएँ हुईं, ईमानदारी से आलोचना हुई और स्तर को सुधारने के लिए प्रयासरत भी रहे। यहाँ के साहित्य जगत का सौभाग्य था कि कुछ लेखक कैनेडा में आने से पहले भी भारत में प्रकाशित होते रहे थे। परन्तु उन्होंने भी कैनेडा के समाज में अपनी जड़ें जमाईं और अपने साहित्य को इस भूमि के साथ जोड़ा। यहाँ के समाज की परछाईं पूर्ण रूप से उनके साहित्य में भी दिखती है। स्थापित लेखक जब ऐसा करते हैं तो वह अपने अर्जित यश को दाँव पर लगाते हैं। बहुत आसान होता है कि भारत में प्रकाशित होने के लिए केवल भारत के अनुभव को ही प्रस्तुत करना। बहुत कठिन होता है प्रवास के बाद अपनाई कर्म भूमि के अनुभव को भारत में प्रकाशित करना। और इस स्तर पर प्रकाशित करना कि भारत के पाठक और आलोचक उसे समझ सकें और जुड़ सकें। अँग्रेज़ी साहित्य में तो यह सदियों से होता रहा है, परन्तु हिन्दी का विदेशों में इतिहास उतना पुराना नहीं है। एक दशक पहले तक भी कैनेडा में जो लिखा जा रहा था अधिकतर उसकी पृष्ठभूमि भारत ही रहती थी। इसके कई कारण थे। एक तो अभी इस भूमि पर अनुभव इतना गहरा नहीं था कि इस भूमि से जुड़ सकें। दूसरा भारत के साहित्यिक समाज द्वारा स्वीकृति का मोह भी भंग नहीं होता था।
यह मोहभंग इंटरनेट के आगमन के बाद आरम्भ हुआ। क्योंकि अब प्रवासी लेखक को प्रकाशन के लिए भारत के साहित्यिक समाज की सत्ता की स्वीकृति की आवश्यकता नहीं रही थी। हम लोग स्वयं अपना लिखा प्रकाशित कर सकते थे। यह भी ऐतिहासिक तथ्य है कि हिन्दी का वेब प्रकाशन विदेशों में आरम्भ हुआ। चाहे वह न्यूज़ीलैंड का ’भारत दर्शन’ हो या न्यू यॉर्क से प्रकाशित ’बोलो जी. कॉम (अब हिन्दी नेस्ट.कॉम)’ हो। फिर शारजाह से ’अनुभूति-अभिव्यक्ति हिन्दी.ऑर्ग’ हो या कैनेडा से प्रकाशित ’साहित्यकुंज.नेट’ हो। इन अंतरजाल के प्रकाशनों ने भारत के प्रकाशित प्रसिद्ध लेखकों को और विदेशों में लेखन की सम्भावना खोजने वाले नवोदितों को एक ही पटल पर प्रकाशित किया। प्रवासी साहित्य की भारत की साहित्यिक मुख्यधारा में स्वीकृति की यात्रा फिर भी आसान नहीं थी। अपने लेखन के स्तर को भारत के लेखकों के समकक्ष रख पाना परिश्रम की कहानी है।
मैं इस समय कुछ लोगों के नाम लेने का साहस कर रहा हूँ जिन्होंने विदेशों में लेखन को परिष्कृत करने के लिए सक्रिय भूमिका निभाई। विदेशों में हिन्दी साहित्य के इतिहास की चर्चा करते हुए इन नामों का ज़िक्र करना बहुत आवश्यक है। सबसे पहले मैं पूर्णिमा वर्मन जी की बात करता हूँ। अनुभूति-अभिव्यक्ति के द्वारा उन्होंने साहित्यिक लेखन पर आलेख प्रकाशित किए, कई कार्यशालायें आयोजित कीं जिन्हें उन विधाओं के विद्वानों ने संचालित किया। दूसरा नाम यू.के. साहित्यिक कर्मियों का लेता हूँ जिन्होंने इंटरनेट को यू.के. के साहित्य को विश्व मंच पर प्रस्तुत करने का माध्यम बनाया। तेजेन्द्र शर्मा, दिव्या माथुर कुछ ऐसे नाम हैं जिन्होंने अन्य देशों में रह रहे हिन्दी साहित्य के लेखकों के साथ सेतुओं का निर्माण किया। पहले यह लोग अनुभूति-अभिव्यक्ति से जुड़े और बाद में साहित्य कुञ्ज.नेट के आरम्भ होने पर इन्होंने साहित्य कुञ्ज को सफल बनाने में भूमिका निभाई। कैनेडा के लेखन को इंटरनेट पर प्रस्तुत करने के लिए साहित्य कुञ्ज ने भी यही भूमिका निभाई। डॉ. शैलजा सक्सेना आरम्भिक दिनों से ही साहित्य कुञ्ज यानी मेरी निरन्तर परामर्शदाता बनी रहीं। जब कोई सफल होता है तब परामर्श देने वालों की भीड़ इकट्ठी हो जाती है। परन्तु जो परामर्शदाता इस सफलता तक उँगली पकड़ कर ले जाते हैं, उनके आगे मैं नतमस्तक होता हूँ।
आज प्रवासी साहित्य की जब भी बात होती है, तो पुरानी स्मृतियों की बाढ़-सी आ जाती है। अब हम में से कुछ लोगों की उम्रें सत्तर के आसपास हो रही हैं। पीछे पलट कर अपनी ग़लतियों की समीक्षा भी करते हैं और अपनी सफलताओं पर प्रसन्न भी होते हैं। यह साहित्यिक इतिहास है जिसे हमने जिया है। उन अनुभवों कि चर्चा फिर कभी . . .। क्योंकि इंटरनेट पर हिन्दी के इतिहास को भी ईमानदारी से लिखने का दायित्व उन्हीं लोगों का है जिन्होंने इसकी नींव रखी। इंटरनेट पर हिन्दी और आधुनिक प्रवासी साहित्य सहयात्री हैं।
— सुमन कुमार घई
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अरुण मिश्र 2022/05/23 12:44 PM
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