प्रिय मित्रो,
जैसा कि आप जानते ही हैं कि साहित्य कुञ्ज पंक्चुएशन और वर्तनी सही करने के उपकरण (Utilities) बनवा रहा है। इस प्रक्रिया में इन दो उपकरणों के अतिरिक्त ऑनलाईन शब्दकोश की सुविधा भी विकसित होगी। पहले भी इसके बारे में चर्चा कर चुका हूँ पर आज सुबह एक फोन कॉल के बाद विचारों की एक झड़ी-सी लग गई।
मैं अपने आप से फिर से प्रश्न पूछने लगा कि क्या इसकी आवश्यकता है? क्या इस समय ऐसे अन्य उपकरण उपलब्ध हैं जो हिन्दी में प्रूफ़रीडिंग कर सकें, और त्रुटियाँ सुधार सकें? पंक्चुएशन सुधारने की भी अत्यन्त आवश्यकता है। अँग्रेज़ी भाषा में यह तीनों सुविधायें बहुत पहले से उपलब्ध हैं। हो सकता है कि इन उपकरणों के अन्वेषण से लेकर उन्हें ऑनलाईन तक लाने में बहुत से भारतीय आईटी इंजीनियरों का हाथ हो। विडम्बना है कि भारतीय, आईटी पटल पर छाये हुए हैं परन्तु हिन्दी के लिए वो सुविधाएँ उपलब्ध नहीं हैं जो कि अँग्रेज़ी या अन्य युरोपियन भाषाओं के लिए हैं। इसका कारण हिन्दी भाषा की कुछ तो जटिलता है दूसरा कारण हिन्दी तन्त्र में ढाँचागत प्रबन्धन न होना है।
जब मैं कहता हूँ कि हिन्दी भाषा जटिल है; कुछ लोग मुझसे यह कहते हुए सहमत नहीं होंगे कि “हिन्दी, वैज्ञानिक दृष्टिकोण से विकसित भाषा है”। मैं इस कथ्य से सहमत हूँ। परन्तु मैं यह भी समझता हूँ कि कंप्यूटर किस तरह से काम करता है। थोड़ा विस्तार से बताता हूँ। कंप्यूटर डिजिटल इलेक्ट्रॉनिक्स पर आधारित उपकरण है। हम सब जानते हैं कि बिजली दो प्रकार की होती है – एसी और डीसी। कंप्यूटर एक विशेष प्रकार के एसी करंट पर आधारित है जो साइन वेव न होकर स्कुएर वेव की तरह चलती है। इसकी आवश्यकता इसलिए होती है क्योंकि डिजिटल लॉजिक एक बिजली के स्विच की तरह होता है। यह स्विच या ऑन होता या ऑफ़ होता है और एकदम होता है। इसे इस तरह से भी समझा जा सकता है कि एसी वेव शून्य से पन्द्रह वोल्ट पर धीरे-धीरे एक लहर की तरह उठती और और चरम पर पहुँच कर एक निर्धारित आर्क पर वापिस शून्य तक पहुँचती है। दूसरी ओर स्कुएर वेव एक ही झटके में शून्य से पन्द्रह और पन्द्रह से शून्य हो जाती है, ठीक एक स्विच की तरह। हम शून्य को ऑफ़ और पन्द्रह को ऑन मान सकते हैं। इसी तर्क या लॉजिक को आगे बढ़ाते हुए शून्य को ’शून्य’ और पन्द्रह को ’एक’ कहते हैं। कंप्यूटर का पूरा कोड इस 0 और 1 पर ही आधारित है। इसे बाइनरी कहते हैं और यह संख्या गिनने की एक पद्धति है। इसके विकसित प्रारूप ऑक्टल और हैक्साडैसिमल इत्यादि हैं।
अँग्रेज़ी भाषा में मात्राएँ नहीं होतीं यानी वर्णमाला के वर्ण हमेशा अपने शुद्ध रूप में रहते हैं। अगर वर्णमाला में 26 वर्ण हैं तो कंप्यूटर इंजीनियर को केवल 26 कोड बनाने होंगे। हिन्दी में पहले ही वर्णमाला में 13 स्वर, 35 व्यंजन व 4 संयुक्त व्यंजन हैं। अब इनमें मात्राओं की विभिन्न सम्भावनाएँ जोड़ दें। आपको अनुमान हो गया होगा कि यह काम कितना जटिल है। यह विषमता अभी शुद्ध हिन्दी की वर्णमाला की है। अब इसमें उर्दू के नुक़्ते को भी जोड़ दें। यह तो समस्या का तकनीकी पक्ष है, जो कि आसान पक्ष है। भारतीय इंजीनियर इसे आसानी से सुलटा चुके हैं तभी तो हम यूनिकोड में टाइप कर पा रहे हैं।
हिन्दी के लिए पंक्चुएशन और वर्तनी सुधार के उपकरण बनाने में सबसे बड़ी समस्या नियमों की है। नियम भी साधारण सी बात है कि तय कर दिए जाएँ और सभी उनका अनुसरण करें।
पहले पंक्चुएशन की बात करते हैं। मैं हमेशा अँग्रेज़ी की उदाहरण इसलिए देता हूँ क्योंकि इस भाषा को प्रयोग करने वाले अनुशासित है और अधिकतर पंक्चुएशन का सही उपयोग करते हैं और अगर नहीं भी करते तो उनके पास उपकरण और एप्प्स उपलब्ध हैं जो कि यह काम कर देते हैं। अब हिन्दी की बात करते हैं। हिन्दी में पंक्चुएशन अँग्रेज़ी भाषा से आई है। संस्कृत में तो अर्द्धविराम और पूर्णविराम ही थे। मेरा मानना है कि हमें अँग्रेज़ी के नियमों को ही अपनाना चाहिए। इसका सीधा सा कारण है कि अँग्रेज़ी वालों ने इनका अन्वेषण सोच समझ कर किया होगा। वह इसका उपयोग सदियों से कर रहे हैं और सैंकड़ों वर्षों में यह प्रणाली विकसित हुई है। तो इसे क्यों न अपनाया जाए? जैसे कोई भी भाषा समय के साथ विकसित भी और होती और परिष्कृत भी होती है। वैसा ही पंक्चुएशन के साथ भी हुआ। औद्योगिक क्रान्ति में टाइपराइटर का आविष्कार हुआ तो उन्होंने पंक्चुएशन के कुछ नियम बदले, क्योंकि टाइपराइटर में कमी थी। भाषाविदों के आग्रह पर टाइपराटर को ठीक किया गया तो पंक्चुएशन के नियम फिर से बदले गए यानी तकनीकी और भाषविदों में समन्वय से सब कुछ ठीक चल रहा है।
हिन्दी में ऐसा कुछ भी नहीं दिखाई देता। जब हम भाषा के नियमों के अनुसार ही नहीं चल रहे तो तकनीकी क्या करे? इसी कारण मैं अपनी जेब से पैसे ख़र्च करके यह उपकरण विकसित करवा रहा हूँ। एक बार एक एप्प बन गई तो उसकी कमियों को दूर करने के बाद वह सबके लिए साहित्य कुञ्ज की वेबसाइट पर उपलब्ध हो जाएगी। फिर पूरा साहित्य कुञ्ज परिवार मिल कर नियम के पालन करने का अग्रह करने लगेगा।
अगला चरण प्रूफ़रीड उपकरण का है। इसके लिए हमें हिन्दी के शब्दकोश को अपनाना होगा और उसकी कमियों को भी सुधारना होगा। इसके लिए भाषाविदों के साथ परामर्श करने की आवश्यकता पड़ेगी। व्याकरण की अपनी चुनौतियाँ है। अँग्रेज़ी के लिए यह आसान है क्योंकि उसमें लिंग की समस्या नहीं है। यहाँ तो हम स्त्रीलिंग और पुल्लिंग में उलझे रहते हैं। हम भाषा और व्याकरण को आंचलिक तड़का लगा कर प्रसन्न हो जाते हैं कि भाषा समृद्ध हो रही है। पर यह नहीं सोचते कि अगर हम ऐसा करते रहें तो देश के एक छोर से जब तक दूसरे छोर तक पहुँचेंगे तो हिन्दी के स्वरूप को ही नहीं पहचान पाएँगे।
तीसरा चरण शब्दकोश का है, जो कि पहले चरण के साथ ही आरम्भ हो जाएगा। क्योंकि यह सबसे अधिक परिश्रम वाला कार्य है। योजनाएँ तो बड़ी हैं पर अभी साहस और सवास्थ्य साथ दे रहा है इसलिए आशा बँधी हुई है। अन्त में फिर अपने आप से प्रश्न पूछ रहा हूँ कि क्या इसकी आवश्यकता है– इस बार इसका उत्तर आप देंगे; ऐसी मेरी आशा है।
— सुमन कुमार घई
टिप्पणियाँ
डॉ.शैलजा" श्यामा" 2021/11/27 03:55 PM
नमस्कार, आशा है आप सभी सकुशल हों। आपके लघुकथा पर जारी कार्य के लिए आपको बधाई। मैं निवृत्त अध्यापिका हूं। मेरी अनेक लघुकथाएं हिंदी पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं और दो लघुकथा संग्रह भी। आपकी गतिविधियों से परिचित हुई और संपर्क किया। धन्यवाद।
विजय नगरकर 2021/11/17 08:42 AM
आदरणीय सुमन जी,बहुत महत्वपूर्ण और आवश्यक कार्य है।आपके इस महत्वपूर्ण योजना में हम सभी योगदान देना चाहते है,चाहे तकनीकी हो या आर्थिक। जरूर करें। अंग्रेजी भाषा शब्दकोश अत्यंत समृद्ध,अद्यतन केवल अनुशासन,तकनीक और उदारता के कारण हुआ है। हिंदी को भी भारतीय भाषाओं की शब्द संपदा से ग्रहण करना होगा।हार्दिक शुभकामनाएं
डॉ. शैलजा सक्सेना 2021/11/16 07:38 AM
आपका संपादकीय हिंदी की बहुत बड़ी समस्या को बताता है पर आप इस दिशा में जो काम कर रहे हैं, उससे आशा बँधती है। आपकी लगन, मेहनत और समर्पंण से यह काम निसंदेह अच्छी तरह पूरा होगा। अनंत शुभकामनाएँ! हम आपके साथ है।
डॉ. शैलजा सक्सेना 2021/11/16 07:31 AM
आदरणीय घई जी, आपका संपादकीय हिंदी की एक बहुत बड़ी समस्या को स्पष्ट करता है। साथ ही आप जो बहुत बड़ा काम कर रहे हैं, उसको जानकर सभी हिंदी प्रेमी बहुत प्रसन्न होंगे, इसमें कोई संदेह नहीं। आपको अनंत शुभकामनाएँ । हम आपके साथ हैं।
ऋतु खरे 2021/11/16 01:32 AM
घई जी! बहुत सरलता से आपने इस कठिन विषय को समझाया है। व्यक्तिगत रूप से मुझे इस एप्प की बहुत ज़रुरत है। मैं नियमित रूप से लिखती हूँ पर proofreading करने वाला कोई नहीं। पंक्चुएशन, शब्दकोष के चरण में भी मुझे सहायता की ज़रुरत है। मेरे जैसे अन्य लोग, जो विदेशों में रहते हैं, और जिनके संगियों को हिंदी में कोई ख़ास रूचि नहीं रही है, उन्हें इस एप्प से बहुत लाभ होगा। आप साहित्य कुञ्ज के लेखकों से crowdfunding भी करवा सकते हैं।
Sarojini Pandey 2021/11/15 04:53 PM
अत्यंत सराहनीय प्रयास!! भाषा के नियमों का पालन भाषा की शुद्धता और समग्रता के लिए अत्यंत आवश्यक है ।इन दिनों, जैसा कि आपने लिखा, आंचलिक बोलियों के नाम पर हिंदी व्याकरण का गला घोट आ जा रहा है ।यदि एक मानक एप्लीकेशन विकसित हो तो भाषा का कल्याण ही होगा। ईश्वर आपको सदा स्वस्थ रहें और दीर्घायु दें शुभकामनाओं सहित
महेश रौतेला 2021/11/15 09:08 AM
रोचक विवेचना। मेरे विचार से पहले दो चरण सीमित योगदान देंगे। क्योंकि गूगल अनुवाद कभी-कभी भयंकर होता है,अर्थ का अनर्थ कर देता है या वाक्य को अर्थहीन बना देता है। देवनागरी लिपि की अपनी विशेषता है और रोमन की अपनी। देवनागरी लिपि में ड और ढ के आगे ही बिन्दी लगती है जैसे अंग्रेजी में i और j में ही ऊपर बिन्दी लगती है। अनावश्यक बिन्दुओं से हम बच सकते हैं। जैसे जन्म, जीवन और ज़िन्दगी!! और मेरे उपनाम को बहुत लोग रौटेला कहते हैं ( Rautela के कारण) लेकिन है रौतेला। प्रत्येक भाषा थोड़ी जीवन्त भी होती है।
Usha Bansal 2021/11/15 07:22 AM
आपने बहुत ही सरल शब्दों में समस्या को समझाया है। अगर तीनों पद पर काम हो जायेगा तो फिर हिन्दी एक पायदान आगे हो जायेगी। मैं आपके साथ हूँ। प्रयास सराहनीय है। आर्थिक सहायता भी कर सकती हूँ। और अपने बेटे से कह कर तकनीकी सहायता भी करवा सकती हूँ। उसका AI में काम है। आप को प्रभु सफलता दें
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Rajnandan Singh 2021/11/28 01:10 PM
माननीय संपादक जी, हिन्दी में विराम चिह्न, वर्तनी, वाक्यांश सुधारों का मानकीकरण शब्दकोष एवं नये शब्द निर्माण सूत्रों की सख्त आवश्यकता है। क्योंकि आज इंटरनेट पर जिस हिन्दी का प्रयोग हो रहा है। ज्यादातर आधा अधूरा त्रुटिपूर्ण एवं क्षेत्रीयता से परिपूर्ण है। समय रहते यदि उसका सुधार या मानकीकरण नहीं हुआ तो भविष्य की हिन्दी निश्चय ही अपना भाषा रूप खोकर बोली रूप में रह जाएगी। दशा यह है कि अभी दो दिन पहले मैं गाजियाबाद से मेरठ की तरफ जा रहा था। रास्ते में राजनीतिक पार्टियों के कुछ ऐसे पोस्टर दिखाई दिये जिसपर "जिन्दाबाद" की जगह "जिल्दाबाद" लिखे हुए थे। हलाँकि यह त्रुटि नेताओं के शिक्षा को उजागर करती है मगर फिर भी अंततः नुकसान हिन्दी को ही देगी। जैसा अपना देश है कल को कुछ लोग इसी पोस्टर का सबूत लेकर खड़े हो सकते हैं कि शुद्ध शब्द जिन्दाबाद नहीं जिल्दाबाद है। इसलिए हिन्दी शब्दों एवं वाक्यों का मानकीकरण आवश्यक है।