प्रिय मित्रो,
जैसा कि आप सभी जानते हैं कि समय-समय पर मैं लेखक के समाज के प्रति दायित्व पर लिखता रहता हूँ। कुछ तो स्वयं मेरे अपने चिंतन से उपजता है और कुछ अन्य लेखकों के व्यक्त किए विचारों से। पिछले दिनों एक यूट्यूब चैनल पर दो राजनैतिक विश्लेषकों की बातचीत का कार्यक्रम देख रहा था। दोनों व्यक्ति पत्रकार होने के साथ-साथ लेखक भी हैं। यह थे कैनेडा से ताहिर गोरा और तारेक फ़तह। ताहिर को कई बार मिल भी चुका हूँ। कई बार वह हिन्दी राइटर्स गिल्ड की गोष्ठियों में स्वयं ही आ जाते हैं। समय-समय पर वह हिन्दी के अच्छे लेखकों और वक्ताओं को प्रोत्साहित करते हैं कि वे उनके स्टूडियो की सुविधाओं का लाभ उठाते हुए हिन्दी साहित्य को जन-जन तक पहुँचाएँ। वास्तव में कोरोना काल के आरम्भ होने से पहले, बहुत समय से डॉ. शैलजा सक्सेना “साहित्य के रंग शैलजा के संग” कार्यक्रम उनके चैनल पर प्रस्तुत करती रही हैं। उन कार्यक्रमों में भी कई बार मैं गया। कार्यक्रम से पहले या बाद में भी चाय के कप के साथ ताहिर गोरा से विभिन्न विषयों पर बातचीत होती रही। तारेक फ़तह को एक-दो कार्यक्रमों में देखा पर औपचारिक भेंट कभी नहीं हुई। परन्तु इन दोनों पत्रकारों/लेखकों की विचारधारा से भली-भाँति परिचित हूँ।
यूट्यूब के जिस कार्यक्रम को मैं लगभग तीन-चार दिन पहले सुन रहा था, उसके लगभग अंत में ताहिर ने एक बहुत रोचक प्रश्न पूछ लिया। प्रश्न सुनते ही मैं सजग हो गया। प्रश्न था, “एक लेखक या पत्रकार को कितना देशभक्त होना चाहिए? अगर वह है तो क्या वह अपने काम के साथ, पत्रकारिता के साथ न्याय कर पाएगा?” यह प्रश्न उन्होंने तारेक फ़तह से पूछा था। प्रश्न की गहराई और उत्तर के विवादस्पद होने की संभावना ने ही मुझे आकर्षित किया था। मुझे तारेक फ़तह की विचारधारा का अनुमान तो था पर प्रश्न राजनैतिक न हो कर लेखक के अस्तित्व, दायित्व और मानसिकता को प्रश्न चिह्न के सामने खड़ा कर रहा था।
तारेक फ़तह ने एक साँस ली और कहा, “नहीं, मुश्किल है। उसे एक सीमा तक तटस्थ होना पड़ेगा। जो कि कठिन है। अगर युद्ध हो रहा है तो आपको एक दो क़ौमी नग़्में तो लिखने ही पड़ेंगे,” कहते-कहते तारेक फ़तह मुस्कुराने लगे। आगे हँसते हुए बोले, “थोड़ा बहुत होता ही है और जैसे कि मुशायरे में लोग-बाग फ़रमाइश करने लगते हैं कि फ़लाँ चीज़ सुनाओ, जिससे लेखक थक चुका होता है, पर फिर भी सुनाता है। वह अलग बात है।” इस वक्तव्य के बीच उन्होंने जोश मलीहाबादी और फ़ैज़ का ज़िक्र भी किया। फिर संजीदा होकर कहने लगे, “दूसरे की फ़रमाइश पर कुछ करें तो समझ आता है। पर अगर आप स्वयं पर ज़िम्मेदारी लेकर एक ऐसी कोन्ट्रीब्यूशन करें जिससे हालात ख़राब हों वह तो तो अपने काम के साथ विश्वासघात है।”
उन्होंने कहना जारी रखा, “एक लेखक को सोचना चाहिए कि उसके अपने पाठक को फ़ायदा होगा या नुक्सान।” अपने सर को छूते हुए बोले, “कुछ ऐसा लिखें जो खोपड़ी की हड्डी को भेदकर दिमाग़ में उतर जाए। नहीं तो बाक़ी क़व्वाली गाने जैसा है कि एक गाए बाक़ी सब तालियाँ बजाएँ।”
बाक़ी के कार्यक्रम में निःसंदेह उन्होंने कुछ ऐसी बातें कहीं, जिन्हें मैं साहित्य कुञ्ज में दोहरा नहीं सकता। जो लोग तारेक फ़तह जो जानते हैं वह यह भी जानते हैं कि उनके विचारों से प्रायः विवाद भी पैदा हो जाते हैं। यह एक तथ्य है, इसका कोई अन्य अर्थ नहीं है, कृपया अनुमान मत लगाएँ कि मैं उनसे सहमत हूँ या असहमत। यह बात अलग है कि उनकी टिप्पणियों और विचारों के केन्द्र में पाकिस्तान में लिखा जाने वाला इस्लाम से संबंधित साहित्य ही था। इसलिए इसे यहीं पर छोड़ दें तो अच्छा।
मैं देर तक तारेक और ताहिर के विचारों के बारे में सोचता रहा। देशभक्ति जैसे विषय पर उठाया गया प्रश्न और ईमानदारी से दिया गया उत्तर निःसंदेह विचारोत्तेजक तो था ही। मैं सोचता रहा कि क्या देशभक्ति को लेखन और पत्रकारिता को एक ही तराजू के एक ही पलड़े में तौला जा सकता है? पत्रकारिता में तो समझ सकता हूँ कि समाचार, जनता तक पहुँचाते हुए, पत्रकार की अपनी संवेदनाएँ हावी नहीं हो सकती। मगर यह भी सही नहीं है। कई ऐसी घटनाएँ, दुर्घटनाएँ और अपराध होते हैं जिनके समाचार लिखते हुए पत्रकार को पीड़ित के प्रति संवेदनशील होना अनिवार्य होता है। यह अनिवार्यता का स्रोत व्यक्तिगत विचारधारा या प्रशासिनक नियम हो सकते हैं। उदाहरण के लिए बलात्कार या यौन शोषण के अपराधों में पीड़ित की व्यक्तिगत जानकारी के प्रति संवेदनशीलता। इसका अर्थ यह है पत्रकारिता में संवेदनाओं की अभिव्यक्ति को कोई तो नियंत्रित कर रहा है। उक्त घटनाओं में यह तर्कसंगत लगता है। परन्तु क्या देशभक्ति की संवेदनाएँ समाचार की तटस्थता या सत्यता को दूषित कर देंगी? दूसरी ओर यह संभावना भी है कि देशभक्ति की संवेदना की धारा में बहते हुए पत्रकार समाचार को बदल भी सकता है। अन्ततः बात पत्रकार के अपने चरित्र और उसके अपने व्यक्तिगत निर्णय पर निर्भर करने लगती है। अगर वह अच्छा पत्रकार है तो वह अपनी संवेदनाओं पर अंकुश लगा कर ही समाचार प्रकाशित करेगा। एक पक्ष समाज का भी है। समाज की पत्रकार से क्या अपेक्षाएँ हैं? इसका अन्य पहलू यह भी है कि क्या पत्रकार तथ्यों को इस ढंग से प्रस्तुत करने के लिए स्वतंत्र है जो समाज को स्वीकृत हो? यहाँ पर बात व्यक्तिगत संवेदनाओं से बढ़ कर सामूहिक सामाजिक संवेदना की आ जाती है। मेरे विचार से पत्रकार को सामूहिक, व्यक्तिगत संवेदनाओं को जीवित रखते हुए सत्य को प्रस्तुत करना चाहिए। मैं केवल प्रश्न कर रहा हूँ; कोई समाधान न तो दे रहा हूँ और न ही देने की मेरी क्षमता है। अभी पत्रकारिता की व्यवसायिकता का पक्ष अनछुआ रह गया है। पत्रकारिता की व्यवसायिकता किसको देशभक्त और किसको देशद्रोही प्रमाणित करने का प्रयास करती है, लाभ-हानि पर निर्भर करता है।
उपर्युक्त पत्रिकारिता की विषमताओं को देखते समझते हुए‘ साहित्य सृजन में देशभक्ति’ सरल विषय लगता है। लेखक के लिए जहाँ तथ्यात्मकता समाप्त होने लगती है वहाँ कल्पना आरम्भ हो जाती है। एक विधा है जिसमें तथ्य महत्वपूर्ण है, वह है ऐतिहासिक साहित्य। ऐतिहासिक गद्य हो या पद्य, कहानी का आरम्भ और अन्त तो सत्य को ही स्थापित करता है। बीच में जो भी लिखा जाए वह लेखक की कल्पना और लेखन कौशल पर निर्भर करता है। परन्तु कथा के महत्वपूर्ण घटनाक्रम के साथ छेड़-छाड़ कर, देशभक्ति को नहीं पिरोया जा सकता है। उदाहरण के लिए अगर भारतीय इतिहास में जयचन्द खलनायक है तो खलनायक ही रहेगा। किसी अन्य कोण से देखकर उसे नायक नहीं बनाया जा सकता क्योंकि पाठक उसे स्वीकार नहीं करेगा। यहाँ देशभक्ति भाव प्रधान हो जाता है।
साहित्य और पत्रकारिता में एक अंतर है। साहित्य सत्य की काल्पनिक संभावनाएँ हैं जब कि पत्रकारिता कोरा सत्य! तारेक फ़तह आंशिक रूप से सही थे। शायद उन्होंने साहित्य और पत्रकारिता के अन्तर को ध्यान में रखते हुए टिप्पणी नहीं की थी।
—सुमन कुमार घई
टिप्पणियाँ
दिनेश राम 2022/11/18 07:39 AM
सादर अभिवादन! साहित्य कुंज हेतु अपनी स्वरचित रचना प्रेषित करने का आकांक्षी हूं। महोदय, प्रक्रिया के संबंध में जानकारी उपलब्ध करवाने का कष्ट कीजिएगा।
ऊषा बंसल 2022/11/15 08:06 AM
सुमन जी पत्रकार व पत्रकारिता एक सिक्के के दो पहलू हैं । आज के समय पत्रकार वही लिखता है जो बिकता है । ऐसी पत्रकारिता सामयिक है। आज छपी , चर्चा हुई कल बासी परसों भूल गये । लेखन एक अलग विधा है। जो देश समाज पर वर्तमान से अतीत और भविष्य को जोडता है। उसके मानक मूल्य एक तरह से सनातन होते हैं । चाहे व विभिषण हो ,दशानन हो , या अमीचंद । आपने बहुत महत्वपूर्ण विषय को रेखांकित किया है। आज कल साम्यवादी विचारधारा के बाद देशों में देशभक्ति की लहर उठ रही है । छप भी वही रहा है , जो पहले रद्दी की टोकरी की शोभा बढ़ाता था । इसमें कौन टिकता है समय बतायेगा । आपने जिस तरह बात को रखा है वह सोचने , समझने की ओर प्रेरित करती है। इतने अच्छे सम्पादकीय के लिये बहुत बहुत बधाई।
डॉ. शैलजा सक्सेना 2022/11/15 01:07 AM
बहुत ही रोचक और गहरा प्रश्न है यह। ताहिर गोरा जी ने उठाया, तारिक फतह जी ने उसका उत्तर दिया पर विस्तार से विश्लेषित किया आपने। आपको बधाई! दरअसल इस संपादकीय में लेखन के संदर्भ में इस प्रश्न का तीर सटीक बैठा है। मेरे विचार से इसका उत्तर हम लेखन की निष्पक्षता की थ्योरी में नहीं देख सकेंगे। लेखन और पत्रकारिता भी बहुत हद तक, लिखने वाले की अपनी अभिरुचियों, समझ, जानकारी, तह तक उतरने की सूक्ष्म भेदी दृष्टि, काल और देश की स्थितियों, विचारधारा और एक हद तक व्यावसायिकता से भी परिचालित होती है। एक ही लेखक एक ही बात को अपनी समझ के बदलने के चलते दो तरह से लिख सकता है/ लिखता है जैसे भारतेंदु ने कभी रानी विक्टोरिया का स्तुति गान किया था तो बाद में उनसे मोह भंग होने और 'भारत दुर्दशा' लिखी। आज के समय में रूस का लेखक यूक्रेन युद्ध का समर्थन करे या न करे? यह देशप्रेम की बड़ी परीक्षा होगी। देशप्रेम और विश्व प्रेम के प्रश्न पर टैगोर भी विचार करते हैं। ... आपने लेखक के मूल कर्तव्य और साइकी के बीच के इस द्वंद्व को उठा कर बहुत कुछ सोचने को बाध्य किया है। आपको पुनः बधाई! आपका संपादन कार्य प्रणम्य है।
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राजनन्दन सिंह 2022/11/18 08:35 AM
बहुत हीं सारगर्भित एवं गूढ़ संपादकीय। प्रश्न है “एक लेखक या पत्रकार को कितना देशभक्त होना चाहिए? मुझे लगता है इसका उत्तर होना चाहिए, मर्यादा की सीमाओं मे रहते हुए वहाँ के राष्ट्राध्यक्ष से भी ज्यादा। राष्ट्राध्यक्षों व अधिकारियों के सामने गोपनीयता एवं प्रशासन की बहुत सारी जिम्मेवारियाँ होती है। उन्हें कोई भी कदम काफी सोच-विचार के बाद उठाना पड़ता है क्योंकि वे अधिकृत जबाबदेहियों से बंधे होते हैं। मगर लेखक अथवा पत्रकारों के सामने सिर्फ सच एवं साहित्य की मुक्त एवं नैतिक जिम्मेवारी होती है। देश हित में युद्ध जरूरी है अथवा गैर जरूरी यह तय करना प्रशासन का काम है, मगर उस युद्ध से देश समाज का कितना हित होगा या कितना अहित यह कहना लेखक एवं पत्रकारिता का धर्म है। प्रशासन की देशभक्ति व्यवहारिक होनी चाहिए। होती भी है। मगर लेखकीय देशभक्ति निश्चित रुप से हीं वहाँ की सांस्कृतिक आदर्शों पर आधारित होनी चाहिए।ठीक वैसे हीं जैसे महर्षि बाल्मीकि ने भरी सभा में भगवान श्री राम को कहा था कि महाराज लव कुश आपके हीं पुत्र हैं। यह बात भगवान को बताने की जरूरत नहीं थी वे स्वयं भी जानते थे। मगर वे राजपद पर थे इसलिए इस बात को किस तरीके से स्वीकारना है यह उनका राजकीय निर्णय था। प्रशासन की समालोचना अथवा शासन को सच्चा सुझाव राजद्रोह नहीं बल्कि देशभक्ति है। आगे उसे मानना न मानना प्रशासन का निर्णय है जो इस बात पर निर्भर करता है कि वह सुझाव कितना उपयोगी, जरूरी अथवा कितना व्यवहारिक है।