प्रिय मित्रो,
गत सप्ताह साहित्य कुञ्ज के व्हाट्स ऐप समूह में कुछ चर्चाएँ हुईं। कुछ गम्भीर थीं तो कुछ हल्की-फुल्की थीं। अगर विचार करें तो यह सभी चर्चाएँ मौलिक रूप से बहुत महत्त्वपूर्ण थीं। होली के गीत हुए, कविताएँ हुईं बधाइयों के रंग बिखरे—अच्छा लगा। वातावरण साहित्यिक रंगों से भर गया। फिर अचानक एक पोस्ट में व्यक्त साहित्य पर विभिन्न विमर्शों के आतंक से वातावरण चिन्तन की ओर पलट गया। थोड़ी चर्चा के पश्चात किशोरावस्था या नवयौवन की अधूरी या असफल प्रेमाभिव्यक्तियों की मधुर स्मृतियों से प्रेम की रसधार बहने लगी। निस्संदेह अब बरसों के बाद पलट कर देखने से यह प्रेम रस अनुभव हो रहा है; उस समय तो यह रस विरह की पीड़ा का ही रहा होगा। इस सब के बीच मुद्रित पुस्तकों की तुलना इलैक्ट्रॉनिक माध्यमों में प्रकाशित साहित्य से भी हुई तो दूसरी ओर हस्तलिखित प्रेम पत्रों में व्यक्त कोमल, तरल भावों की तुलना शुष्क, कट-पेस्ट से चिपकाई संवेदनाओं को व्यक्त करती ई-मेल से भी की गई। बीच में एकाध स्वर हिन्दी साहित्य के पाठकों की विमुखता का भी सुनाई दिया। इन सभी विचारों पर मैं अपना दृष्टिकोण अगले पाँच-छह सौ शब्दों में बाँधने का प्रयास कर रहा हूँ।
समय चक्र को हम रोक नहीं सकते और इसके साथ ही विकसित हो रही तकनीकी को भी नहीं रोका जा सकता। बीते समय के प्रति रोमांस के भाव को हम हृदय में समेटे रख सकते हैं, परन्तु वास्तविक जगत में बदलती संस्कृति के साक्षी भी तो हम ही हैं। बदलती संस्कृति की धार पर युवा पीढ़ी रहती है। अगर हम इस लहर के सामने खड़े होकर इसे रोकने का प्रयास करेंगे तो वर्तमान में हमारा औचित्य, प्रासंगिकता, संबद्धता और उपयुक्तता समाप्त हो जाएगी। दूसरे शब्दों में हमें बदलती संस्कृति के साथ ही चलना होगा अन्यथा हमारा युवा पीढ़ी के साथ नाता टूट जाएगा। यह आवश्यक नहीं है कि हमारा आचरण उन जैसा ही हो; अगर वैसा करने का प्रयास करेंगे तो ’बूढ़ी घोड़ी, लाल लगाम’ वाली बात हो जाएगी। आवश्यकता है एक समन्वय स्थापित करने की ताकि एक संवाद बना रहे। हमें समझना चाहिए कि यह युवा पीढ़ी ही भविष्य है। यह अनिवार्य नहीं है कि बदलती संस्कृति निकृष्टता की ओर ही अग्रसर होगी। मेरी पीढ़ी के लोग भी तो कभी युवा थे और हमने भी अपने से पुरानी पीढ़ी की संस्कृति को अपने अनुसार ढाल कर ही तो स्वीकार किया था। क्या हम अपने आपको को अधम मान सकते हैं, नहीं बिल्कुल नहीं। बहुत सी अमानवीय मान्यताओं को हमने स्वीकार नहीं किया। पुरानी पीढ़ी के साथ संघात की परिस्थिति भी कई बार बनी। इसके क्या हमारे हृदय में उनके प्रति आदर की भावना कम हुई? या उनके हृदय में हमारे प्रति अनुराग कम हुआ? पारस्परिक आलोचनाओं, तर्क-वितर्क के बवंडरों से गुज़र कर हमने जीवन के नए मूल्यों के अनुसार अपने समाज का गठन किया है। हमें कोई अधिकार नहीं है कि हम नई पीढ़ी के आचरण या उनकी जीवन पद्धिति को सिरे खारिज कर दें। ग़लतियाँ हमने भी की हैं और हर युवा पीढ़ी करती ही है। साहित्यकार होने के नाते यह हमारा दायित्व है कि हम वैसे साहित्य का सृजन करें जो युवा पीढ़ी को अपना साहित्य लगे। अगर साहित्यकार इस पीढ़ी के साथ संवाद ही नहीं करेगा तो वह भविष्य से अपना नाता तोड़ कर केवल भूतकाल में ही जीता रहेगा।
पिछले तेईस वर्ष के सम्पादन के अनुभव के बाद मैं कह सकता हूँ कि बहुत से लेखक प्रसाद युग से आगे बढ़ ही नहीं पा रहे या वह प्रेमचंद जैसा ही लिखना चाह रहे हैं। इससे पहले कि कुछ और लिखूँ, मैं स्पष्ट करना चाहता हूँ कि मानवीय संवेदनाएँ शाश्वत हैं। जितनी ममता रामायण युग में माँ अपने बच्चे करती थी उतनी आधुनिक युग की माँ अपने बच्चे से करती है। आज भी प्रेम का भाव हृदय को उसी तरह स्पंदित करता है जैसे कन्दराओं में रहने वाले प्रेमियों के हृदय को स्पंदित करता होगा। अन्तर है तो केवल उसे व्यक्त करने की शैली। मैं इन महान लेखकों की आलोचना नहीं कर रहा बल्कि आधुनिक लेखकों को चेता रहा हूँ कि कहानियों के नायक, नायिकाएँ बदल गई हैं। सामाजिक परिप्रेक्ष्य, परिस्थितियाँ बदल गई है। स्वाभाविक है कि रूपक, प्रतिमान, प्रतीक, भाषा आदि बदल चुके हैं। प्रसाद और प्रेमचन्द जैसे महान लेखक प्रेरणा के स्रोत हो सकते हैं परन्तु उनके प्रतिरूप बनना, वर्तमान के संदर्भ में आपको अप्रासंगिक बना देगा। ऐसे साहित्यकार साहित्य निकष पर तो खरे तो उतरेंगे परन्तु वास्तविक जगत में, संभवतः केवल एक सीमित पाठकवर्ग से आगे नहीं बढ़ पाएँगे। ऐसा साहित्य न केवल अपना पाठक वर्ग खो देता है बल्कि उससे भी विस्तृत वर्ग को साहित्य से विमुख कर देता है। अंत में यही कहना चाहता हूँ कि अपनी संवेदना को प्रकट करने के लिए आधुनिक समाज जो समझें, अपने पाठकवर्ग को समझें। आधुनिक संस्कृति को समझें।
अगर मैंने किसी की भावनाओं को ठेस पहुँचाई हो तो मैं क्षमाप्रार्थी हूँ परन्तु यह कड़वा सच है। हमें अपने समय के समाज के रोमांस से आगे बढ़ कर आधुनिक समाज और तकनीकी को समझना भी होगा और स्वीकार भी करना होगा। नई तकनीकी की आलोचना करने की अपेक्षा इसे समझ कर इसकी शक्ति का उचित उपयोग करना ही हिन्दी साहित्य के हित में है।
—सुमन कुमार घई
टिप्पणियाँ
मधु शर्मा 2024/04/02 12:48 AM
इस सम्पादकीय से मैं शत-प्रतिशत सहमत हूँ। हमसे पूर्व की युवा पीढ़ी को उनके माता-पिता द्वारा रेडियो सुनने व सिनेमा जाने की अधिकतर मनाही थी। उसके पश्चात दूरदर्शन घरों में आते ही उसे देखने का समय मेरी समकालीन युवा पीढ़ी के लिए निर्धारित किया जाता रहा, और उपन्यास...उन्हें तो पढ़ने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता था। परन्तु आधुनिक युग में संसार के कोने-कोने में तकनीकी विकासित होने के कारण आज की युवा पीढ़ी हमें ही बहुत कुछ सिखला रही है। आदरणीय सम्पादक जी ने सही कहा कि युवाओं के विचारों, भावनाओं आदि समझने के लिए हमें उनके व अपने बीच हर समय संवाद खुला रखना होगा। उन्हें परामर्श नहीं अपितु बिना टोके हमें उन्हें सुनना होगा। इस प्रकार लेखकों को कुछ न कुछ लिखने की ऐसी नयी-नयी सामग्री मिलती जायेगी जो संभवतः युवा पीढ़ी को रुचिकर लगने लगे।
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शैली 2024/04/02 01:49 AM
आपका सम्पादकीय मन को छू गया। बहुत संतुलित दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है आपने। हर युग में नयी पीढ़ी से पुरानी पीढ़ी को शिकायत रही है। एक बार किसी की कविता पढ़ी थी, "दादा कहते थे कि ज़माना ख़राब हो गया है, पिता कहते थे ज़माना ख़राब हो गया है अब मैं भी कहता हूंँ,ज़माना ख़राब हो गया है..." यही तो generation gap है। जो शाश्वत है। यदि युवा पीढ़ी ख़राब होती तो समाज और विश्व रसातल को चले जाते। लेकिन अभी तो हम विकास के पथ पर हैं। अभी पतन के चिह्न नहीं दिख रहे हैं। आपने जैसा कहा मानव स्वभाव और मूल प्रवृत्तियां सृष्टि के समय से आज तक समान रही हैं। इन्सान ऐसा ही आदिम युग में भी था। बस हमें "मरे बैल की आँखे बड़ी बड़ी" दिखती हैं । प्रेमचंद, निराला या महादेवी वर्मा जी के समय से आज का समय अलग है। लेकिन उस काल से आधुनिक साहित्यकार आगे बढ़ना ही नहीं चाहते । "हिन्दी के प्रसिद्ध लेखक और कवि", इन्टरनेट पर सर्च कीजिए तो वही प्रेमचंद, सुमित्रानंदन पन्त, सूर ,तुलसी, अश्क, परसाई आदि ही दिखते हैं। यानी किसी ने सूचनाओं को update नहीं किया है। हम वहीं खड़े हैं, आज के डिजीटल युग में भी। मैंने कई बार ये प्रश्न उठाया कि आज के परिवेश में पराधीन भारत की तरह प्रशासन को ना कोसने वाले साहित्यकार, ख़ारिज क्यों कर दिए जाते हैं? प्रेमचन्द जयन्ती पर जब नए लेखन को अपदस्थ करने वाले लेख आ रहे थे, तब भी यही प्रश्न किया था मैंने। लेकिन लोगों ने संज्ञान नहीं लिया। युग सापेक्ष्य साहित्य ही वास्तविक साहित्य है। ये मेरा निजी विचार है। तकनीकी को यदि नहीं अपनायेंगे तो आपने जैसा कहा वही हश्र होगा। आप समूह की गतिविधियां इतने ध्यान से देखते हैं जानकर बहुत प्रसन्नता हुई। यदि आप जैसे सुलझे विचारों के संपादक और साहित्यकार 30% भी हो जाएं तो हिन्दी साहित्य की दुर्बल होती स्थिति सुधर जाये। आप वास्तविक अर्थों में परम्परा और आधुनिकता का प्रतिनिधित्व करते हैं। हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई।