प्रिय मित्रो,
जैसा कि आपको मालूम ही है कि साहित्य कुञ्ज की पुनः प्रोग्रामिंग हो रही है। साहित्य कुञ्ज की संरचना को परिवर्द्धित और परिष्कृत करने का यह उपयुक्त समय है। बहुत दिनों से मन में इच्छा थी और इसकी चर्चा कई लेखक मित्रों से भी कर चुका हूँ कि विदेशी भाषाओं के साहित्य का अनुवाद हिन्दी में तो पर्याप्त मात्रा में मिल जाता है परन्तु हिन्दी साहित्य का अंग्रेज़ी भाषा में अनुवाद सहज उपलब्ध नहीं होता विशेषकर आधुनिक साहित्य का। यह कमी बहुत अखरती है।
यहाँ पश्चिमी जगत में रहते हुए प्रायः यह देखता हूँ कि पश्चिमी जगत के साहित्य का अनुवाद अंग्रेज़ी में और अंग्रेज़ी साहित्य का अनुवाद युरोपीयन भाषाओं में मिलता है और कई बार इस अनूदित साहित्य को मुख्यधारा के साहित्य में भी सम्मिलित कर लिया जाता है। पिछले कुछ वर्षों से साहित्य कुञ्ज में सरोजिनी पाण्डेय जी निरन्तर इटालियन लोक-कथाओं का हिन्दी में अनुवाद कर रही हैं। यह अनुवाद वह इटालियन भाषा से नहीं कर रहीं बल्कि मूल लोककथा संकलन के अंग्रेज़ी अनुवाद का हिन्दी में अनुवाद कर रही हैं। मूल लोक-कथा संग्रह का नाम “फिआबे इतालिआने/Fiabe italiane” है और 1956 में इतालो काल्विनो/Italo Calvino ने इसे लिखा था। इस लोक-कथा संकलन का तीन बार अंग्रेज़ी में अनुवाद हो चुका है। पहली बार 1961 में लुई ब्रिगांते/Loui Brigante ने, दूसरी बार 1975 में सिल्विया मल्काही/Sylvia Mulcahy ने और तीसरी बार 1980 जॉर्ज मार्टिन/George Martin ने इस संकलन को अनूदित किया। निश्चय ही इसका अन्य युरोपीयन भाषाओं भी अनुवाद हो चुका होगा। यह केवल एक पुस्तक का उदाहरण है जो प्रमाणित करता है कि किसी भाषा के साहित्य को अंग्रेज़ी में अनूदित करना कितना महत्त्वपूर्ण है। हम हिन्दी प्रेमी चाहे जितना भी वास्तविकता से आँखें मूँद लें और मानना न चाहें परन्तु विश्व में अंग्रेज़ी एक सम्पर्क भाषा बन चुकी है। चाहे इसका कारण उपनिवेशवाद हो या अंग्रेज़ी बाज़ार की विदेश के बाज़ारों में पैठ, हॉलीवुड का सिनेचित्र उद्योग पर प्रभाव हो या पहले ब्रिटेन और बाद में यू.एस.ए. की आर्थिक और तकनीकी शक्ति परन्तु यह अकाट्य तथ्य है कि अंतरराष्ट्रीय सम्पर्क भाषा अंग्रेज़ी है। इसीलिए हिन्दी साहित्य का अंग्रेज़ी में अनुवाद होना महत्त्वपूर्ण है।
इसका एक अन्य महत्त्वपूर्ण कारण भी है। इस समय विदेशों में लाखों-करोड़ों की संख्या में प्रवासी भारतीय बस चुके हैं। विदेशों में रहने वाले हम भारतीय मूल के लोग एक वास्तविकता से परिचित हैं कि हम चाहे जितना भी प्रयास करें एक-दो पीढ़ी में हमारी भारतीय भाषाएँ विदेशों में लुप्त हो जाएँगी। यानी हमारे वंशज स्थानीय भाषाओं को अपना लेंगे। जैसा कि हम गिरमिटिया लोगों में देखते हैं, भाषा तो लुप्त हो जाती है परन्तु संस्कृति किसी न किसी रूप में जीवित रहती है। गिरमिटिया लोगों में भारतीय/भोजपुरी संस्कृति को जीवित रखने का अवलंबन “रामचरितमानस” बनी। अभी भी कैरेबियन देशों में भारतीय मूल के लोग अपने घरों में झैंडी (रामचरितमानस का अखंड पाठ) का आयोजन करते हैं, चाहे उनकी रामचरितमानस की लिपि रोमन है। क्योंकि जिस रामचरितमानस का वह पाठ करते हैं, वह अनुवाद नहीं है इसलिए अधिकांश उन्हें समझ नहीं आता। परन्तु अगर वह रामकथा अंग्रेज़ी में पढ़ें तो निःस्संदेह वह अपनी जड़ों से बेहतर जुड़ सकेंगे।
किसी भी भाषा या देश का साहित्य एक तरह से संस्कृति का संवाहक होता है। साहित्य सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक आस्थाओं, रीति रिवाज़, वेश-भूषा इत्यादि का इतिहास होता है—इसे इतिहास न भी कहा जाए; मनोरंजन ही मान लिया जाए पर यह पाठकों को रचना के काल के साथ जोड़ देता है। यही साहित्य का प्रभाव है जो हम प्रवासी अपने बच्चों पर चाहते हैं। ऐसा नहीं है कि प्रवासी बच्चे भारत का साहित्य पढ़ना नहीं चाहते परन्तु अगर कुछ पढ़ने को मिले ही न तो वह भी क्या करें? बहुत पहले की बात है, उन दिनों में हिन्दी चेतना का सम्पादन कर रहा था। मेरी भतीजी और उसके पति हमारे घर आए। कॉफ़ी टेबल पर पड़ी चेतना पत्रिका मेरी भतीजी ने बड़े गर्व से उठाया और अपने पति को बताया कि मेरे चाचा इसके सम्पादक हैं। मनीष ने पत्रिका उठाई, पन्ने पलटे और कहा, “क्या ही अच्छा होता चाचा कि मैं इसे पढ़ पाता!” शायद लगभग बीस वर्ष पहले कही गई यह बात मेरे अवचेतन अभी तक अटकी है।
पिछले अंक में डॉ. भण्डारकर जी ने अपनी नातिन की दो अंग्रेज़ी कविताएँ प्रकाशन के लिए भेजी थीं जो साहित्य कुञ्ज में मैंने प्रकाशित कीं। उसी दिन मैंने प्रोग्रामर से बात की। हम लोगों ने निर्णय लिया कि नए साहित्य कुञ्ज में भारतीय/हिन्दी साहित्य के अंग्रेज़ी के विकल्प की संभावना रखेंगे। यह “गूगल ट्रांसलेटर” वाली बात नहीं होगी बल्कि हिन्दी साहित्य का अंग्रेज़ी भाषा में साहित्यिक अनुवाद होगा।
इसके अतिरिक्त एक और कारण है। भारतीय मूल के प्रवासी बच्चे बड़े होकर जो अंग्रेज़ी साहित्य लिखते हैं, उसमें भारतीय संस्कृति की झलक रहती है; जो इसे मुख्यधारा के अंग्रेज़ी साहित्य से अलग पहचान देती है। उन्हें प्रकाशन में समस्या आती है क्योंकि इसके लिए पाठक वर्ग भी वैसा चाहिए जो भाषा और संस्कृति की सूक्ष्मताओं को समझ सके। साहित्य कुञ्ज ऐसे अंग्रेज़ी साहित्य का मंच भी बन सकता है जो भाषा से इतर साहित्यिक संस्कृति का मंच भी बने।
विचार और संभावनाएँ असीम हैं, सीमा है तो समय की, क्षमता की और निःस्वार्थ भाव के साहित्य साधकों की जो साहित्य के अनुवाद के साथा न्याय कर सकें। इस दिशा में पदार्पण कर रहा हूँ। आप सभी से सहयोग और समर्थन की अपेक्षा है।
— सुमन कुमार घई
टिप्पणियाँ
आरती स्मित 2024/10/02 08:26 PM
बेहद सराहनीय विचार सर! इस दिशा में मैं प्रयास करूँगी कि आपके साथ कुछ पाठक साथियों को जोड़ सकूँ जो साहित्य कुंज की अपनी पसंदीदा रचनाओं का अनुवाद करने हेतु नि:स्वार्थ भाव से समय दे सकें।
सरोजिनी पाण्डेय 2024/10/01 08:24 PM
आदरणीय महोदय, आपका हिंदी के प्रति अनुराग और दिनों दिन उसकी प्रगति की कामना और प्रयास वंदनीय है। ऐसी इच्छा हो रही है कि काश, मेरी लेखनी में इतनी शक्ति होती कि हिंदी की अपनी प्रिय रचनाओं को मैं अंग्रेजी में अनुवादित कर पाती, ईश्वर से प्रार्थना है कि सक्षम रचनाकार इस अवसर का लाभ उठाएं, और हिंदी और भारतीयता अक्षुण्य रखने का प्रयास भरपूर करें। अत्यंत महत्वपूर्ण संपादकीय के लिए बधाइयां एवं नमन, पहल के लिए शुभकामनाएं।
डॉ ऋतु शर्मा ननंन पाँडे नीदरलैंड 2024/10/01 10:09 AM
आदरणीय आपने बहुत सही निर्णय लिया है। मै नीदरलैंड में रहती हूँ इसलिए मैं मूल भाषा डच से ही हिन्दी में अनुवाद करती हूँ । क्योंकि यूरोप में अंग्रेज़ी का महत्व कम है। आपका निर्णय बहुत सही है । बहुत बहुत शुभकामनाएँ
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महेश रौतेला 2024/10/04 05:15 PM
प्रश्न और धारणाएं जटिल हैं। आज पता नहीं स्थिति कैसी है। स्व. हरिवंशराय बच्चन जब कैम्ब्रिज में अंग्रेजी में पी.एचडी. कर रहे थे ,यीटस पर तब उन्होंने अपने गाइड से कहा कोई ट्यूशन मिल जाता तो अच्छा होता। उनके गाइड ने कहा ,"कोई यूरोपीय भारतीय से अंग्रेजी नहीं पढ़ना चाहता है।"( बच्चन जी की आत्मकथा से)। ----!!