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प्रिय मित्रो,

इस बार का सम्पादकीय एक विषम परिस्थिति पर चर्चा करने के लिए लिख रहा हूँ। साहित्य कुञ्ज के इस अंक के प्रकाशन के लिए मिली रचनाओं में एक रचना ऐसी मिली जिसकी मुझे देर-सबेर ऐसा होने की आशंका थी और इस के अंक के लिए आई रचनाओं में ऐसा हो ही गया। 

पिछले कुछ महीने ने से हम एआई (AI) आर्टीफ़िशियल इंटेलिजेंस/कृत्रिम मेधा की तिलिस्मी शक्ति के बारे में सुनते आ रहे हैं। पिछले महीने से मैं भी इसका प्रयोग केवल इस मंशा से कर रहा था कि इसकी शक्ति का प्रयोग अनुसंधान के लिए और इसके प्रयोग की सम्भावनाओं का उचित आकलन कर सकूँ। अभी तक जो मुझे अनुभव हुआ है उसके आधार पर मैं कह सकता हूँ कि हिन्दी के लिए अभी यह शैशवकाल में है। बहुत सीमित जानकारी या ज्ञान इसकी मेधा में संकलित है।

हिन्दी के बारे में अगर आप कुछ खोजने की सहायता चाहते हैं, तो हाँ, यह सहायक हो सकता है, परन्तु आप आँख बन्द करके इस उपकरण से मिलने वाली जानकारी का विश्वास नहीं कर सकते। अभी इस कृत्रिम मेधा का अज्ञान बहुत सीमित है। विकिपीडिया के आरम्भिक दिनों की तरह ही अगर इंटरनेट पर कोई ग़लत जानकारी है तो यह वही ग़लत जानकारी विभिन्न स्रोतों से एकत्रित करके परोस देता है। इसे मेधा कहना उचित नहीं है क्योंकि इसकी बुद्धि अभी पूरी विकसित नहीं हुई है। 

एक और समस्या जो मैं देख पा रहा हूँ, उसका उल्लेख करना यहाँ वांछित भी है और उचित भी। सबसे पहले मैं यह कहना चाहता हूँ कि कंप्यूटर इंटेलिजेंट यानी बुद्धिमान उपकरण नहीं है। यह उपलब्ध ज्ञान का संश्लेषण करके एक परिणाम तक पहुँचता है और वह प्रयोगकर्ता के समक्ष रख देता है। कंप्यूटर की सीमाएँ असीमित नहीं हैं, क्योंकि मानवीय तर्कशीलता तक कृत्रिम तर्कशीलता अभी पहुँच नहीं पायी है। मानवीय तर्कशीलता बाइनरी में काम नहीं करती। बाइनरी का हिन्दी शब्द मुझे मालूम नहीं इसलिए मैं थोड़ा इसके बारे में आपको बताना चाहता हूँ। हमारा गणित दशमलव प्रणाली पर आधारित है। कंप्यूटर लॉजिक में हम शून्य से सात तक गिनते हैं और उससे आगे इसी गिनती का गुणा, जोड़, भाग इत्यादि होता है। बाइनरी की गिनती शून्य (ज़ीरो) और एक (१) तक ही है। दूसरे शब्दों मैं इसे हाँ या नहीं कहा जा सकता है। शून्य है तो ‘नहीं’ और एक है तो ‘हाँ’। देखा जाए हमारी तर्क शक्ति भी इसी पर आधारित है। किसी तथ्य को हम स्वीकार करते हैं और किसी को हम अस्वीकार कर देते हैं। यही काम कंप्यूटर करता है परन्तु एक बहुत बड़ा अंतर है—हमारी तर्कशीलता संवेदनाओं से प्रभावित होती है। अभी कंप्यूटर संवेदनशील नहीं हो सका है। संवेदनशीलता भी अनेक कारकों से प्रभावित होती है। इससे आगे आप क्या सोच सकते हैं मैं आप पर छोड़ रहा हूँ।

कृत्रिम मेधा किसी भी प्रश्न का उत्तर देने के लिए विश्व भर के ज्ञान भण्डार से विषय के अनुसार जानकारी का संश्लेषण करके एक सीमित ‘पैकेट’ आपको देती है। हिन्दी के लिए समस्या यह है कि विशेषकर साहित्य के क्षेत्र में हम सही जानकारी इंटरनेट पर अपलोड नहीं कर पाए हैं। साहित्यिक पोर्टलों पर जो कुछ भी संचित है कई बार वह भी सही नहीं होता। व्याकरण और वर्तनी की बात नहीं कर रहा क्योंकि कंप्यूटर कुछ हद तक यह काम कर सकता है परन्तु पूरी तरह नहीं। इसका एक मुख्य कारण यह है कि अभी तक हिन्दी की कोई मान्य संस्था या संस्थान नहीं है जो हिन्दी व्याकरण, वर्तनी का संपूर्ण रूप से मानकीकरण करे जो सर्वमान्य हो। सभी शब्दकोश भी इस मानकीकरण का पालन करें। हिन्दी केवल हिन्दी हो अपने शुद्ध स्वरूप में। ऐसी हिन्दी जिस पर आंचलिक बोलियों का प्रभाव न हो। यह मानकीकरण संस्थान प्रति वर्ष आंचलिक बोलियों के प्रचलित शब्दों को हिन्दी में स्वीकार करे और ऐसा करते हुए उनकी वर्तनी और व्याकरण का भी मानकीकरण करे। शब्दकोशों के भी वार्षिक संस्करण प्रकाशित हों। कम से कम तो इंटरनेट पर तो वर्तमान वर्ष के संस्करण निःशुल्क उपलब्ध हों। जब तक यह नहीं हो जाता कृत्रिम मेधा की भाषा भी त्रुटिहीन नहीं हो सकती। इस समय व्याकरण तो पर्याप्त शुद्ध है पर वर्तनी शुद्ध नहीं है। 

हिन्दी साहित्य की अगली बाधा है सही सम्पादन। क्योंकि कोई भी व्यक्ति अपनी जेब से पैसा लगा कर साहित्य का पोर्टल बना सकता है और उस पर कुछ भी प्रकाशित कर सकता है। जब कृत्रिम मेधा जानकारी एकत्रित करती है तो किसी न किसी अल्गोरिदम का अनुपालन तो करती होगी। इस अल्गोरिदम का ताल मेल ऐसे पोर्टलों पर उपल्ब्ध सामग्री, इस अल्गोरिदम की तर्कशीलता को प्रभावित कर सकती है। उदाहरण देता हूँ। मैंने मुंशी प्रेमचंद जी के बारे में दो विभिन्न कृत्रिम मेधा के स्रोतों से प्रश्न पूछा। दोनों जगह पर प्रेमचंद जी के साहित्य के बारे में काफ़ी सही जानकारी थी। उन्होंने हिन्दी, उर्दू और अंग्रेज़ी में लिखा। मैं विस्मित हूँ यह “अंग्रेज़ी” कहाँ से आ गई?

इस विचार बातचीत फिर कभी आगे बढ़ाएँगे। अभी मैं लौटता हूँ, इस अंक में मिली एक रचना की ओर। सजग सम्पादक जो ई-मेल की प्रत्येक रचना को पढ़ता हो, उस पर मनन करता हो और उसके बाद प्रकाशित करता हो तो वह अपने लेखकों की क्षमताओं से परिचित हो जाता है। अगर कोई व्यक्ति कविताओं, गीतों तक ही सीमित हो और वह कोई आलेख भेज दे, जिसकी शब्दावली लेखक की शब्दावली नहीं है; वाक्य संरचना अलग है और आलेख में भी मुख्य विचार बिखरा हुआ है तो संशय उत्पन्न होना स्वाभाविक ही है। ऐसा ही एक संक्षिप्त आलेख मुझे मिला, मैंने भी तुरन्त कृत्रिम मेधा का सहारा लिया और आपको आश्चर्यचकित नहीं होना चाहिए क्योंकि मुझे भी वही उत्तर मिले जो आलेख से मेल खाते थे। लेखक ने विभिन्न स्रोतों से जानकारी जुटाते हुए जो ‘कट पेस्ट’ किया था उसमें भी गड़बड़ थी। कहते हैं न कि “नक़ल के लिए भी अक्ल चाहिए”।

मैं अपने पाठकों को यही परामर्श दूँगा कि कृत्रिम मेधा आपको लेखक नहीं बना सकती। यह केवल एक अनुसंधान का उपकरण है। जैसे पहले आप विकिपिडीया इत्यादि का प्रयोग करते थे, बस इसे उसी का थोड़ा विकसित रूप समझें। इसका उपयोग करते हुए अपनी तर्कशक्ति की उपेक्षा मत करें। 

— सुमन कुमार घई

टिप्पणियाँ

रश्मि लहर 2023/06/10 11:43 AM

बहुत सटीक और सामयिक लेख के लिए आभार!

मधु शर्मा 2023/06/05 01:39 PM

साधुवाद, सम्पादक जी। निश्चित रूप से कृत्रिम मेधा द्वारा चोरों को रंगे हाथ पकड़ना अब सुलभ हो गया है...वे चोर जो अन्य लेखकों की रचनाओं के शब्द इधर-उधर कर उन्हें अपने नाम प्रकाशित कर श्रेय प्राप्त कर रहे हैं। परन्तु बकरे की माँ कब तक ख़ैर मनायेगी!

Anima Das 2023/06/04 11:01 AM

सार्थक विश्लेषण सर..

सरोजिनी पाण्डेय 2023/06/02 08:12 PM

आदरणीय संपादक महोदय,इस सामयिक और सटीक सम्पादकीय लेख के लिए साधुवाद एवं बधाइयां साथ ही सम्पादन कार्य के प्रति समर्पण के लिए नमन

शैलजा सक्सेना 2023/06/01 08:21 PM

बहुत सामयिक और विचारपूर्ण संपादकीय ! आपको बधाई कि आपने इस महत्वपूर्ण विषय का तटस्थ विश्लेषण किया।

सुनीता आदित्य 2023/06/01 06:34 PM

बहुत सामयिक लेख। फेसबुक कट कॉपी पेस्ट से भरी पड़ी है... सच तो यह है कि रचनात्मक लेखन संतुष्टि देता है... और संतुष्टि हृदय की भावना है जो अंतरतम के सत्य को अनुभूत करती है... कृत्रिम मेधा तात्कालिक वाह वाही का श्रोत हो भी ... पर क्या मौलिक सृजन की संतुष्टि दे सकेगी... कुछ मूल्य नैतिक होते‌ है सृजन का सुख भी उन्हीं से उद्भूत है। बधाई और आभार सर...

महेश रौतेला 2023/06/01 05:27 PM

बहुत अच्छा विश्लेषण। कृत्रिम मेधा की अपनी सीमाएं हैं। व्हाट्सएप पर( शायद) एक संदेश घूम रहा था जिसमें कृत्रिम मेधा से प्रश्न किया गया था," पृथ्वी के प्रदूषण को कैसे मिटाया जा सकता है?" तो कृत्रिम मेधा का उत्तर था," मनुष्य जाति को पृथ्वी से मिटा दिया जाय।" "आजकल" समाचार चैनल आजकल 9 बजे कृत्रिम मेधा का उपयोग समाचार देने में कर रहा है( लगभग 5 मिनट)।

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