प्रिय मित्रो,
वैसे तो मैं बहुत कम हिन्दी फ़िल्में देखता हूँ, हाँ, जब मेरी पत्नी आग्रह करती है तो मैं न भी नहीं कहता क्योंकि प्रायः हम फ़िल्म देखने के बाद उसकी चर्चा कई दिनों तक करते रहते हैं। हम दोनों को केवल वही फ़िल्में पसन्द आती हैं जो समाज के किसी सार्थक विषय को लेकर बनी हों, विश्वसनीय हों और इसके अतिरिक्त जिसमें एक स्तरीय सिनेचित्र के गुण हों। वैसे मैं यह भी स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि जब मैं अकेला फ़िल्म देखता हूँ तो फ़िल्म कितनी घटिया बनी है, इसका मुझ पर कोई अन्तर नहीं पड़ता मैं आरम्भ से अन्त तक देख कर ही उठता हूँ। पूरे जीवन में केवल एक ही फ़िल्म को दस मिनट के बाद बन्द किया था, उसका नाम भी याद नहीं बस; इतना याद है कि गोविन्दा की फ़िल्म थी।
पिछले दशक में भारतीय सिनेमा-जगत में बहुत परिवर्तन आया है। मुम्बई/बॉलीवुड के फ़िल्म उद्योग पर एक गुट का वर्चस्व स्थापित हो गया है जो अच्छे सिनेमा के पैर नहीं टिकने दे रहा। परिणाम यह हुआ है सत्तर के दशक में मुम्बई फ़िल्म उद्योग में जो समान्तर फ़िल्म का युग आरम्भ हुआ था, वह युग समाप्त हो गया। कोविड काल के बाद यह अवश्य हुआ है कि ओटीटी पर कुछ अच्छे सीरियल्ज़ में समान्तर सिनेमा पुनर्जीवित हो रहा है। भारतीय सिनेमा की त्रासदी है कि बॉलीवुड के आक़ा बुढ़ाते हुए भी युवा प्रतिभा को टिकने नहीं दे रहे। इस सत्ता के पास धन की कमी नहीं है, इसलिए कहानी भी स्वयं लिखते हैं/चोरी करते हैं (?) पटकथा भी सम्भवतः सेट पर ही बनाई जाती है और फिर यही लोग फ़िल्म फ़्लॉप होने पर करोड़ों की कमाई के समाचार प्रकाशित और प्रसारित करवाने की क्षमता भी रखते हैं। मैं इन्हें प्रायः ख़ान मूवी-माफ़िया कहता हूँ।
पिछले सप्ताह मैंने तीन फ़िल्में देखीं। दो फ़िल्में दक्षिण भारतीय सिनेमा निर्माताओं की थीं—टैस्ट (क्रिकेट पर आधारित) और दूसरी थी ‘कोर्ट-स्टेट वर्सस अ नोबॉडी’। दोनों फ़िल्में बहुत अच्छी लगीं। फिर हम दोनों ने न जाने क्या सोच कर ‘लव होस्टल’ भी देख डाली। फ़िल्म समाप्त होने पर मेरी प्रतिक्रिया थी “हम देख क्या रहे थे?”। पत्नी की क्या प्रतिक्रिया थी? उसने केवल कहा—“रेड चिल्ली एंटरटेनमेंट” की थी, शाहरुख़ ख़ान से आप और क्या उम्मीद कर सकते हैं? फिर लम्बी चर्चा चली।
इस फ़िल्म में आज के समाज में जो कुछ हो रहा है, उससे बिलकुल उल्टा दिखाया गया था। ‘लव जिहाद’ एक हिन्दू लड़की एक मुस्लिम युवक के साथ कर रही है। लड़की समृद्ध परिवार और राजनैतिक प्रभावशाली सांसद/मंत्री की पोती है। इसलिए लव जिहाद में हिंसा हिन्दू प्रोफ़ेशनल हत्यारे द्वारा की जाती है जिसे लड़की दादी प्रायोजित करती है। मुस्लिम परिवार समूल समाप्त कर दिया जाता है। लड़के के पिता जेल में हैं क्योंकि किसी हिन्दू गुण्डे ने उनके घर ‘एके47’ रख कर उन्हें फँसा दिया था। मुस्लिम लड़के का परिवार कसाई का धंधा करता है और वह न चाहते हुए भी प्रतिबन्धित मांस को हिन्दी गुण्डों को बेचने के लिए विवश है। हिन्दू हत्यारा (सन्नी दयोल) फ़िल्म में सैंकड़ों हत्याएँ करता है। आश्चर्य की बात है कि उसकी पिस्टल में कभी गोलियाँ समाप्त ही नहीं होतीं। वह सैंकड़ों गोलियाँ चलाता है पर कभी ‘रिलोड’ नहीं करता। फ़िल्म के अन्त में सभी मर जाते हैं। नायक, नायिका, खलनायक और उनके आस-पास के सभी। फ़िल्म का एक ही संदेश था। सनातनी समाज मुस्लिमों पर बहुत ज़ुल्म कर रहा है। पत्नी ने केवल एक ही प्रश्न पूछा, “हर फ़िल्म में ख़ान गैंग केवल यह सफ़ाई देने में लगा रहता है कि हम शान्ति प्रिय हैं, हमें शान्ति से रहने नहीं दिया जाता।” आज सुना कि आमिर ख़ान भी अगली मूवी बनाने जा रहा है—अल्लाह ख़ैर करे!
इन तीनों फ़िल्मों को देखने के बाद अभी तक मन शान्त नहीं हुआ है। कई प्रश्न मन में उठ रहे हैं। दो फ़िल्में दक्षिण भारतीय उद्योग की जो देखीं (हिन्दी डबिंग के साथ) कम बजट की होने के बाद भी इतनी अच्छी क्यों थीं? यद्यपि “लव होस्टल” का विषय भी आज के समय का विषय है परन्तु कथानक असंतुलित क्यों था? सभी खलनायह हिन्दू थे और शोषित मुस्लिम थे। चित्रांकन हिंसक था, कहानी अविश्वसनीय थी, या यह कहूँ कि कहानी तो थी ही नहीं। फ़िल्म निर्माण में पैसा अवश्य पानी तरह बहाया गया होगा।
दूसरी ओर ‘टैस्ट’ में क्रिकेट में पूर्वनियोजित परिणामों के स्कैंडल को उठाया गया था। ‘कोर्ट-स्टेट वर्सस अ नोबॉडी’ में एक उन्नीस वर्षीय किशोर और एक सत्रह वर्षीय लड़की में प्रेम हो जाता है। प्रेम भी बहुत साफ़-सुथरा (वैसी हवस नहीं कि गाना गाया जाए, ‘हम तुम कमरे बंद हों और चाबी खो जाए’)। खलनायक लड़की का फूफा हैं (हमारे परिवारों में फूफा ही हर शादी में खलनायक होता है या फैलता है)। अपने परिवार की नाक बचाने के लिए फूफा लड़के को गिरफ़्तार करवा देता है और बाक़ी की मूवी अदालत में चलती है। अंत में बचाव पक्ष का वकील समाज से बहुत महत्त्वपूर्ण प्रश्न पूछता है। इसमें समाज में आर्थिक वर्गों का प्रश्न है, न्याय व्यवस्था पर प्रश्न है, पुलिस और वकीलों की साँठ-गाँठ और भ्रष्टाचार का प्रश्न है। न्याय की लम्बी प्रक्रिया का प्रश्न भी है। फ़िल्में देखने के कुछ दिन बाद हम दोनों एक ही निष्कर्ष पर पहुँचे कि भारतीय संस्कृति तो अब केवल दक्षिण भारतीय सिनेमा में ही बचेगी। बॉलीवुड तो हम ख़ान गैंग को खो ही चुके हैं। हिन्दी सिनेमा कि स्थिति तो निराशजनक ही है।
—सुमन कुमार घई
टिप्पणियाँ
प्रीति अग्रवाल 2025/04/16 05:00 AM
सच कहते हैं आप सुमन जी, याद नहीं पिछली बार कब पूरी हिंदी फिल्म देखी है। देखनी तो कई बार शुरू की पर आधे - पौने घंटे में ही ऐसी ऊबन हुई कि प्रण किया कि आइंदा नहीं देखूंगी। कभी कभी यूं ट्यूब पर शॉर्ट फिल्म्स देख लेती हूँ वो भी कास्ट , कोन्सेप्ट और डायरेक्टर की तसल्ली कर लेने के बाद! कभी कभी तो मन आक्रोश से भर जाता है मानो कोई तुम्हारी इंटेलीजेंस को बार बार चैलेंज कर रहा हो!! मन चाहता है कहूँ, क्या तुम सच में जनता को इतना 'बर्ड ब्रेंड ' समझते हो ? जो होंगे सो होंगे , मैं कतई नहीं । बहिष्कृत हीरो , हिरोइनों , डायरेक्टरों , सबजेक्ट्स , की फेरिस्त लंबी होती जा रही है पर जो है सो है । मेरे समय, मेरी इनर्जी, मेरी ऊर्जा की यूँ चोरी हो, मुझे मंजूर नहीं!
डॉ. शैलजा सक्सेना 2025/04/15 09:32 PM
एक सार्थक संपादकीय के लिए बधाई और चिंताजनक विषय को उठाने के लिए आभार सुमन जी। नैरेटिव बनाकर पहले वर्षों तक पंडितों को ढोंगी दिखाया जाता रहा और अब अपने जो बताया, वह चिंताजनक है। हम लोग प्राय: हिंदी फिल्में न के बराबर देखते हैं पर 140 करोड़ भारतीयों में से 4 करोड़ भी ऐसे अविश्वसनीय कथानक देखते हैं तो उसके प्रभाव और नए नैरेटिव के बारे में हम अनुमान लगा सकते हैं। क्या कहा जाए!! हम व्यक्तिगत स्तर पर तो फिल्म देखने या प्रभावित होने का निर्णय ले सकते हैं पर सामाजिक स्तर पर इसके दुखद परिणाम को कैसे रोकें, यह विचारणीय है। आप जैसे निष्पक्ष साहित्यकार/ संपादक जब अनेक मंचों से ऐसी चिंता उठाएंगे तब शायद कुछ असर प्रारंभ हो।
ऊषा बंसल 2025/04/15 07:43 PM
मूवी उद्योग पर एक वर्ग विशेष का वर्चस्व ही सिनेमा का स्तर निरंतर गिरा रहा है। नंगानाच , बुराई को महिमा मंडित कर समाज में बदी को इस कदर बढावा दिया गया है कि अब बलात्कार शान समझा जाने लगा है। पिक्चर के नाम व गाने देखें तो सब एक के बाद एक इसी को फैलाते नजर आयेंगे। आपने सही लिखा है कि सब मूवी में लडका मुस्लिम और लडकी हिंदू होती है। कभी लड़की मुस्लिम और लडका हिंदू क्यों नहीं होता ??? एक तरफा लव ही मूवी में क्यों होता है?? हिंदू लड़की से शादी/निकाह करना इस्लाम में जन्नत दिलाता है इसलिए ऐसा किया जाता है शायद । मकसद लव जिहाद बढ़ा कर हलाल करना है। यह इस्लाम में हर मुस्कालिम का फर्ज है। तभी सभी खान हिंदू लड़की से शादी करते हैं। समाज में भ्रष्टाचार , अश्लीलता एक सोची समझी रणनीति के तहत ,पिछले २० वषों से भारतीय संस्कृति को समूल नष्ट करने के लिए , मूवी , जिसका मध्यम व निचले तबके पर बहुत प्रभाव और पकड़ है , माध्यम बना कर फैलाया जा रहा है। न स्वस्थ हास्य है , न स्वस्थ मनोरंजन। कोई भी मूवी देख कर लगता है समय व पैसा बर्बाद हो गया। कभी कभी कोई ढंग की मूवी आती है तो सस्ते मनोरंजन वालों को पसंद नहीं आती। मानसिकता जो बदल गई है। लोग यह कहते सुनाई दिये जाते हैं कि मूवी तो हल्के फुल्के आंनद ,मन बहलाने के लिए देखते हैं। सिर पर बोझ तो पहले ही बहुत है। जाने कब जागेंगे हम ?????
लखनलाल पाल 2025/04/15 04:48 PM
आदरणीय सुमन घई जी ने इस बार फिल्म जगत को अपनी संपादकीय का विषय बनाया है। इस संपादकीय में आपने बालीवुड और दक्षिण भारतीय सिनेमा पर बात की है और बालीवुड के निर्माताओं की घिसी-पिटी मूवीज पर प्रश्न खड़े किए हैं। बालीवुड के लोग धर्म विशेष पर अवास्तविक मूवी बना डालते हैं। इस संदर्भ में यदि साल भर में बनी फिल्मों का फ्लॉप रिकॉर्ड देखा जाए तो आपसे सहमत होना पड़ेगा कि बालीवुड बस घिसट रहा है। यद्यपि दक्षिण भारतीय फिल्मों में भी मार-धाड़ वाले दृश्यों में अत्युक्ति के दर्शन होते हैं। अधिकांश फिल्मों में हीरो के एक पंच में गुंडे हवा में तैरते नजर आते हैं। लेकिन हां कहानी वास्तविक जीवन पर केंद्रित होती है। ज्यादा कुछ ऐसा नहीं करते हैं जिसमें दर्शकों की भावनाओं पर बलाघात पड़े। मतलब जो समाज में हो न रहा हो किन्तु उसे ही फिल्म की कहानी बना दिया जाए तो पाठकों को निराशा हाथ लगती है। बालीवुड में यही सब चल रहा है। रुपए की दम है इसलिए वे जो चाहे सो करें। लेकिन सुधार नहीं हुआ तो इंडस्ट्री सफर करने को मजबूर हो जाएगी। अच्छे संपादकीय के लिए आपको बहुत-बहुत बधाई सर।
डॉ. ऋतु शर्मा ननंन पाँडे नीदरलैंड 2025/04/15 03:13 PM
आदरणीय संपादक महोदय सादर प्रणाम ???????? लगभग हम सभी लंबे समय से विदेशों में रह रहे प्रवासियों को बॉलीवुड में पैसा कमाने के लिए बनाई गई फ़िल्मों की कहानियों के विषय में जल्द ही पता लग जाता है कि यह हिन्दी फिल्म किस विदेशी फिल्म की कॉपी या चुराई गई है । इसलिए कुछ समय से भारतीय फ़िल्में देखने का ज़्यादा शौक नहीं रह गया । एक दो अच्छी फ़िल्मों को छोड़कर । आपने अपने संपादकीय में बेझिझक जिन फ़िल्म कंपनियों के आकाओ का नाम लिया है वह बहुत ही प्रशंसनीय है क्यों ज़्यादातर लोग नाम लेने से कतराते हैं ।वर्तमान में भारत में जो समस्या सबसे ज्यादा ज्वलंत है वह है लव जिहाद उसे यदि इस नकारात्मक विचार के साथ दर्शकों के सामने प्रस्तुत किया जाए तो निश्चित ही नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा । दक्षिण भारतीय पहले भी अपनी संस्कृति व भाषा को लेकर बहुत सजग थे और आज भी हैं । इसलिए उनकी फिल्में हिंदी में डब होकर पूरे भारत में लोकप्रिय हो रही हैं । भारतीय हिन्दी सिनेमा के गिरते स्तर में समाज के लिए सुधार होना ज़रूरी है । एक गहन विषय की ओर पाठकों का ध्यान आकर्षित करने के लिए आपका बहुत बहुत आभार ????????
सरोजिनी पाण्डेय 2025/04/15 12:30 PM
शत प्रतिशत सही कहा है आपने। हिंदी सिनेमा अब केवल प्रचार माध्यम बचा है। ओटीटी पर चलने वाले कुछ धारावाहिक अवश्य रोचक और अपनी धरती से जुड़े लगते हैं। 'पंचायत 'नाम का एक धारावाहिक उत्तर भारत में बहुत लोकप्रिय हुआ!
राजेन्द्र वर्मा 2025/04/15 07:52 AM
आदरणीय घई जी नमस्कार आपने संपादकीय में बहुत ही गंभीर विषय उठाया है लव हॉस्टल फिल्म के बहाने। किंतु यह तो वर्षों से चल रहा है। एक समय हमारी इस ओर दृष्टि हो नहीं जाती थी अन्यथा ये लोग इतने प्रभावशाली न बनते। यह सब पहले भी प्रायोजित था अब भी प्रायोजित है। किंतु प्रतिक्रिया देंगे तो आपको सांप्रदायिक ठहराया जाएगा। कुछ फिल्मकारों ने समाज की वास्तविकता दिखने का प्रयास किया है यह उसी की प्रतिक्रिया में है क्योंकि बीस वर्ष बाद दोनों प्रकार की फिल्मों को देखा जाएगा तो किसको पता होगा कौन सी फिल्म तथ्यों पर आधारित है और कौनसी एजेंडा फिल्म!
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2024
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विजय विक्रान्त 2025/04/16 09:05 PM
बहुत टाइमली विषय चुना है आप ने इस सम्पादकीय का सुमन जी। यहाँ पर सब कुछ साधन होते हुए भी “आज कौन सी मूवी देखी जाए?” प्रश्न का सहज उत्तर नहीं है। झटके में कोई मूवी यदि चुन भी ली तो थोड़ी बाद सिवाय निराशा के कुछ हाथ नहीं लगता। वैसे आजकल की मूवियों में हिंसा के साथ साथ, चुनी हुई गन्दी गालियाँ और “F” शव्द का खुल कर प्रदर्शन करना बढ़ता ही जा रहा है। हॉलीवुड की इस प्रथा को नकल करने वाले फ़िल्म निर्माता और निर्देशकों को शायद लगता होगा कि चोरी की गई यह नकल शायद दर्शकों को पसन्द आएगी। आज की बनी हुई नई फ़िल्मों में इस बात को लेकर मिसालें भरी पड़ी हैं। यह तो सब को पता है कि, कराची में बैठे, दावूद इब्राहिम की बॉलीबुड पर कितनी पकड़ थी। उसके राज में तो जो मूवियाँ बनती थीं उन में सनातन धर्म को और हिन्दी भाषी गीतों को ज़्यादा आगे बढ़ने का मौका ही नहीं दिया तासता था। अब खान माफ़िया के राज में चाहे मूवी से सम्बन्धित हो या न हो, एक सीन जिस में हिन्दुओं को ज़ालिम और मुसलमानों को नेकदिल दिखाने का दृश्य रखना तो आम बात को गई है। एक बार आप से इसी विषय पर हमारी बात हो रही थी जब आप ने ज़िकर किया था कि थोड़े बजट में बनने वाली पँजाबी फ़िल्में साफ़ सुथरी और कम से कम वहाँ के जीवन को तो दर्शाती हैं। इन सब हालात को देखते हुए हालांकि मूवी देखना कम तो हो गया है फ़िर भी कभी कभी यार दोस्तों के बताने पर अच्छी फ़िल्म देखने को मिल ही जाती है।