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36 - शिशुओं की मेल मुलाक़ात


16.8.2003
शिशुओं की मेल मुलाक़ात

चौंक गए न आप... शिशुओं की मेल-मुलाक़ात! वह भी 2-3 माह के शिशु! न वे बोल सकते हैं न बैठ सकते हैं फिर भी मुलाक़ात! असल में 8 नवजात शिशुओं के माँ- बाप ने आपस में मिलने का कार्यक्रम बनाया। ये वे ही हैं जिनकी बच्चों के जन्म से पहले ही चाइल्ड केयर क्लास में मुलाक़ात हुई थी। अब वे एक दूसरे के बच्चों के बारे में जानने को उत्सुक थे साथ ही माता-पिता बनने के बाद अपने खट्टे-मीठे अनुभव भी बाँटना चाहते थे। आज बहू-बेटे को नन्ही सी पोती के साथ वहीं जाना  है। सारे परिवार अपना-अपना खाना बनाकर एक स्थल पर एकत्र होंगे पर एक व्यंजन ऐसा भी बनाना होगा जिसे सब में बाँटकर खाया जा सके। शीतल तो केक बनाने में कुशल है ही। सो केक का सामान जुटाने में लगी है।  

सुबह से ही सब व्यस्त नज़र आ रहे हैं। मेरा समय नाज़ुक सी पोती ने ले रखा है। लो मैंने उसे गुलाबी फ्रॉक भी पहना दिया। एकदम गुलब्बो परी लग रही है। बेटे ने अवनी को सँभाला और शीतल बैग लिए उसके साथ चल दी –मैंने हाथ हिला दिया –बाई—बाई बाई –बाज़ी जीत कर आना।

शाम को घर में क़दम रखते ही शीतल चहकने लगी, “मम्मी जी, अवनि बच्चों के बीच ख़ूब हँस रही थी। हूँ –हूँ करके अजीब आवाज़ें निकाल रही थी। कोई उसे चुस्त कह रहा था तो कोई मस्त। इसने जब पैर का अँगूठा मुँह में दिया तो एक माँ ने कह ही दिया- अवनि तो सब बच्चों में आगे है।” यह सुनकर मेरे मन में तो जलतरंग बजने लगी। मेरे कहना सच हो गया –उसने बाज़ी मर ली थी। 

संध्या होते ही अवनि बेचैन नज़र आने लगी।  मैंने उसे बहुत सँभालने की कोशिश की पर एँ –यह क्या –वह तो पसर पड़ी। मेरे ललाट पर पसीने की बूँदें छ्लछ्ला आईं। बहू का सहारा लेने की गरज से बोली – “बेटा ,अवनि को कुछ समय के लिए ले लो।” 

पर उसकी नाक पर तो ग़ुस्सा आकर बैठ गया- “इसे सँभालू या घर।” 

उसका नीला–पीला होना एक हद तक ठीक था क्योंकि चाँद का दोस्त विपिन अपने माता-पिता के साथ डिनर पर आने वाला था। मुझे  बेटे पर झूँझल आए बिना न रही— बड़बड़ करती रही – करती रही - “आज ही क्यों बुला लिया। टाला भी तो जा सकता था। शीतल इतना थकी आई है। वह तो मजबूरन काम में लग गई पर अवनि  तो कोमल सी बच्ची है । थकान से आँखें झपझपा रही थीं। उसे भी तो माँ की गोद चाहिए। बच्चे के साथ इतना तामझाम चलता है क्या!” पर किसी को मुझे समझने या मेरी बात सुनने की फ़ुर्सत न थी। झक मारकर चुप हो गई।  

उसे बहलाने के लिए पास के  पार्क में घुमाने ले गई। कुछ चुप तो हुई पर ठंडी हवा के झोंकों का आनंद नहीं ले रही थी। मेरे दिमाग़ में तो यह बात जम गई कि किसी कलमुँही की नज़र लग गई है।अब कैसे उतारूँ नज़र! यही चिंता खाने लगी। अगर भारत में होती तो आनन-फानन में फिटकरी को उस पर सात बार फिराकर टुकड़े को अग्नि के हवाले कर  देती। फिटकरी पिघलकर उसका आकार ले लेती है जिसकी कुदृष्टि बच्चे पर पड़ती है। मैंने तो शुरू से ऐसे ही नज़र उतारी थी। मेरी  माँ भी यही करती थीं। अब यहाँ बिजली के चूल्हे में फिटकरी कैसे डालूँ! मन की बात  किसी से कह भी तो नहीं सकती! बेटा तो छूटते ही कहेगा- “अरे अम्मा!कौन सी सदी की बातें कर रही हो?— ये सब तो फालतू की बातें हैं।” मानो या न मानो पर बुरी भावना का असर ज़रूर होता है। हमारे बड़े-बूढ़ों ने भी कहा है – स्त्री धन ,गौ धन, संतान धन और विद्या धन को तेज़ाबी नज़र से  बचाकर रखना चाहिए। 

रात को अवनि ने  बड़ा परेशान किया । मेहमानों के आने पर उसने जो रोना शुरू हुआ थमा ही नहीं। वैसे तो किसी के आने पर जब माँ की गोदी नहीं मिलती थी तो थपथपाने और लोरी सुनाने पर मेरी  बाँहों में सो जाती थी लेकिन उस दिन तो मैं फ़ेल हो गई। आख़िर में तुम्हारा पापा आया और उसकी गोदी में एक मिनट में ही सो गई। मान गए पापा का प्यार जीत गया। 

- क्रमश: 

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