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अन्तिम इच्छा

सत्तर की आयु पार करते ही देवधर के शरीर ने साथ देना छोड़ दिया। दमे की शिकायत तो उन्हें काफ़ी समय पहले से थी। सर्दी के दिनों में जब उनकी साँस उखड़ जाती तो खाँसते-खाँसते वह बेदम हो जाते। कई-कई रातें उनकी खाँसी की भेंट चढ़ जातीं, मगर दमे से उन्होंने कभी हार नहीं मानी, न कभी अपनी इस बीमारी से टूटे। वह टूटे तो तब भी नहीं थे, जब पाँच साल पहले अचानक हृदय गति रुक जाने से उनकी पत्नी उन्हें हमेशा के लिए अकेला छोड़कर संसार से चली गयीं थीं। दुःख की उस घड़ी में भी उन्होंने यह सोचकर अपने मन को समझा लिया था कि जीना और मरना तो विधि का विधान है, इंसान इसमें कुछ नहीं कर सकता। मगर अचानक सड़क दुर्घटना में हुई बड़े बेटे की मौत ने उन्हें दिल-ओ-दिमाग़ से ही नहीं, शरीर से भी तोड़ दिया था। उस दिन तो वह ऐसे फूट-फूट कर रो रहे थे कि किसी के चुप कराए नहीं चुप कर रहे थे। किसी की तसल्ली, किसी की सहानुभूति उनके आँसुओं को नहीं रोक पा रही थी। उस दिन लोगों को इस बात का अहसास हो गया था कि देवधर अपने बच्चों से बेहद प्यार करते थे। 

औलाद के नाम पर भगवान् ने देवधर को तीन बेटे ही दिये थे, जिनकी परवरिश उन दोनों पति-पत्नी ने बड़ी हसरतों से की थी। ज़िन्दगी की सारी पूँजी देवधर ने अपने तीनों बेटों की पढ़ायी-लिखायी और उनके शादी-ब्याह में ख़र्च कर दी थी। जायदाद के नाम पर उनके पास एक छोटा-सा पुश्तैनी मकान और दो छोटी दुकानें थीं, जिनके किराये से वह अपनी बड़ी विधवा बहू और उसके बच्चों की गुज़र-बसर कर रहे थे। दोनों छोटे बेटे अपने-अपने बीबी-बच्चों के साथ दिल्ली में रहते थे। पत्नी की मृत्यु के बाद देवधर ने उन दोनों से कहा भी था कि दोनों भाई उनके पास आकर रहेंगे तो अच्छा रहेगा, लेकिन उन दोनों ने दिल्ली से आने के बाद अच्छी जॉब न मिलने का बहाना बनाकर उनकी बात को हमेशा टाल दिया। 

माँ की मृत्यु से पहले दोनों भाई कभी-कभार माँ-बाप से मिलने भी आ जाते थे और देवधर को थोड़ा-बहुत ख़र्चे-पानी के लिए पैसे भी दे जाते थे, लेकिन माँ के मरने के बाद दोनों अपने पिता और बड़े भाई-भाभी को भूल से गये थे। देवधर कभी उनसे न आने की शिकायत भी करते तो दोनों अपने बच्चों की पढ़ाई का नुकसान होने का बहाना बना देते या फिर यह कहकर देवधर को समझा देते कि उनकी बीबियों को ए.सी. में रहने की आदत है और आपके यहाँ एक कूलर भी नहीं है। उनके यहाँ घर के काम के लिए नौकर हैं, और आपके यहाँ सारा काम अपने हाथों से करना पड़ता है। ऐसे में हम यहाँ आकर कैसे रह सकते हैं? फिर हम सोसायटी वाले लोग हैं। हमारा अपना एक स्टेटस है, लेकिन यहाँ क्या है? न कोई स्टेटस और न कोई सोसायटी। उनकी बातें सुनकर देवधर को दुःख तो बहुत होता, मगर वह उस दुःख को व्यक्त नहीं कर पाते और चुप होकर मन में सोचते रहते कि मेरा ही ख़ून होकर, मुझसे ही स्टेटस और सोसायटी की बात करते हैं। 

जब छोटे बेटों ने उनकी नहीं सुनी तो उन्होंने बड़े बेटे से आग्रह किया कि वह भी अच्छा-भला पढ़ा-लिखा है। यहाँ रहकर प्राइवेट नौकरी करके अपना और अपने बच्चों का भविष्य काला करने से तो अच्छा है, दिल्ली चला जाये और अपने छोटे भाईयों की तरह ख़ुशहाल ज़िन्दगी बसर करे। लेकिन बड़े बेटे ने तंगहाली और बदहाली झेलकर पिता की सेवा और देख-रेख करना उचित समझा। 

दो साल पहले बड़े बेटे की मौत के बाद उसकी पत्नी सुनंदा ने देवधर को बहुत समझाया कि वह अपने दोनों छोटे बेटों के पास दिल्ली चले जायें। वहाँ रहकर कम-से-कम बुढ़ापा तो चैन से कटेगा। अच्छी-भली चीज़ खाने को मिलेगी तो आयु के कुछ दिन और बढ़ जायेंगे। यहाँ क्या है, मुश्किल से एक वक़्त की रोटी मिल पाती है, वो भी रूखी-सूखी, जिन्हें बूढ़े दाँतों को चबाना और बूढ़ी आँतों को पचाना मुश्किल हो जाता है। लेकिन देवधर यही कहकर ख़ामोश हो जाते कि ताने और दुत्कार की खीर खाने से तो इज़्ज़त की सूखी रोटी भली है।

समय का चक्र अपनी धुरी पर घूम रहा था। बीमारी के बिस्तर पर पड़े-पड़े देवधर यही सोच-सोचकर दिन-व-दिन मोमबत्ती की तरह पिघल रहे थे कि सुनंदा की पहाड़-सी ज़िन्दगी कैसे कटेगी? कैसे पढ़ायेगी-लिखायेगी अपने बच्चों को? यहाँ तो मदद के नाम पर भी इंसान अकेली अबला के शरीर को भूखे भेड़िए की तरह घूरने लगता है। 

यही सब सोचते-सोचते उनकी कमज़ोरी ने रफ़्तार पकड़ ली। सही इलाज और दवा न मिलने के कारण खाँसी एक मिनट के लिए भी ख़ामोश नहीं होती। खाँसते-खाँसते फेफड़े दुखने लगते। आँखें बाहर को निकल आतीं। सुनंदा मन मसोसकर और छटपटाकर रह जाती। बेचारी कर भी क्या सकती थी? उसके पास-पल्ले कुछ होता तो कुछ करती भी। दुकान के किरायेदारों से भी काफ़ी कुछ एडवांस में ले चुकी थी। हार-झक मारकर बेचारी बार-बार अपने छोटे देवरों को फोन मिलाती और देवधर की पल-पल बिगड़ती हालत के बारे में बताती और उनसे आने और आकर पिताजी को देख जाने की गुहार लगाती, लेकिन उन दोनों में से किसी के ऊपर कोई असर न होता। दोनों कोई-न-कोई बहाना बनाकर उसे टाल देते। 

ज़िन्दगी और मौत से जूझते हुए देवधर को एक दिन अचानक ऐसी खाँसी उठी, कि उसने थमने का नाम ही नहीं लिया। सुनंदा कभी अपने ससुर को पानी गरम करके पिलाती तो कभी उनकी पीठ मसलती, मगर खाँसी ने अपना ज़ोर कम नहीं किया। सुनंदा की समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे, अपने ससुर को कैसे तसल्ली दिलाये। डॉक्टर भी सुनंदा की मजबूरी को सुनते-सुनते ऊब चुके थे, कोई भी उसे उधार दवा देने के लिए तैयार नहीं था। 

आख़िरकार वही हुआ, जो होना था। खाँसते-खाँसते देवधर के मुँह से ख़ून का फव्वारा छूटा और वह हमेशा के लिए ख़ामोश हो गये। सुनंदा के हाथ से जैसे ज़िन्दगी खिसक गयी। कुछ पल के लिए तो वह ऐसी हो गयी, जैसे वह अपनी सुध-बुध खो बैठी हो। फिर उसने अपने आपको सँभाला और चिर-परिचितों को अपने ससुर के मरने की सूचना दे डाली। 

सूचना मिलते ही सभी नाते-रिश्तेदार आ गये, और देवधर के अंतिम संस्कार की सभी तैयारियाँ भी पूरी कर ली गयीं, लेकिन देवधर के दोनों छोटे बेटे और उनके बीबी-बच्चे दिल्ली से अभी तक नहीं आये थे। सभी को उनका बेसब्री से इंतज़ार था। 
लम्बी प्रतीक्षोपरांत दोनों बेटे अपनी-अपनी कारों से आ गये। उन्हें देखकर उनके दूर के चाचा ने कहा, "बेटा, हम सब तुम लोगों की ही राह देख रहे थे। इतनी देर कैसे हो गयी?”

"चाचा जी, दिल्ली कोई दस क़दम पर तो है नहीं, जो छलाँग लगाते ही आ जाते। इतनी दूर से आने में देर तो लगती ही है। फिर मरने वाला तो मर गया, उसके चक्कर में अपना बिज़नेस थोड़े ही छोड़ दिया जायेगा, उसे भी देखना पड़ेगा।"

मँझले की बात पूरी होने से पहले ही छुटका एकदम झल्ला कर बोला, "ओ हो चाचा जी, अब इन सब बेकार की बातों में वक़्त बरबाद करने से कोई फ़ायदा नहीं है, जो करना है, जल्दी करो, क्योंकि हमें वापस भी जाना है।" 

"तो क्या तुम दोनों आज ही चले जाओगे? और बाक़ी के संस्कार....?" चाचा जी ने आश्चर्य से पूछा तो मँझला झुँझला कर बोला, "चाचा जी, हिन्दू रीति-रिवाज और परम्परा के मुताबिक हमारे लिये पिता जी को मुखाग्नि देना ज़रूरी था, वरना हमारे पास तो साँस लेने की भी फ़ुर्सत नहीं है।"
 
मँझले की बात सुनकर सुनंदा ने कहा, "देवर जी, आप लोग परेशान मत होइए। अगर आप लोगों के पास फ़ुर्सत नहीं है तो आप लोग वापस दिल्ली चले जाइए और अपना काम-धन्धा देखिए। वैसे भी पिता जी की अंतिम इच्छा के मुताबिक उन्होंने मुखाग्नि देने का भी अधिकार आप दोनों को नहीं, मुझे दिया है, इसलिए यह काम मैं कर लूँगी, आप लोग जाना चाहें तो जा सकते हैं।" सुनंदा की बात सुनकर वहाँ खड़े सभी लोग भौचक्के रह गये और उसका मुँह ताकने लगे। 

"मैं ठीक कह रही हूँ देवर जी, अगर आप लोगों को मेरी बात पर यक़ीन नहीं हो रहा है तो वकील साहब खड़े हैं, यह ख़ुद आप लोगों को बता देंगे, कि पिता जी की अंतिम इच्छा क्या थी।"
 
सुनंदा के कहते ही पास खड़े वकील साहब ने सबको सम्बोधित करते हुए कहा, "सुनंदा ठीक कह रही हैं। देवधर जी ने मरने से कुछ ही दिन पहले अपने पूरे होशो-हवास में अपनी वसीयत लिखवायी थी, लेकिन यह वसीयत पढ़ने का समय नहीं है, फिर भी मैं वसीयत पढ़कर सुना देता हूँ, ताकि आगे के लिए आप लोगों में कोई विवाद न रहे।" 

कहकर उन्होंने देवधर द्वारा लिखवायी वसीयत को पढ़ना शुरू किया, "मैं देवधर वल्द लीलाधर अपने पूरे होशो-हवास में अपनी वसयित लिखवा रहा हूँ, इसमें किसी ने मुझसे कोई ज़ोर-ज़बरदस्ती नहीं की है। न ही यह वसीयत किसी के दबाव में लिखी जा रही है। वैसे तो इस वसीयत को लिखवाने की कोई ज़रूरत नहीं थी, फिर भी मैं यह वसीयत लिखवा रहा हूँ, क्योंकि मैं नहीं चाहता कि मेरे मरने के बाद मेरे दोनों बेटों में से मुझे कोई बुरा-भला कहे। हालाँकि जायदाद के नाम पर मेरे पास इस समय सिर्फ़ एक पुश्तैनी मकान और दो छोटी दुकानें हैं, जो किराये पर चल रही हैं, जिनके किराये से मैं अपनी विधवा बहू और पोते-पोती का कर्चा चला रहा हूँ। 

"वैसे तो मेरी इस जायदाद पर मेरे दोनों छोटे बेटों का कोई हक़ नहीं बनता है, क्योंकि वह अपने बीबी-बच्चों समेत दिल्ली में रहते हैं और ख़ुशहाल ज़िन्दगी बिता रहे हैं। दोनों के पास अच्छा बिज़नेस भी हैं और सब कुछ होने के बावजूद भी इन दोनों ने मेरी कभी कोई सुधि नहीं ली, न ही मेरे सुख-दुःख में कभी काम आये। जबकि मेरी बड़ी बहू सुनंदा विधवा है, उसके पास न तो कोई नौकरी है और न ही आय का कोई अन्य साधन, जिससे वह अपनी और अपने बच्चों की जीविका चला सके। इसलिए मेरी जो भी अचल संपत्ति है, उसकी हक़दार केवल और केवल सुनंदा को ही होना चाहिए, क्योंकि सुनंदा ने साथ रहकर हर-हाल में मेरी सेवा-टहल की है। सुख-दुःख में मेरा साथ दिया, फिर भी मैं उसका यह हक़ छीनकर अपने दोनों छोटे बेटों को दे रहा हूँ। क्योंकि मैं नहीं चाहता कि मेरे मरने के बाद वह दोनों मेरी बड़ी बहू सुनंदा को परेशान करें, उसे मारें-पीटें और उसका जीना मुश्किल कर दें, क्योंकि इनकी प्रवृत्ति पैसा हो गयी है। इंसानी रिश्तों की इन्हें ज़रा भी परवाह नहीं है, मुझे मालूम है कि ये मेरे मरने के बाद सुनंदा का जीना दुश्वार कर देंगे। मुझे दुःख है कि सुनंदा ने मेरे लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया। मेरे लिए उसने अपनी ख़ुशियाँ होम कर दीं और निःस्वार्थ भाव से मेरी सेवा-टहल की, फिर भी मैं उसे सम्पत्ति के नाम पर कुछ नहीं दे रहा हूँ, क्योंकि मुझे सुनंदा पर पूरा भरोसा है कि वह बहुत हिम्मत वाली है और हर हाल में अपने बच्चों की परवरिश कर सकती है। मुझे सुनंदा पर यह भी भरोसा है कि वह मेरे इस फ़ैसले के लिए मुझे माफ़ कर देगी। मेरे बेटे जैसे चाहें, इस सम्पत्ति को बेचकर आपस में बाँट सकते हैं। इसके अलावा मेरी हार्दिक इच्छा है कि मेरी मृत्यु के बाद मेरे मृत शरीर का दाह संस्कार मेरे दोनों बेटों से नहीं, बल्कि मेरी बड़ी बहू सुनंदा से करवाया जाये, यह मेरी अन्तिम इच्छा है और मुझे विश्वास है कि मेरी आत्मा की शांति के लिए मेरी यह इच्छा ज़रूर पूरी की जायेगी।" देवधर। 

देवधर की वसीयत के बारे में सुनकर उनके दोनों बेटों का सिर शर्म से नीचे झुक गया। उन्हें ख़ामोश देखकर, उनके चाचा ने कहा, "बेटा, क्या सोच रहे हो? ...ऐसे तो देवधर भईया के अन्तिम संस्कार का समय निकल जायेगा। .....क्या करना है, बोलो...?"

चाचा जी की बात पर मँझला गंभीर होकर बोला, "चाचा जी, ग़लती तो हमसे इतनी बड़ी हुई है कि उसका प्रायश्चित भी अगर हम करना चाहें, तो नहीं कर सकते हैं। सचमुच हमने अपने पैसे और बिज़नेस के घमण्ड में जीते-जी अपने माँ-बाप और बड़े भाई-भाभी को कुछ नहीं समझा, हमेशा सबकी उपेक्षा करते रहे। लेकिन आज हमें पता चला कि दुनियां में माँ-बाप और भाई-बहन से बढ़कर कुछ भी नहीं है, पैसा भी नहीं। अब हमारे माँ-बाप और बड़े भईया तो इस दुनिया में रहे नहीं, जिनसे हम अपने गुनाहों की माफ़ी माँग सकें, लेकिन मरने के बाद हम अपने पिता जी की अंतिम इच्छा को ज़रूर पूरा करेंगे, ताकि उनकी आत्मा को शांति मिल सके। चाचा जी, मुझे छुटके के बारे में तो नहीं पता कि वह क्या सोच रहा है, लेकिन मैं पिता जी की वसीयत में से कुछ भी नहीं लूँगा। पिता जी की वसीयत में से मेरा जो भी हिस्सा बनता है, उसे मेरी बड़ी भाभी को दे दिया जाय।"

"भईया ठीक कह रहे हैं चाचा जी, पिता जी ने हमसे मुखाग्नि देने का हक़ छीनकर हमें यह अहसास करा दिया कि वास्तव में हमसे बहुत बड़ी भूल हुई है, जीते-जी हमने अपने माँ-बाप की सुधि नहीं ली। हमारी वजह से उनका दिल दुःखा। हम इस लायक़ नहीं हैं कि हमें माफ़ किया जाये। हम सुनंदा भाभी के भी गुनाहगार हैं, उनके बुरे वक़्त पर भी हमने उनका और उनके बच्चों का ख़याल नहीं किया। जबकि भाभी ने आर्थिक और मानसिक तंगी को भी झेलकर हमारे माता-पिता की सेवा टहल की। मुसीबत के दिनों में भी उनका साथ नहीं छोड़ा, आख़िरी साँस तक पिता जी का साथ दिया। हम भाभी के इस ऋण को कभी नहीं उतार सकेंगे। मेरी भी यही इच्छा है वसीयत का मेरा हिस्सा भी भाभी को दे दिया जाये, जिससे उनकी और उनके बच्चों की परवरिश होती रहे।" 
 

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टिप्पणियाँ

छाया अग्रवाल 2019/03/05 04:01 PM

कहानी के अन्तिम मुहाने पर आते-आते पलके भीग गयी। यूँ तो कहानी का ये यथार्थ वर्तमान का ही नही बल्कि पहले से चला आ रहा है फिर भी लेखक की सशक्त लेखनी ने बड़ी परिपक्वता से एक-एक शब्द संजोया है। गुडविन मसीह जी को इस मार्मिक कहानी के लिये हार्दिक बधाई जिसे पढ़ कर शायद और भी परिवार संभल जायें। छाया अग्रवाल बरेली

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