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अपने अपने रास्ते

गाँव में बग़ैर मर्द के अकेले रहना क्या होता है यह रामप्यारी से बढ़कर कौन जान सकता था? उसकी जवानी किसी तरह से बीत गई थी। अब पैंतालिस साल की उम्र में अचानक पति के चले जाने से इस दुनिया में वह एकदम अकेली पड़ गई। इसके बाद तो रामप्यारी के ऊपर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा। कहने को उसका पति जबर सिंह साल में दो बार ही मुश्किल से घर आ पाता था। यह वही जानती थी उसने जवानी पति के बग़ैर कैसे गुज़ारी थी।  

सावन के महीने जब बाहर पानी बरसता तब उसके अंदर की आग को शांत करने वाला कोई नहीं रहता था। जैसे-तैसे उसने अपने जवानी के दिन गुज़ार ही लिए थे। साल में दो बार ही सही दो हफ़्ते के लिए पति का साथ पाकर वह ख़ुश हो जाती। जबर सिंह दिल्ली से उनके लिए रुपए भेज देता। इससे उनकी गृहस्थी आराम से चल रही थी बाक़ी वह खेतों में मेहनतकर अपनी रोज़मर्रा की ज़रूरतें पूरी कर रही थी। 

अचानक एक दिन सड़क दुर्घटना में जबरसिंह चल बसा। रामप्यारी सहसा इस ख़बर पर विश्वास न कर सकी। उसके मालिक शर्माजी ने यह ख़बर प्रधानजी के घर उसे बुलाकर फोन से बताई थी। वे बोले, "मैं जानता हूँ तुम पर क्या बीत रही होगी। जबर सिंह हमारे लिए परिवार के सदस्य की तरह था। उसके जाने का हमें भी उतना ही दुख है जितना तुम्हें हो रहा होगा। हमारे रहते तुम चिंता मत करना। मुझसे जो भी बन पड़ेगा मैं ज़रूर करूँगा।"

दुख की इस घड़ी में शर्माजी का इतना ही सहारा रामप्यारी के लिए बहुत था। वह रोशन को अकेले भेजने की हिम्मत न जुटा सकी। उसके कहने पर शर्माजी ने जबरन सिंह का दाह संस्कार विधि-विधान से दिल्ली में करवा दिया और उसके अस्थियों के फूल चुनकर अपने कर्मचारी पवन के हाथ उसके गाँव भिजवा दिए। वही उन्हें मुसीबत की इस घड़ी में रुपए भी दे गया था। गाँव वालों ने जब यह ख़बर सुनी तो वह उसे सांत्वना देने आने लगे। गाँव में लोग रह ही कितने गए थे? कुल मिलाकर पंद्रह परिवार थे जिनमे महिलाएँ ही ज़्यादा थीं। 

"रो मत माँ जो होना था। सो हो गया। तू ही हिम्मत छोड़ देगी तो मैं किसके सहारे जिऊँगा?"

बेटे की बात सुनकर रामप्यारी का कलेजा मुँह को आ गया। वह उसे सीने से लगाकर रोने लगी। अट्ठारह साल का बेटा रोशन उसके साथ गाँव में रह रहा था। बड़ी बेटी रुक्मिणी की उन्होंने दो साल पहले शादी कर दी थी और वह अपने ससुराल में ख़ुश थी। 

पिता के चले जाने के बाद रोशन उसका बहुत ख़्याल रखता था लेकिन वह पति की जगह तो नहीं ले सकता था। 

बेटे की ख़ातिर उसने जल्दी ही अपने को किसी तरह से सँभाला और फिर घर के काम-धंधे में लग गई। 

शर्माजी ने वायदे के मुताबिक़ जबर सिंह का बाक़ी पैसा उसके गाँव भिजवा दिया था। अब आगे कोई उम्मीद न थी। रोशन जब कमाने लायक़ हो जाता तभी घर में चार पैसे आ सकते थे। एक महीने बाद शर्माजी ने फिर फोन किया, "जबर सिंह हमारा बहुत विश्वासपात्र आदमी था। उसने हमेशा जी-जान से मेरे परिवार की सेवा की। उसने बताया था तुम्हारा एक जवान बेटा है। अगर तुम ठीक समझो तो जबर सिंह की जगह उसे हमारे पास भेज दो। हम उसका बहुत ख़्याल रखेंगे। वह हमारे काम में हाथ बँटा देगा। इससे तुम्हें गृहस्थी चलाने में दिक़्क़त नहीं होगी।"

रामप्यारी सोच नहीं पा रही थी कि रोशन को अपने से दूर कैसे करे? दिल्ली ने उसके पति को निगल लिया था। ऐसा न हो बेटा भी वहीं का होकर रह जाए। उसने यह बात रोशन को बताई। वह बोला, " माँ घर चलाने के लिए कभी न कभी मुझे काम पर जाना ही होगा। तू जानती है मैं तेरे बग़ैर नहीं रह सकता। तू भी मेरे साथ दिल्ली चल ।"

"अपना गाँव छोड़कर कैसे चलूँ? मेरी जान यही रमती है। शहर के एक छोटे से कमरे में मैं कैसे जी पाऊँगी? यहाँ की खुली हवा में मेरे प्राण बसते हैं। बेटा मैं बग़ैर काम किए नहीं रह सकती।"

"तू ठीक कह रही है। मैने हमेशा तुझे काम करते हुए देखा है। बाबूजी बताते थे उनके मालिक बहुत बड़े आदमी हैं। वे उन्हें प्यार से रखते थे। तभी तो उनका दिल शहर में लगा रहता था। नहीं तो ऐसी जगह बग़ैर परिवार के रहना आसान नहीं है। शहर में बग़ैर मतलब के कोई किसी से बात भी नहीं करता।"

"इतनी छोटी उम्र में तू कितनी समझदारी की बात करने लगा है बेटा," कहकर रामप्यारी की आँखें भर आई। उसे समझ नहीं आ रहा था वह बेटे को अपने से दूर कैसे करें?  हफ़्ते भर तक अपने आप से लड़ने के बाद रामप्यारी रोशन को दिल्ली भेजने के लिए तैयार हो गई। शर्माजी ने सुना तो वे ख़ुश हो गए। 

"तुम रोशन की बिल्कुल चिंता मत करना। तुम जानती हो जबर सिंह के साथ हमारा क्या रिश्ता था? हम उसके बेटे को अपने साथ बहुत प्यार से रखेंगे।"

"रोशन कभी गाँव से बाहर तक नहीं गया। उसे दुनियादारी की समझ नहीं है।"

"तुम चिंता मत करो धीरे-धीरे सब सीख जाएगा। जबरसिंह को भी पहले कुछ कहाँ आता था। बाबूजी ने उसे कुछ ही समय में सबकुछ सिखा दिया। रोशन भी सीख लेगा।" 

उनकी बातों से आश्वस्त होकर रामप्यारी ने रोशन को दिल्ली भेजने की हामी भर दी। शर्माजी ने दूसरे ही दिन एक आदमी को रोशन को लाने के लिए गाँव भेज दिया।  

रोशन को माँ से बिछड़ने का बहुत दुख हो रहा था। रामप्यारी का भी रो-रोकर बुरा हाल था। किसी तरह दिल पर पत्थर रखकर उसने रोशन को अपने से दूर किया। बेटे के जाते ही उसे घर काट खाने को आ रहा था। रात भर उसे नींद नहीं आई। उसे बेटे की चिंता सता रही थी कि वह बग़ैर माँ के कैसे रहेगा? उसे शहर के बारे में कुछ भी नहीं पता। रोशन के दिल्ली पहुँचने पर शर्माजी ने प्रधान जी के घर फोन कर ख़बर दे दी। 

रामप्यारी का गाँव में अकेले दिल नहीं लग रहा था। रात खुलते ही वह खेतों पर चली जाती और रात पड़े घर में दाख़िल होती। आज तक बेटे की वज़ह से उसका खाना बनाने का मन करता था। उसके चले जाने पर वह दूध रोटी खाकर गुज़ारा कर रही थी। कुछ दिन बाद उसकी बेटी रुक्मिणी आई। माँ का हाल देखकर उसे बहुत दुख हुआ। पहले पिता के चले जाने का ग़म और अब भाई का दिल्ली जाना माँ के लिए परीक्षा की घड़ी थी। एक हफ़्ते वह माँ के साथ रही। उसने माँ को समझाया, "माँ ऐसे खाए-पिए बग़ैर कैसे काम चलेगा? तू अपने को सँभाल। रोशन तो लोगों के बीच है। यहाँ तू अकेली पड़ गई है।"

"मुझे समझ नहीं आ रहा इस घर में अकेले कैसे रहूँ?"

"तू अकेली कहाँ है? गाँव में इतने लोग हैं। अपनी किसी सहेली को बुला लिया कर बातचीत करने के लिए।"

" रोज़-रोज़ कौन आएगा बेटी? सबके अपने काम धंधे हैं।"

"माँ तू ठीक कहती है। अपने लिए पहल तुझे ही करनी पड़ेगी।"

बेटी के कहने पर रामप्यारी अब खाना बनाने लगी। अंदर से वह पूरी तरह टूट गई थी। छह महीने बाद रोशन घर आया। वह उससे लिपट गई। उसका रूपरंग एकदम बदल गया था। शहर में रहकर उसका लिबास से लेकर बोलचाल का ढंग तक बदल गया।"

"तू ठीक है बेटा?"

"माँ मालिक बहुत अच्छे हैं। वे मेरा बहुत ख़्याल रखते हैं। मैं उनके घर के कामों में हाथ बँटाता हूँ। बदले में अच्छा खाना-पीना, रहना सबकुछ मिल जाता है। मुझे वहाँ कोई परेशानी नहीं है। इस बार तू भी मेरे साथ चल।"

"मैं वहाँ आकर क्या करूँगी? मैं यहीं ठीक हूँ। यहाँ मवेशियों, खेती-बाड़ी और जंगल के बीच मेरा थोड़ा बहुत मन लग जाता है। तू काम पर चला जाएगा तब मैं ख़ाली बैठकर क्या करूँगी?"

"माँ मैं तेरी परेशानी समझता हूँ। क्या करूँ घर चलाने के लिए रुपए भी चाहिए।"

बड़ी देर तक दोनों बातें करके दिल का बोझ हल्का करते रहे। महीनों बाद रामप्यारी को आज अच्छी नींद आई थी। बेटे को देखकर उसे संतोष था कि वह शर्मा जी के साथ सुरक्षित है। 

दो साल गुज़र गए। मालिक के साथ रहकर रोशन दुनियादारी और काम दोनों सीख गया। वह माँ को हर महीने रुपये भेज देता और प्रधानजी के घर फोन कर उसके हालचाल भी पता कर लेता। 

इस बार रोशन घर आया तो वह ख़ुश था। 

"लगता है तेरा दिल दिल्ली में रम गया।"

"माँ तेरे बग़ैर मेरा कहीं भी दिल नहीं लगता। इस बार मैं एक ख़ुशख़बरी लेकर आया हूँ। मालिक मुझे अपने बेटे आदित्य के साथ लंदन भेजना चाहते हैं।"

"तूने क्या कहा?"

"तेरी इजाज़त के बग़ैर मैं इतना बड़ा क़दम कैसे उठा सकता हूँ? जब तू हाँ कहेगी तभी जाऊँगा।"

"मेरा मन नहीं मानता। तेरे दिल्ली जाने से मेरी जान तुझ पर अटकी रहती है। तू विदेश चला जाएगा तो मैं जी नहीं पाऊँगी।"

"ऐसा नहीं कहते माँ। देख लेना विदेश जाकर हमारे दिन फिर जाएँगे। तुझे खेतों में काम करने की ज़रूरत नहीं रहेगी। मैं जल्दी ही वहाँ से ढेर सारे रुपए कमा कर वापस आ जाऊँगा । तब हम दोनों एक अच्छा सा घर लेकर साथ रहेंगे।"

"तरक़्की सभी को चाहिए है बेटा। अपनों से दूर रहकर रुपए पैसों का क्या करना? दौलत भी तभी भली लगती है जब अपने साथ हो।"

"ऐसा मौक़ा बार-बार नहीं मिलता। तू ढंग से सोचकर बताना। आदित्य वहाँ नया बिजनेस शुरू करना चाहता है। उनकी बेटी कामिनी वहीं रहती है। दोनों भाई-बहन मिलकर कारोबार करेंगे।"

"तू वहाँ जाकर क्या करेगा? तू मालिक के साथ दिल्ली में ठीक है।"

"मालिक चाहते हैं मैं आदित्य के साथ लंदन जाऊँ जिससे उसे वहाँ कोई तकलीफ़ न हो," रोशन बोला। 

रामप्यारी उसकी बातें सुनकर दुविधा में पड़ गई। एक तरफ़ गाँव के अल्पशिक्षित लड़के को विदेश जाने का सुनहरा मौक़ा मिल रहा था। दूसरी ओर उसकी ममता बेटे को अपने पास रोके रखना चाहती थी। 

एक हफ़्ते तक वह अपने से लड़ती रही। बहुत सोच समझकर उसने एक शर्त के साथ रोशन को लंदन जाने की इजाज़त दे दी। 

"बेटा तेरी इच्छा लंदन जाने की है तो चला जा लेकिन उससे पहले तुझे एक काम करना होगा।"

"वह क्या माँ?"

"तुझे जाने से पहले शादी करनी होगी।"

"यह क्या कह रही है? मेरे इतनी दूर चले जाने पर वह यहाँ कैसे रहेगी?"

"वह किसी तरह रह लेगी। उसके ख़ातिर तुझे वापस लौटकर आना ही पड़ेगा बेटा।"

"तू क्या समझती है मैं वहीं जाकर बस जाऊँगा?"

"यह बात नहीं है बेटा। अभी तू चार-छह महीने में मुझसे मिलने चला आता है। जब सात समुंदर पार चला जाएगा तब मैं अकेले तेरे बग़ैर कैसे रहूँगी? मुझे भी किसी का साथ चाहिए।"

माँ की बात सुनकर रोशन चुप हो गया। उसे भी माँ की चिंता थी। वह ठीक कह रही थी पता नहीं एक बार विदेश जाने के बाद फिर कब आकर माँ से मिलना हो। वह बोला, "ठीक है तेरी यही इच्छा है तो तू अपने लिए बहू ढूँढ़ ले। मैं अभी दिल्ली जा रहा हूँ। कुछ महीने बाद वापस आऊँगा। इस दौरान मेरे विदेश जाने के काग़ज़ भी तैयार हो जाएँगे।"

रोशन की बात सुनकर रामप्यारी को तसल्ली हो गई। दूसरे दिन से ही उसने बहू की ढूँढ़ शुरू कर दी। नज़दीक के गाँव में एक ग़रीब परिवार की सुंदर सी लड़की गंगू को देखकर उसने रोशन का रिश्ता तय कर दिया। 

दो महीने बाद रोशन घर आया। साधारण रीति-रिवाज़ से रामप्यारी बहू को ब्याह लाई। शादी करके रोशन बहुत ख़ुश था। अनपढ़ गंगू दिखने में बहुत सुंदर थी। गोरा रंग, तीखे नैन-नक़्श देखकर सब रोशन के भाग्य की सराहना कर रहे थे। गंगू अट्ठारह और रोशन इक्कीस साल का था। वे एक दूसरे के प्यार में खोये थे। दो हफ़्ते कब बीत गए पता ही न चला। 

रोशन को पहले दिल्ली और उसके एक हफ़्ते बाद लंदन के लिए उड़ान भरनी थी। नई-नवेली पत्नी को छोड़कर जाना उसके लिए मुश्किल हो रहा था। मजबूरी थी। वह बोला, "चिंता मत करना गंगू मैं जल्दी वापस आऊँगा। फिर हम तीनों आराम से एकसाथ आराम की ज़िंदगी बसर करेंगे।" गंगू ने पति की इच्छा का विरोध नहीं किया। वह भी सुनहरे भविष्य का ख़्वाब देख रही थी। 

रामप्यारी को बेटे के जाने का बहुत बुरा लग रहा था। जवान बहू गंगू का मुँह देखकर उसने संतोष कर लिया। भारी मन से रोशन दिल्ली के लिए रवाना हो गया। उसके एक हफ़्ते बाद वह लंदन पहुँच गया। 

रामप्यारी और गंगू दोनों पढ़ी-लिखी नहीं थी। इसकी वज़ह से रोशन चिट्ठी भेजने में संकोच करता। वह जानता था पोस्टमैन काका उन्हें चिट्ठी पढ़कर सुनाएँगे। वह रुपये भेजने के साथ अपनी कुशलता का छोटा सा संदेश लिख देता। 
रामप्यारी को संतोष था कि बेटे के विदेश से आने पर उनकी सारी परेशानियाँ हमेशा के लिए ख़त्म हो जाएँगी और फिर वे सुकून भरी जिंदगी गुज़ारेंगे। 

रामप्यारी गंगू को देखकर सब्र कर लेती कि अब वह घर पर अकेली नहीं है। उसके साथ काम करने और बातें करने के लिए बहू है।  रोशन के जाने का गंगू को बहुत ख़राब लग रहा था। अभी वे दोनों एक-दूसरे को ठीक से समझ भी नहीं पाये थे। दिन के समय वह अपने को काम में व्यस्त रखती लेकिन रात को अकेले समय काटे नहीं कटता था। उसे रह-रहकर रोशन की याद आती। उसकी भोली बातों को याद कर वह रोमांचित हो उठती। उसे समझ नहीं आ रहा था जुदाई का इतना लंबा समय वह कैसे काटेगी?

रामप्यारी इन सब बातों को जानकर भी अनजान बनी हुई थी। दोनों सास बहू एक दूसरे का ख़्याल रखते। रामप्यारी घर का काम करती और गंगू बाहर के काम समेटती। सुबह उठकर खेत का काम निपटाकर वह नाश्ता करने घर आ जाती और उसके बाद अपने आठ मवेशियों को लेकर जंगल की ओर निकल पड़ती। दोपहर में लौटते समय वह जानवरों को नदी से पानी पिलाकर घर आती।  खाना खाने के बाद थोड़ी देर आराम कर वह फिर शाम को खेतों में काम करने लग जाती। यह उसकी रोज़ की दिनचर्या थी। 

गाँववालों ने जंगल में मवेशी चराने के लिए इलाक़े निश्चित कर रखे थे। सब अपने इलाक़े में मवेशी चराते और दो-चार घंटे बाद भरी दोपहरी में वापस आ जाते। 

मवेशियों को चराते हुए गंगू अपनी वर्तमान ज़िंदगी के बारे में सोचने लगती। जानवरों का मुक्त प्रणय निवेदन उसे रोमांचित कर जाता। जिन्हें न कोई लोक लाज का डर था और न किसी की परवाह। 

गंगू से कुछ दूर हटकर उसके हमउम्र मुँह-बोले देवर देबू के मवेशी घास चरते। अक़्सर जंगल में उन दोनों का सामना हो जाता। गंगू उसे बहुत अच्छी लगती थी। आते-जाते वे थोड़ी-बहुत बात भी कर लेते। गाँव का शुद्ध दूध और घी खाकर देबू की सेहत बहुत अच्छी थी। 

आज गंगू की बछिया धौली गंगू के पास से भागकर सीधे देबू के मवेशियों की तरह चली गई। गंगू ने उसे बहुत आवाज़ लगाई लेकिन वह नहीं रुकी। उसने दूर से देबू को आवाज़ लगाई, "इस धौली को इधर हका देना। यह मेरी आवाज़ नहीं सुन रही है।"

"अच्छा भौजी अभी हटा देता हूँ," कहकर देबू ने बछिया को अपने मवेशियों के पास आने से पहले ही लौटा दिया। वह काफ़ी दूर तक उसे छोड़ने आया। वहाँ पर गंगू उसका इंतज़ार कर रही थी। 

"पता नहीं आज इसे क्या हो गया? बार-बार साथ छोड़कर तुम्हारे तरफ़ भाग जा रही है।"

"धौली सयानी हो गई है भौजी। वह अपने साथी की तलाश में घूम रही है।"

उसकी बात सुनकर गंगू लजा गई। उसे समझ नहीं आ रहा था इस बात का क्या जवाब दे? यह तो उसे बोलने से पहले सोचना चाहिए था। 

देबू ने चुटकी ली, "धौली पर नज़र रखना भौजी और इसे मेरे मवेशियों की तरफ़ मत आने देना।"

गंगू ने भी पलटकर जवाब दिया, "अपने साथी मवेशियों में जब इसे कोई पसंद ही नहीं आ रहा है तो साथी की तलाश में यह भटकेगी ही। हो सकता है तुम्हारे मवेशियों में से कोई उसे पसंद आ जाए।"

"ठीक कह रही हो। इंसानों से ये जानवर भले हैं। अपनी इच्छा पूरी करने के लिए किसी की परवाह नहीं करते। हम तो चाहकर भी कुछ नहीं कर पाते हैं," कनखियों से गंगू को देखकर देबू बोला। 

"अच्छा चलती हूँ," कहकर उसने धौली के गले में पड़ी रस्सी पकड़ी और उसे लेकर वापस आ गई। थोड़ी देर में वह मवेशियों के साथ घर की ओर चल पड़ी। देबू की कही बात उसके ज़ेहन में घूम रही थी। समझ नहीं आ रहा था कि उसने यह बात धौली के लिए कही थी या उसे सुनाने के लिए। 

दूसरे दिन फिर वही हुआ जिसका डर था। धौली ने मौक़ा पाकर दूसरी तरफ़ का रुख़ कर लिया। उसके पीछे-पीछे उसने सारे मवेशियों को उधर ही हका दिया। देबू ने उसे आते देखा तो हँस दिया और बोला, "लगता है भौजी इसकी जवानी आपसे सँभल नहीं रही।"

"तुम ठीक कहते हो। इंसान होता तो कुछ कहती भी। जानवर को कैसे समझाऊँ? उसे तो केवल भूख से मतलब है। जहाँ वह शांत होगी वहीं चला जाएगा।"

बातों के दौरान दोनों के मवेशी नज़दीक आ गए और साथ-साथ चरने लगे। धौली भी उनके बीच में गुम हो गई। देबू और गंगू आपस में बातें करने लगे। समय कब कट गया पता ही न चला। पेटभर घास खा लेने के बाद मवेशी पानी की तलाश में लौटने लगे थे। गंगू और देबू भी वहाँ से चल दिए। 

देबू को गंगू का साथ बहुत अच्छा लगा। अगले दिन गंगू ने पहले ही मवेशी चराने के लिए देबू के नज़दीक वाली जगह तय कर ली। दोनों के मवेशी साथ चरते रहते और वे दोनों अपनी बातों में लग जाते।  कुछ ही दिनों में वे एक दूसरे के नज़दीक आ गये। जंगल की खुली हवा, पशु पक्षियों का साथ व निर्जन पहाड़ियाँ उनके अंदर की दबी कोमल भावनाओं को उकसाने लगे थे। 

ऐसे ही एक दिन हल्की सी बारिश की बौछारें पड़ रही थीं। तभी धौली को अपने साथी के साथ प्रणय निवेदन करते देख देबू ने गंगू का हाथ पकड़ उसे अपनी ओर खींच लिया। गंगू उसके ऊपर गिर पड़ी। दोनों एक दूसरे की साँसों को बहुत क़रीब से महसूस कर रहे थे। दोनों कब एक दूसरे में समा गए पता ही नहीं चला। होश तब आया जब बारिश तेज़ होने लगी और मवेशी इधर-उधर भागने लगे। गंगू ने जल्दी से अपने को व्यवस्थित किया और मवेशियों को लेकर  घर की ओर चल पड़ी। प्रेम पिपासा शांत हो जाने पर देह पर पड़ती बारिश की बूँदें उसे बहुत अच्छी लग रही थीं। देबू उसे बड़ी दूर तक जाते हुए देखता रहा। घर आकर वह अपने को तरो-ताज़ा महसूस कर रही थी। उसे पता ही नहीं लगा कि प्रकृति की सुरम्य वादियों में वह कब देबू के इतने क़रीब आ गई। आज का अनुभव इतना रोमांचित कर देने वाला था कि वह बड़ी देर तक कल्पना लोक में विचरती रही। उसे आने वाले कल का बेसब्री से इंतज़ार था। 

सुबह हुई। उसने जल्दी से काम निबटाए और मवेशियों के साथ जंगल आ गई। देबू पहले से उसका इंतज़ार कर रहा था। आज उन्हें किसी औपचारिकता की ज़रूरत न थी। गंगू के आते ही उसे पेड़ों की ओट के पीछे खींचकर अपनी बाँहों में भर लिया। 

दोनों एक दूसरे का साथ पाकर बहुत ख़ुश थे। गंगू के चेहरे की रौनक़ रामप्यारी अच्छी तरह से महसूस कर रही थी। उसे समझ नहीं आ रहा था कल तक बुझी-बुझी सी रहने वाली गंगू अचानक इतनी ख़ुश कैसे रहने लगी? उसने पूछा भी लेकिन वह टाल गई। 

गाँव वालों की नज़रों से दूर उन दोनों का प्रेम परवान चढ़ रहा था। उसे रोशन से कोई शिकायत न थी। वह उसका पति था लेकिन उसकी ज़रूरत देबू पूरी कर रहा था। जवानी की उमंग में उसे और कुछ सूझ नहीं रहा था। गाँव वालों को इसकी भनक तक नहीं लगी थी। किसी ने उन्हें साथ नहीं देखा था। देखता भी कैसे? देबू ने लताओं से घिरी एकांत जगह को सँवारकर अपनी प्रेम स्थली बना लिया था। दुनिया की नज़रों से दूर प्रकृति के सुरम्य वातावरण में वे रति और कामदेव बनकर अपनी दुनिया में मगन थे। 

दो साल तक सबकुछ ठीक चल रहा था। एक दिन सुबह गंगू का जी मचलाने लगा। रामप्यारी ने पूछा, "क्या हुआ गंगू?"

"पता नहीं सुबह हरी सब्ज़ी खाई थी। शायद उसके कारण मेरी तबीयत ख़राब हो गई।"

"तू आराम कर आज मवेशी लेकर मैं जंगल चली जाती हूँ,"रामप्यारी बोली। 

"थोड़ी देर में तबीयत ठीक हो जाएगी तो मैं ही चली जाऊँगी," गंगू बोली। कुछ देर बाद अपने को किसी तरह सँभालकर वह मवेशियों के साथ जंगल पहुँच गई। देबू उसका कब से इंतज़ार कर रहा था। 

"क्या हुआ? आज तूने आने में देर कर दी।"

"मेरी तबीयत ठीक नहीं थी। पता नहीं क्यों जी मचला रहा था?"

"अब कैसी है?" कहकर देबू ने जैसे ही उसके माथे पर हाथ रखा वह अपनी सारी तकलीफ़ भूलकर उसकी बाँहों में समा गई। दोपहर तक वह घर लौट आई। आज उसकी देह भारी हो रही थी। अचानक उसके दिमाग़ में विचार कौंधा
 'कहीं वह गर्भवती तो नहीं हो गई’?

यह सोचते ही उसका सिर एकदम से घूम गया। 

'अगर यह बात सच हुई तो वह क्या करेगी? कैसे दुनिया को मुँह दिखाएगी?' सोचकर उसका जी और कसैला हो गया। सच में ऐसा हो गया तो उसके सामने एक ही रास्ता रह जाएगा कि लोक-लाज की ख़ातिर वह इस बात के जग-ज़ाहिर होने से पहले अपनी जीवन लीला समाप्त कर ले। 

तभी उसके अंदर हूक उठी –

'नहीं वह इतनी बुज़दिल नहीं है जो आत्महत्या जैसा निंदित कक़म उठाएगी।'

'तो और रास्ता ही क्या बचा है तुम्हारे पास?' उसके विवेक ने झकझोरा। 

'सोचने पर रास्ते खुल जाते हैं। आख़िर पति के चले जाने के बाद उसने अपने सुख के लिए यह रास्ता भी तो खोजा था।'

'आगे के लिए भी सोच लेना क्या होगा जब गर्भावस्था के चिह्न शरीर पर दिखने लगेंगे?'

'तब की तब देखी जाएगी। वह अभी से यह सब सोचकर अपना दिमाग़ क्यों ख़राब करें और अपने हाथ आए ख़ुशियाँ समेटने के अवसर क्यों जाने दे?'

अपने आप को समझाकर वह काफ़ी हद तक शांत हो गई। उसने इसके बारे में देबू से कुछ कहना उचित नहीं समझा। वह जानती थी यह सुनकर वह घबरा जाएगा और फिर कभी उसके नज़दीक नहीं आएगा। वह अभी जीवन का और सुख भोगना चाहती थी और उससे दूर नहीं रहना चाहती थी। वह और दिनों की तरह उससे मिलती रही। समय गुज़रने के साथ उसके अंदर नन्हा अंकुर पनपने लगा। उसके शरीर में थोड़ा बदलाव आने लगा। रामप्यारी ने पूछा, "गंगू अचानक तुम्हें क्या हो गया है? तू मोटी होती जा रही है।"

"जी काम-धंधे के कारण इस उम्र में शरीर खुल जाता है। यह कोई नई बात थोड़े ही है," अंदर से वह घबरा रही थी कि आज सास ने यह बात महसूस की। कल गाँव वाले भी प्रश्न करेंगे तो क्या होगा?

उसने मन बना लिया था कि वह जल्दी ही यह गाँव छोड़कर कहीं दूर चली जाएगी। किसी को पता नहीं लगेगा कि उसके साथ क्या हुआ और वह अचानक क्यों चली गई? उसके अंदर तूफ़ान चल रहा था। इन सब बातों से अनभिज्ञ देबू उससे मिलता और अपने प्यार का इज़हार करता।  

नई सुबह के साथ गंगू की चिंता बढ़ जाती। वह देबू का मोह नहीं छोड़ पा रही थी। उसकी बलिष्ठ भुजाओं के घेरे में उसे असीम आनन्द मिलता। इसी वज़ह से उसे अगला क़दम उठाने में अड़चन हो रही थी। लोक-लाज के कारण उसे गाँव छोड़ना मंज़ूर था। कुछ और दिन इस सुख को भोगने का लालच उसे अभी ऐसा करने से रोक रहा था। 

तभी अचानक एक दिन बिना कुछ बताए रोशन घर आ गया। उसे देखकर रामप्यारी और गंगू दोनों चौंक गए। उसका हुलिया बदल गया था। किसी साहब की तरह सूट-बूट में सजा वह बहुत हैंडसम लग रहा था। रामप्यारी बेटे को देखकर सदमे में आ गई। 

"क्या हुआ माँ?"

"मुझे लगता था तू हमें भूल ही गया है बेटा।"

"कैसी बात करती है? माँ कभी भूली जाती है?"

"पिछले एक साल से तूने चिट्ठी भेजनी बंद कर दी। मनी ऑर्डर के साथ ही ज़रा सा संदेश लिख देता था। तू सोच नहीं सकता है तेरे बिना हम दोनों की ज़िंदगी यहाँ कैसे कट रही है?"

"तुम्हें परेशान होने की क्या ज़रूरत थी? मैं इतना रुपया भेज रहा था कि तुम दोनों की ज़िंदगी आराम से कट सके।"

"तेरी बात ठीक है। रुपयों से इंसान की कमी पूरी थोड़ी की जा सकती है। उसकी कमी तो वही इंसान पूरी कर सकता है। रुपयों में साँसें कहाँ होती है बेटा?"

माँ की बात सुनकर रोशन चुप हो गया। रामप्यारी जानती थी गंगू भी पति से मिलने के लिए छटपटा रही होगी। वह सब्ज़ी लाने का बहाना कर बग़ीचे की ओर बढ़ गई ताकि दोनों को साथ रहने का मौक़ा मिल जाए। डरी सहमी सी गंगू रोशन के पास पहुँची। रोशन ने उसे अपनी बाँहों में ले लिया। दोनों के बीच इतने वर्षों की जुदाई की गर्मजोशी कहीं खो सी गई थी। बस औपचारिकता निभाने के लिए दोनों एक दूसरे के आग़ोश में थे। ज़रा देर में अपने को रोशन से अलग कर गंगू बोली, "तुम अचानक बग़ैर बताए कैसे आ गए? तुमने चिट्ठी पत्री भेजनी भी बंद कर दी थी।"

"तुम ही बताओ मैं क्या लिखता चिट्ठी में? तुम ख़ुद उसे पढ़ नहीं सकती हो। किसी और से पढ़वाती तो वह मेरा मज़ाक बनाता।" उसकी बात सुनकर गंगू चुप हो गई। वे थोड़ी देर तक बातें करते रहे तभी रामप्यारी वापस आ गई और रोशन माँ से बातें करने में लग गया। 

"सच कहते हैं विदेश जाकर आदमी बिल्कुल साहब बन जाता है। तू भी साहब लग रहा है।"

"वहाँ जाकर मेरे दिन फिर गए हैं। मुझे सब साहब कहकर बुलाते हैं।"

"ऐसा क्या हो गया?"

"बताऊँगा पहले थोड़ा आराम कर लेने दे," इतना कहकर रोशन कमरे में आ गया। दोपहर का खाना खाने के बाद गाँव के लोग उससे मिलने आ गए थे। सब उसके बदले हुए रूप को देखकर हैरान थे। 

रात हुई। खाना खाने के बाद उसने गंगू से बात शुरू की, "गंगू मेरे यहाँ न रहने से तुझे बहुत परेशानी हुई होगी।"

"अब तुम आ गए हो मेरी सारी परेशानी ख़त्म हो गई," गंगू बोली। इस समय उसका आना गंगू के लिए बहुत बड़ी सुरक्षा ढाल बन गया था। 

"मैं किसी ख़ास काम से यहाँ आया हूँ गंगू।"

"अपने घर आने के लिए वज़ह नहीं ढूँढ़नी पड़ती। पहेली मत बुझाओ मेरा दिल घबरा रहा है।"

"मैं जानता हूँ मेरी बात सुनकर तुम्हें बहुत बुरा लगेगा। मैं तुम्हें और ज़्यादा दिन तक ज़ँधेरे में नहीं रख सकता। क्या बताऊँ मुझे पहले से ज़रा भी अंदेशा न था कि लंदन जाकर मजबूरन दूसरी शादी करनी पड़ेगी।"

"यह क्या कह रहे हो? मज़ाक तो नहीं कर रहे मेरे साथ?"

"यह सच है गंगू। तुम्हें सीने पर पत्थर रख इस सच को स्वीकार करना होगा। मैं ऐसा करना नहीं चाहता था लेकिन परिस्थितियों के आगे विवश हो मुझे यह करना पड़ा।"

"ऐसा क्या हो गया?"

"मालिक ने मुझे अपने बेटे के साथ काम के लिए लंदन भेजा था। वहाँ उनकी बेटी कामिनी रहती है। उसके पति की कुछ समय पहले कैंसर से मौत हो गई।"
"इन सबका तुमसे क्या लेना देना?"

"मालिक कामिनी की दूसरी शादी कराना चाहते थे। वह इसके लिए तैयार न थी। इसी वज़ह से उन्होंने मुझे वहाँ भेजा ताकि वह मेरे साथ घुल-मिल जाए और फिर शादी के लिए हाँ कह दे।"

"तुम शादी के लिए मना कर सकते थे।"

"ज़िंदगी भर एक नौकर की ज़िंदगी गुज़ारने से अच्छा था कि मैं उनका दामाद बनकर मालिक की इज़्ज़तदार ज़िंदगी बसर करूँ। बस यही सोचकर मैंने हाँ कह दी।"

"माँ इस बात को जानती है?"

"नहीं मैंने पहले यह बात तुम्हें बताई। तुम मेरा साथ दोगी तो मैं माँ को मना लूँगा। तुम निश्चिंत रहो। मैं जीवन भर तुम्हारे लिए रुपयों की कमी नहीं होने दूँगा," रोशन बोला। 

गंगू को समझते देर न लगी कि जैसे वह अपनी जवानी को नहीं सँभाल सकी वैसे ही रोशन भी लंदन में अपने को नहीं सँभाल सका। एक छत के नीचे रहते हुए कामिनी और रोशन को एक होने में ज़्यादा वक़्त नहीं लगा होगा। 

ऐसी मुश्किल घड़ी में गंगू को रोशन किसी देवदूत सा लग रहा था। उसे उसकी दूसरी शादी की बात पर कोई एतराज़ नहीं हुआ। ख़ुद उसके गले में इस वक़्त मुसीबत का फंदा लटक रहा था। शुक्र था उसने जल्दबाज़ी नहीं की थी। वरना अभी तक वह हमेशा के लिए गाँव छोड़ने के बाद कहीं धक्के खा रही होती। जीवन के प्रति मोह ने उसे रुस्वाई से बचा लिया था। उसने सोच लिया वह रोशन का साथ देगी। इससे उन दोनों की मुश्किलें हल हो जाएगी। इज़्ज़त के साथ जीने के अलावा उसकी ज़िंदगी में रुपयों का अभाव हमेशा ख़त्म हो जाएगा। वह बोली, "जो होना था सो हो गया। परिस्थितियाँ किसी के बस में कहाँ होती हैं? आपने अच्छा किया जो ख़ुद बताने चले आए। मैं किसी और से यह सब सुनती तो बहुत बुरा लगता कि तुमने मुझे भरोसे के क़ाबिल भी नहीं समझा।"

"तुम ठीक कहती हो गंगू। तुमने मेरे दिल का बोझ उतार दिया," रोशन बोला तो गंगू उसके सीने से लग गई। गंगू का पति के प्रति समर्पण देखकर रोशन उसे इस वक़्त अपने से अलग नहीं कर पाया। 

लंदन से आते हुए उसने सोचा था कामिनी से शादी करने के बाद वह उससे पूरी वफ़ादारी निभाएगा और गंगू को हाथ भी नहीं लगाएगा। उसे उम्मीद थी उसकी बात सुनकर गंगू बहुत रोएगी, गिड़गिड़ायेगी और ख़ुद उससे दूर हो जाएगी। इस पर भी वह कठोर बना रहेगा। यहाँ सब कुछ उल्टा हो गया था। गंगू ने बिना विरोध के उसकी बात स्वीकार कर ली। न चाहते हुए भी उसने गंगू को बाँहों में भर लिया। आज उसे ऐसी समर्पित पत्नी पर बहुत प्यार आ रहा था। उसे ख़ुश करने के लिए उसने पति होने का फ़र्ज़ निभा दिया। आख़िर वह भी उसकी ब्याहता थी। 

रोशन के साथ रात बिताकर गंगू के दिल से बहुत बड़ा बोझ उतर गया। दूसरे दिन सुबह रोशन ने यह बात माँ को बता दी। वह परेशान हो गई। 

"गंगू का क्या होगा?"

"माँ तू उसकी चिंता मत कर। मैंने उसे समझा दिया है। मैं जीवन भर तुम दोनों का बहुत ख़्याल रखूँगा। तुम चाहो तो मेरे पास मिलने आ सकती हो। गंगू को मैं वहाँ नहीं ले जा सकता। मैंने उन्हें नहीं बताया कि मेरी पहले शादी हो चुकी है," रोशन बोला। 

रामप्यारी को गंगू पर पड़ा तरस आ रहा था 'अब वह क्या करेगी? पहाड़ सी जवानी बिना पति के कैसे कटेगी?'

दूसरे दिन गंगू बहुत आश्वस्त थी और सब काम बहुत दिल लगाकर कर रही थी। रोशन ने बहुत सारा रुपया माँ के खाते में डाल दिया था। दो दिन गाँव में बिताकर वह लौट गया। पति-पत्नी की औपचारिकता निभाकर वे दोनों अपने-अपने रास्ते चल दिए। अब रोशन के सुनहरे भविष्य की अड़चन दूर हो गई और गंगू के सिर से बेवफ़ाई का बोझ उतर गया। उसके जाने के बाद गंगू ने राहत की साँस ली। देबू को पता लग गया था रोशन घर आया हुआ है। उसने किसी तरह दो दिन गंगू की जुदाई सहन की। तीसरे दिन वह ख़ुशी-ख़ुशी उससे मिलने मवेशियों के साथ जंगल आ गई। देबू की उसे देखे बग़ैर आँखें तरस गई थीं। गंगू हमेशा की तरह उससे प्यार से मिली तब जाकर उसकी जान में जान आई। 

"रोशन भाई बड़ी जल्दी चले गए?"

"उन्हें कुछ ज़रूरी काम था। मुश्किल से दो दिन का समय निकालकर घर आए थे।"

आज देबू को उसे छूने की हिम्मत नहीं हो रही थी। पता नहीं वह कैसी प्रतिक्रिया दे?

"सही मायने में मेरा साथ तूने निभाया है देबू," इतना कहकर वह उससे लिपट गई। 

पूरे महीने भर बाद गंगू का तन और मन दोनों बहुत हल्के हो गये थे। इस दौरान उसने अपने-आप से बहुत संघर्ष किया था। अब उसे किसी की परवाह न थी। 

कुछ समय बाद गंगू के गर्भवती  होने के लक्षण शरीर में दिखाई देने लगे। ऐसी हालत में रामप्यारी ने उसे जंगल जाने से मना कर दिया। उसे डर था कहीं कोई बात न हो जाए। गंगू पर उसकी सारी उम्मीदें लगीं थीं। अब वह घर का काम देखती और रामप्यारी बाहर का। अक़्सर देबू बहाने से उसका हालचाल जानने घर चला आता। उसके गर्भवती होने से देबू थोड़ा सशंकित था। गंगू से मिलकर उसे ऐसा कुछ नहीं लगा। वह उससे बात कर आश्वस्त होकर चला गया। 

नौ महीने पूरे हो जाने पर प्रसव पीड़ा से तड़पती गंगू ने जुड़वां बच्चों पूजा और दीपक को जन्म दिया। रामप्यारी ख़ुशी से फूली नहीं समा रही थी। यह बात उसकी समझ से परे थी कि इतनी जल्दी बच्चे इस दुनिया में कैसे आ गये? उसके हिसाब से अभी दो महीने बाक़ी थे। उसकी शंका का समाधान दाई ने कर दिया। 

"काकी ये दोनों बच्चे वक़्त से पहले सातवें महीने पैदा हो गए," उसका जवाब सुनकर वह ख़ुश हो गई। दुनिया के सामने गंगू का राज़ उसी तक सिमटकर रह गया। बच्चों की पैदाइश के बाद गंगू का सारा ध्यान उन्हीं पर लग गया। दो बच्चों को सँभालना कोई आसान काम नहीं था। गंगू बोली, "जी इस बारे में अपने बेटे को कुछ न बताना। मैं उन्हें परदेश में परेशान नहीं करना चाहती। यह सुनकर कहीं उनकी ज़िंदगी में कोई तूफ़ान न आ जाए।"

"तू ठीक कहती है। जब वह घर आएगा तभी बता देंगे। वैसे भी अब न उसकी चिट्ठी आती है और न फोन पर बात होती है। बस समय से उसके रुपए ज़रूर आ जाते हैं।" रामप्यारी सोच रही थी, 'जीने के लिए अब रुपयों की कमी न थी। बस उसके भाग्य में बेटे का प्यार नहीं रहा।'

गंगू ख़ुश थी कि रोशन ने अचानक गाँव आकर उसे रुस्वाई से बचा लिया।

इतना ज़रूर था अपनी ज़रूरत के लिए सामाजिक बंधनों को दरकिनार रखने पर भी गंगू ने अपने जीवन का अंत करने की कभी नहीं सोची। उसे ख़ुद से बहुत प्यार था। वह अधूरी नहीं पूरी स्त्री बनकर जीना चाहती थी। वह परिस्थितियों के आगे मजबूर हो गई थी फिर भी उसने जीवन के प्रति मोह नहीं छोड़ा। उसे ज़िंदगी से कभी इस बात की शिकायत न थी। 

माँ बनने के बाद गंगू में बहुत परिवर्तन आ गया। माँ की ममता के आगे अन्य इच्छाएँ गौण होने लगीं। उसने ठान लिया जल्दी ही वह गाँव छोड़कर शहर चली जाएगी। जहाँ वह अपने और अपने बच्चों के लिए अच्छी ज़िंदगी चुन सके। उसने रामप्यारी को भी अपने साथ ले जाने का मन बना लिया। इस उम्र में उसके बच्चे पूजा और दीपक ही उसका सहारा थे। गंगू जानती थी कि रामप्यारी उन बच्चों को सीने से लगाकर रखेगी जो दुनिया की नज़र में उसके पोता और पोती थे। वह कभी नहीं जान पायेगी कि वे उसके बेटे रोशन की औलाद नहीं थे। गंगू ने यह राज़ देबू पर भी ज़ाहिर नहीं होने दिया। 

जो कुछ भी उसने किया गंगू को उसका ज़रा पछतावा न था। इसके लिए सभी रामप्यारी, रोशन, देबू और वह स्वयं ज़िम्मेदार थी। वे सब स्वार्थ के धागे में गुँथे हुए थे। रामप्यारी को साथ, रोशन को रुतबा और आरामदायक ज़िंदगी, गंगू और देबू को शारीरिक सुख की चाह थी। सबने अपना सुख देखा। तभी उसने किसी को दोषी नहीं ठहराया और सारी परेशानियाँ अकेले झेली। परिस्थितियों के अनुसार उसे जो ठीक लगा उसने वही किया और ख़ुद को कभी अपनी नज़रों में गिरने नहीं दिया। रोशन लंदन में अपनी पत्नी के साथ सुखी था। उसे भी यहाँ ख़ुश रहने का पूरा हक़ था। गंगू ने बच्चों के साथ गाँव से दूर ख़ुशहाल ज़िंदगी जीने का मन बना लिया और वह उसकी तैयारी में लग गई। कुछ समय बाद देबू की शादी हो गई। यह सुनकर गंगू को ज़रा भी बुरा न लगा। 

एक बार रोशन ने अचानक गाँव आकर उसे गुमनामी की ज़िंदगी जीने से उबार लिया था। गंगू को बदले में उसे आज़ाद कर बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ी। भविष्य में ऐसी कोई उम्मीद न बची थी। अब उसे हर क़दम सँभालकर रखना था। 

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टिप्पणियाँ

पाण्डेय सरिता 2021/07/16 02:32 PM

विचित्र जीवन की विचित्र कहानी

डॉ पदमावती 2021/07/16 08:56 AM

सच कहा आपने । सब के रास्ते अपने अपने है । मूल्यों और संस्कारों को तो तथाकथित सभ्यता निगल गई है । सबके पास अपना औचित्य है , अपना विचारों का दायरा है । सार्थक शीर्षक । बधाई आपको ।

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