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भारतीय-संस्कृति का आख्यान : ‘भारत-भारती’

मैथिलीशरण गुप्त (1886-1964) हिंदी के आधुनिक कविता के महत्त्वपूर्ण रचनाकार हैं। उनकी कविता का मुख्य स्वर है- समसामायिक संदर्भों में भारतीय संस्कृति का पुनःआख्यान। उनकी प्रकाशित कृतियों में साकेत, यशोधरा, द्वापर, जयद्रथ-वध, नहुष, पंचवटी, जयभारत, गुरुकुल, इन्दु, रंग-में-भंग, हिडिम्बा, गुरु तेग बहादुर, तथा भारत-भारती विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।

आज से सौ वर्ष पूर्व सन् 1912 में लिखित ‘भारत-भारती’ लिखित में कवि ने भारतीय संस्कृति के विभिन्न पक्षों का आवश्यकतानुसार संदर्भ दिया है। कवि ने भारतीय संस्कृति के मूल बिंदुओं-सत्य, सदाचार, अतिथि-सत्कार, मानवयीता, अहिंसा, धर्माचार, आदि की और इस रचना के माध्यम से भारतवासियों का ध्यान आकर्षित किया। कवि ने अनेक पौराणिक प्रसंगों, अनेक पौराणिक व्यक्तित्वों का उद्धरण देकर अपनी बात को प्रभावशाली बनाया है। श्री राम और श्री कृष्ण, सीता, अनसूया आदि की सहायता से कवि ने अपने युग को आदर्श दिखाने व मार्ग-दर्शन करने का स्तुत्य प्रयास किया है।

मैथिलीशरण गुप्त ने भारत-भारती में भारतीय संस्कृति से संबंधित आस्था को व्यक्त किया है। भारतीय संस्कृति में गाय का महत्व बहुत अधिक है। गाय दूध देने के अलावा अन्य कार्यों में भी हमारी सहायता करती है। जैसे खेतों में हल चलाने वाले बैल गाय से ही मिलते है, गाय से प्राप्त पंचव्य मानव-मात्र के लिए अधि क लाभदायक है। कवि ने वैज्ञानिक तकनीकी उपकरणों के बढ़ते प्रयोगों पर व्यंग्य किया है-

यदि तुम कहो-अब हम कलों से काम लेंगे सभी;
तो पूछती हैं हम कि क्या वे दूध भी देंगी कभी"।1

गुप्त जी ने वैज्ञानिक तकनीकी उपकरणों के दूरगामी परिणाम पहले से जान लिए थे। आधुनिक समय में उपकरणों की महत्ता अधिक होने से भारतीय संस्कृति में गाय व बैलों की कमी होती चली गई। जहाँ गाय का शुद्ध दूध, मक्खन, घी आदि प्राप्त होते थे वहाँ आधुनिक उपकरणों के तहत् मिलावटी दूध, घी आदि मिलते हैं जिससे व्यक्ति के स्वास्थ्य पर दुष्प्रभाव पड़ रहे हैं तथा नई-नई बीमारियाँ जन्म ले रही हैं।

भारत-भारती में कवि ने भारतीय संस्कृति में बदलते हुए मूल्यों को चित्रित किया है। समाज में विवाह का बहुत अधिक महत्व है। विवाह होने के बाद नारी अनेक प्रकार के सुहाग चिह्नों का प्रयोग करती है। मैथिलीशरण गुप्त ने भारतीय संस्कृति पर पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव को दिखाया है।

वे चूड़ियाँ तक है विदेशी, देख लो बस हो चुका;
भारत स्वकीय सुहाग भी परकीय करके खो चुका है।।2

गुप्त जी ने पाश्चात्य संस्कृति का भारतीय संस्कृति पर प्रभाव अधिक बताया है। भारतीय संस्कृति में नवीन-विचारों का प्रादुर्भाव हो रहा है। आधुनिक युग में विवाह संबंधी-मूल्यों का अर्थ ही बदल गया है।

प्राचीन तथा मध्यकाल में नारी शादी होने के पश्चात् शृंगार के सभी उपादानों से अलंकृत रहती थी। आधुनिक युग में वह इन मान्याताओं को छोड़कर पाश्चात्य संस्कृति में इतनी रम गई है कि वह शादी होने के बाद भी कुँवारी दिखना चाहती है। विवाह संबंधी चिह्नों का प्रयोग भी नहीं करती है जैसे चूड़ियाँ, सिंदूर आदि।

गुप्त जी ने धर्म के अलग-अलग मापदण्डों को भारत-भारती के माध्यम से व्यक्त करने का प्रयास किया है। भारतीय संस्कृति में धर्म को सर्वोपरि माना है। प्राचीन ग्रंथों में धर्म की प्राप्ति से चारों फलों की प्राप्ति मानी जाती है। सुखों-दुःखों का भोगना मात्र धर्म पर ही निर्भर है। गुप्त जी धर्म के समर्थकों को इन फलों का ज्ञान देते हुए कहते हैं-

निज धर्म्म का पालन करो, चारों फलों की प्राप्ति हो,
दुःख-दाह, आधि-याधि सबकी एक साथ समाप्ति हो।3

कवि मैथिलीशरण गुप्त ने भारत-भारती में देश-प्रेम में लीन चेतना को भी दृष्टिगत किया है। भारतीय संस्कृति में राष्ट्र को महत्व दिया जाता है। कवि का मन देश के प्रति त्याग बलिदान की भावना, से युक्त है।

उन्नति तथा अवनति प्रकृति का नियम एक अखंड है,
चढ़ता प्रथम जो व्योम में गिरता नहीं वही मार्तण्ड है।
पर सोच है केवल वही वह नित्य गिरता ही गया,
जब से फिरा है दैव इससे नित्य फिरता ही गया।।4

कहने का अभिप्राय यह है कि कवि राष्ट्र-प्रेमी है। राष्ट्र के प्रति उनका प्रेम उच्च स्तरीय है। आधुनिक समय में व्यक्ति राष्ट्र के प्रति मन में जिज्ञासा, चेतना, उत्साह का भाव दिखाई नहीं दे रहा है। वह वैयक्तिक स्तर पर केवल भावना को ही महत्व दे रहा है। देश के प्रति मर-मिटने की भावना आज व्यक्ति में नहीं है। जहाँ पहले देश के बारे में सोचा था देश की उन्नति कैसे हो, क्या कार्य किए जाएँ जिससे विकास हो। अब वही सोच आत्मकेंद्रित हो गई है। व्यक्ति केवल अपने बारे में ही सोच रहा है। भ्रष्टाचार फैल रहा है। उन्नति अब अवनति में बदल गई है।

भारत देश ही एक ऐसा देश है। जिसमें अनेक संस्कृतियों का प्रादुर्भाव है। भारतीय संस्कृति में धर्म, परंपरा, रूढ़ियों, विघटन, अंधविश्वास आदि अनेक मूल्यों को भी गुप्त जी ने ‘भारत-भारती’ में चित्रित किया है। समयानुसार व्यक्ति की सोच, विचार आदि सभी में परिवर्तन का भाव आ गया है। कवि नवीन मूल्यों के पक्षधर रहे है।

है सिद्धि मूल यही कि जब जैसा प्रकृति का रंग हो;
तब ठीक वैसा ही हमारी कार्य्य कृति का ढंग हो।
प्राचीन हो कि नवीन छोड़ों रूढ़ियों जो हों बुरी;
बनकर विवेकी तुम दिखाओं हंस जैसी चातुरी।।5

गुप्त जी ने वातावरण के अनुकूल व्यक्ति को बदलने की बात कही है। जीवन परिवर्तनशील हैं समय के साथ जीवन मूल्य भी बदलाव आना स्वाभाविक है। पुरानी परंपराओं, कुरीतियों, रूढ़ियों के साथ चलकर व्यक्ति विकास नहीं कर सकता। आधुनिक समय में व्यक्ति पुरानी रूढ़ियों के साथ नहीं चल सकता। उसे समयानुसार बदलना होगा। विचार बदलेगे तो रूढ़ियाँ भी बदलेगी। बौद्धिक विकास के साथ-साथ देश भी विकास करेगा। कवि ने रूढ़ियों का विरोध किया है।

भारत-भारती में भारतीय संस्कृति में कर्म को भी सर्वोपरि माना है। कर्म व्यक्ति को जीवन में विकास की और अग्रसर करता है। कवि ने आधुनिक व्यक्ति की सोच को दृष्टिगत किया है। हम आज कर्म करने से पहले मानव फल की इच्छा करता है। व्यक्ति के लिए गौण हो गया है, फल प्रधान हो गया। गुप्त जी ने समाज में रह रहे व्यक्तियों के प्रति भेदभाव का विरोध किया हैं जाति-पांति का विरोध किया। उनके लिए मानव महत्वपूर्ण हैं।

कवि ने भारतीय संस्कृति में धर्म, राष्ट्र का ही वर्णन नहीं किया, अपितु समाज में रह रहे व्यक्ति की संवेदना को भी चित्रित किया है।

समाज में अनेक वर्गों के लोगों के जीवन का चित्रण किया है। उनमें से निम्न वर्ग का मर्मस्पर्शी वर्णन किया है। समाज में पीड़ित निम्न वर्ग की आर्थिक स्थिति को चित्रित किया है।

समाज राष्ट्र से जुड़ा हैं। समाज में व्यक्ति अनेक परस्थितियों से घिरा हुआ है जैसे बेरोजगारी, गरीबी व आर्थिक समस्याओं से जुड़ा हुआ है। गरीबी ने व्यक्ति के मन की इच्छाओं, आकांक्षाओं, स्वप्नों आदि पर जैसे अंकुश लगा दिया हो। व्यक्ति का जीवन आशाओं, निराशाओं, कुंठाओं से त्रस्त हो गया है। जीवन जीने की इच्छा खत्म हो गई है। कवि ने इन स्थितियों का हृदय विदारक चित्रण किया है-

वह पेट उनका पीठ से मिलकर हुआ क्या एक है;
मानो निकलने को परस्पर हड्डियों में टेक है।
निकले हुए है दाँत बाहर, नेत्र भीतर है धँसे;
किन शुष्क आँतों में न जाने प्राण उनके है फँसे।
अविराम आँखों से बरसता आसुँओं का मोह है,
है लटपटाती चाल उनकी छटपटाती देह है।
गिरकर कभी उठते यहाँ, उठकर कभी गिरते वहाँ;
घायल हुए से घूमते हैं, वे अनाथ जहाँ-तहाँ।।6

कहने का अर्थ यह है कि गरीबी के कारण व्यक्ति का व्यक्तित्व ही नहीं अस्तित्व भी खो गया है। कवि ने आर्थिक व्यथा से व्ययत समाज का अंकन किया है।

भारत-भारती में गुप्त जी ने समाज में व्याप्त अनेक आंडबरों, स्वार्थ परायणता, रूढ़ियों के प्रतिविरोध, साधु-संतों की ढोंग-विधा आदि पर कटाक्ष किया है। वे सभी का मार्गदर्शन करते हुए कहते हैं-

ब्राह्मण बढ़ावे बोध को, क्षत्रिय बढ़ावे शक्ति को;
सब वैश्व निज वाणिज्य को त्यों शुद् भी अनुरक्ति को।
यो एकमन होकर सभी कर्तव्य के पालक बनें,
तो क्या न कीर्ति विमान चारों और भारत का तनें।7

गुप्त जी वे भारतीय संस्कृति में पौराणिक कथाओं का वर्णन किया है। पौराणिक विषय पर आधारित श्री कृष्ण व श्री राम के अवतार की चर्चा की है।

गुप्त जी ने ‘काव्य ‘भारत-भारती’ में भारतीय संस्कृति की आड़ में लोग कैसे-कैसे अपने दुष्कर्मों को छिपाते है, इसका वर्णन किया है। व्यक्ति के संस्कार ही सामूहिक रूप से संस्कृति का निर्माण करते हैं वही संस्कृति पुनः व्यक्ति में संस्कार भरती हैं कभी कभी अर्थ से अनर्थ भी हो जाता है। कवि इस अर्थ के अनर्थ से व्याकुल है-

सोचो, हमारे अर्थ है यह बात कैसे शोक की;
श्री कृष्ण की हम आड़ लेकर हानि करते लोक की
भगवान को साक्षी बनाकर यह अंनगोपासना,
हे धन्य ऐसे कविवरों को, धन्य उनकी वासना।8

प्रत्येक व्यक्ति को अपनी संस्कृति पर गर्व होता हैं समाज और संस्कृति का एक-दूसरे के बिना काम नहीं चल सकता। समाज का फलक विस्तृत है, समाज में जीवन की समग्रता आ जाती है। रीति-रिवाज, प्राकृतिक लोक-परिवेश आदि सभी इसमें समाहित है। मैथिलीशरण गुप्त ने अपने काव्य ‘भारत-भारती’ में भारतीय संस्कृति के उज्ज्वल रूप को चित्रण तथा रूढ़ियों, परम्पराओं, संस्कारों का विरोध कर नवीन मूल्यों की ओर उन्मुख होकर अपने कृतित्व को सम्द्ध किया है।

समग्रः कहा जा सकता है कि राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त जी ने अपनी अन्य कृतियों की भाँति भारत-भारती में भी भारतीय संस्कृति की महानता दिखाते हुए उसका पुनः आख्यान किया है। भारतीय संस्कृति के आधारभूत जीवन मूल्यों धर्म आधारित मान्यताओं तथा लोक मन में बसी जीवन पद्धति से भारत वासियों को पुनः परिचित कराने का प्रयास किया है जिसमें वह पूर्णतः सफल हुए है।

संदर्भ :

1- भारत-भारती, पृ. 107
2- वही, पृ. 103
3- वही, पृ. 103
4- वही, पृ. 3
5- वही, पृ. 160
6- वही, पृ. 98
7- वही, पृ. 167
8- वही, पृ. 121

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