गुल्लक
कथा साहित्य | कहानी विकेश निझावन20 Oct 2007
"ममी! इस बार कितने दिन के लिये आई हो?" शिप्रा ने आईने पर से नज़र हटाते हुए मेरी ओर देखते हुए पूछा तो मैं खिलखिला कर हँस दी। शिप्रा को बाँहों में भरते हुए मैंने कहा- "मेरी बेटी जब तक चाहेगी मैं उसके पास रह लूँगी।"
"अगर मैं वापिस ही न जाने दूँ...?"
"तो हम नहीं जाएँगे।"
"सच कह रही हो ममी?"
"क्या हम अपनी बेटी से झूठ बोलेंगे?"
"आई लव यू ममी! आई रियली लव यू!" शिप्रा ने मेरे दाएँ गाल पर किस किया और मेरी बाँहों का घेरा तोड़ते हुए बाहर को भाग गई।
शिप्रा के इस निश्छल स्नेह को मैं समझ पा रही थी। यकीनन मेरे प्यार के लिए वह अतृप्त है। इस पूरे साल के बीच मैं बहुत ही कम आ पायी हूँ। सरकारी नौकरी में कितना काम है कितने बन्धन हैं -इन बातों को शिप्रा क्या समझे। उसकी यह उम्र भी तो नहीं है ये सब समझने की। लेकिन इस बार अपनी इस लम्बी छुट्टी के बीच मैं उसे पूरी तरह से अतृप्त कर ही दूँगी। अपना पिछला एकाकीपन भी भूल जाएगी वह।
मैं तो अपनी छुट्टियों का भूली ही चली जा रही थी। वर्मा साहब ने रजिस्टर पर नज़र दौड़ाते हुए मुझे कनखियों से देखते हुए कहा था- "मिसेज श्रीवास्तवा क्या इस बार श्रीवास्तव साहब से झगड़ा करके आयी हैं?"
"क्या मतलब?" मैं चौंकी थी।
"साल खतम होने जा रहा है।"
"फिर?"
"अब तो कुछ रोज़ साहब के पास जाकर रह लीजिए।"
"कैसी बात करते हैं वर्मा साहब! हमारे साहब हमें चाहते हैं और हम उन्हें चाहते हैं यह तो सच है। लेकिन विदाउट पे छुट्टी लेकर घर पर रहना न उन्हें गँवारा है न हमें।"
"भई वही तो बताने जा रहा था। आपकी तो ढेर छुट्टियाँ बन रही हैं। इस पूरे वर्ष में केवल तीन ही तो छुट्टियाँ ली हैं आपने।"
केवल तीन! जतिन की शादी पर ... अरे! मैं तो कन्फयूज़ हो जाती हूँ। वह तो पिछले साल की बात थी। यह वर्ष इतनी तेज़ी से गुज़र गया पता ही नहीं चला। इस बार छुट्टियों में बच्चे यहाँ पर आ गये थे सो उनसे दूरी का पता ही नहीं चला। यों तो उनसे एक-एक पल की दूरी सालती है लेकिन काम के बोझ से इतना दब जाती हूँ कि मुझे उन्हें अपने से दूर रखना ही पड़ता है। यों पिछली बार मेरे चेहरे को देखते हुए पापा ने अनायास कह दिया था- अपनी सेहत का ध्यान रखो। जब बच्चों को हमारे पास छोड़ा है तो हम पर विश्वास भी रखना होगा। यह बात केवल पापा ने ही नहीं ममी भैया और भाभी ने भी कही थी। सच में उनके इन शब्दों से मुझे कहीं भीतर तक राहत मिली थी और मैं बच्चों को लेकर पूरी तरह से निश्चिन्त हो आई थी।
पिछली छुट्टियों में मैंने देव से फोन पर कह दिया था- "मैं इस बार नहीं आ पाऊँगी। नये डायरैक्टर आए हैं अभी हमें उन्हें और उन्हें हमें समझने में समय लगेगा।"
मेरी इस बात पर देव हँस पड़े थे- "भई तुम्हें आने के लिये कह कौन रहा है। छुट्टियाँ शुरू होते ही मैं बच्चों को तुम्हारे पास छोड़ जाऊँगा।"
देव जिस रोज़ आए थे अगले रोज़ ईद की छुट्टी थी। एक रोज़ छोड़ कर रविवार था जिस वजह से देव ने चार छुट्टियाँ बना ली थीं। इन चार दिनों को खूब जिया था हमने। ईद के मेले पर शिप्रा और अर्शी ने ढेरों छोटी-छोटी चीज़ें खरीद डाली थीं। लेकिन घर आकर महसूस किया कि अर्शी को अपनी बन्दूक और शिप्रा को अपनी मिट्टी की बत्तख के आकार वाली गुल्लक बहुत पसन्द थी। मेरे पर्स में पड़ी आठ-दस रूपये की रेजगारी शिप्रा ने घर में आते ही अपनी गुल्लक में डाल ली थी।
हर सुबह उठते ही शिप्रा गुल्लक मेरे सामने ले आती- ममी इसमें कुछ कॉयन्स डालिये न! मुझे अच्छा लगा था कि बच्चे इन छोटी-छोटी चीज़ों के मोह में मुझसे दूर रह सकते हैं।
छुट्टियाँ खतम होने पर देव बच्चों को लेने आए तो शिप्रा का चेहरा उतर गया था। अर्शी नाना-नानी को बराबर मिस कर रहा था लेकिन शिप्रा ने नाना-नानी के नाम पर कोई उत्सकता जाहिर नहीं की। जाने क्यों वह मेरे चेहरे की ओर देखने लगी तो मैंने तपाक से कहा- नाना-नानी से भी हर रोज़ कॉयन्स डलवाती रहना। फिर देखना गुल्लक जल्दी ही भर जाएगी।
पल भर के लिये शिप्रा के होंठ फैले थे लेकिन अगले ही पल फिर सिकुड़ कर रह गये। जाते हुए उसने बॉय किया था लेकिन शब्द उसके होंठों पर नहीं थे। मैं समझ गई थी शिप्रा अब बड़ी हो रही है। सब समझने लगी है वह।
"पापा! एक रोज़ और रुक जाएँ?" रात सोने से पहले शिप्रा ने कहा तो देव डपटकर बोले थे- "दिमाग खराब हो रहा है तुम्हारा! दो महीने रह लिए क्या मन नहीं भरा तुम्हारा?" मैंने महसूस किया था कि शिप्रा सहम गई है।
देव के यहाँ से रवाना होते ही मैंने ममी-पापा से फोन पर कह दिया था कि वे शिप्रा का विशेषरूप से ध्यान रखें। शी इज़ मोर सेन्सिटिव।
"ममी राघव हमें खेलने नहीं देता।" शिप्रा ने अपने हाथ मेरे कंधे पर रख दिए तो मैं वर्तमान में लौटी थी- "तो उसके साथ मत खेलो।"
"ममी वह गंदी-गंदी बातें करता है।"
"कहा न उसके साथ मत खेला करो। अर्शी को अन्दर बुलाओ हम मिलकर केरम खेलेंगे।" मेरी बात पर शिप्रा उछल पड़ी और चहकती हुई सी अर्शी को भी भीतर बुला लाई।
केरम की गोटियाँ सेट करते हुए अर्शी बोला- "ममी राघव को भी बुला लो न!" अर्शी ने नज़र उठा कर बाहर की ओर देखा तो मेरी नज़र भी उधर ही घूम गई। मैंने देखा राघव दरवाज़े की ओट में ललचाई नज़रों से हमारी ओर ही देख रहा था।
"आओ बेटा तुम भी आ जाओ!" मैंने कहा तो शिप्रा एकाएक चिल्ला उठी- "नहीं ममी! इसे नहीं खिलाएँगे हम। इसे अन्दर मत आने दो। ये गन्दा है। गन्दी बातें करता है ये।"
शिप्रा और अर्शी की तरह राघव भी इस घर में पला और बड़ा हुआ है लेकिन शिप्रा की ज़िद्द के आगे मुझे स्वीकारोक्ति देनी ही पड़ी। मैंने ज़रा सा लहजा बदला- "राघव बेटे वो बाई छत पर कपड़े डाल गई थी न वो उतार ला। मौसम खराब है कहीं बारिश ही न आ जाए।" वह मुड़ने को हुआ तो मैंने पुनः उसे रोका- "हाँ! एक कप गर्म-गर्म चाय भी बना दे। ज़रा सर में दर्द है चाय लेकर ठीक हो जाएगा। उसके बाद तू भी खेल लेना।"
"ममी! तुम्हारे सर में दर्द है तो मैं दबाए देती हूँ। तुम आराम कर लो।"
शिप्रा की बात को अर्शी ने काट दिया- "चल बुद्धू कहीं की। आराम करने से सर दर्द जाएगा क्या! सर दर्द तो खेलने से जाएगा। खेलने से ममी का ध्यान बंट जाएगा।" दोनों बच्चे इतने समझदार हो रहे हैं मैं कहीं भीतर तक गदगद हो आई थी।
राघव चाय लेकर आया तो मैंने केरम एक ओर सरका दिया- "तुम लोग बाहर चल कर खेलो। मैं चाय पीकर थोड़ा आराम करना चाहूँगी।"
"हाँ-हाँ चलो अर्शी और राघव हम बाहर चल कर खेलते हैं। ममी को आराम करने दो।" शिप्रा अब तक राघव के प्रति अपने गुस्से को भूल चुकी थी। राघव चलते-चलते बोला- "मेमसाहब छोटी मेमसाहब कब आएँगी?"
"अरे आ जाएँगी। तू चलकर अपना काम निबटा।" इसे कैसे समझाती मैं कि मेरे आने पर सबको कितनी आज़ादी मिल जाती है। वरना बच्चों की वजह से सबको बंधन तो रहता ही है। जाने अपने कितने-कितने प्रोग्राम इनकी वजह से इन्हें रद्द करने पड़ते होंगे। जब ममी पापा मसूरी गये हुए थे छाया भाभी को दो बार अपनी किट्टी-पार्टी भी मिस करनी पड़ी थी - जय ने बताया था।
कल छाया भाभी सकुचाती हुई बोली थी- "दीदी आज हम ममी के यहाँ चले जाएँ?"
"अरे यह भी कोई पूछने की बात है! जरूर हो आओ। अब मैं इन दोनों के पास हूँ न!"
जय और छाया बाहर को निकले ही थे कि शिप्रा पूछ बैठी- "ममी ये लोग कहाँ गए हैं?"
"कौन लोग?"
"मामा और मामी?"
"तुम्हारी मामी अपनी ममी के पास जा रही है। जिस तरह से तुम अपनी ममी के लिए उदास हो जाती हो उसी तरह से तुम्हारी मामी भी अपनी ममी के लिए उदास हो रही थी। तुम लोगों की वजह से वह अपनी ममी के पास भी नहीं जा पाती न।"
"हमारी वजह से!" शिप्रा जैसे चौंकती हुई बोली- "मामी तो हर सप्ताह अपनी ममी के पास जाती है।"
"हर सप्ताह! कैसी बात करती हो!"
"हाँ! अभी परसों ही तो मामी लौटी है।"
"ये कैसे हो सकता है?" मैं शिप्रा की बात पर अविश्वास जताती बोली- "पिछले डेढ़ माह से ममी-पापा यहाँ नहीं हैं फिर मामी तुम्हें छोड़ कर कैसे जा सकती है।"
शिप्रा के जवाब से पहले अर्शी बोल पड़ा- "मामी हमें शर्मा अंकल के यहाँ छोड़ जाती है। शर्मा अंकल हमें बहुत डांटते हैं। पिछली बार हमारी पिटाई भी हो गई थी ममी। लेकिन तब हमने शर्मा अंकल से सॉरी कह दिया था। हम आगे से डिब्बे में से बिस्किट लेकर नहीं खाया करेंगे।"
ये कैसी असलियत मेरे सामने खुल रही थी। मन तो हुआ था देव से सारी बात फोन पर ही बता दूँ। मैं अकेली इस बात को झेल ही नहीं पा रही थी। जय और छाया से सीधे से बात कर पाने की हिम्मत ही नहीं है। पापा-ममी कब आएँगे इसका अभी कुछ अता-पता नहीं। यों देव से कहने का मतलब तो यही होगा कि मैं खुद ही अपने माँ-बाप और भाई-भाभी की तौहीन करने जा रही हूँ।
काफी सोच-विचार के बाद इस निर्णय पर पहुँची थी कि मौका लगते ही अकेले में भाभी को ही समझा दूँगी।
पच्चीस दिन की छुट्टियाँ मैंने सोचा था बहुत लम्बी होंगी। लेकिन वक्त के आगे मैं फिर हार गई। शिप्रा के सामने आह भरते हुए कहा था- बस तीन दिन और रह गये हैं मेरी छुट्टियाँ खतम होने में।
"उसके बाद?"
"उसके बाद मुझे जाना होगा।"
"तुमने मुझसे प्रामिस किया था ममी कि अब तुम हमें छोड़ कर नहीं जाओगी।"
"नौकरी पर तो जाना ही है बेटे।"
"नौकरी पर क्यों जाते हैं ममी?" शिप्रा के इस सवाल पर मैं हँस पड़ी- "नौकरी पर जाने से पैसा मिलता है। उन्हीं पैसों से तो ढेर सारी चीज़ें लाती हूँ तुम्हारे लिये। और फिर भविष्य के लिये पैसा ही तो चाहिये।"
"पैसा...!" शिप्रा ने दबे से कहा था और झट से अपने कमरे की ओर भाग गयी। अगले ही पल वह लौट आयी थी। उसके हाथ में मिट्टी की गुल्लक देख मैं कह उठी- "हाँ-हाँ! इधर लाओ गुल्लक मैं कॉयन्स डालती हूँ।"
"नहीं ममी पैसा मुझे नहीं पैसा तो आपको चाहिये।" शिप्रा ने पटाक से गुल्लक ज़मीन पर दे मारी- "आपको पैसा चाहिये न ममी। आप मेरे सारे पैसे ले लो। लेकिन प्लीज़ आप नौकरी पर मत जाओ। हम आप बिना नहीं रह सकते। देखो मैंने अब तक ढेर पैसे जमा कर लिये हैं। मैं सब आपको दे दूँगी।"
शिप्रा का ऐसा विद्रूप रूप को मैं पहली बार देख रही थी। उसके इस व्यवहार से मैं पूरी तरह से टूट गई। लगा अब जाना भी चाहूँ तो नहीं जा पाऊँगी। पल भर में मेरी टाँगें और पाँव बिल्कुल बेजान हो आये। अब तो एक कदम भी नहीं चल पाऊँगी मैं।
मेरी पूरी रात आँखों में कटी थी। मैंने रात भर में यह निर्णय ले लिया था कि सुबह उठते ही दो काम करूँगी। एक तो देव को फोन पर स्पष्ट कह दूँगी कि मैं नौकरी छोड़ रही हूँ। दूसरे डायरैक्टर साहब को फोन पर ही इतला दे दूँगी कि मैं रेज़गनेशन लैटर भेज रही हूँ।
लेकिन मेरे सुबह उठने से पहले दरवाज़े पर कॉल-बेल हुई तो मैंने उनींदी आँखों से दरवाज़ा खोला था। दरवाज़ा खोलते ही मैं हतप्रभ रह गई। सामने देव खड़े थे।
"आप! मैं चौंकती सी बोली थी।"
"मेरे आने पर इतना चौंकने वाली क्या बात है?"
"नहीं ऐसा नहीं है। मैं झेंपती हुई बोली थी। आप तो पन्द्रह तारीख को आने वाले थे।"
"हाँ! सोचा दो दिन तुम्हारे साथ और रह लूँगा। तुम्हें सौलह तारीख सुबह ही तो जाना है।"
"अब केवल दो दिन और नहीं। तुम चाहो तो अब सारी उम्र मेरे साथ रह सकते हो।" मुझे इनकी बात से बात करने का मौका मिल गया था।
"क्या मतलब?" देव का चौंकना स्वाभाविक था। "अरे अन्दर तो आओ। मैं भी क्या सुबह-सुबह ले बैठी। आप बाथरूम में चल कर ब्रश कीजिए मैं चाय लेकर आती हूँ।"
बैग ड्राईंगरूम में ही रख ये टॉयलट की ओर बढ़ गए। फ्रेश हो कर लौटे तो मैं डाईनिंग पर चाय के इन्तज़ार में बैठी थी। इनका चेहरा देख मैं हैरान थी। मेरी इतनी बड़ी बात के बावजूद इनके चेहरे पर कोई उत्सुकता नहीं। वैसे यह कोई नई या बड़ी बात नहीं थी मेरे लिये। अक्सर ऐसा होता आया है। मेरी पहाड़ जैसी समस्याओं को सुनकर भी इन्होंने ठहाके लगाये हैं- बस इतनी सी बात थी! इनका पैट वाक्या है यह। मुझे सन्नाटे में देख कह उठते हैं- छोटी-छोटी बातों पर चेहरा ऐसे बना लेती हो जैसे मुर्दाघाट से लौटी हो। मैं अक्सर इन बातों से टूटी हूँ। आँखों से नहीं तो दिल से रोयी हूँ। अगर मेरी वे समस्याएँ इस आदमी के लिये छोटी थीं तो उनमें भी इसने कौन सा साथ दिया मेरा। मैं स्वयं ही उनसे लड़ती रही।
ये चुपचाप चाय सिप किये जा रहे थे। में अपने द्वन्द्व को झेलती भूल ही गयी कि मेरे आगे चाय का कप रखा है।
"चाय बहुत गर्म है क्या?" इन्होंने कहा तो मैं जैसे धरातल पर गिरी- "नहीं तो!"
"बच्चे कब उठते हैं?" चाय खतम हो गई तो इन्होंने पूछा।
"आजकल मस्ती में हैं। आठ बाजे के बाद ही उठते हैं। आज तुम जाकर उठा लो न।"
"मैं जानता था तुम्हारे होते ये इसी तरह बिगड़ेंगे।" देव बेडरूम की ओर बढ़ते हुए बोले। यह वाक्य मज़ाक में कहा गया है या फिर सच में मुझ पर आरोप लगाया जा रहा है मैं बात को पूरी तरह से पकड़ नहीं पायी थी।
कमरे में पहुँच ये अर्शी के साथ बैड पर बैठ गए । मैं शिप्रा के बालों पर हाथ फेरती बोली- "देखो बेटे पापा आए हैं।"
बच्चे गहरी नींद में थे। मैं शिप्रा से नज़र हटा इनसे मुखातिब हुई- "शिप्रा कुछ परेशान है।"
"क्यों?"
"भैया-भाभी इन्हें कुछ निगलैक्ट कर रहे हैं।"
"मतलब?"
"कल ही दोनों बता रहे थे कि भाभी कई बार इन्हें शर्मा अंकल के यहाँ छोड़ कर चले जाती है।"
"जब बच्चे तुम्हारे साथ थे तो तुम कितने घंटे उन्हें पड़ौसियों के यहाँ छोड़ शॉपिंग के लिये जाती थी याद है तुम्हें?"
इनके दो टूक जवाब ने पलभर के लिए मुझे पूरी तरह से ध्वस्त कर दिया। लेकिन अगले ही पल मैं सीधे ही विषय पर आ गई थी- "देव मैं नौकरी छोड़ रही हूँ। शिप्रा अब बड़ी हो रही है मैं उसे अकेला नहीं छोड़ना चाहती।"
"तुम नौकरी छोड़ रही हो!" देव ने एक-एक शब्द को चबाते हुए जिस हेय दृष्टि से मेरी ओर देखा मैं बुरी तरह से आतंकित हो आई थी। ये उसी रौ में बोले- "मैं जानता हूँ तुमने कभी दिमाग से काम नहीं लिया वरना इतनी घटिया बात कभी न करती। तुम मेरी कमाई पर ऐश करना चाहती हो या फिर तुम्हे अपने ही माँ-बाप भाई-बहन पर सन्देह होने लगा है। केवल मेरी तनख्वाह पर कितना बना लोगी? बच्चों की पढ़ाई बच्चों का भविष्य उसकी कोई परवाह है तुम्हें!"
बच्चों का भविष्य! मेरा मन चीत्कार उठा। बच्चों का वर्तमान ही नहीं है तो फिर उनका भविष्य क्या होगा? राघव और शर्मा जैसे कई चहरे मेरे सामने अट्टहास कर उठे थे लेकिन मैं समझ गई थी देव मेरी बात को कभी स्वीकार नहीं करेंगे। अर्थ उनके लिए सबसे महत्वपूर्ण है। मेरे एक शब्द और पर वे मुझे जलालत की गर्त में फैंक देंगे। तब नहीं सह पाऊंगी मैं। मुझे वापिस जाना पड़ेगा। यह व्यक्ति जो मेरा पति होने का दम्भ भरता है मेरे ऊपर अपनी कमाई का एक पैसा लगा पाने की हिम्मत नहीं जुटा पाता।
मुझे लगा था शिप्रा की उस टूटी हुई गुल्लक की तरह मैं भी टूटकर पूरी तरह से बिखर चुकी हूँ । अब मैं न उनका वर्तमान समेट सकती हूँ न उनका भविष्य।
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