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हनुमान बाहुक और रोग निदान

मंत्रों की शक्ति और उनकी प्रभावशीलता पर गहरे और वैज्ञानिक दृष्टिकोणों से अध्ययन की आज ज़रूरत है। मंत्रों द्वारा कई प्रकार के कार्याें को सम्पन्न करने में सफलता पायी जा सकती है। मंत्र मात्र शब्दों के गुच्छ मात्र नहीं है और न ही केवल श्रद्धा और विश्वास का विषय है। मंत्र में जुड़े या संयोजित अक्षर ऐसे विशिष्ट क्रम में होते हैं कि उनसे ऊर्जा पैदा की जाती है। ऊर्जा के रुपान्तरण से एवं समुचित उपयोग से अपेक्षित प्रभाव डालना संभव बनता है।

मंत्र में अर्थ का विशिष्ट महत्त्व नहीं होता। मंत्र के शब्द और अक्षर उच्चरित होते समय विभिन्न प्रकार के स्पंदन उत्पन्न करते हैं। इन स्पंदनों के घर्षण से स्फोट होता है और इससे ऊर्जा उत्पन्न होती है। ऊर्जा के प्रभाव से चिकित्सा भी संभव है। प्रभावकारी ऊर्जा मनुष्य और प्राणियों की चेतना को आलोड़ित करती है, षट्चक्रों को चैतन्य करती है। मंत्रों द्वारा उत्सर्जित ऊर्जा शरीर का पोषण करने वाले आवश्यक हारमोन्स को इस प्रकार संयोजित करती है कि रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ जाती है। वैदिक, पौराणिक एवं शाबर मंत्रों के प्रभावों और महत्त्व को माना गया है। शरीर में वायु, पित्त और कफ तीन प्रकार के विकार आयुर्वेद ने माने हैं और मंत्रों से उनका संतुलन बिठाना संभव होता है। कई प्रकार के शोध देश-विदेश में हो चुके हैं और उन्होंने भी इस बात को पुष्ट किया है। दमा, अस्थमा, स्त्री रोग, उच्च रक्त दाब, हाइपरटेंशन, डिस्क, आँख के रोग, आर्थराइटिस, एलर्जी, कैंसर, त्वचा रोग आदि को मंत्रों द्वारा ठीक करने का दावा किया गया है।

वेदों में कई रोगों के निदान के मंत्र प्रस्तुत हैं। मंत्र आसानी से निर्मित होने वाली क्रिया नहीं है। बहुत उच्च क़िस्म के साधक, दिव्य व्यक्तित्व के धनी, ध्वनि वैज्ञानिक के द्वारा बड़ी सूक्ष्मता से ध्वनियों को निश्चित क्रम में जोड़ा जाता है। मंत्र निर्माण के बाद वैदिक व्याकरण के अनुसार सही उच्चारण करते हुए निश्चित गति व लय में दोहराना होता है। इससे पूर्व मंत्र निर्माता या द्रष्टा ब्रह्मांडीय ऊर्जा को अपने व्यक्तित्व के लिए अनुकूल बनाता है इसे देव स्थापना भी कहते हैं। इसी देव या ऊर्जा को ध्यान में रखकर अक्षरों का क्रम मंत्र के लिए निश्चित रहता है। साधक खान-पान, व्यवहार, आचरण और वेश विन्यास को भी देवी प्रकृति के अनुकूल ढालता है जिससे प्रभावशक्ति बढ़ती है। मंत्रों के उच्चारण से उत्पन्न ध्वनियाँ या नाद से ही मनोवैज्ञानिक और वैज्ञानिक प्रभाव रोगी पर डालना संभव होता है। इसे आधुनिक चिकित्सा जगत् में साउंड थैरेपी, म्यूज़िक थैरेपी, हीलिंग वाइब्रेशन आदि नामों से पहचाना जा रहा है।

भक्तिकालीन कवियों में तुलसीदास युगीन परिस्थितियों और लोकचिंता के प्रति सर्वाधिक सजग रहे हैं। तुलसी तो संसार के ही दुःख-रोग काटने का साहित्य लिख रहे थे, उनके लिए किसी इकाई या व्यक्ति का रोग निदान करने का साहित्य रचना क्या मुश्किल था? ”यही तुलसी की उपलब्धि है। उनकी भक्ति भावना का महत्त्व जन सामान्य की समस्याओं से सम्बंद्ध होने में है। जीवन के दुःख और दर्द ने पीड़ा के मर्म से उन्हें परिचित करा दिया था। यह एक ओर वर्तमान का नियामक है और दूसरी ओर भावी समाज के लिए प्रेरणा का स्रोत भी है।”1 तुसीलदास ने समाज की हर व्याधि के लिए एक बड़ा मंत्र राम नाम का दिया। राम नाम हर भक्त का सम्बल है। राम नाम हर प्रकार की बाधा मिटाता है-

”ब्रह्म राम ते नामु बड़ बर दायक बर दानि।
रामचरित सम कोटि महँ लिय महेस जियँ जानि॥”2

रामकाव्य हर व्याधि की औषधि है। तुलसीदास जी ने ’राम’ नाम रूपी मंत्र के साथ हनुमान जी का सहारा भी कष्टों की मुक्ति के लिए लिया है। हनुमान चालीसा का पाठ कई प्रकार के रोगों का नाश करता है। अमेरिका के ओहियो विश्वविद्यालय के शोध में दावा किया गया कि हनुमान चालीसा पाठ से कैंसर कोशिकाओं की वृद्धि रुक जाती है। शारीरिक दुर्बलता और मानिसक क्लेश मुक्ति हेतु हनुमान चालीसा की निम्नलिखित पंक्तियाँ मंत्र की तरह काम करती हैं- 

”नासै रोग हरै सब पीरा, जपत निरन्तर हनुमत बीरा।”3

इसी प्रकार ये पंक्तियां भी विशिष्ट हैं- 

”बुद्धिहीन तनु जानि कै सुमिरौ पवन कुमार।
बल बुद्धि विद्या देहु मोहि, हरहु कलेस बिकार॥”4

हनुमान चालीसा को बहुत से विद्वान तुलसी की रचना स्वीकार नहीं करते। इस पर और अनुसंधान की आवश्यकता है। बहरहाल तुलसी की ’हनुमान बाहुक’ रचना सभी द्वारा मान्य है और और रोग मुक्ति के लिए जानी जाती है। कहा जाता है कि एक बार तुलसीदास शारीरिक कष्ट से पीड़ित हो गए। उनके शरीर पर कई प्रकार के फोड़े-फुंसिया निकल आए और अनेक उपायों के बावजूद ठीक नहीं हुए। ऐसा भी माना जाता है कि उनकी भुजा का दर्द इतना बढ़ गया कि वह असहनीय हो गया। उपचारों के विफल रहने पर तुलसीदास ने इस ग्रंथ की रचना की। इस छोटे से ग्रंथ में केवल 44 पद हैं। इस ग्रंथ की कोई कृति उस समय की उपलब्ध नहीं है। माता प्रसाद गुप्त ने इस ग्रंथ की तीन प्रतियों का उल्लेख किया है जिसमें पहली शिवसिंह सरोज में वर्णित है, दूसरी 1797 की है जो प्रतापगढ़ राजकीय पुस्तकालय में रखी है और तीसरी 1810 ई. की पं. विजयानंद त्रिपाठी संकलित प्रति है। ’हनुमान बाहुक’ में तुलसीदास अवधी भाषा में छंदो की रचना करते हुए छप्पय से हनुमान जी की स्तुति प्रारम्भ करते हैं-

”सिंधु तरन, सिय सोच हरन, रवि बाल बरन तनु।
भुज बिसाल, मूरति कराल कालहु को काल जनु॥
गहन दहन निरदहन लंक निःसंक, बंक भुव।
जातुधान बलवान मान मद दवन पवन सुव॥”5

तुलसीदास हनुमान जी की प्रशंसा करते हुए उनकी संहारक शक्ति का बखान करते हैं। नाम की महिमा बताते हुए उनके बलिष्ठ शरीर का चित्रण करते हैं। हनुमान जी शक्ति का वर्णन करते हुए उन्हें शिव, कार्तिकेय, परशुराम, देव-दैत्यों से युद्ध करने में समर्थ घोषित करते हैं। सूर्य से शिक्षा खेल-खेल में ही प्राप्त कर उन्होंने सबको चकित किया-

”भानुसों पढन हनुमान गये भानु मन-अनुमानि सिसुकेलि कियो फेर फार सो।
पाछिले पगनि गम गगन मगन मन, क्रमको न भ्रम, कपि बालक बिहारसो॥”6

स्तुति के इसी क्रम में हनुमान जी को अर्जुन की सहायता करने वाला बताते हैं। महाभारत में द्रोणाचार्य और भीष्म हनुमान जी के बल की प्रशंसा दुर्योधन के सामने करते हैं। वे बताते हैं कि हनुमान जी ने समुद्र को गाय के खुर के भाँति जानकर लाँघ लिया था और लंका को जला डाला था। लक्ष्मण को जिलाने, द्रोणाचल पर्वत को उखाड़ने और रावण से लोकपालों को छुड़ाने का कार्य उन्होंने सुगमता से किया था। हनुमान जी जैसा तीनों लोकों में कोई न हुआ है और न ही होगा।

तुलसीदास हनुमान जी को सीताजी का शोक दूर करने वाला, ज्ञानी, गुणवान, परहितकारी, देवताओं के सहायक बताते हुए पीड़ा दूर करने वाला सिद्ध करते हुए कहते हैं-

”दुर्जनको काल सो कराल पाल सज्जन को, सुमिरे हरनहार तुलसी की पीर को।
सीय सुखदायक दुलारो रघुनायक को, सेवक सहायक है साहसी समीर को॥”7

हनुमान जी सबको प्रसन्न करने वाले हैं, वे करुणा निधान हैं। हनुमान जी के नाम की बहुत महत्ता है। इसीलिए वे भक्तों के हृदय में सदा बने रहते हैं। इसी प्रशंसा या स्तुति के साथ तुलसी हनुमान जी को उनका दुःख दूर न कर सकने का उलाहना भी देते हैं-

”संकट सोच सबै तुलसी लिए, नाम फटै मकरी के से जाले।
बूढ़ भये, बलि, मेरिहि बार, कि हारि परै बहुतै नत पाले॥”8

हनुमान जी को बूढ़ा-थका बताकर वे अपने कष्ट सामने रखते हैं। वे अपने द्वारा की गई किसी अनजानी भूल को भुला देने का आग्रह करते हैं। तुलसी कहते है कि हे हनुमान जी पीड़ा रूपी मकड़ी का जाला फाड़ दीजिए, भुजा पीड़ा को लंकिनी की तरह लात मारकर पछाड़ दीजिए, उसे कौंच की लता समझकर जड़ से उखाड़िये, पीड़ा रूपी पूतना को कृष्ण बनकर मार डालिये। तुलसी पीड़ा को ही हनुमान जी की क़सम देकर चले जाने को कहते हैं-

”पैहहि सजाय नत बजाय तोहि, बावरी न होहि बानि जानि कपिनांह की।
आन हनुमान की दोहाई बलवान की, शपथ महाबीर की जो रहै पीर बांह की।”9

तुलसी कहते है कि हे हनुमान जी, आपने मेरा बचपन में पालन पोषण किया। अब मुझे कष्ट में देखकर आप निश्चेष्ट क्यों बैठे हो? आपकी यह उपेक्षा मुझे भुजा की पीड़ा से ज़्यादा कष्ट दे रही है-

”करतार, भरतार, हरतार, कर्म, काल को है जगमाल जो न मानत इताति है।
चेरो तेरो तुलसी तू मेरो कह्यो रामदूत, ढील तेरी बीर मोहि पीर ते पिराती है।”10

तुलसी के इस प्रकार के विनय निवेदन से और स्तुति गान से हनुमान जी अन्ततः प्रसन्न हो जाते हैं। वे तुलसी को शरणागत एवं भक्त जानकर कृपा कर देते हैं। इस बात का संकेत वे 35वें पद में देते हैं-

”करुणानिधान हनुमान महा बलवान, हेरि हँसि हाँकि फूँकि फौजे तैं उड़ाई है।
खाये हुतो तुलसी कुरोग राढ राकसनि, केसरी किसोर राखे बीर बरिआई है।”11

तुलसी का रोग हनुमान जी ने फूँक से उड़ा दिया, हालाँकि इसके बाद भी आगे 9 पद और दिए हैं और उनमें रोग मुक्ति की कामना की गई है। इस पर प्रश्न उठता है कि तुलसी का रोग ठीक हुआ या नहीं? इस बात पर विभन्न विद्वानों के अलग अलग मत हैं। कुछ के अनुसार ये क्रम भंग के कारण है, 35वां पद ही आख़िरी है। कुछ मानते हैं कि भुजा दर्द के बाद अन्य रोग बाद में हुए, जिनके लिए तुलसी ने बाद के पद लिखे। कुछ विद्वान मूलकृति न मिलने के कारण हुई असंगति को कारण बताते हैं।

स्पष्ट है कि क्रम भंग हो या अन्य कोई कारण तुलसीदास का रोग इस ग्रंथ के कारण नष्ट हो गया। इससे स्पष्ट होता है कि इस ग्रंथ के पद शाबर मंत्रों की तरह कार्य करने लगे थे। इन पदों में अक्षरों का नियोजन मंत्रों की भाँति हुआ है। मंत्रों की तरह इन पदों का बहुत बार जाप करने से हीलिंग बाइब्रेशन निकलते हैं। भगवान पर भरोसा मनोवैज्ञानिक प्रभाव डालता है। पूर्ण आस्था सकारात्मकता भरती है। नाद या ध्वनि थैरेपी के कारण वैज्ञानिक प्रभाव पैदा होते हैं। इन कारणों से संयुक्त होकर ही ऐसा प्रभाव पड़ा जिससे रोग मुक्ति हुई। ’हनुमान बाहुक’ द्वारा रोग मुक्ति की बात को आधुनिक विज्ञान की दृष्टि से समझा जा सकता है और उसका महत्त्व स्वीकारा जा सकता है।

सन्दर्भ संकेत -

1. सं. डॉ. सुनील बाबुराव कुलकर्णी- भारतीय भक्ति साहित्य में अभिव्यक्त सामाजिक समरसता, लोकभारती प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 2016 ई., पृष्ठ 164
2. तुलसीदास- बालकांड (रामचरित मानस)- सं. हनुमान प्रसाद पोद्दार, गीता प्रैस, गोरखपुर, संवत् 2065, पृष्ठ 27
3. तुलसीदास-हनुमान चालीसा।
4. वही
5. तुलसीदास - श्री हनुमान बाहुक, सं. योगीराज श्री यशपाल जी, रणधीर प्रकाशन, हरिद्वार, 2014 ई., पृष्ठ 07
6. वही, पृष्ठ 09
7. वही, पृष्ठ 14
8. वही, पृष्ठ 19
9. वही, पृष्ठ 25
10. वही, पृष्ठ 29
11. वही, पृष्ठ 32

हनुमान बाहुक और रोग निदान
डाॅ. गोपीराम शर्मा 
सहायक प्रोफेसर, हिन्दी
डाॅ. भीमराव अम्बेडकर राजकीय 
महाविद्यालय, श्रीगंगानगर (राज.)-335001

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