अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

मिथिला में लोक नाट्यों की परंपरा

हिमालय के पाद प्रदेश से गंगा कोसी से पश्चिम और गंडक से पूरब तक का भू-भाग सांस्कृतिक मिथिलाञ्चल के नाम से विख्यात है। मैथली इस भू -भाग की भाषा है, मैथली लोकसाहित्य में यहाँ की लोकसंस्कृति का सारस्वत स्वरूप एवं लोककला में कलात्मक भंगिमाओं की अभिव्यंजना हुई है। लोककला का क्षितिज अधिक व्यापक, विशेष लोकरंजक तथा अनुष्ठाणिक भाव-भंगिमाओं से युक्त है। यहाँ की परम्परित लोकमूर्ति, प्रतिकात्मक लोकचित्र, लय-ताल युक्त गीत संगीत और रसान्वित नृत्य नाट्य इसके उदाहरण है।1

मिथिला धार्मिक अनुष्ठानों कर्मकांडों का भी केंद्र था। शैव तथा विष्णु की उपासना पद्धति यहाँ प्राचीनकाल से ही प्रचलित थी। बोद्ध धर्म का उदय भी बिहार से ही माना गया है। उनके काल में ही बिहार विद्या का केंद्र था। आस पास के क्षेत्र से छात्र शिक्षा प्राप्त करने आते थे। गुप्त काल में ही वैष्णव धर्म का प्रचार प्रसार भी हुआ। सांस्कृतिक दृष्टि से भी मिथिला सम्पन्न था।

रामायण और महाभारत के अन्तः सक्ष के अनुसार मिथिला में नाट्य अभिव्यक्ति कलारूप सभी का प्रचलन था। ईस्वी पूर्व तीसरी चौथी शताब्दी में कौटिल्य अर्थशास्त्र में रंगोपजीवी तथा नाट्य, गीत, नृत्य, वाद्य आदि की चर्चा मिलती है। मिथिला बौद्ध अध्ययन के केंद्र होने के कारण यह अध्ययन का केंद्र था। बौद्ध ग्रन्थों में भिक्षुकों और तपस्वियों का नाट्य प्रदर्शन देखना वर्जित था। इससे यह अनुमान लगाया जा सकता था की वहाँ कहीं न कहीं नाट्य प्रदर्शन का प्रचलन था।2

जहाँ तक मैथिली लोक नाट्यों प्रश्न है इसका जन्म ज्योतिरीश्वर से पहले का माना जाता है। इसका कारण है इनका सुप्रसिद्ध ग्रंथ 'वर्णरत्नाकर' में लोरिक नाच की चर्चा हुई है इससे अनुमान लगाया जा सकता है की उस समय भी लोक नाट्यों का प्रदर्शन होता था। इसमें वाद्य, गीत, नृत्य, प्रचुर मात्र में होने के कारण इन्हें नाच से संबोधित किया गया ।

अभी भी मिथिला में सलहेस, लोरिक, बहुरा ठकुराईन, जालिम सिंह आदि लोकनाट्यों को लोग सलहेस नाच, लोरिक नाच, जालिम सिंह नाच से संबोधित करते हैं।3

वर्णरत्नाकर में आए शब्दों को देखा जाए तो नेपथ्य रचना, रंगभूमि स्थापना, वाद्य भंडार, मासिक संयोजन, नाटिक श्रृंगार, पुष्प विचरण, वस्त्र यमनिका, रंगभूमि पूजन के लिए आठ स्थानों शिस्य प्रदेश आदि की चर्चा करते हुए डॉ॰ श्री जयकान्त मिश्र जी कहते हैं "वर्णरत्नाकर में इसी वर्णन से स्पष्ट होता है जिसका ज्योतिरीश्वर ने नृत्य नाटक वर्णन किया था।4

यह उचित भी चलता है कारण नेपथ्य, रंगभूमि, यमनिका, रंगभूमि का पूजन, पात्र आदि नाट्य शब्दावली है। इन सबका प्रयोग अभी भी होता है इसमें रंगभूमि पूजन की परंपरा भारत ने अभी तक चल रही है। लोकनाट्य के संबंध में डॉ॰ शैलेंद्र मोहन झा कहते है "ज्योतिरीश्वर जीने जिस लोरिक नाच का उल्लेख किया है वह केवल नृत्य तथा गायन ही नहीं, उसमें अवश्य वाचिक अभिनय साथ प्रदर्शित होता गया। इसी आधार पर पारंपरिक नाटक की कल्पना करना असंगत नहीं लगता"।5 भारत ने भी आंगिक, आहार्य,व सात्विक अभिनय के साथ वाचिक अभिनय का अंग माना है।

मिथिला में लोकनाट्यों की परंपरा अत्यंत समृद्ध रही है। सम्पूर्ण भारत के लोकनाट्यों को प्रभावित करने वाले तीन मुख्य कारण की उत्पत्ति यही हुई है। 11वीं शताब्दी में ज्योतिरीश्वर ठाकुर द्वारा रचित वर्णरत्नाकर, जयदेव का 'गीतगोविंद' तथा उमापति द्वारा रचित 'पारिजातहरण नाटक' इन तीन ग्रंथो का प्रभाव उत्तर से दक्षिण, पूर्वी भारत के लगभग सभी लोकनाट्यों पर पड़ा। ज्योतिरीश्वर ठाकुर के द्वारा रचित 'वर्णरत्नाकर' की बात करें तो यह महाकाव्य विश्वकोषीय ग्रंथ है। यह ग्रंथ तत्कालीन समाज और कला का विश्वकोश है। वर्णरत्नाकर गद्य काव्य है, जो प्राचीन मैथिली में विरचित है। विद्वानों ने इसे आधुनिक आर्य भाषा का प्राचीनतम ग्रंथ कहा है, बिदापत तथा नटुआ नाच जैसे नाट्य रूपों की चर्चा हमें वर्णरत्नाकर से ही मिलती है, वर्णरत्नाकर में वाद्यों कलाजीवियों, चौंसठ कलारूपों, नायक - नायिका के प्रकार का उल्लेख हुआ है। संगीतशास्त्रीय दृष्टि से वर्णरत्नाकर महत्वपूर्ण ग्रंथ है, इसमें 45-46 रागों का उल्लेख हुआ जिंका प्रयोग कीर्तनियाँ नाटकों में हुआ है।

जयदेव द्वारा रचित गीतगोविंद भारतीय कला इतिहास में मोड़ साबित हुआ। गीतगोविंद वैष्णव परंपरा का भक्ति काव्य है। जिसमें वृन्दावन में राधा और कृष्ण की विविध काम-क्रीड़ाओं का चित्रण है। इस काव्य का उद्देश्य श्रृंगार के माध्यम से भक्ति है। इसके पद, सर्ग संगीतबंध है जिसमें रागों का उल्लेख् हुआ है। तीसरा इसमें नाट्य तत्व है। सभी प्रबंधों में निरंतर विद्यमान यह नाट्य तत्व उन्हे नृत्य संगीत का रूप ब्रजबूलीकरता है। इस प्रकार गीतगोविंद में काव्य नाट्य, संगीत और नृत्य, इन चारों को समाहित करने की अद्भुत क्षमता है। असम के शंकरदेव की रचनाओं, बिहार के उमापति की कृतियों, तमिल क्षेत्र के भागवत मेला नाटकों, कर्नाटक और आंध्र के यक्षगान मलयालम, कृष्णट्ट्म और कथकली, इन सबका अंतिम प्रेरणा स्रोत गीतगोविंद है।

डॉ॰ राघवन का मत है की संसार में संगीत और नृत्य के सम्पूर्ण इतिहास में जयदेव के गीतगोविंद से बढ़कर कोई कृति नहीं।6 तीसरी महत्वपूर्ण कृति उमापति 'पारिजातहरण' जो पूर्व से दक्षिण तक के कई लोकनाट्यों में खेला जाता है। कालांतर में कर्नाटक में 'कृष्ण पारिजात' नाट्यरूप ही विकसित हुआ, जो आज भी प्रदर्शित होता है। वैष्णव संत शंकरदेव ने भी उमापति से प्रभावित हो पारिजातहरण यात्रा की रचना की।7

त्रिपुरा के ढब जात्रा, उत्तर बंगाल के जात्रा, बिहार के बिदापत नाच आदि पारंपरिक नाट्यों में पारिजातहरण का कथानक बहुत दिनों तक मंचित होता रहा। धार्मिक होते हुए भी इसका कथानक सामाजिक और पारिवारिक सम्बन्धों से विकसित हुआ। यहाँ कृष्ण आलौकिक शक्ति नहीं बल्कि दो पत्नियों के मध्य विवाद को सुलझाने में असफल गृहस्थ है। इस कारण यह कथानक कई नाट्य रूपों में प्रचलित हुआ।

मिथिलांचल में नृत्यप्रधान लोकनाट्यों को नाच कहा जाता है। चौदहवीं शताब्दी में ज्योतिरीश्वर वर्णरत्नाकर ने लोरिक नाच,8 विद्यापति (गोरक्षविजय) ने दक्षिण देशीय नाच, और जयकान्त मिश्र ने कार्तिक नाच (नृसिंह नाच ) का उल्लेख किया है। मिथिलाञ्चल में सलहेस, कमला, नारदी, बिदापत पसरिया आदि नाच अद्यतन पारंपरित है।9 ज्योतिरीश्वर और विद्यापति ने नाट्य को नृत्य की पर्यायवाची सीमां में बांधा है। नेपाल में रथयात्रा के अवसर पर कार्तिक नाच जैसे मैथिली लोकनाट्य की और मिथिला में पारिजातहरण नाच की परंपरा बनी हुई है। अतः मिथिलाञ्चल में नाच अथवा नाट्य सदियों से लोकरुंजन का जीवंत और सशक्त माध्यम बना हुआ है।

संदर्भ :

1 - सिंह,मौन,'प्रफुल्ल कुमार,'मिथिलांचल लोकनाट्य-पूर्वाञ्चालिय नाटक और रंगमंच,भाग 2,पटना 
2 - भारती,ओमप्रकाश,'मैथलीक लोकनाट्य,पृष्ठ 39-40 
3 -मलांगिया,महेंद्र,'मैथिली लोकनतया विस्तृत अध्ययन एवं विश्लेषण',पृष्ठ 47 
4 - मिश्र,जयकान्त,'कीर्तनियाँ नाटक', पृष्ठ 16 
5 - झा,शैलेंद्र मोहन,' ज्योतिरीश्वर',पृष्ठ 12 
6 - राघवन,वी,'उपरूपक एवं नृत्य प्रबंध'(1956 में आयोजित अखिल भारतीय नृत्य संगोष्ठी में पढ़ा गया लेख )
7 - बरुआ,सिंधी कुमार,'अंकिया नाट',परिचय खंड पृष्ठ 19 
8 - 'वर्ण रत्नाकर ',मैथिली अकादमी ,पटना, 1980 
9 - नवभारत टाइम्स ( पटना संस्कारण )-23 जुलाई, 1993 ई॰

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

शोध निबन्ध

कहानी

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं