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07 - मिसेज़ खान का संघर्ष

 21 अप्रैल 2003

कनाडा की ठंड से छुटकारा मिला सोचकर अगड़ाई ले सुबह-सुबह उठ बैठी। सोचा –आज सुबह की सैर की जाए। उस समय तापक्रम 150 था परन्तु अखबार –द ग्लोब एंड मेल में एक महिला की छपी फोटो देख ठिठक गई जिसके चित्र के नीचे लिखा था – Matin khan lies in a Toronto hospital bed last month, recovering from infection after kidney transplant surgery in her native Pakistan. बहुत से प्रश्न सुई सी चुभन देने लगे। मतिन खान की क्या मजबूरी थी पाकिस्तान जाने की, जबकि कनाडा चिकित्सा के क्षेत्र में बहुत उन्नत व सतर्क है। मैं तो खुद ही कनाडा में अपना स्थाई निवास स्थान बनाने की सोच रही थी। पर मिसेज़ खान के बारे में पढ़कर विचारधारा को नया मोड़ देना पड़ा।

कनाडा में मिसेज़ खान का नाम किडनी मिलने वालों की प्रतीक्षारत सूची में था और इस बात की कोई गारंटी नहीं थी कि 7 वर्ष के बाद भी उनकी बारी आ जाती। एक हफ़्ते में तीन बार डायलेसिज़ ट्रीटमेंट के बाद भी स्वास्थ्य बदतर होता जा रहा था, इसीलिए वे लाहौर गई। वहाँ एक मज़दूर का गुर्दा उनके लिए उपयुक्त रहा। उन्होंने उसे 25000 पाकिस्तानी मुद्रा में खरीदा। पाकिस्तान में इतनी गरीबी है कि कुछ लोगों को हमेशा धन की ज़रूरत होती है और एक गुर्दा बेचकर इतना कमा लेते हैं कि पूरी ज़िंदगी चैन से गुज़र जाए।

कनाडा में मानव अंगों की ख़रीदारी गैरकानूनी है। तब भी 30 से 50% तक वहाँ के निवासी प्रतिवर्ष भारत, फिलीपाइन्स, चायना आदि देशों में मानव अंगों की तलाश में जाते हैं। यदि कोई देश नागरिकों की ज़रूरतों को पूरा करने में असमर्थ हो तो बेचारे नागरिक क्या करें। जीवन और मौत के बीच झूलते हुए कहाँ जाएँ? ऐसे कानून से क्या फ़ायदा जों मौत की गिरफ़्त को असहनीय कर दे।

कुछ आंकड़े तो बड़े चौंकाने वाले हैं। एक ग्रुप की रिपोर्ट के अनुसार अंगों के इंतज़ार में सन 2002 में कनाडा में करीब 237 लोग काल का ग्रास बन गए। कनेडियन इंस्टीट्यूट फॉर हेल्थ इन्फोर्मेशन से ज्ञात हुआ कि दिसंबर 31/2002 तक करीब 3956 मरीज़ विभिन्न अंगों की आस में दिन बिता रहे थे। केनेडियन ऑर्गन रिपलेसमेंट रजिस्टर्स बोर्ड के चेयरमेन ने तो अपने टेलीफोन इंटरव्यू के दौरान स्वीकार भी किया – यदि हमारे पास और ज़्यादा मानव शरीर के अंग होते और उनका प्रत्यारोपण ठीक समय पर कर पाते तो कम आदमी मरते।

जिन दिनों मिसेज़ खान अफगानिस्तान और भारत होते हुए पाकिस्तान पहुँची उन दिनों ईराक–अमेरिका युद्ध के बादल छाए हुए थे। जगह-जगह लाहौर मेँ नागरिक अमेरिका के झंडे जलाकर अमेरिका की युद्ध नीति की ख़िलाफ़त मेँ जुलूस निकाल रहे थे। किसी तरह मिसेज़ खान अपने परिवार मेँ पहुँची जहाँ उनके भाइयों और माँ ने इलाज के लिए धन जुटाने में कोई कसर न रखी। उन्होंने अपनी संपति बेची, बैंक से उधार लिया, अपने बचत खाते से धन निकाला।

रावलपिंडी मेँ मार्च 1998 मेँ उनके एक गुर्दे का प्रतिरोपण हुआ पर 2000 मेँ गर्मियों मेँ ही उनका शरीर प्रतिरोपित गुर्दे को सहन करने मेँ असमर्थता दिखाने लगा। कमर के निचले भाग मेँ दर्द बढ़ता ही गया। बुखार तो हमेशा रहता ही था। 12 मार्च को वे किसी तरह टोरोंटो पीयर्सन इन्टरनेशनल एयरपोर्ट पहुँचीं। सुरक्षा हेतु विशेष प्रकार की वेल्ट उनकी कमर के चारों तरफ लपेटी गई थी। हवाई अड्डे पर एंबुलेंस पहले से ही खड़ी थी जिसने उन्हें स्टुअर्ट माइकेल हॉस्पिटल पहुँचाया।

मिसेज़ खान हड्डियों में बैक्टीरिया संक्रमण (ostcomyelitis) से पीड़ित थीं। टी.बी. का भी शक था। कारण का तो ठीक से पता न चला पर भाग्य से दवाइयाँ असर दिखाने लगीं। धीरे-धीरे उनकी दशा सुधरने लगी। दर्द से राहत मिली। आज वे टोरोंटो में रीहेविलिटेशन हॉस्पिटल में हैं जहाँ डॉ. जाल्ट्ज़मैन (Zaltjman) जैसे विशेषज्ञों की देखरेख में अपने पैरों और कमर की मांस पेशियों को मज़बूत बनाने में जुटी हुई हैं।

डॉ. जाल्ट्जमैन चिकित्सा की इस सफलता पर बहुत ख़ुश थे। परंतु उन्होंने भी माना कि मिसेज़ खान तक़दीर वाली हैं वरना इलाज के समय बहुत कठिनाइयाँ आईं, साथ ही कनाडा मेँ गुर्दा न मिलने के कारण उन्होंने जो उसके प्रतिरोपण का मार्ग अपनाया वह बहुत खर्चीला और बीहड़ रहा। यदि मुझको भी अपने या अपने बच्चे के लिए 8 वर्षों तक इंतज़ार करना पड़ता तो उसका विकल्प ज़रूर सोचता।

इस महिला की स्वास्थ्य सम्बन्धी ख़बरें बड़ी दयनीय लगीं। उसमें मेरी इतनी दिलचस्पी हो गई कि रोज़ ही अखबार टटोलती हूँ। अपने प्रभु से उसकी आरोग्यता की कामना भी करती हूँ। मेरे जैसे न जाने कितने उनके लिए दुआ माँग रहे होंगे। शायद इन प्रार्थनाओं के कारण ही वे जल्दी से ठीक होकर घर चली जाएँ। मेरी शुभकामनाएँ हमेशा उनके साथ रहेंगी।

क्रमशः-

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