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पीकारेस्क उपन्यास लासारील्यो दे तोरमेस का पाठाधारित विश्लेषण

(लासारील्यो दे तोरमेस का हिन्दी अनुवाद)

‘ला वीदा दे लासारील्यो दे तोरमेस ई सूस फोर्तूनास ई आदवेर्सिदादेस’ (la vida de lazarillo de tormes y sus adversidades) विश्व प्रसिद्ध उपन्यास है जो स्पेनी साहित्य के स्वर्ण युग में पीकारेस्क उपन्यासों में सर्वप्रथम लिखा जाने वाला उपन्यास है। इस उपन्यास से ही पिकारेस्क उपन्यासों का प्रारंभ माना जाता है। सन् 1554 में लिखित लासारील्यो का लेखक अज्ञात है। इस उपन्यास का प्रथम उल्लेख सन् 1525 और 1535 में लिखे गये कार्लोस प्रथम के अभिलेखों में मिलता है। लासारील्यो दे तोरमेस का महत्व इससे भी ज़ाहिर होता है कि इसके प्रकाशन के कुछ वर्षों में ही इस उपन्यास का अनुवाद विश्व की अन्य भाषाओं में हुआ और इस विद्या से प्रभावित होकर अन्य भाषाओं में इस प्रकार के पिकारेस्क उपन्यास लिखे गये।

पीकाररेस्क उपन्यास श्रृंखला के कतिपय महत्त्वपूर्ण उपन्यास इस प्रकार है- मातेओ आलेमान (Mateo Aleman) का ‘गुज़मान दे अलाफाराचे’(Guzman de Alfarache), फ्रांसेस्को लोपेज़ दे ओर्तेगा (Francisco lopez de Ortega) का ‘ला पिकारा खुस्तिना’ (La picara Justina), विंसेन्ते एस्पीनेल (Vinvente Espinel) का ‘मार्कोस दे ओम्ब्रेमोन’ (Marcos de Ombremon). ए फ्रांसीस्को दे कोवेदो (Francisco de quevedo) का ‘एल वुस्कोन’ (El Buscon) और उपन्यास ‘एस्तेबानियो गोंसालेस’ (Estebanio Gonzalez) जिसके लेखक अज्ञात हैं। 

पिकारेस्क उपन्यासों के नायक को पिकारो कहा जाता है जो निम्न वर्ग से संबंद्ध होता है। अतः इस विधा को ‘ग़रीबों की विधा’ भी कहा गया। पिकारो अपनी संघर्षमयी जीवन यात्रा का वर्णनात्मक विवरण पाठक के समक्ष प्रस्तुत करता है। परन्तु इस कथा यात्रा का एकमात्र उद्देश्य पाठक का मनोरंजन करना न होकर उस समाज व राजनीति में व्याप्त बुराइयों के प्रति सचेत करना है। पिकारेस्क विधा का मूल स्वर सामाजिक आलोचना रहा है और यही कारण है कि ‘लासारील्यो दे तोरमेस’ उपन्यास को स्पेनी शासन द्वारा प्रतिबंधित कर दिया गया। जिस समय इस उपन्यास की रचना हुई उस समय समाज में नस्ल और धर्म के आधार पर सामाजिक अन्याय का बोलबाला था। प्रतिबंध के पीछे जो प्रमुख कारण माना जाता है वह इस उपन्यास में पादरी वर्ग के प्रति असंतोष व उनकी कार्य पद्धति का पर्दाफाश करना है। सन् 1573 में स्पेनी शासन द्वारा इस उपन्यास को अप्रतिबंधित कर दिया गया। परन्तु फिर भी कुछ अध्यायों और अनुच्छेदों को काट दिया गया था। यह अत्यंत खेदजनक है कि अभी तक इस प्रसिद्ध उपन्यास के कुछ अंशों की प्राप्ति संभव नहीं हो सकी। 

लासारिल्यो के प्रथम भाग की सफलता के पश्चात् सन् 1555 के आसपास इसका दूसरा भाग लिखा गया जो अधिक लोकप्रिय नहीं हुआ। क्योंकि इसमें प्रथम भाग की शैली को बरक़रार रखने की बजाय कथावस्तु पर अधिक ध्यान रखा गया जिसमें लासारो एक मछली बन जाता है और फिर उसके साथ घटित घटनाएँ। अंत में लासारो एक जाल में फँस जाता है और पुनः इंसान बन जाता है। इस भाग के अतिरिक्त लासारो का एक दूसरा भाग और मिलता है जो सन् 1620 में पेरिस में रहनेवाले खुआनलूना ने लिखा। यह भाग स्पेन और फ्रांस में अधिक लोकप्रिय हुआ जो सन् 1555 में लिखे गये दूसरे भाग की असंतुष्टि के परिणामस्वरूप लिखा गया।

पीकारेस्क उपन्यास के तत्व-

सभी पीकारेस्क उपन्यासों में कमोवेश तत्वों की समानता पायी जाती है। इनकी कथावस्तु, नायक की चारित्रिक विशेषताएँ, शैली सभी समान होते है। पीकारेस्क उपन्यासों के तत्व निम्न प्रकार है-

  1. पीकारेस्क उपन्यासों का नायक एक धूर्त पात्र होता है जो निम्न वर्ग से संबंध रखता है। पुनर्जागरण काल के नाइट्स का विरोध करनेवाला एक आदर्श शत्रु जो जीवन में बड़ा आदमी बनने के सपने देखता है लेकिन इसके लिए उसे सच-झूठ, सही-ग़लत सब कुछ करना पड़ता है।
  2. यह उपन्यास आत्मकथात्मक शैली में लिखे जाते हैं। जिसका नायक एक पश्चातापी, पापी और खलनायक पात्र होता है। जो आदर्शवादी तरीक़े से स्वयं अपने वंश, अपने जीवन और अपने नामों के विषय में बताता है। इस प्रकार वह दोनों का कार्य करता है- स्वयं लेखक और नायक।
  3. नियतिवाद- इसके धूर्त नायक का मुख्य उद्देश्य जीवन में बड़ा आदमी बनना है जो वह बन नहीं पाता। इसलिए सारी कहानी पहले से नियत होती है जिस कारण कथावस्तु से छेड़खानी करने की गुंजाइश नाममात्र की ही होती है।
  4. आदर्शवाद और आशावाद- सभी पीकारेस्क उपन्यास यथार्थवाद को ध्यान में रखकर लिखे गये है। ये उपन्यास समाज के समक्ष एक सटीक उदाहरण प्रस्तुत करते हैं कि पथभ्रष्ट व्यक्ति दण्ड का अधिकारी होता है। पीकारेस्क उपन्यास स्वर्णकाल के शब्दाडंबर से पूर्ण रूप से प्रभावित होते है। कभी-कभी येे उपन्यास ऐसी कहानी पाठकवर्ग के समक्ष प्रस्तुत करते हैं जिसमें यह दिखाया जाता है कि पथ से विचलित व्यक्ति सज़ा का पात्र होता है या ये नायक के पछतावे की कहानी कहते हैं।
  5. कटु आलोचना और घुम्मकड़ी संरचना- समाज के कड़े आलोचक इन उपन्यासों का नायक इधर-उधर घूमता रहता है और समाज के सच से रु-ब-रु होता है। वह सभी सामाजिक वर्गों की बुराइयों को सामने लाने का काम करता है, एक ऐसा धूर्त पात्र जो अपने सभी मालिकों के दुच्चितेपन का एकमात्र दृष्टा है।
  6. यथार्थवाद से समाज के सभी पक्षों का सफल वर्णन किया जाता है।

पीकारेस्क उपन्यास के नायक की चारित्रिक विशेषताएँ

पीकारेस्क उपन्यास के तत्वों के समान ही इन उपन्यास के नायकों की चारित्रिक विशेषताएँ भी कमोवेश समान ही होती हैं। जो इन्हें अन्य उपन्यासों के नायकों से अलग करती हैं। ये चारित्रिक विशेषताएँ उपन्यास की कथा को आगे बढ़ाने में सहायक होती हैं। पीकारेस्क उपन्यास का नायक:-

  1. ऐसे माता-पिता का पुत्र होता है जिनकी समाज में इज़्ज़त नहीं होती।
  2. ग़रीबी के कारण जीवनयापन के लिए उसे अपना घर त्यागना पड़ता है।
  3. उसे विभिन्न मालिकों की सेवा करनी पड़ती है। जो उसके जीवन का महत्त्वपूर्ण अंग होता है।
  4. वह जीवन में समाज के उच्च वर्ग में स्थान पाने का इच्छुक होता है।
  5. वह एक ऐसी लड़की से विवाह करता है जिसको समाज में सम्मान प्राप्त नहीं होता।
  6. कड़ी मेहनत और सारे हथकंड़े अपनाने के बाद भी उसका जीवन सुधर नहीं पाता।

साहित्य अकादमी के सहयोग से हिन्दी भाषा में ‘लासारील्यो दे तोर्मेस’ उपन्यास का अनुवाद अनुवादक सुरेश धीगड़ा द्वारा सन् 1997 में ‘लासारो’ नाम से किया गया। सुरेश धीगड़ा स्पेनी भाषा और साहित्य के ज्ञाता है। अतः उन्होंने मूल भाषा से सीधे हिन्दी में ‘लासारील्यो दे तोर्मेस’ का अनुवाद किया है। स्पेनी साहित्य को हिन्दी में लाने में सुरेश धीगड़ा का सहयोग अद्वितीय है। इन्होंने सालामांका का सरपंच (El Alcalde de Zalamea), सुरंग’ (El Tunel) और ‘ओक्तावियो पास की याद में’ जैसी कृतियों का हिन्दी में सीधा स्पेनी से अनुवाद किया हैं जिसमें जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय के अध्यापक अपराजित चट्टोपाध्याय का सहयोग उल्लेखनीय है जिसके माध्यम से भारतीय समाज को स्पेनी समाज के क़रीब लाने का सफल प्रयास किया गया है।

ज़ाहिर है कि सुरेश धीगड़ा द्वारा अनूदित यह कृति भारतीय पाठकों को स्पेनी उपन्यासों की ‘पीकारेस्क श्रेणी’ से परिचित कराती है। इसके साथ अनूदित कृति में ‘अनुवादक की ओर से’ इस कृति को अनूदित करने का उद्देश्य इन शब्दों में स्पष्ट किया गया हैः- "विश्व की अनेक भाषाओं में इसके (लासारील्यो) अनुवाद भी उपलब्ध है। परन्तु अभी तक किसी भारतीय भाषा में इसका अनुवाद नहीं हुआ है। कोई दस वर्ष पूर्व जब यह उपन्यास मैंने पढ़ा तभी से मन में इच्छा थी कि इस उपन्यास को हिन्दी पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया जाए। विशेष रूप से युवा पाठकों के समक्ष। हिन्दी में युवा पाठकों के लिए यों भी अपेक्षाकृत कम साहित्य लिखा गया है।”1

‘लासारील्यो दे तोर्मेस’ का देशकाल और स्थान सन् 1525 के आसपास स्पेन में सालामांका, तालेदो, माकेदा शहरों के समीप का है। अनूदित कृति में अनुवादक ने देशकाल की सीमा को नहीं तोड़ा है और मूल कृति की भाँति स्थानीय नामों को ज्यों-का-त्यों प्रयोग किया है। जैसेः- ‘सालामांका’ (Salamanca)ए ‘एस्कालोना’ (Escalona), माकेदा (Maqueda) ए ‘सांग्रा दे तोलेदो’ (Sangra de Toledo) इत्यादि।

उपन्यास में पात्रों की संख्या अधिक है। मुख्य पात्र लासारो है। अन्य पात्रों में है लासारो के सात मालिक। इनके अतिरिक्त लासारो की माँ, सौतेला पिता ज़ाइदे और सौतेला भाई तथा लासारो की पत्नी है। उपन्यास की भाषा से यह स्पष्ट होता है कि सभी पात्र स्पेनी भाषा-भाषी है।

‘लासारील्यो दे तोर्मेस’ उपन्यास में किसी अज्ञात को लिखे एक पत्र के माध्यम से लासारिल्यो अपनी ग़रीबी से उत्थान की कथा आत्मकथात्मक शैली में कहता है जो सात अध्यायों में विभाजित है। 

पहले अध्याय की शुरुआत में लासारो अपने बचपन की कहानी कहता है। उसका उपनाम लासारो उसके जन्म स्थान में बहने वाली नदी तोर्मेस के नाम पर पड़ा। जब लासारो आठ साल का था तब उसके पिता गोमेज़ गोंसालेस को अरब सत्ता के विरुद्ध सशस्त्र विद्रोह में भाग लेने के कारण बंदी बना लिया गया और अपने बचाव में कुछ नहीं कहने के कारण उस स्वामीभक्त को अपने जीवन का बलिदान देना पड़ा। दरअसल, उसके पिता को चोरी के अपराध में पकड़ा गया था। इसके पश्चात् लासारो और उसकी विधवा माँ अन्तोना पेरेस दोनों शहर चले जाते है। जहाँ उसकी माँ माग्दालेना की घुड़सवार सेना के सेनापति के पास प्रशिक्षण पाने वाले युवाओं का खाना पकाने और कपड़े धोने के काम से अक्सर घुड़साल जाया करती थी। इसी दौरान अन्तोना के घुड़साल में पशुओं की देखभाल करने वाले एक काले आदमी सईद से संबंध बन गये। जिससे लासारो को कोई एतराज़ नहीं था क्योंकि उस आदमी की वजह से लासारो को अच्छा खाना मिल जाता। शीघ्र ही अन्तोना ने एक बच्चे को जन्म दिया। जब सेनापति को इस बात की ख़बर हुई कि सईद घुड़साल से सामान चुराकर लासारो के घर देता है तो उसने लासारो को डरा धमकाकर पूछने के बाद सईद और अन्तोना को अदालत में पेश किया। दोनों को सज़ा दी गयी। इसके बाद लासारो का परिवार सोलाना नाम की एक सराय में रहने लगा। सराय में आकर रहने वाले एक अंधे आदमी ने अन्तोना से लासारो को अपने साथ रखने की इच्छा जतायी जिसके लिए अन्तोना राज़ी हो गई। अंधा आदमी बहुत ही चालाक और कंजूस था। वह अपनी बातों में लोगों ख़ासकर औरतों को बहला फुसलाकर उनसे पैसे ऐंठ लेता था। उसने कुछ ही दिनों में अपने सारे हथकण्डे लासारो को सिखा दिये लेकिन कभी भी लासारो को भरपेट खाने को नहीं देता था। और एक दिन लासारो चालाकी से अंधे को खम्भे से टक्कर करवा कर भाग गया। 

दूसरे अध्याय में लासारो एक पादरी का नौकर बनता है। पादरी इतना कंजूस था कि रोटी को एक थैले में रखकर उसके मुँह पर ताला लगा देता और उसे अपने चोगे के ऊपर बँधी पेटी से लटका कर रखता था। वह लासारो को बहुत कम खाने को देता कि उसके साथ तीन हफ़्ते रहने के बाद लासारो इतना कमज़ोर हो गया कि वह अपने पाँवों पर खड़ा भी नहीं हो पा रहा था। जब लासारो पादरी से तंग आ गया तो उसने निश्चय कर लिया और एक दिन पादरी को छोड़कर भाग गया। 

तीसरे अध्याय में भूख से बेहाल लासारो तोलेदो शहर पहुँचता है। जहाँ भीख में मिले भोजन से उसका स्वास्थ्य भी सुधरने लगता है। एक दिन भटकते-भटकते उसे एक अनुरक्षक मिला जो देखने में अच्छे घर का लग रहा था। उसने भव्य कपड़े पहन रखे थे। उसने लासारो से उसका नौकर बनने के विषय में पूछा और लासारो मान गया। इस तरह वह व्यक्ति लासारो का तीसरा मालिक बना। अब लासारो को नया घर मिल गया जहाँ कम रोशनी थी। घर में न ही कुछ ख़ास लकड़ी का सामान था। जल्द ही लासारो ने अंदाज़ा लगा लिया कि वह अनुरक्षक देखने में भले घर का लगता है पर है ग़रीब। अब भोजन के लिए लासारो को भीख माँगनी पड़ती थी और उसका हिस्सा अनुरक्षक को देना पड़ता था। उस साल गेहूँ की फ़सल ख़राब होने की वजह से उस इलाक़े की सरकार ने गलियों में भीख माँगने वालों पर रोक लगा दी लेकिन लासारो को पड़ोस की धानक औरतें कुछ खाने को दे जाती थीं। अनुरक्षक को आठ दिन हो गये खाना खाये। आख़िरकार उसे एक रेयाल मिला जिसे देकर लासारो को कुछ भोजन लाने को कहता है। एक दिन उस भुतहा घर का मालिक किराया माँगने आता है। अनुरक्षक कुछ बहाना बनाकर वहाँ से ग़ायब हो जाता है और लासारो बिना मालिक के रह जाता है। 

चौथे अध्याय में लासारो को एक नया मालिक मिलता है जो एक साधु था जिसके पास वे पड़ोसिनें उसे ले गयी थीं जो उसे खाना देती थीं। साधु धर्मनिरपेक्ष बातें करने और घूमने का बड़ा शौकीन था इसलिए उसके जूते ज़्यादा दिनों तक नहीं टिकते थे। उसने लासारो को भी एक जोड़ी जूते दिये जो आठ दिन से ज़्यादा न टिक सकें। क्योंकि जूते तकलीफ़देह भी थे। जल्द ही उससे परेशान होकर लासारो ने उसकी नौकरी छोड़ दी। 

पाँचवें अध्याय में लासारो का अगला मालिक संत क्रूस के आदेश-पत्रों को प्रकाशित करवाकर उनका प्रचार करके आजीविका चलाने वाला एक वितरक था। यह वितरक एक बेहद घटिया और स्वार्थी व्यक्ति था जो अपनी स्वार्थ-सिद्धि के लिए कुछ भी कर सकता था। वह जिस नये स्थान पर जाता वहाँ पादरियों से मिलकर उन्हें आदेश-पत्रों की प्रतियाँ भेट करता और यदि वे स्वीकार नहीं करते तो किसी न किसी तरकीब से उन्हें स्वीकार करने को विवश करता। जैसे लासारो द्वारा बताए गए एक विवरण में उस वितरक ने आदेश-पत्रों की बिक्री न होने पर एक पुलिसवाले के साथ मिलकर ईसा मसीह के नाम पर झूठा नाटक किया और हज़ारों की तादात में आदेश पत्र बेचे। चार महीने रहने के बाद लासारों ने अपने मालिक के छल प्रपंच की वजह से उसे छोड़ दिया। 

छठे अध्याय में लासारों ने एक बोर्ड बनाने वाले चित्रकार के यहाँ नौकरी की, जहाँ उसका काम रंग बनाना था। इसी दौरान एक दिन वह बडे़ गिरजेघर में गया जहाँ के पुरोहित ने उसे काम पर रख लिया और उसे एक गधा, चार घड़े और एक कोड़ा देकर शहर में पानी बेचने का काम सौंपा। इस काम से लासारो को कुछ पैसे भी मिलने लगे और शनिवार को सारी आमदानी उसी की होती थी। इससे लासारो के पास कुछ पैसे भी इकट्ठा हो गए जिससे उसका जीवन भी सुधर गया। चार साल ये काम करने के बाद लासारो ने यह काम छोड़ दिया। 

सातवें अध्याय में लासारो ने एक सिपाही के यहाँ नौकरी कर ली। परन्तु वहाँ वह ज़्यादा दिनों तक नहीं टिक पाया क्योंकि यह काम बहुत ख़तरनाक था और एक दिन लासारो ने उससे अपना संबंध समाप्त कर लिया। इसके बाद लासारो ने ऐसा काम किया कि उसका जीवन सुधर गया। उसके पास अब एक शाही नौकरी थी। वह कास्तील्या का सरकारी उद्घोषक बन गया था। शहर में बिकने वाली शराब, निलामियों और कानून से सज़ा पाए अपराधियों के अपराध की मुनादी करना यही उसका काम था। उसका रहन-सहन अब बिल्कुल सुधर गया था जिसे देखकर सान साल्वादोर के वरिष्ठ पादरी (आर्क बिशप) ने अपनी नौकरानी का विवाह उसके साथ करने का प्रस्ताव रखा जिसे लासारो ने स्वीकार कर लिया। इसके बाद पादरी की कृपा से उन्हें हर साल ईस्टर पर गाड़ी भर गेहूँ , माँस मछली और पुरानी पैंटों जैसी बहुत सारी वस्तुएँ मिल जाती थीं। साथ ही, पादरी ने रहने के लिए एक मकान भी किराये पर दिलवा दिया। बस एक ही बात थी जो खल रही थी कि उसके मित्र उसकी पत्नी और आर्क बिशप के संबंधों की चर्चा उसके समक्ष कर देते थे। जिसके बाद सब कुछ साफ़ हो जाता है। और उस बेबुनियादी बात को वहीं समाप्त कर दिया गया। अब लासारो ज़िंदगी भर सरकारी उद्घोषक के काम को करता रहा जिससे उसके जीवन में ख़ुशहाली आई। 

लासारो का मालिकों की सेवा में आना, भूख और अत्याचार का दिन-ब-दिन बढ़ता जाना है। लासारो कहता है "जिस दिन मुझे अपनी खुराक से आधा खाना भी मिल जाता था उस दिन मैं ईश्वर का धन्यवाद देता था।"2 एक अन्य स्थान पर भी लासारो अपनी भूख का वर्णन करता हुआ कहता है कि "उसके पास तीन सप्ताह रहने के बाद मैं भूख से इतना कमज़ोर हो गया था कि अपने पावों पर खड़े रहने की ताक़त भी न बची। मुझे यह साफ़ लग रहा था कि मैं सीधे क़ब्र में पहुँच जाऊँगा।"3 

लासारो द्वारा अपने जीवन का वर्णन करने के साथ-साथ जो सामाजिक व्यंग्य किया गया है वह उस समाज का कड़वा सच है। परन्तु लासारो का अश्वेत परिवार तत्कालीन संदर्भाे में नस्लभेद के विरुद्ध एक उदाहरण है। लासारो का भूख से जूझना और खाना चोरी करना जीवन जीने की इच्छा का सूचक है और जिस प्रक्रिया में वह अपनी नैतिकता और आज़ादी को त्याग देता है। परन्तु मालिक बदलने की प्रक्रिया में लासारो का भूख से लड़ना एक समय के बाद कम होने लगता है। कहना ना होगा यहाँ गहरी विडंबना और दुख है। यहाँ जो दिखता है वह वैसा नहीं है। अंधे भिखारी का सबके सामने प्रार्थना करना निरा छल है, धोखा है और पाखण्ड है। लासारो कहता है जहाँ उपन्यास में हास्यास्पद स्थिति है - "वह अपने चेहरे पर भक्ति और दीनता के भाव लाना बख़ूबी जानता है। ऐसा करते हुए उसे औरों की तरह मुद्राएँ बदलने की आवश्यकता नहीं पड़ती थी। ऐसे क्षणों में उसका चेहरा और आंँखें स्वयं बोलती प्रतीत होती थीं। दूसरों की जेबों से पैसा कैसे निकलवाना है, इसके हज़ारों तरीक़े उसके भण्डार में थे।"4 अनुरक्षक और पादरी की भद्रता बिल्कुल झूठ है। उपन्यास के अंत में जब लासारो सफलता की चोटी पर पहुँच जाता है वहाँ पर वरिष्ठ पादरी के साथ उसकी पत्नी के संबंधों की चर्चा जहाँ एक बार उसे परेशान करती है वहाँ शायद देखकर भी अनदेखा करने में वह अपनी भलाई समझता है और लासारो पादरी की बात से सहमत हो जाता है।

किसी कृति का अनुवाद करना अनुवादक के लिए हमेशा ही असंभव को संभव बनाने जैसा है। तब कठिनाई और बढ़ जाती है जब कृति भिन्न समाज और संस्कृति की हो क्योंकि भिन्न समाज-संस्कृति का अपने समाज और संस्कृति के अनुकूल रूपांतरण करना और मान्य बनाना अत्यंत कठिन कार्य है। दूसरी तरफ मूल कृति की भाषा का शब्दरचना संबंधी ज्ञान, शब्दकोशीय ज्ञान, वाक्य संरचना और मुहावरे-लोकोक्ति का ज्ञान होना एक अनुवादक के लिए अति आवश्यक है। इन्हीं के आधार पर अनुवादक असंभव कार्य को संभव बना सकता है।

निम्नलिखित उदाहरणों के आधार पर ‘लासारील्यों दे तोर्मेस’ और अनूदित कृति ‘लासारो’ का भाषिक विश्लेषण किया जा सकता हैः-

  1. 1. लासारो में मूलतः नामों व स्थानों का रुपांतरण नहीं किया गया है। परन्तु दो स्थानों पर ग़लतियाँ की गई हैं। पहले मूल नाम ज़ाइदे (Zaide) के स्थान पर सईद नाम लिखा गया है। दूसरे स्थान पर गोंसालेस (Gonzáles) के स्थान पर ‘गोंसाले’ लिखा गया है। अतः दोनों ही ग़लत हैं। वहीं ogha molienda de una aceña का अनुवाद पवन चक्की किया है जो गलत अनुवाद है जिसके स्थान पर जल चक्की सही अनुवाद होगा।
  2. अनुवादक की सबसे बड़ी ग़लती है कि प्रत्येक अध्याय का ग़लत अनुवाद और साथ ही हिन्दी में ग़लत वाक्य संरचना का प्रयोग करना जिससे अनुवाद स्पेनी वाक्य संरचना का शब्दशः अनुवाद प्रतीत होता है।
    उदाहरणः-
    "cuenta lazáro su vida y cuya hijo fue"
    "वर्णन करना लासारों का अपने जीवन और अपने माता पिता का"  
    इसका प्रस्तावित अनुवाद इस प्रकार है:- 
    लासारो द्वारा अपने जीवन और माता पिता का वर्णन। 

मूल कृति में गालियों का प्रयोग कम हुआ है और इसी आधार पर अनूदित कृति में भी गालियों का प्रयोग नाममात्र है परन्तु जहाँ पर गाली का प्रयोग हुआ है वहाँ पर अनुवादक ने शब्दशः अनुवाद करने के स्थान पर भावानुवाद किया है जो सटीक प्रतीत होता है।

उदाहरणः- 

“Respondio el riendo hideputa?”5

"वह हँसता हुआ कहता, "हरामी!"6

  1. अनुवाद करते समय मुहावरे-लोकोक्तियों और कहावतों का शब्दशः अनुवाद संभव नहीं क्योंकि एक भाषा के मुहावरे और वाक्यों का दूसरी भाषा में शब्दशः अनुवाद करने का अर्थ है, अर्थ का अनर्थ करना। इसलिए अनुवादक ने भावानुवाद पर अधिक बल दिया है जैसेः- 

(1) Escapé del trueno y di en el relám paga. 
आसमान से गिरा खजूर में अटका।
 (2) Donde una puerta se cierra, otra se abre.   
अगर एक दरवाज़ा बंद होता है, तो दूसरा खुल जाता है।
(3) Justeseme el cielo con la tierra.
आसमान टूट पड़ना
(4) Más da el duro que el desnudo.
कठोर लोग नंगे लोगों से ज़्यादा ही दान देते हैं।

  1. दूसरी तरफ़ अनुवादक ने वाक्यांशों में भी ग़लतियाँ की हैं। जैसेः-

बिना बेझिझक (पृष्ठ संख्या 43 पर)-
बेझिझक हुकुम बजा लाऊँगा (पृष्ठ संख्या 57 पर)- हुकुम बजा फ़रमाऊँगा।

  1. प्रायः यह माना जाता है कि एक अनुवादक को अपनी ओर से न ही कुछ जोड़ना चाहिए और न ही कुछ घटाना चाहिए। परन्तु अनूदित कृति में अनुवादक ने इस नियम की अनदेखी करते हुए अपनी ओर से कुछ घटाया है। जैसे- मूल कृति की पृष्ठ संख्या 34 पर पंक्ति संख्या 6, पृष्ठ 45 पर अंतिम दो पंक्तियाँ और पृष्ठ संख्या 61 पर पंक्ति संख्या 6 छोड़ दी गयी है। दूसरी तरफ अनूदित कृति में पृष्ठ 39 पर ‘ईस्टर का पर्व’ वाक्यांश जोड़ा गया है जो मूल कृति में नहीं है।
  2. अनुवादक ने पादटिप्पणी का प्रयोग करते हुए कुछ स्पेनी शब्दों की व्याख्या की है। जैसे- ‘लीग’, ‘मारावेदी’, ‘कुस्तान’, ‘एचाकुएरर्वोस’, ‘एस्तादो’ और ‘मुँह का नाप लिया’ इत्यादि शब्दों की व्याख्या प्रस्तुत कर शब्दों को समझने में सहायता प्रदान की है।

जहाँ तक उपन्यास के प्रभाव की बात की जाए, यह कहा जा सकता है कि मूल कृति के समान अनूदित कृति को पढ़ते हुए वही जिज्ञासा अनूदित कृति का पाठक भी महसूस करता है, जो मूल कृति का पाठक महसूस करता है। अनुवादक पाठक की जिज्ञासा प्रारंभ से अंत तक बनाए रखने में सफल रहा है।

अंततः यही कहना समीचीन होगा कि उपन्यास ‘लासारील्यो दे तोर्मेस’ ने अपनी सार्थकता और सफलता को क़ायम रखते हुए हिन्दी में भी अपना महत्त्व बनाये रखा है। अतः इस उपन्यास की महत्ता और प्रसिद्धि पर संदेह करना ग़लत होगा। कुछेक ग़लतियों के बावजूद अनूदित कृति के माध्यम से मूल कृति अपनी छाप पाठकों पर छोड़ने में सफल रही है।

आधार ग्रंथ - 

  1.     Lazarillo de tormes’, Segunda Edición.1984’ Impreso en España prudencio Ibañez Campos, Musigraf Arabí,Cerro del viso,s/n Torrejόn de ardoz (Madrid)
  2. ‘लासारो’, अनुवादक- सुरेश धींगड़ा, द्वितीय संस्करण, 2008, साहित्य अकादमी, नई दिल्ली                                     

संदर्भ ग्रंथ -

1. अनुवादक की ओर से’, ‘लासारो’, अनुवादक सुरेश धीगड़ा, 
2. पृष्ठ सं. 26, वही
3. पृष्ठ सं. 11, वही
4.पृष्ठ सं. 12, वही
5. पृष्ठ सं. 30, Lazarillo de tormes
6. पृष्ठ सं. 10, वही

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