साढ़े-बारह
कथा साहित्य | कहानी डॉ. मो. इसरार1 Nov 2019
अरे यार, जल्दी कर . . . जल्दी। देखता नहीं क्या, टाइम निकला जा रहा है। एक तो आज वैसे ही लेट हो गए। ये हथोड़ा एक तरफ़ फेंक, छीनी को दराज में डाल। बाक़ी काम बाद में निपटाएँगे। साढ़े-बारह बज चुके हैं। कॉलेज की छुट्टी हो गई होगी। वे आने ही वाली हैं। कॉलेज और फ़ैक्ट्री के बीच का रास्ता है ही कितना? मुश्किल से पन्द्रह-बीस मिनट लगते हैं, उन्हें यहाँ तक पहुँचने में। इस काम को मार गोली, अपना शैडयूल चेंज नहीं करेंगे। भले ही फ़ैक्ट्री बन्द हो जाए. . . .।
रहीम, फहीम और जुनैद ने गंड़ासा बनाने की बड़ी दुकान- जिसे वे फ़ैक्ट्री कहते थे, का काम बीच में ही छोड़कर शीघ्रता से स्नान किया। वर्कशॉप के काले-चिट्टे कपड़े उतार कर नए धारण किए। बालों को आधुनिक स्टाइल से सजाया, पाउडर से पसीने की बदबू को दूर किया और बन-ठन कर दुकान के सामने खड़े हो गए।
तीनों सजे-सँवरे ऐसे खड़े थे जैसे अभी-अभी ब्यूटीपार्लर से निकलकर आए हों। अथवा किसी शोरूम के गेट के समीप विज्ञापन में दर्शाने के लिए मूर्तियाँ खड़ी की गयी हों। बगलों में हाथ दबाए, रास्ते को अपलक निहारते, स्वयं को अत्यधिक गौरान्वित अनुभव कर रहे थे। रास्ते को निहारने का एक पल भी चूकना नहीं चाहते थे. . . ।
कुछ समय बाद कॉलेज ड्रेस पहने स्कूल बैग पीठ पर लटकाए तीन हमउम्र लड़कियाँ आती दिखाई दीं। लड़कियाँ चिड़ियों की भाँति अठखेलियाँ करती, एक-दूसरे पर थोड़ा आक्षेप, थोड़ा व्यंग्य करती हुईं जैसे-जैसे समीप आती गईं लड़कों के दिलों की धड़कनें तेज़ होने लगीं। लड़कियाँ बिलकुल क़रीब से गुज़रीं तो तीनों पर बिजलियाँ गिर गईं। एक ने होंठो पर तीन उँगलियाँ रखकर, किस्स का संकेत किया। पुच...s...s, की आवाज़ मुख से ज़ोर से निकाली। दूसरे ने दिल पर हाथ रखकर, ठण्डी आह भरी, जैसे किसी ने बर्फ़ का टुकड़ा दिल पर रख दिया हो। तीसरे ने दोनों हाथ फैलाकर ‘हाय-हाय’ की आवाज़ मुख से निकालते हुए सिर को हिलाया। उसको देखकर ऐसा लगा, जैसे उसके प्राण-पखेरू उड़ने वाले हैं।
लड़कियों ने थोड़ा सा भाव दिया। कजरारी आँखों के तीर उन पर फेंक कर उन्हें घायल भी किया। सीना तान कर, अंगों में कशिश पैदा की। वक्षों को देखकर उन पर दुपट्टा खींचकर लड़कों को लुभाया। उनके समीप से निकलते ही, तीनों ने ज़ोर से ठहाका लगाकर, आग में घी डालने का काम किया। लड़कियों के हाव-भावों को देखकर यही लगा, ‘मामला गम्भीर है। हँसी तो फँसी।’
पिछले दो वर्ष से यही सिलसिला चला आ रहा था। बात न तो इससे आगे बढ़ी थी और न पीछे ही हटी थी। मामला देखम-देख पर अटका हुआ था। रहीम, फहीम और जुनैद रोज़ नए स्टाइल से सजते-सँवरते और इन्टर कॉलेज की लड़कियों पर लाइन लगाते। उन्हें नज़रों के तीरों से घायल करने की जी जान से कोशिश करते। और बड़े उत्साह से ख़रीदी गई ‘लड़की पटाने के सौ तरीके’ नामक किताब की अलग-अलग युक्तियाँ अपनाते।
साथ ही उन लड़कियों को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए उन्होंने कई अन्य नुस्खे भी अपनाए- मौलवियों से तागे-तावीज़ बनवाए। तांत्रिकों पर हज़ारों रुपयों की बलि चढ़ाई। लड़की पटाने वाले कई टोने-टोटके भी किए। परन्तु मोहनियाँ मोहित न हो सकीं। वे तीनों, दो वर्ष का समय और रुपया बर्बाद करने के बाद भी उनके नामों तक का पता नहीं लगा सके थे। केवल इतना जान पाए थे, ‘वे लड़कियाँ इस्लामिया इन्टर कॉलेज में पढ़ती हैं।’
उनकी फ़ैक्ट्री के सामने से निकलकर, किसी गाँव में जाती हैं या शहर में ही लुप्त हो जाती हैं, वे यह भी नहीं जानते थे। उनकी कक्षाओं तक के विषय में ज्ञात नहीं था, उन्हें। परन्तु लड़कों को विश्वास था, तीनों लड़कियाँ एक ही कक्षा में पढ़ती हैं। क्योंकि उनके बैग समान रूप से मोटे हैं, उनकी आयु एक सी है, तीनों हमेशा साथ रहती हैं।
एक बार प्रयास भी किया था, उनकी कक्षाओं और नाम आदि के विषय में जानने का। उनसे बात करने सीधे कॉलेज में पहुँच गए थे। परन्तु कॉलेज गेट से ही लौट आए थे। क्योंकि स्वभाव से अत्यन्त सख्त प्रिंसिपल के डंडे की मार, एक अन्य मनचले पर पड़ते देख, घिग्गी बँध गई थी उन तीनों की। बेचारा एक लड़की द्वारा फँसा दिया गया था।
चपरासी तक ने हाथ में डंडा लेकर कुत्ते के समान पीछा किया था उन तीनों का। फेंककर मारा गया डंडा जुनैद के सर में लगा था। तुरंत लाल-लाल खून के दर्शन हुए थे। ऊपर से कई मोटी-मोटी गालियाँ भी सुनने को मिली थी। फिर कभी हिम्मत न हुई उधर रुख़ करने की। सारी मजनूगिरी भूल गए थे। उसके बाद फ़ैक्ट्री के गेट पर खड़े होकर ही मामला जमाना शुरू कर दिया।
उन तीनों की दिनचर्या में साढ़े-बारह का समय नियत था। इस समय वे अर्जेन्ट से अर्जेन्ट काम भी त्याग देते थे। बीच का लंच-समय भी उन्होंने इसके साथ जोड़ रखा था। साढ़े-बारह के तुरंत बाद वे लड़कियों को घूर-घूर कर देखते, फिर खाना खाने बैठ जाते। बीच-बीच में हँसी-मज़ाक करते और गप्पें लगाकर यह जानने का प्रयास करते, ‘मामला कहाँ तक पहुँचा है?’ परन्तु वास्तविक स्थिति तीनों को ज्ञात थी। फिर भी हाव-भावों का एक खिंचाव था जो उन्हें (लड़के-लड़कियों को) एक-दूसरे के प्रति आकर्षित किए हुए था। सर्दियाँ आने पर वे अपने शैडयूल में थोड़ा सा परिवर्तन कर लेते। कॉलेज टाइम चेंज होने पर वे तीनों साढ़े-बारह के स्थान पर साढ़े-तीन बजे अपने कार्य को प्रगति पर पहुँचाते और रात्रि के आठ बजे तक फ़ैक्ट्री में काम करते।
फ़ैक्ट्री के मालिक, शमीम साहब भी तीनों को समझाते-समझाते सर पकड़ लेते थे, ‘देखो यार, ये प्यार-व्यार कुछ नहीं होता, केवल कुछ समय की सुखद अनुभूति है, फिर दुःख ही दुःख है। समय बर्बाद करके तुमने उन्हें पा भी लिया, तो मेरी तरह जीवन भर पछताना पड़ेगा। प्यार वो आग है, जो भस्म करने के बाद भी शान्त नहीं होती।’
शमीम साहब की उम्र चालीस से ज़्यादा नहीं थी। उन्होंने प्यार की आग में जलकर ‘लव मेरेज’ किया था, जो सफल नहीं हो पाया था। इसलिए वे सभी को प्यार से बचकर चलने की हिदायत देते थे। वैसे उनका व्यवहार, उन तीनों के साथ फ़्रेंकली और एकदम दोस्तों जैसा था। इसलिए वे उन तीनों को समझाते हुए कभी-कभी प्यार को ‘हड़काए कुत्ते’ की संज्ञा दे डालते। जिसके एक बार काटने पर, बारह वर्ष तक हड़क उभरने का अंदेशा रहता है। शमीम साहब की बातें सुनकर उन तीनों का केवल एक ही जवाब रहता, ‘जनाब आपको अपने काम से मतलब। आपको अपना हर काम समय पर फ़िट मिलता है और आगे भी मिलेगा। उसके लिए हम ऑवर टाइम करें या रात को काम करें। लेकिन साढ़े-बारह से दो के बीच, हमें उन्हें देखने से कोई ताक़त नहीं रोक सकती।’
फ़ैक्ट्री में कितना भी ज़रूरी काम क्यों न हो? कितने भी ऑर्डर बुक क्यों न हो? नौकरी चली जाने का ख़तरा ही क्यों न हो? रहीम, फहीम और जुनैद फ़ैक्ट्री का काम छोड़कर निर्धारित समय पर कॉलेज की लड़कियों को चाह भरी दृष्टियों से घूरना नहीं भूलते थे। मामला जमाने के लिए उन्होंने शहर की एवन दुकानों और जनरल स्टोरों से क़ीमती और महँगे शैम्पू, साबुन, सुगन्धित तेल, इत्र आदि भी जमकर प्रयोग किए। परन्तु मामला ज्यों का त्यों बना रहा। तीनों बन्दे खाना-पीना भूल सकते थे, लेकिन साढ़े-बारह से दो के बीच उन लड़कियों को आह भर-भरकर देखना नहीं भूलते थे।
लड़कियाँ भी कुछ ऐसी शैतान थीं, उन तीनों को देखते ही हाव-भावों को आकर्षक बना लेती थीं। कभी कनखियों से देखती तो कभी एकटक देखते हुए पलकें तक न झपकती। कभी दुपट्टे को गले से खींचते हुए, सीने पर हाथ फेरकर उसे ढाँपतीं। उन्हें देखकर कभी खिलखिलाकर हँसती तो कभी बन्द होंठों से मुस्काती। कभी-कभी तो ऐसा स्वांग रचती, तीनों को लगता, ‘बस फँसने ही वालीं हैं।’
किसी त्यौहार या सन्डे की छुट्टी के दिन, जब कॉलेज सूना रहता, उन लड़कों की दुनिया वीरान हो जाती। सड़कों पर चहल क़दमी तो रहती पर उनके अरमान मरे रहते। एक-दूसरे का चेहरा भी देखना पसन्द न करते। कार्य में कोई रुचि नहीं, एकदम कछुआ चाल। हाव-भावों का जोश ठण्डा। साढ़े-बारह बजते ही दबी इच्छाएँ भूचाल का रूप न धारण करती। किसी के प्यार से पुकारने पर भी, चिढ़कर बोलते। शमीम साहब कोई काम करने को कहते, तो ठण्डे लोहे के समान मोड़ते इधर को, मुड़ते उधर को। उनके रुख और व्यवहार को देखकर ऐसा लगता, ‘अपने-अपने अब्बुओं की क़ब्र पर मिट्टी डालकर आए हों . . . ।
इसके विपरीत, कॉलेज खुलने के दिन, चेहरा गुलाब सा खिला रहता। उत्साह के भाव स्पष्ट झलकते। कोई बुरा भला भी कहता तो हँसकर टाल देते। सभी काम साढ़े-बारह को ध्यान में रखकर बड़ी रफ़्तार से किए जाते काम कितना भी कठिन क्यों न हो, साढ़े-बारह तक पूरा करना उनका लक्ष्य रहता। उस दिन तीनों गर्व से सीना फुलाकर कहते, ‘आज प्यार से मुलाक़ात होगी।’
फ़ैक्ट्री के मालिक शमीम साहब ख़ुशमिज़ाज इन्सान थे। अपने यहाँ काम करने वालों के साथ उनका व्यवहार बहुत अच्छा था। फ़ैक्ट्री का प्रत्येक व्यक्ति उनसे प्रसन्न रहता था। बनिये के समान अपने नौकरों से काम लेना भी, वे भली प्रकार जानते थे। एक बार यदि किसी व्यक्ति ने उनके यहाँ काम कर लिया, तो दो गुनी पगार मिलने पर भी दूसरे के यहाँ काम करना अपनी शान के ख़िलाफ़ समझता था। अपने नौकरों में से वे किसी न किसी पर चुटकियाँ ले-लेकर अक्सर वे सबको हँसाते रहते थे। शमीम साहब अच्छी तरह जानते थे, रहीम, फहीम-जुनैद, साढ़े-बारह की छुट्टी किसी भी क़ीमत पर कैंसिल नहीं कर सकते। फिर भी वे उन पर चुटकियाँ लेकर उन्हें छुट्टी न करने की अक्सर सलाह देते रहते थे। उनके स्नेहमयी प्यार की आग में घी डाल-डालकर उन्हें उकसाते रहते थे। स्वयं का उदाहरण देकर उन्हें चिढ़ाते भी थे, ‘सालो, मैंने अट्ठारह साल की उम्र में लव मैरेज कर ली थी, तुम बीस के सनडम-सनडे आज तक उनकी . . . नहीं उखाड़ सके। नाम-पता तक ज्ञात नहीं उनका, चले इश्क़ लड़ाने।’
एक दिन बोले, ‘सीज़न चल रहा है, गंड़ासे की बहुत माँग है, कुछ दिन बीच में साढ़े-बारह पर छुट्टी मत करना, प्रतिदिन तुम्हे पाँच-सौ रुपये मन्थली सेलरी से अलग दूँगा।’ लेकिन उन तीनों का एक ही जवाब था, ‘इस समय के लिए आप हमें पाँच-सौ तो क्या पाँच-हज़ार भी दीजिए, हम अपना शैडयूल चेंज नहीं कर सकते। इस समय के लिए तो हम म-ल-कुल मौत (मौत का फ़रिश्ता) से भी समझैता नहीं कर सकते।’ शमीम साहब ने अधिक ज़ोर डाला तो, उन तीनों ने काम करने से इनकार कर दिया। अत: शमीम साहब को अपनी राय वापस लेनी पड़ी।
उन तीनों को, लड़कियों के नाम, घर, कक्षा आदि का कुछ भी पता नहीं था। लड़कियाँ भी देखने में न अधिक सुन्दर थी और कुरूप। साधारण सी भाषा में कहा जाए तो- ठीक-ठाक, काम चलाऊ, समय के सदुपयोग के लिए उपयुक्त। फ़िगर में भी रोमानियत का नशा कम ही था। हाव-भावों को आकर्षक बनाने में अल्हड़-नादान। उनके भोलेपन को देखकर लगता था, ‘दूसरों को अपने जाल में फँसाने के गुर सीख रही हैं।’ पर उन लड़कों की भावना उनमें ऐसी रमी, उन्होंने सब कुछ अनदेखा कर दिया। उन पर यह कथन एकदम सटीक बैठता था, ‘जब पत्थर से दिल मिल जाए तो हीरे की आवश्यकता नहीं रहती।’
लेकिन एक और बड़ा आश्चर्य यह था कि तीनों इस विषय में भी अनिर्णित थे कि किसका, किसके साथ चक्कर है। कौन, कौन-सी को चाहता है और किस पर लाइन लगाता है। इस विषय को लेकर उनमे कोई विवाद या झगड़ा भी नहीं हुआ कि ‘तूने मेरे वाली पर लाइन लगाई, मै तुझे नहीं छोड़ूँगा। तूने मेरी जान की तरफ सीटी बजाई, तेरी जीभ काट लूँगा। तूने मेरे सौदे की तरफ हाथ हिलाया, मैं तेरा हाथ तोड़ दूँगा.........वग़ैरह.....वग़ैरह......।’
फिर भी एक लगाव था, एक खिंचाव था, उन सब के बीच एक आकर्षण था, जो उन्हें आपस में बाँधे हुए था। लड़कों की सोच भी उत्कृष्ट थी, ‘वे भी तीन, हम भी तीन। पट गई तो एक-एक बाँट लेंगे।’ शायद एक कसक भी थी, जो दोनों तरफ के दिलों को सालती थी। यह कसक न कभी कम हुई और न बढ़कर प्यार का रूप ही धारण कर पाई। मामला त्रिशंकु के समान बीच में ही लटका रहा। वे तीनों उनकी एक झलक देखने से रोकने वाले को अपन सबसे बड़ा शत्रु मानते थे। इसके लिए जब कभी उनकी फ़ैक्ट्री का काम बाधा बना, वे अपना रोज़गार, अपनी नौकरियाँ छोड़ने तक को तैयार हो गए।
वक़्त गुज़रने के साथ-साथ उन तीनों लड़कियों ने इन्टर उत्तीर्ण किया और पता नहीं कहाँ तथा किस दिशा में आगे बढ़ गईं।
इस प्रेम कहानी को घटित हुए, काफ़ी समय बीत चुका है। रहीम, फहीम-जुनैद आज भी उसी गंड़ासे की बड़ी दुकान (फ़ैक्ट्री) में गंड़ासा कटाई, छटाई और उसकी पिटाई का काम करते हैं। उनके जीवन में कोई ख़ास परिवर्तन नहीं आया है। उसी दुकान पर पहले काम करते थे, उसी पर आज भी करते हैं। सुबह नौ बजे काम पर आते हैं, शाम को पाँच बजे चले जाते हैं। उनकी सेलरी में दो-दो हज़ार रुपयों का इज़ाफ़ा अवश्य हो गया है। परन्तु उनकी वेशभूषा पहले से कहीं अधिक बदतर लगती है। देखने मात्र से ही दिल टूटे आशिक़ और मजनूँ लगते हैं। जिन ड्रेसों को पहनकर वे वर्कशॉप में काम करते हैं वे पसीना, गर्द और मैल के कारण इतनी गन्दी हो गई हैं कि धुलने के लिए तड़प-तड़प कर दम तोड़ती सी दिखाई दे रही हैं। यदि ड्राइक्लीन भी कराइ जाएँ तो भी उनमें निखार न आएगा। धूल जमने के कारण कपड़ा भी दोगुना मोटा लगता है। यदि कहीं कोई परिवर्तन हुआ है तो वो हुआ है जुनैद की ज़िन्दगी में। उसकी शादी हो गई, ज़िन्दगी आधी हो गई। रहीम की बात चल रही है, अत: उसका जीवन भी परिवर्तित होने वाला है।
साढ़े-बारह अब भी बजते हैं और आगे भी बजेंगे, लेकिन उनकी वैल्यू अब समाप्त हो चुकी है। समय के साथ-साथ रहीम, फहीम और जुनैद की जवान उमंगें बर्फ़ बन गई हैं। उनमें वो पहले वाला जोश और उत्साह अब शायद ही कभी आ पाए। इस समय कोई भावना उन्हें उद्वेलित नहीं करती। ‘साढ़े-बारह’ का समय ज़ख़्मी नहीं करता। उन सबको देखकर यही लगता है, ‘भूल गए राग, भूल गए रबड़ी, याद रहा क्या, बस नून-तेल-लकड़ी।’ कभी-कभी शमीम साहब उन तीनों पर कटाक्ष करते हुए ‘साढ़े-बारह’ का समय होते ही ज़ोर से चिल्लाते हैं, साढ़े. . .बारह. . .बज गए। तब वे तीनों तुरंत घंटे की ओर देखते हैं और दिल के अरमां आँसुओं में बह जाते हैं। फिर मन ही मन कुढ़कर, नीचा मुँह करके अपने-अपने कामों को धीमी गति से करने लगते हैं।
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