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तारों पर झूलती ज़िन्दगी

वो दुबली-पतली, प्यारी, नन्ही सी बच्ची भागती हुई आई और माँ के सीने से लिपट कर कहने लगी - "माँ मुझे रिंग में जाने से रोक लो। कल जब गटटू ने मुझे हवा में उछाला था तभी से मेरी गर्दन अकड़ गयी है। सुबह का शो करते वक़्त बहुत दर्द हुआ था। माँ, प्लीज़....।"

"साशा, मेरी प्यारी बच्ची, तू तो जानती है हम ऐसा नहीं कर सकते, हमें ज़्यादा पैसों की ज़रूरत है। अगर तूने यह शो नहीं किया तो मास्टर हमारे पैसे काट लेगा, फिर मैं तेरी नई फ़्रॉक और जूते कैसे ख़रीद पाऊँगी।"

एक माँ का वात्सल्य जीविका के समक्ष कटु हो चला। वो जानती थी कि अगर बेटी को मज़बूत न बनाया तो भूखों मरने की नौबत आ जायेगी। वैसे भी सर्कस के प्रति लोगों का रुझान और रुचि दिन -प्रति-दिन कम होती जा रही है। इस सच्चाई के पतझड़ में भावनाओं की कठोरता आना स्वभाविक था।

तभी गटटू ने आकर बताया शो का टाइम हो गया है साथ ही चलने का इशारा किया और आगे बढ़ कर उसने साशा का हाथ थाम लिया। कुछ देर पहले जो दर्द से तड़प रही थी, वही बच्ची अब मुस्कुरा रही थी। वो दोनों मुस्कुरा रहे थे। साशा का दर्द न जाने कहाँ लुप्त हो गया और बचपन परिपक्व। साशा की माँ मैरी ने भी फीकी मुस्कान बिखेर दी। चूँकि ये मुस्कान उनके काम का हिस्सा भी है सो ये करना आसान भी था।

साशा और गटटू एक-दूसरे का हाथ थामे, चेहरे पर मुस्कुराहट लिये दौड़ते चले गये और सीधे रिंग में जाकर रुके। साशा ने खिलखिला कर दर्शकों का अभिवादन किया। तालियों की गड़गड़ाहट में वो सारा दर्द भूल गयी। तीन फुट के गटटू को देखते ही बच्चे चिल्लाने लगे। बड़े-बड़े फूलों वाली छींटदार शर्ट, लाल मोटी सी नाक, सिर पर लम्बी सी टोपी, गटटू अकड़ के चल रहा था, जिसे देख कर बच्चे लोट-पोट हो रहे थे। बड़ों को भी यहाँ हँसने पर कोई पाबंदी नहीं थी। ज़िन्दगी की लय को भेदता आधुनिकता का पाखंड नहीं था यहाँ।

मैरी परदे की ओट से बेटी के करतब देख रही थी। वो उसके सामने जाने से इसलिए बच रही थी ताकि वो कमज़ोर न पड़े। हवा में एक झूले से दूसरे झूले पर झूलती हुई साशा एक परी सी लग रही थी। "मेरी नन्ही परी ईश्वर तुम्हें हिम्मत दे और अच्छी सेहत भी ताकि कल का शो तुम बिना तकलीफ़ के कर पाओ।" वेदना के स्वर एक माँ के सीने में दफ़न रहे। वो साँस रोके खड़ी थी जैसे ही साशा नीचे आई. वो उसे चूमने के लिये तड़प उठी। पर अभी तो उसे दर्शकों का अभिवादन करना था और रिंग का एक पूरा राउन्ड लेना था इससे पहले वो माँ तक नहीं पहुँच सकती थी।

मैरी सोच ही रही थी कि साशा दौड़ती हुई आकर माँ से लिपट गयी। मैरी ने उसे उठा कर सीने से लगा लिया। 

"माँ, आज गटटू ने सबको ख़ूब हँसाया। जब मैंने उसे झूले पर अकेला छोड़ दिया था तब उसकी रोनी सूरत देख कर सब ठहाका लगा कर हँस पड़े थे। माँ.… एक बात बताओ कि गटटू के रोने पर सब हँसते क्यों हैं..? आप तो मेरे रोने पर दुखी हो जाती हो.. गटटू की माँ बीमार है वो जब रोती है तो गटटू भी दुखी हो जाता है, फिर उसके रोने पर सब क्यों हँसते हैं..???”

साशा के तार्किक सवाल से मैरी उदास हो गयी। वो सोचने लगी जवाब की चिथड़ी गठरी में से ऐसा क्या निकाले? जिससे साशा सन्तुष्ट हो सके। चेहरे को कृत्रिम हँसी से शृंगारित करते हुये मैरी ने कहा- "हम सबको ख़ुश करते हैं। हँसाते हैं। ये एक नेक काम है। इसलिए ईश्वर भी हमसे ख़ुश हैं और ख़ुश होकर वो हमें खाना देता है, कपड़े देता है, जिससे हम ज़िन्दा रहते हैं, और क्या चाहिये हमें...??" बस वो अपनी बात को कहने भर के लिये कह रही है, वरना तो उसके पास कोई पुख़्ता जबाव नहीं था। मैरी की बातों को साशा ने कितना समझा होगा ये ज़रूरी नहीं था, ये ज़रूरी था कि वो आश्वस्त हो जाये। साशा को इतना लम्बा जवाब सुनने में कोई रुचि नहीं थी वो तो दीवार पर लगे बड़े से घर की तस्वीर को देख रही थी। उसका चंचल मन कल्पनाओं में विचरने लगा था- "माँ हमारा ऐसा घर क्यों नहीं है..? इस तम्बू में मुझे बिल्कुल अच्छा नहीं लगता।"

"एक ही घर में ज़िन्दगी भर रहना कितना ऊबाऊ होता है न, इसलिये हम अपना घर बदलते रहते हैं।" अपनी बात को सटीक बनाने में उसने कोई ख़ास मशक़्क़त नहीं की है प्रायः वो इस जबाव से ख़ुद को सन्तुष्ट करती रही थी। मैरी ने बात को बदलते हुये कहा- "आओ साशा, गटटू की माँ को देख आयें। हम रात को ढेर सारी बातें करेंगे।"

साशा का हाथ थामे मैरी उस तम्बू की तरफ़ चल दी, जहाँ शाज़्या महीनों से बीमार थी। जो उनके तम्बू से दस क़दम की दूरी पर था। क्यों कि शाज़्या लम्बे समय से बीमार थी इसलिए सारा बोझ गटटू के कन्धे पर था। बस दो ही सदस्य थे उनके परिवार में। शाज़्या भी एक बेहतरीन कलाकार थी मगर लम्बी बिमारी के चलते वो चिड़चिड़ी हो गयी थी। गटटू ने दिन के तीन शो करना शुरू कर दिये थे। क्योंकि वो चाहता था कि माँ को किसी बड़े डाक्टर को दिखाये और वो जल्दी से अच्छी हो जाये। इतनी मेहनत करने के बाद गटटू बुरी तरह थक जाता था इसलिये शाज़्या की सेवा-टहल की पूरी ज़िम्मेदारी मैरी ने ले ली थी।

तम्बू में मैरी के क़दमों की आहट से ही शाज़्या खिल उठी, पर वो बनावटी रूठ गई - "जाओ मैं तुमसे बात नहीं करती मैरी, आज सुबह से तुम कहाँ थीं...?" दरअसल वो उससे नहीं अपने अकेलेपन से रूठी थी। उम्दा क़िस्म की कलाकार होने के बावजूद एक तो शो न कर पाने की तल्ख़ी उसे खा रही थी। दूसरे गटटू का इस क़दर मेहनत करना।

"शाज़्या  मेरी बहन, तुम नाराज़ न हो और उठो, लो ये दवा खा लो," मैरी नहीं चाहती थी कि शाज़्या किसी भी तरह से तनाव में रहे। शाज़्या की कृतज्ञता आँसू बन कर बह रही थी और मैरी उन आँसुओं को अपनी मुस्कुराट से पोंछ रही थी, "परेशान क्यों होती हो शाज़्या..? गटटू दिनरात मेहनत करके पैसे इकट्ठे कर रहा है न...? जल्दी ही हम तुम्हे किसी अच्छे डाक्टर को दिखायेंगे। मैंने भी कुछ पैसे जमा किये हैं, जो गटटू की मदद करेंगें।"

"मेरी प्यारी मैरी,  तुम ऐसा नहीं कर सकतीं। तुम्हें भी तो कुछ अच्छे कपड़ो की ज़रूरत है और साशा के स्कूल के बारे में तुमने क्या सोचा है..??”

"सब हो जायेगा शाज़्या, तुम चिन्ता मत करो। प्रार्थना करो कि लोग हमारी सर्कस को दिल से देखें, क्योंकि हमारे पास इसके अलावा कोई दूसरा साधन नहीं है। ख़ानाबदोश ज़िन्दगी हमें एक स्थान पर ठहरने कहाँ देती है? आज यहाँ तो कल वहाँ। सर्कस ही हमारा वजूद है। यही हमारा अतीत और यही भविष्य भी है।"

"तुमने ठीक कहा मैरी....साशा कहाँ है..??"

"अभी तो मेरे साथ ही थी। बाहर होगी, वो सोना चाहती है। थकी हुई है। रात वाले शो में अभी वक़्त है।"

बाहर से साशा के रोने की आवाज़ ने उनको चौंका दिया। 

"अरे ये तो साशा रो रही है..??"

"मैरी जाओ, तुम जाकर देखो, मुझे तो लगता है ये विक्टर हैवान बन कर उसे प्रैक्टिस के लिये दबाव डाल रहा होगा।"

शाज़्या सही कह रही थी। बाहर साशा गिड़गिड़ा रही थी- "बाबा मुझे अभी प्रैक्टिस नहीं करनी है मुझे सोना है।"

"सोने के लिये पूरी रात पड़ी है साशा, अभी प्रैक्टिस का समय है। तुम्हें अनुशासन में रहना सीखना होगा,"  विक्टर के कठोर स्वर में  एक वेदना थी जो बाल मन में सिसक रही थी।

"नहीं बाबा, आज मेरा बिल्कुल भी मन नहीं है।"

मैरी देख रही थी कि विक्टर उसे नये करतब सिखाने की कोशिश कर रहा था- "रहने दो विक्टर, उसकी तबियत ठीक नहीं है।" मैरी ने आग्रह किया।

"हमारी ज़िन्दगी में आराम हराम होता है मैरी, तुम अच्छी तरह जानती हो। इसको अभी से सीखना होगा। एक ही चीज़ देखते-देखते दर्शक ऊब जायेंगे, फिर हमारी जीविका ख़तरे में पड़ सकती है।"

साशा से डबडबाई और आशा भरी नज़रों से मैरी की तरफ़ देखा। मैरी की नज़रें झुक गयीं। उसने माँ से जो उम्मीद लगाई थी, धाराशाई हो गयी। उसकी आँखों में सतरंगी बिजलियाँ चुँधियाने लगी। रंगों के स्थान पर रोशनी से भरपूर नहाया हुआ जीवन… जहाँ से बदरंगता भी चटख दिखाई पड़ती है। हर बाशिंदे का ज़ोर तिलिस्म को बाँधे रखना था जिसमें वो ख़ुद को ज़िन्दा नहीं रख पाया था। लेकिन एक पुल ज़रूर बना दिया था अपनी उपलब्धियों का, जिसे प्रायः विस्मय से दाँतों में ऊँगली दबा कर देखा जाता है।

ये साशा के लिये कोमलता से जड़ की तरफ़ बढ़ने का पहला क़दम था। हालाँकि उसका जीवन रस्सियों पर झूल रहा था। जान की बाज़ी लगा रहा था, मगर कहीं-न-कहीं वात्सल्य भाव था, जो मचल उठा था।

शेरु भी बुरी तरह हाँफ रहा था। जाल के भीतर ही बीसिओं चक्कर काट चुका था। शो के दौरान मास्टर का ज़ोरदार डंडा खाने के बाद वो अपमानित और खूँखार हो गया था। साशा ने उसकी तरफ़ देखा। उसने साशा को देख कर नज़रें झुका लीं और अपने शावक को प्यार करने लगा, मानो कह रहा हो- 'साशा मैं तुम्हारा दर्द समझता हूँ पर क्या करुँ..?'

उसी पल बड़ी हुई साशा ने मुसकुरा कर कहा- "शेरू मैं और तुम एक जैसे हैं, तुम पिंजरें में क़ैद हो, मैं जीवकोपार्जन में। तुम अपने शावक को लिपटा कर बैठ जाते हो.. पर मेरा बचपन..??? मैंने कब जिया..?? जब बाक़ी बच्चे ज़मीन पर खेलते हैं, दौड़ते हैं, तब मैं हवा में रस्सी पर झूलती हूँ। पहले मुझे नीचे देख कर चक्कर आता था पर अब नहीं। डर भी लगता था और ये भी कि माँ आकर मुझे लिपटा ले। बाबा गोद में उठा लें। पर बाबा अनुशासन के पक्के हैं। वो ईश्वर से मेरे अच्छे स्वास्थ्य की प्रार्थना करते हैं। कल मैंने सुना था कि वो मेरा अच्छा स्वास्थ माँग रहे थे ताकि साशा अपने शो अच्छे से कर सके। शेरु तुम अपने शावक के लिये भी क्या यही माँगते हो...?? तुम ऐसा कभी मत करना। इस बार जब तुम बाहर आओ उसे जंगल में भगा देना। जहाँ वो दौड़ेगा, खेलेगा, कूदेगा और सो भी सकेगा। साशा मन-ही-मन शेरु से बात कर ही रही है कि लम्बा, भारी-भरकम सा व्यक्ति जिसका नाम वीरू था सामने से आता हुआ दिखाई दिया- "हाय साशा, क्या तुम अगले शो के लिये तैयार हो..? बस आधा घण्टा ही बाक़ी है," उसने अपनी छड़ी उठा कर कहा।
"हाँ मैं तैयार हूँ अंकल," साशा के बालमन ने एक परिपक्व मुस्कान बिखेर दी।

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टिप्पणियाँ

Amit Saxena 2019/04/19 03:18 AM

Chhotey bachhon Ke man ki feelings aor Ek maa ke man ki Tees sabhi baaton ko behad khubsurti se Sabdon se sajaya h puri kahani ek Sashakt Lekhni ka parichay Deti h.

Shreya 2019/04/18 04:15 AM

Different topic.. Unique story. Beautiful wirds collection.

गुडविन मसीह 2019/04/18 01:40 AM

तारों पे झूलती जिंदगी दिल को छू लेने वाली कहानी है. छाया अग्रवाल कहानी की कुशल चीतेरी हैं. लोगों के मन को टटोल कर शब्दों का जाल बुनना बहुत अच्छी तरह जानती है. मैंने छाया जी की और भी बहुत सी कहानियाँ पढ़ी है. सभी कहानियाँ अंतस में उतर जाने वाली हैं

Chanchali 2019/04/17 12:17 PM

Mam apki kahani me dil ki vo bhabnaye hoti h jo ham bool nahi pate,apki kahani me vo hi mhesus hoti h

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