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ये तो होता ही है

इंडियाज़ डॉटर बीबीसी की इस डॉक्यूमेंट्री ने एक बवाल खड़ा कर दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने डॉक्यूमेंट्री पर प्रतिबंध लगा दिया है। लेकिन लगते-लगते जिन्हें देखना था उन्होंने इसे देख लिया और जो नहीं भी देखना चाहते थे वो भी अब देख रहे हैं। डॉक्यूमेंट्री को लेकर राज्यसभा सदस्य औऱ जाने माने लेखक जावेद अख़्तर ने कहा था कि डॉक्यूमेंट्री का प्रसारण किया जाना चाहिए जिससे लोग ये समझ सकें की आरोपी की मानसिकता के साथ वो कितना इत्तेफ़ाक रखते हैं। डॉक्यूमेंट्री के प्रतिबंध ने फिर से समाज को धड़ों में बाँट दिया है। एक धड़ा वो है जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर आंदोलनरत है जो इसे नारी स्वंतत्रता के साथ जोड़ कर देख रहा है। वहीं दूसरा धड़ा वो है जिसमें उस बलात्कार के अपराधी या उसके वकील जैसे लोगों की सोच शामिल है।

पहला धड़ा वो है जो महिला स्वतंत्रता के मुद्दे को लेकर एक भीड़तंत्र की अगुआई कर रहा है। ये वही धड़ा है जो दीमापुर में एक जेल पर हमला कर बलात्कार के आरोपी को पीट-पीट कर मार देता है और प्रजातंत्र के कपड़े उतारता है। अहम बात ये है कि इस भीड़तंत्र में शामिल लोग जो किसी बलात्कार के आरोपी की हत्या कर देते हैं क्या वाकई में नारी की पीड़ा को लेकर इतने उद्वेलित हैं? क्या वाकई किसी नारी को सताए जाना उन्हें इतना खलता है कि उन्हें उसकी ज़िंदगी लेने के अलावा कोई रास्ता समझ नहीं आता है? क्या उनके घर में रहने वाली स्त्रियों को उन्होंने वो स्वतंत्रता दी है जिसे सही मायने में स्वतंत्रता कहते हैं?

दूसरे धड़े में वो लोग शामिल है जो इस सोच के साथ बड़े किये जाते हैं कि औरत का काम तय है। मर्यादा औरत के लिए सर्वोपरि है। ये दरअसल वो सोच है जिसे अक्सर समाज में पुरुष की सोच के रूप में देखा जाता है। इसके कोई दो राय नहीं है कि पुरुष ने अपना वर्चस्व कायम करने के लिए, ख़ुद को शक्तिशाली बताने के लिए या ख़ुद का पौरुष स्थापित करने के लिए नारी का ही चुनाव किया।

जब भी हमारे देश में नारी सशक्तिकरण की बात होती है तो ये दोनों धड़े अपने अपने विचारों के झंडे लिए किसी चैनल पर, फेसबुक, ट्विटर पर या किसी गाँव चौपाल में मुखर हो जाते हैं। नारी सशक्तिकरण की बात करने वालों ने नारी स्वतंत्रता को नारी बनाम पुरुष युद्ध बना दिया है। ये लगातार इसी तरह पेश किया जा रहा है। जो विरोध करने वाले हैं वो भी, और जो समर्थन करने वाले हैं वो भी, दोनों ही नारी स्वतंत्रता को एक ही चश्मा लगाकर देख रहे हैं। औरत के कपड़े, उसके रात में बाहर ना निकलने, उसके यूँ ही अकले घूमने जैसे फुटकर विवादों में उलझ कर या विषय को उलझा कर नारी की स्वतंत्रता से जुड़े मूल को ख़त्म कर दिया गया हैं। दरअसल बहस होनी चाहिए नारी के जीवन को लेकर, उसके जीवन जीने के तरीके को लेकर, जिनके साथ वो अपने घर में, अपने ससुराल में रहते हुए संघर्ष करती है। जहाँ उसकी किसी भी समस्या को ये कह कर नकार दिया जाता है कि ये तो होता ही है, ये तो करना ही पड़ता है। जहाँ उसके मनोविज्ञान को समझने की किसी में चाहत ही नहीं है।

एक लड़की बारह-तेरह साल की होते-होते समाज के सामने समस्या बन कर खड़ी कर दी जाती है। ये वो उम्र होती है जब उसके शरीर से बहते ख़ून, शरीर में होने वाले बदलाव, चिड़चिड़ेपन (जिसे उसे हर महीने सहन करना है) के साथ जीने के लिए तैयार होना पड़ता है। अपने शरीर में अचानक आए बदलाव के साथ बढ़ती लड़की को बड़े होते हुए इन तकलीफ़ों के साथ जीना सिखाया जाता है वो भी बगैर उफ्फ किये हुए। हाँ महीने के इन पाँच छह दिनों में इतना ज़रूर होता है कि उस पर कुछ बंदिश लगा दी जाती है, उसे मंदिर में घुसने की इज़ाज़त नहीं होती है, उसे रसोई में जाने की इज़ाज़त नहीं होती है। बाकी वो सारे काम कर सकती है। वो क्यों चिड़चिड़ा रही है, उसे कितनी थकावट हो रही है, वो क्यों आराम करना चाहती है इस बात को ना कोई समझता है और ना ही समझना चाहता है।

मैने अपने ही रिश्तों मे कई लड़कियों को देखा है जिन्हें उनकी सास महीने के इन चार पाँच दिनों में मायके भेज देती है (अगर मायका और ससुराल एक ही शहर में हो।) कारण वो इन दिनों ससुराल के किसी काम की नहीं है। कहीं लड़की को मजबूरीवश रुकना भी पड़ता है तो वो पूरे हफ्ते एक अजीब से हाल से गुज़रती है जहाँ उसे ऐसा लगता है जैसे उसकी कोई सुनने वाला ही नहीं है, कोई समझने वाली ही नहीं है।

अहम बात ये है कि ना समझने वाले या समझ कर अंजान बने रहने वालों में बड़ी संख्या महिलाओं की ही होती है। पुरुष को तो कई बातें बताई ही नहीं जाती हैं। ख़ासकर अगर वो बात महिलाओं के शरीर से जुड़ी हो। महिलाओं को भोग करना, उससे बच्चे पैदा करना, उसका घर की सेवा करना, जैसी बातें तो माँ अपने बेटे को बड़ी शान से बताती है। ये भी बताया जाता है कि महिलाओं को ज़्यादा सर नहीं चढाना चाहिए, उन्हें दबा कर रखना ज़रूरी है। लेकिन आज भी हमारे समाज में कितने परिवार या यूँ कहें अधिकांश परिवार ऐसे होंगे जहाँ पुरुष महिलाओं के शारीरिक बदलाव या उन्हें होने वाली तकलीफ़ों के बारे में जानते तक नहीं है। कभी माँ बहन को अपनी तकलीफ़ के साथ चुप रहना सिखाती है तो कभी सास बहु को चुप रहने की सलाह देती है। इस बीच में अगर पत्नी अपने पति को अपनी तकलीफ़ बताना चाहे भी तो अव्वल वो उसे समझने की मानसिकता में ही नहीं होता है। ये तो होता ही है के जुमले के साथ बड़ा हुआ लड़का उस मनोविज्ञान को समझ ही नहीं पाता है। ये मानसिकता कुछ कुछ उस रानी की तरह ही है जिसके मंत्री ने जब उसे ये बताया कि उसकी प्रजा के पास खाने को रोटी तक नहीं है तो उसने बड़ी ही मासूमियत के साथ बोला तो फिर वे लोग केक क्यों नहीं खा लेते है। जो कभी भूखा नहीं रहा हो वो भूख का अहसास नहीं कर पाता है। जिसे कभी बताया हीं नही गया हो कि औरत क्या है, उसकी तकलीफ़ें क्या है, उसका मनोविज्ञान क्या है? तो भला वो उसे कैसे समझ सकता है।

कहते हैं एक औरत का माँ बनना उसके जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि होती है। ये एक ऐसा आनंद है जो सिर्फ अहसास किया जा सकता है। हम जब भी नारी महिमा की बात करते हैं तो कहते भी हैं कि “अब तक लोगों की इस तथ्य पर जा पाई बिल्कुल दृष्टि नहीं, नर सब कुछ है कर सकता पर कर सकता है सृष्टि नहीं।” लेकिन आप भारत के किसी भी कोने में चले जाइये किसी सामान्य घर की महिला से पूछिये कि गर्भावस्था के नौ महीने और आने वाले छह महीने का उसका अनुभव कैसा रहा। कोई भी महिला अपने उस अनुभव में ख़ुद को ख़ुश नहीं बता पाती है। इसके पीछे कारण सिर्फ शारीरिक बदलाव नहीं है बल्कि सोच में बदलाव का ना होना भी है। एक गर्भ धारण की हुई महिला को एक विशेष माहौल दिया जाना चाहिए उसे हाथों हाथ लेना चाहिए, उसे बहुत लाड़ मिलना चाहिए, उसे विशेष महसूस कराना चाहिए, लेकिन ऐसा कितने घरों में होता है। अक्सर घरों में औरत अपने शरीर में हो रहे बदलावों के साथ जूझते हुए अपने पति के लिए खाना बना रही होती है, अपनी सास की सेवा कर रही होती है।

मेरी एक मित्र अपना अनुभव बयान करते हुए कहती है कि जब वो गर्भवती थी तो रसोई के मसालों से बचने के लिए मुँह पर कपड़ा बाँध कर बड़ी मुश्किल से खाना बनाती थी और फिर खाना पक जाने के बाद जा कर उल्टी कर देती थी। पति के चिंतित होने पर माताजी कहती थी ये तो होता ही है।

बच्चे के पैदा होने के बाद अक्सर महिलाएँ एक परेशानी से गुज़रती है जिसे पोस्ट पार्टम डिप्रेशन (पीपीडी) कहते हैं। अपने अंदर हो रहे शारीरिक बदलाव, नई माँ बनने के कारण रात-रात भर जागकर बच्चे को दूध पिलाना, नींद का पूरा नहीं होना, बच्चे को ठीक ढंग से नहीं सँभाल पाने का अपराधबोध (जो घऱ के सदस्यों के द्वारा करवाया जाता है) जैसे कई तकलीफ़ों के साथ गुज़रते हुए तीन महीनों तक औरत एक अवसाद में जीती है। इस दौरान कई महिलाएँ आत्महत्या करने का मन भी बना लेती है और कितने ऐसे केस हैं जहाँ महिलाओं ने प्रयास भी किया है और कई इस प्रयास में सफल भी हुई है। अहम बात ये है कि इस दौरान भी महिला को बच्चे के साथ अकेला ही छोड़ दिया जाता है। अगर बच्चा ख़ुश है तो सब उसके साथ है नहीं तो माँ को अकेले ही जूझना पड़ता है। उस पर उसकी तकलीफ़ों को बगैर समझे पहले से बनी हुई माँ, बुज़ुर्ग महिलाएँ तंज करती हैं, ख़ुद के माँ बनने और अपने अनुभवों को गिना कर उस महिला की तकलीफ़ को नगण्य बता देती है। इतना तो करना ही पड़ता है, तुम नहीं करोगी तो कौन करेगा, अभी तो शुरूआत है, हमने भी बच्चे पाले हैं, ये तो होता ही है।

एक मित्र अपना अनुभव साझा करते हुए बताती है कि बच्चा होने के बाद बुजुर्गों के आपसी अहं के टकराव और उसके अंदर हो रहे बदलावों ने उसे इस कदर अवसाद में ला दिया था कि वो अपनी बेटी को ज़बर्दस्ती अस्पताल ले जाती थी और वो बैठ कर घंटो रोती थी। क्योंकि जब वो घर में कुछ बोलती या रोने लगती तो उसे यही कहा जाता कि रो क्यों रही है ये तो होता ही है।

वहीं दूसरी मित्र अपने अनुभवों को साझा करते हुए बताती हैं कि लड़का पैदा होने के छह महीने तक तो उन्हें अपना लड़का अपना दुश्मन लगता था यहाँ तक कि उन्हें सपने में अपने ही लड़के के राक्षस की तरह दांत निकले हुए दिखाई देते थे जो उन्हें खाने की कोशिश कर रहा होता था।

ये तो होता ही है कि जुमले के साथ हम महिलाओं को उनके हाल पर जीने के लिए छोड़ देते हैं। वो एक भरे पूरे परिवार में भी अकेले संघर्ष कर रही होती है। उसकी इस तकलीफ़ को नज़रअंदाज़ करने वाली और समझ कर भी ना समझने वाली भी एक औरत ही होती है। अगर हम अपने इर्द-गिर्द नज़र डालें तो ऐसी बहुत सी औरतों से जुड़ी तकलीफ़ें होती हैं, बहुत सी ऐसी परेशानियाँ हैं जिनके साथ एक औरत जीती है या ख़ुद को उन तकलीफ़ों के साथ जीना सिखा लेती है। हमारी नज़र में ख़ासकर इसे भुगत चुकी महिलाओं के लिए ये तकलीफ़ें दरअसल कोई तकलीफ़ होती ही नहीं है। इस तरह बारह तेरह साल की उम्र से शुरू हुआ महिला का ख़ुद के शरीर के साथ का संघर्ष ता उम्र चलता है। ये वो संघर्ष है जो प्राकृतिक है जिसे टाला तो नहीं जा सकता है लेकिन सही साथ के साथ जिसे ख़ुशी-ख़ुशी झेला ज़रूर जा सकता है या बाँटा जा सकता है। लेकिन हमारे समाज में जहाँ हम नारी सशक्तिकरण के झंडे को हाथों में उठाये, चौराहे पर कैंडल जलाए, ज़ोर ज़ोर से नारे लगाते हुए नारी स्वतंत्रता की बात कर रहे हैं। भारत की लड़की को जीने का अधिकार है, भारत की बेटी को आज़ादी से घूमने का, अपने मन का पहनने का अधिकार है जैसे नारे बुलंद कर रहे हैं। हम इन छोटी दिखने वाली बातों के बारे में सोचते ही नहीं है। किसी भी घर की वरिष्ठ महिला फिर वो किसी भी पद पर हो को रेगिंग के सिद्धांत (हमारे साथ हुआ है तो हम भी करेंगे) के साथ जी रही है। अगर आंकड़ों मे देखें तो बलात्कार, औऱत को छेड़ने या उनके साथ मारपीट जैसे मामलों की जानकारी मिल जाएगी लेकिन ये वो मुद्दे हैं जिसके साथ भारत की लगभग हर बेटी जीती है, ये वो शोषण है जिसे हर औरत प्रकृति का अभिशाप समझ कर सहती है। पहले हमें इस मानसिकता में बदलाव पर चर्चा करनी होगी, देश के पाठ्यक्रम में इसे समझाना होगा तब जाकर कहीं भारत की बेटी या विश्व की बेटी सही मायने में खुली हवा में साँस ले सकेगी।

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