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अधूरे सपने

वह समझ नहीं पा रही थी कि मम्मी को कैसे बताए कि वह सदा के लिये ससुराल छोड़ कर राजू से लड़ कर आई मोहल्ले पड़ोस के समाचार बता रही थी पर उसकी उसमें कोई रुचि नहीं थी, जब उसकी घुटन असह्य हो उठी तो अन्मयस्क सी वह उठ कर बाहर निकल गई,बाहर द्वार पर ही सुरसतिया मौसी मिल गईं, उसे देख कर गले लगाते हुए बोलीं, ‘अरे मुनिका बड़े बखत से आई हो बिटिया ऊ तोहरी अंटी की हालत बड़ी खराब है, बस जाय जाय को हैं’, फिर सहानुभूति दिखाते हुए बोलीं, ‘अरे तोहरे बारे तो ऊ महतारी से बढ़ कर रही हैं, तोहरी ज़िंदगी बनाय दिहिन।’ यह सुन कर मोनिका का मन कसैला हो आया ‘ज़िंदगी बना दी कि बिगाड़ दी’ उसने मन ही मन सोचा और आक्रोश से भर कर बोली, ‘अरे कल की मरती आज मरें’, इस अप्रत्याशित उत्तर पर सुरसतिया मौसी उसका मुँह देखने लगीं फिर खिसियायी सी अपना सा मुँह ले कर चली गईं, मोनिका की समझ में उसकी स्थिति के लिये आँटी ही पूर्णतया: उत्तरदायी थी।

एक समय था जब आँटी उसके जीवन में सपनों की सौदागर बन कर आईं थीं और उसकी झोली में ढेर सारे सपने डाल दिये थे, जिनके रंगों में खोई वह कब बच्ची से युवा हो गई वह स्वयं भी नही जान पाई, उसे आज भी वह दिन स्मरण है वह मात्र छ: सात वर्ष की रही होगी एक दिन उसकी माँ और बाबू काम पर गए थे और वह बस्ती के बच्चों के साथ खेल रही थी,तभी एक प्रौढ़ महिला जो प्राय: उधर से निकला करती थीं उसके पास आईं और बोलीं, ‘बेटी तुम्हारा नाम क्या है ?’ वह सकपका गई उसे विश्वास ही नही हो रहा था कि कोई उससे इतने स्नेह से बोल सकता है उसे तो सदा ही ’ए लडकी’ या ‘सुन छोकरी’ जैसे सम्बोधन सुनने का अभ्यास था। उसने लजाते हुए सिर झुका कर कहा, ‘मुनिया’  फिर उन्होनें अम्मा बाबू के बारे में पूछा। वह उक्त महिला को ले कर हाँफती दौड़ती अपनी झोपड़ी में पहुँची और अम्मा के पास जा कर बोली, ‘अम्मा अम्मा तुम से मिलने वो आईं हैं’ अम्मा ने कहा, ‘अरे को आय?’ तो उसे अम्मा पर बड़ा क्रोध आया, यदि वह सुन लेगी तो क्या सोचेंगी। वह बिना कुछ बोले अम्मा को लगभग घसीटती हुई बाहर लायी, उन्हे देख कर अम्मा भी आश्चर्य चकित हो गईं और प्रश्नवाचक मुद्रा में उन्हें देखने लगीं, तब उन महिला ने अपने आने का प्रयोजन बताया, उनके कहने का सारांश यह था कि वह अकेले रहती हैं और मुनिया को अपने काम के सहायतार्थ अपने साथ रखना चाहती हैं। उनको गठिया था अत: वह अकेले सब काम नहीं कर पाती थीं। मुनिया के अम्मा बाबू मजदूरी करके अपना जीवन निर्वाह करते थे, वे प्रात: निकल जाते और मुनिया अकेली बस्ती के बच्चों के साथ खेलती रहती थी। उसके अम्मा बाबू को यह सुनहरा अवसर लगा, उन्होने सोचा यदि मुनिया उक्त महिला के साथ रह लेगी तो सयानी हो रही लड़की के प्रति वे चिन्ता मुक्त हो जाएँगे और एक प्राणी की भोजन व्यय की समस्य जो हल होगी वह अलग अत: उन्होने सहर्ष अनुमति दे दी।

बस उस दिन ने तो मानो मुनिया के जीवन की दिशा ही बदल दी। उन महिला ने इतने बच्चों में मुनिया को ही चुना यह उसके लिये गर्व का विषय था और उसकी बालमंडली में ईर्ष्या का। वह गर्व से सिर उठा कर अपने मित्रों अनदेखा कर उनके साथ चल दी। पहले पहल उसने उन्हें मालकिन कह कर सम्बोधित किया तो उन्होने उसे टोक दिया और कहा, ‘तुम तो मेरी बेटी जैसी हो अबसे मुझे आँटी कहा करो।’  मुनिया को आँटी कहना बहुत अच्छा लगा, आँटी ने ही उसका नाम मुनिया से बदल कर मोनिका रख दिया और अम्मा बाबू को मम्मी पाप हना सिखा दिया। अब वह गुड्‍ड, कलुआ, बिटिया जैसे अपने मित्रों को हेय दृष्टि से देखती और गर्व से अपना नाम मोनिका बताती, जब से उसने आँटी का सुसज्जित घर देखा था उसे अपनी झोपड़ी के अभावों का अनुभव होने लगा था। उसे आँटी ने पूरी छूट दे रखी थी। जब वह उनके फोम के सोफे पर बैठती तो उसे माँ की गोद से भी अधिक आनन्द आता। गर्मी में काई लगे घड़े के स्थान पर शुभ्र चमकते फ़्रिज से बोतल निकाल कर ­ठंडा पानी पीना उसे तृप्त कर देता था इस पर सोने पर सुहागा था टीवी, जिसके जादुई संसार को छोड़ने का तो उसका मन ही नही करता। इसी आकर्षण में आँटी के सभी कार्य झाडू लगाना, पानी भरना, बाजार से छोटा मोटा सामान लाना आदि पूर्ण निष्ठा लगन और तत्परता से करती। शनै:शनै: वह उनकी प्रिय बनती जा रही थी वह उनकी पूर्ण सेवा करती कभी पैर दबाती तो कभी सिर और वह उसे अपने जीवन के अनुभव सुनातीं।

आँटी की पढ़ने लिखने में विशेष रुचि थी अत: उनके घर पर अनेक पत्र पत्रिकाएँ रक्खी रहती थीं। मोनिका को रंग बिरंगे चित्रों वाली पुस्तकें वहुत आकर्षित करतीं और वह प्राय: उनके पन्ने पलटा करती, ऐसे ही एक दिन वह पत्रिका के पन्ने पलट रही थी तो आँटी ने पूछा, ‘तुम पढ़ना सीखोगी ?’ मोनिका के लिये यह अकल्पनीय था कि वह पढ़ भी सकती है उसने चमत्कृत हो कर पूछा, ‘क्या मैं पढ़ पाऊँगी?’ उसकी वाणी में चाँद पाने की ललक थी तो नेत्रों में संशय। उसके सशय को दूर करते हुए आँटी ने स्नेहिल स्वर में कहा, ‘क्यों नहीं मैं तेरा नाम स्कूल में लिखवा दूँगी और मैं स्वयं तुझे पढ़ना सिखाऊँगी।’ शायद मोनिका की सेवा ने उनके मन में उसका जीवन संवारने की प्रेरणा दी थी या दीर्घ काल तक उसे बांधे रखने की लालसा ने इस आकांक्षा को जन्म दिया था ? मोनिका के मम्मी पापा को उसे पढ़ाने में विशेष रुचि न थी पर आँटी के आदेश को वे टाल नही पाए और आँटी के प्रयासों से वह स्कूल जाने लगी, प्रात: काल वह आँटी के कार्य करके स्कूल जाती फिर लौट कर उन्ही के घर जाती, जब वह कार्य निवृत्त होती तो आँटी उसे पढ़ाती भी थीं, मोनिका को पढ़ना इतना अच्छा लगने लगा कि वह सारे कार्य फुर्ती से करके पढ़ने का समय निकाल ही लेती। आँटी के साथ रह कर उसे स्वच्छता का महत्व भी समझ में आने लगा था। अब वह नित्य नहा कर सलीके से विद्यालय जाती और आँटी के आगे पीछे लगी रहती। ईश्वर ने उसे रूप रंग भी उदारता से दिया था अत: स्वच्छ कपड़ों और संवरे हुए केशों में उसे देख कर कोई भी उसे आँटी की बेटी समझ लेता था, अब मोनिका भी स्वयं को बस्ती के बच्चों से श्रेष्ठ समझने लगी थी, अब उसके सपनों के रंग बस्ती के बच्चों के सपनों के रंगों से मेल न खाते थे। आँटी एक सेवानिवृत्त प्रधानाध्यापिका थीं और मोनिका का आदर्श, अत: मोनिका भी भविष्य में अध्यापिका बनना चाहती थीं।

वय के साथ साथ मोनिका की आकांक्षाएँ और रुचियाँ भी सोपान चढ़ने लगीं पर अब उसकी मम्मी रामरती को उसका रहन सहन और पढ़ाई के प्रति रुझान अखरने लगा था। जब तक छोटी थी ठीक था पर अब वह उससे घर के कार्यों में सहायता और छोटे भाई बहनों के पालन पोषण की अपेक्षा करने लगीं अत: उसका दिन भर आँटी के घर रहना उसे खटकने लगा। उसकी पढ़ाई का व्यय उसे व्यसन लगता। वह प्राय: अपने पति सोमेश्वर से कहती कि मोनिका को रोके,एक दिन उन्हे अपना गुबार निकालने का अवसर हाथ लग ही गया, पास में कार्तिक का मेला लगा था, मोनिका ने पापा से पैसे माँगे पर वह मेला नहीं गयी और दो रुपये का शैम्पू का सैशे खरीद लायी रामरती को यह लक्षण अच्छा न लगा। यदि वह दो रुपये का रिबन, बिन्दी कुछ खरीदती तो बात समझ में आती थी पर मात्र एक बार केश धोने हेतु दो रुपये का व्यय रामरती के गले न उतरा उसे यह अमीरों के चोंचले लगे। रामरती ने उसे आड़े हाथों लिया मोनिका को अपना अपराध समझ न आया अत: उसने भी बहस करने में कोई कसर न छोड़ी। बात छोटी सी थी पर रामरती को खतरे की घंटी का आभास हो गया इससे पूर्व क मोनिका के दिमाग सातवें आसमान पर चढ़े उसे रोकना होगा। अत: वह अपने पति सोमेश्वर को दिन रात मोनिका का ब्याह करने के लिये टोकने लगी।

मोनिका सोलहवें वर्ष में प्रवेश कर चुकी थी, इस वय में तो सभी आकाश में उड़ते हैं फिर वह तो बस्ती की अघोषित रूपरानी थी, कितने ही बस्ती के युवा उससे विवाह करने को लालायित थे मोनिका तो एक अन्य संसार में ही विचरण करती थी। एक दिन वह आकाश से पर कटे पक्षी के समान धरती पर आ गिरी, रामरती और सोमेश्वर ने उसका विवाह बस्ती के ही युवा स्वस्थ राजू से उसका विवाह निश्चित कर दिया। इस अप्रत्याशित समाचार को सुन कर मोनिका तड़प उठी उसने भरसक विरोध किया पर ताड़ सी लम्बी हो रही बेटी को घर बैठा कर उसके मम्मी पापा को नाक थोड़े ही कटानी थी, सदा शांत रहने वाली सुशिक्षित बेटी का यह रूप उन्हे रास न आया, बहुत मनमानी सह ली इससे पहले कि बेटी हाथ से निकले उन्होने उसे कैद करने में ही भलाई समझी। मोनिका छटपटा रही थी उसे बस एक ही धुन थी कि किसी प्रकार आँटी को सूचित कर दें, उसे पूरा विश्वास था कि आँटी सब सम्भाल लेंगी जब वह मम्मी पापा को फटकारेंगी तो निश्चय ही वह उसका विवाह स्थगित हो जाएगा और वह पढ़ कर अध्यापिका बनने का स्वप्न पूरा कर सकेगी। एक दिन वह निराश सी बैठी थी कि अचानक एक वायु के झोंके ने प्रवेश कर उसकी निाा को उड़ा दिया, उसने आश्चर्य से देखा कि द्वार खुल गया था शायद मम्मी पापा गलती से सांकल लगाना भूल गए थे। वह वायु वेग से आँटी के घर की ओर दौड़ पड़ी। आँटी को देखते ही उसकी ध्वनि रुंध गई और उसका विद्रोह नेत्रों के मार्ग से बह निकला। उसने आपबीती की सुनाई पर इस बार शरणागत को खाली हाथ लौटना पड़ा, आँटी ने निर्विकार भाव से कहा, ‘ देखो मोनिका, शादी ब्याह तुम्हारा व्यक्तिगत मामला है आखिर ब्याह तो तुम्हे अपनी बिरादरी में ही करना है तो फिर उसके रीति रिवाज भी मानने होंगे जब तुम्हारे यहाँ शीघ्र विवाह की प्रथा है तो मैं क्या कर सकती हूँ ‘, मोनिका के विश्वास का दर्पण टुकड़े टुकड़े हो गया आज उसे आँटी की देवी तुल्य प्रतिमा जो वर्षों से उसके मन मन्दिर में स्थापित थी खंडित होती लगी आज उसे उस प्रतिमा का रूप उस राक्षसी जैसा लगा जो परी का रूप रख कर आई और सपनों के महल के शिखर पर जा कर धक्का दे दिया। आँटी के निर्लिप्त रहने का एक कारण और भी था इधर कुछ दिनों से उनका भतीजा विकास लखनऊ उनके पास पढ़ने के लिये रहने आया था उसके आने के पश्चात मोनिका को बहाने बना कर रोकने वाली आँटी कार्य समाप्त होते ही घर भेजने को आतुर हो उठतीं थीं अब उन्हें एकाकीपन का साथी जो मिल गया था फिर उनकी अनुभवी आँखे विकास के मोनिका के प्रति आकर्षण से अनभिज्ञ न थीं आने वाला संकट वह साफ साफ देख पा रहीं थीं। कुछ भी हो अन्तत: मोनिका थी तो मजदूर की ही बेटी जिसे ठोंक पीट कर उपयोग लायक तो बनाया जा सकता है पर उसे बैठक की शोभा तो नहीं बना सकते। अब जब सुयोग से मोनिका का विवाह निश्चित हो गया है तो उनकी समस्या स्वयं ही सुलझ गई, लाठी भी नहीं टूटी और साँप भी मर गया।

निराश मोनिका को हथियार डालने पड़े, वह निर्विकार भाव से डोली में चढ़ कर राजू के घर की शोभा बनी, बस्ती की सर्वाधिक पढ़ी लिखी पत्नी पा कर राजू का सिर गर्व से ऊँचा हो गया। वह उत्साह से प्रिया मिलन को गया पर प्रिया की निर्विकार प्रतिक्रिया ने उसके उत्साह पर पानी फेर दिया। एक वह था कि अपनी बुद्धि और सामर्थ्य के अनुसार उसे प्रसन्न रखने का भरसक प्रयत्न कर रहा था पर मोनिका नाक पर मक्खी न बैठने देती, दिन भर का थका हारा पसीने में लथपथ राजू जब पत्नी को बाहों में लेना चाहता तो वह पसीने की दुर्गंध से मुँह मोड़ लेती, किसी प्रकार रात्रि व्यतीत होती तो तो प्रात: रसेाई मे जाते ही धुँए की लकड़ी से कम और आँटी की रसोई की गैस की स्मृति से अधिक, मोनिका की आँखें भीग जातीं, अब तो पुस्तक ही उसका एक मात्र सहारा थी जो उसे कुछ क्षणों के लिये सन्तुष्टि देतीं थीं अत: उसे जब भी अवसर मिलता वह कोई न कोई पुस्तक ले कर बैठ जाती। मोनिका की सास को उसके यह रंग ढंग अच्छे न लगे, उसकी समझ में यह काम न करने का बहाना था। राजू को भी पुस्तकें ही सारी फसाद की जड़ लगीं जिनके कारण वह अनपढ़ राजू को हेय दृष्टि से देखती थी। अत: राजू और उसकी माँ ने तय कर लिया कि अब मोनिका को भी राजू और अपने साथ मजदूरी पर ले जाएँगे,वैसे भी राजू के विवाह में व्यय में उन पर काफी आर्थिक भार आ गया था। मोनिका ने सुना तो सहसा उसे अपने कानों पर विश्वास नही हुआ, उसे तो आगे पढ़ कर अध्यापिका बनना था। पर जहाँ निर्धनता की सुरसा मुँह बाए खड़ी हो और पति अनपढ़ हो वहाँ एक बहू को पढ़ाना ऐयाशी नही तो और क्या था, जब मोनिका ने कहा ‘मैं कुछ पढे लिखे लोगों का काम करूँगी ‘तो राजू का खून खौल उठा ‘चार अक्षर क्या पढ़ लिये खुद को कलेक्टर समझने लगी है, अरे तू मजदूर की बीबी है तो अपनी चादर में ही रह‘ , वास्तविकता भी यही थी कि आठवीं पास मोनिका को अच्छा काम मिलत भी तो क्या ? कुछ भी हो परिष्कृत रुचि की मोनिका ने यह तो निश्चय कर ही लिया कि वह मजदूरी नही करेगी उधर राजू मर्द था यदि झुक जाता तो बीबी सर चढ़ नाचती उस पर अम्मा का सहयोग फिर क्या था बात गाली गलौज से बढ़ती हुई हाथापाई तक पहुँच गई किसी को न झुकना था सो न झुका परिणामत: मोनिका ने मायके की राह पकड़ी। जब मम्मी को ज्ञात हुआ कि मोनिका सदा के लिये आई है उन्होने सिर थाम लिया अब तक मायके आई बेटी पर उमड़ रहा दुलार प्यार कपूर के समान उड़न छू हो गया। उन्होने ऊँच नीच समझाई अपनी गरीबी का वास्ता दिया पर मोनिका अडिग रही हार कर उन्होनें जबरन ससुराल भेजने की धमकी दे डाली और साफ कह दिया ‘देख मुनिका अब वही तोहरा घर है हम गरीबों के इहाँ मजदूरी कर के ही गुजर बसर होता है ऊ अंटी की लगाई आग भूल जा और अपनी औकात में रह।‘ यह सुन कर अन्तिम आशा की किरण भी लुप्त हो गई और मोनिका की नींद उड़ गई।

आज मोनिका त्रिशंकु के समान हो गई है, वह न तो राजू के साथ रह कर मजदूरी करने के लिये स्वयं को तैयार कर पा रही है न ही इस योग्य बन पाई है कि स्वयं कुछ बन पाए। उससे अच्छी तो बस्ती की गुड्‍डी, रमिया और रीता हैं जिनका आकाश उनके घर संसार तक सीमित हैं वह उसी में संतुष्ट और सुखी हैं, काश उसके सपने न जगे होते कम से कम राजू की बीबी तो बन पाई होती।

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