काश
काव्य साहित्य | कविता अलका प्रमोद19 Jul 2014
रिमझिम रिमझिम वर्षा आयी,
बूँदों की है झड़ी लगायी।
काम बोझ से झुका झुका,
गाड़ी में बैठा थका थका।
कहीं मिला जो पानी गढ्ढा,
देर को होना होगा पक्का।
बिजली हो गयी फेल कहीं जो,
काम न पूरा होगा समझो।
पूरा करना लक्ष्य आज का,
नहीं तो बेड़ा गर्क काज का।
मना रहा था हाथ जोड़ के,
न बरसे पानी और ज़ोर से।
सोच के अपनी ही फ़रियाद,
आया उसको बचपन याद।
रिमझिम कर जब वर्षा आती,
ओढ़ निकलते हम बरसाती।
जो भी मिलता दोस्त राह में,
कहता छुट्टी विद्यालय में।
हम सब मिल कर, शोर मचाते ,
रेनी डे की खुशी मनाते।
रोक के पानी घर आंगन में,
अपना स्वीमिंग पूल बनाते।
छप छप करते खूब भीगते,
फिर कागज़ की नाव बनाते।
मेरी आगे तेरी पीछे,
कह नावों की रेस लगाते।
और मनाते रोज़ ईश से,
कल भी हो बरसात ज़ोर से।
कहाँ गया वो भोला बचपन,
जहाँ न चिन्ता, न कोई ग़म।
भले ही थोड़े थे सुख साधन,
लेते थे हम पूरा आनन्द।
काश कि वो दिन फिर आ पाते,
मिल जुल कर हम खुशी मनाते।
छोड़ के चिन्ता काम काज की,
वर्षा का स्वागत कर पाते।
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