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अज्ञेय के निबन्ध-साहित्य में भारतीयता एवं अस्मिता बोध

 अज्ञेय स्वातन्त्र्योत्तर भारत के उन चंद विरल लेखकों में हैं जिन्होंने हिन्दी-साहित्य को एक विशिष्ट गरिमा प्रदान की है। अज्ञेय के काव्य, उपन्यास, कहानियाँ, निबन्ध, संस्मरण, यात्रावृत-सभी अपने क्षेत्र के प्रतिमान हैं। अज्ञेय का विशेषतया निबन्ध साहित्य विचारसम्पन्नता की दृष्टि से अनन्य है। उसमें दार्शनिकता की गहराई है, वह तर्कपूर्ण है और शिल्प की दृष्टि से अत्यन्त प्रौढ़ है। अज्ञेय ने अपने निबन्धों में जिन विषयों पर विचार किया है वे आज भी महत्त्व ही नहीं रखते हैं, बल्कि समय के साथ उनकी प्रासंगिकता बढ़ गई है। उनके निबन्ध राष्ट्रीय अस्मिता की चेतना से सम्पृक्त हैं।

 

अज्ञेय स्वातन्त्र्योत्तर भारत के उन चंद विरल लेखकों में हैं जिन्होंने हिन्दी-साहित्य को एक विशिष्ट गरिमा प्रदान की है। उन्होंने अपने सर्जनात्मक लेखन के माध्यम से भारतीय भाषा-भाषी समाज में अपितु अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी-साहित्य की प्रतिष्ठा बढ़ाई है। उन्होंने अपने चिन्तन प्रधान लेखन के माध्यम से यह प्रमाणित किया कि हिन्दी जगत् में भी अन्तराष्ट्रीय स्तर के बुद्धिजीवी हो सकते हैं; हिन्दी में भी मौखिक चिन्तन किया जा सकता है। अज्ञेय के काव्य, उपन्यास, कहानियाँ, निबन्ध, संस्मरण, यात्रावृत-सभी अपने क्षेत्र के प्रतिमान हैं। अज्ञेय का विशेषतया निबन्ध साहित्य विचारसम्पन्नता की दृष्टि से अनन्य है। उसमें दार्शनिकता की गहराई है, वह तर्कपूर्ण है और शिल्प की दृष्टि से अत्यन्त प्रौढ़ है।

अज्ञेय ने अपने निबन्धों में जिन विषयों पर विचार किया है वे आज भी महत्त्व ही नहीं रखते हैं, बल्कि समय के साथ उनकी प्रासंगिकता बढ़ गई है। अज्ञेय के निबन्ध राष्ट्रीय अस्मिता की चेतना से सम्पृक्त हैं। यह वही चेतना है जो भारतेन्दु हरिशचन्द्र के समय से ही साहित्य में दिखाई देती है। अज्ञेय ने किसी की आलोचना की परवाह किए बिना उन विषयों पर गम्भीर एवं पारदर्शी ढंग से बात की है, जिन पर चर्चा करने से उनके समय के अधिकांश लेखक आज भी कतराते दिखाई देते हैं। अज्ञेय निर्भीकतापूर्वक उन ख़तरों का सामना करते हैं और दृढ़तापूर्वक अपने विचारों को सामने रखते हैं।

अज्ञेय को राष्ट्रीय अस्मिता का सवाल बहुत बेचैन करता है। उन्हें लगता है कि स्वतन्त्रता-संघर्ष काल में राष्ट्रीय अस्मिता का सवाल जो एक बड़ा सवाल बनकर उभरा था उसे स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद भुला दिया गया है वे ये मानते हैं कि सांस्कृतिक एकता का आधार अस्मिता-बोध होता है और अस्मिता का भाषा के साथ बहुत घनिष्ठ सम्बन्ध है।1 अज्ञेय को इस बात की गहरी पीड़ा है कि स्वतन्त्रता के साथ भारतीय समाज को अपनी भाषा नहीं मिली। वे स्वभाषा की उपेक्षा से बहुत दुखी हैं- "मुझे शिक्षा मिली, शिक्षा का आधार है भाषा, पर भाषा मुझे नहीं मिली, ... जिस समय मैं अपनी सहज बोली में सोचना सीख रहा होता, उस समय मैं पराए शब्द-समूह को रटना सीख रहा था; जिस समय मुझे गर्व होता कि मैं अपने को पहचानता हूँ, अपना निर्माता बल्कि रचयिता हूँ उस समय मैं गर्व कर रहा था कि मैं पराई लादी ओढ़ और ढो सकता हूँ कि मैं अपना अनुवादक हूँ।"2 अज्ञेय को इस बात की गहरी बेचैनी है कि जिस अस्मिता के लिए भारतेन्दु, मैथिलीशरण गुप्त, प्रसाद, निराला, पन्त, महादेवी संघर्ष कर रहे थे, उसे स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद गँवा दिया गया। इसलिए आज़ादी के बाद की उपलब्धियाँ उन्हें कई अर्थों में बेमानी लगती हैं। वे कहते हैं - "मुझे सभी कुछ मिला, पर सब बेपेंदी का। शिक्षा मिली, पर उनकी नींव भाषा नहीं मिली, आज़ादी मिली, पर उसकी नींव आत्मगौरव नहीं मिला, राष्ट्रीयता मिली, लेकिन उसकी नींव ऐतिहासिक पहचान नहीं मिली..... मुझे अस्तित्व मिला पर अस्ति नहीं; अवस्था मिली, पर आस्था नहीं।..... क्यों नहीं मुझे वह भाषा दी जाती, जिससे कि मैं अपनी आत्मा को खोज सकूँ। क्यों नहीं मुझे वह शिक्षा दी जाती जिससे कि मैं अपनी आत्मा को खोज सकूँ। क्यों नहीं मुझे वह भाषा दी जाती जिससे कि मैं व्यक्तित्व पा सकूँ! क्यों नहीं मुझे वह शिक्षा दी जाती जिससे कि मैं व्यक्तित्व पा सकूँ! क्यों नहीं मुझे वह इतिहास मिलता जिससे मैं अपनी इयत्ता पहचान सकूँ, निरे पूर्वापर को परम्परा बनाकर अर्थ दे सकूँ?’’3 अज्ञेय का यह कहना एकदम सही है कि कोई भी राष्ट्र अपनी आत्मा की पहचान पराई भाषा में नहीं कर सकता। कोई भी राष्ट्र बिना भाषा, आत्मगौरव, ऐतिहासिक पहचान, आस्था के निष्प्राण है। उन्हीं तत्त्वों में राष्ट्रीय अस्मिता मुखरित होती है। अज्ञेय अस्मिता-बोध को अनिवार्य मानते हैं। उस साहित्य की कोई विशेष प्रतिष्ठा नहीं हो सकती, जिसमें कोई सांस्कृतिक अस्मिता नहीं बोलती। जिस भारतीय साहित्य में भारत नहीं बोलेगा उस साहित्य को संसार में कोई प्रतिष्ठा नहीं होगी।4 अज्ञेय का यह मानना तर्कसंगत है कि यदि देश में सांस्कृतिक अस्मिता-बोध नहीं है तो वह आर्थिक प्रशस्ति के बावजूद बेध्य बना रहेगा-विघटन की प्रवृत्ति किसी भी समय उसके भीतर उभर सकेगी।5 देश की वर्तमान स्थिति को देखते हुए अज्ञेय की यह टिप्पणी कितनी सारगर्भित जान पड़ती है।

अस्मिता-बोध के अभाव का सम्बन्ध अनुकरण की प्रवृत्ति से भी है। इस अनुकरण का आरम्भ उन्नीसवीं शताब्दी में ही हो गया था। उस समय का अभिजात्य समाज जो बाद में शासन का सूत्रधार बना अनुकरण की भावना से परिचालित था।

वास्तव में आज जिसे पश्चिम शिक्षित आधुनिक ‘एलीट’ कहते हैं उस वर्ग की जड़ें सीधी इस तथाकथित ‘समन्वय’ से जुड़ी हैं, एक ऐसा वर्ग जो एक तरफ़ भारतीय परम्परा का गुणगान करता है, दूसरी ओर अपने आदर्शों और सिद्धान्तों में अपनी समूची जीवन-पद्धति में पश्चिम की नक़ल करता है।6 आचार्य शुक्ल ने भी साहित्य और समाज में व्याप्त अनुकरण की प्रवृत्ति की तीव्र भर्त्सना की है और अपनी अस्मिता के प्रति सचेत किया है- "आजकल पाश्चात्यवाद वृक्षों के बहुत से पत्ते, कुछ हरे, कुछ नीचे हुए, कुछ सूखकर गिरे पाए हुए यहाँ पारिजात पत्र की तरह प्रदर्शित किए जाने लगे हैं जिससे साहित्य के उपवन में बड़ी गड़बड़ी दिखाई देने लगी है। इन पत्तों की परख के लिए अपनी आँखें खुली और उन पेड़ों की परीक्षा करने की आवश्यकता है, जिनके पत्ते हैं।’’7 विडम्बना यह है कि आत्महीनता और अनुकरण की प्रवृत्ति स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद और व्यापक हो गई। पश्चिम का अबाध अनुकरण देश का विशेषतया सत्ता वर्ग का चरित्र बन गया। अज्ञेय ने इस ही आधुनिकता और प्रगति का आधार मान लिया गया है और उस भौतिक समृद्धि के लिए भी मानदण्ड पश्चिम की वर्तमान समृद्ध अवस्था है। यदि यही आधार रहा और इसी रास्ते पर हम दौड़ते रहे तो हम पश्चिम के पीछे और पश्चिम के पिछलग्गू ही बने रहेंगे बल्कि उसकी अपेक्षा में और पिछड़ते ही जाएँगे।... अनुकरण की ऐसी दौड़ चली है कि हम दूसरों की ओर देखने में रास्ता देखना भी भूले जा रहे हैं।8

अज्ञेय देश के लिए अनुकरण की इस प्रवृत्ति को अनुचित मानते हैं और इसे सांस्कृतिक संकट के रूप में रेखांकित करते हैं- "हमारे साहित्य में न तो हमें अपनी अनास्था दीखती है न अपनी आस्था दीखती है, न अपनी चिन्ता दीखती है। उनकी चिन्ता, उनकी अनास्था, उनका भास हमको दीखता है और उस आधार पर हम अपने को आधुनिक मानते हैं। हर किसी को यह चिन्ता है कि मैं आधुनिक माना जाऊँ- इस अर्थ में कि पश्चिम का मुहावरा बोल सकता हूँ, पश्चिम होना चाहिए, इसकी कोई चिन्ता हमको नहीं है।’’9

आत्महीनता की स्थिति समाज चिन्तकों, आर्थिक विचारकों, दर्शनशास्त्रियों, इतिहासकारों, राजनीति विशेषज्ञों और साहित्यकारों- सभी में व्याप्त है। इस चिन्तनीय स्थिति की ओर संकेत करते हुए अज्ञेय लिखते हैं- "आज हिन्दी साहित्य का, भारतीय साहित्य का कोई भी आलोचक इस साहित्य को विदेशी कसौटी पर परखे बिना कुछ कह ही नहीं सकता है, इससे बड़ा दुर्भाग्य आज के साहित्यकार का क्या हो सकता है? और यह सिर्फ़ साहित्यकार का दुर्भाग्य नहीं है, यह हमारे पूरे समाज का दुर्भाग्य है कि आज के भारतीय साहित्य की किसी अच्छी कृति को कोई विदेशी आलोचक अपनी कसौटी पर जाँचता हुआ अगर अच्छा कह देता है तो हम सब आँख मूँदकर उसे अच्छा मानने को तैयार हैं और अगर वह उसे बुरा कह देता है तो हम उसी तरह आँख मूँदकर उस कृति का तिरस्कार करने को तैयार है। यानी हम आँखें खोलने को तैयार नहीं हैं।"10

इस आत्महीनता का सबसे बड़ा कारण अपनी भाषा के प्रति अस्मिता-बोध का अभाव है। बहुत पहले भारतेन्दु ने उचित ही कहा था- ‘जिन भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल’, पर भारतेन्दु के इस मंत्र को परवर्ती समय में भुला दिया गया। आचार्य शुक्ल ने भाषा को जातीय जीवन का रक्षक माना था। पर स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद भाषा के प्रति हमारे नियामकों के ढुलमुल रवैये से बड़ी चिन्ताजनक स्थिति उत्पन्न हुई। अपनी भाषा को महत्त्व देने के बदले एक विदेशी भाषा में ही समृद्धि का स्वप्न देखा जाने लगा। अज्ञेय ने इस प्रवृत्ति की खुलकर भर्त्सना की क्योंकि वे यह जानते थे कि सांस्कृतिक एकता का आधार अस्मिता-बोध होना है और अस्मिता का भाषा के साथ बहुत गहरा सम्बन्ध है। अज्ञेय की दृष्टि में भाषा का मनुष्य जीवन में बुनियादी महत्त्व है। भाषा मात्र मनुष्य होने की पहचान और शर्त है। भाषा के बिना मनुष्य नहीं होता। पशु से मनुष्य के विकास में भाषा ही वह सीढ़ी है जिसको पार करके वह मनुष्यत्व को प्राप्त करता है। भाषा अपने-आपको पहचाने का साधन है। भाषा के बिना अस्मिता की पहचान नहीं होती और भाषा उसके साथ जुड़ी हुई है। आज अगर किसी समाज को भाषा से काट दिया जाए तो इतना ही नहीं है कि उससे एक भाषा छीनकर हम उसको कोई दूसरी भाषा देते हैं, हम उसकी अस्मिता खण्डित कर देते हैं।11

अज्ञेय भाषा को मूल्यबोध का आधार मानते हैं। उनके अनुसार भाषा संस्कृति की बुनियाद होती है। अज्ञेय की दृष्टि में भाषा का अवमूल्यन संस्कृति का अवमूल्यन है। उनका यह कहना समीचीन है कि भाषा संस्कृति की आत्मरक्षा का सनातन साधन है। एक समाज का निर्माण उसकी भाषा में ही सम्भव है। पूरा समाज वस्तुतः जिस भाषा में जीता है उसमें और उसके साथ जीते हुए अगर हम उस जीवन-सन्दर्भ को पहचानते हैं और भाषा में रचना करते हैं तो हमारा समाज भी रचनाशील हो सकता है। वस्तुतः भाषा हमारी शक्ति है, वह रचनाशीलता का उत्स है- व्यक्ति के लिए और समाज के लिए भी।12 भाषा और समाज के अन्तः सम्बन्धों की गहराई की बख़ूबी पड़ताल अज्ञेय ने की है।

भाषा के महत्त्व और परिवेश के साथ उसकी सम्पृक्ति, भाषाई अस्मिता पर विचार करने के क्रम में अज्ञेय ने भारतीय भाषाओं के बीच हिन्दी की भूमिका को भी रेखांकित किया है। अज्ञेय भारतवर्ष में सभी भारतीय भाषाओें की तुलना में हिन्दी की व्यापकता की ओर ध्यान दिलाते हैं। अज्ञेय का मानना है कि भारत की आधुनिक भाषाओं में हिन्दी ही सच्चे अर्थों में सदैव भारतीय भाषा रही है क्योंकि यह निरन्तर भारत की समग्र चेतना को वाणी देने का प्रयास करती है। और सभी भाषाओं में प्रदेश बोला है- कई बार बड़े प्रभावशाली ढंग से बोला है; हिन्दी में आरम्भ से ही देश बोलता रहा है- भले ही कभी-कभी कमज़ोर स्वर में भी बोला है.. एक वृहत्तर आदर्श उसके सामने रहा है और उसे वह मूर्त करती रही है... हिन्दी समग्र संस्कृति की संवाहिका है।13

संस्कृति अज्ञेय का महत्त्वपूर्ण विषय है। वह इनकी मूल चिन्ताओं में से एक है। वे यह मानते हैं एक भाषा, साहित्य, व्यक्ति और समाज का संस्कृति से घनिष्ठ सम्बन्ध है। अज्ञेय का यह कहना युक्तियुक्त है कि संस्कृति का मूल आधार भाषा है और भाषा का चरम उत्कर्ष साहित्य में प्रकट होता है; अतः साहित्य का पतन संस्कृति का और अन्ततः जीवन का पतन है। एक वर्ग के साहित्यकारों द्वारा संस्कृति की चर्चा करने वालों को प्रगतिविरोधी कहे जाने पर अज्ञेय तीखी टिप्पणी करते हैं। "इस देश में जनवाद के नाम पर बहुमूल्य विरासत को विकृत करने का प्रयास किया गया है, उनमें संस्कृति एक है। अज्ञेय तथाकथित प्रगतिशीलों के पाखण्ड को अनावृत्त करते हैं।’’ असल में सारे देश ने बिना सोचे-समझे और एक झूठे तथा विकृत जनवाद के नाम पर स्वीकार कर लिया है कि संस्कृति तो एक बुर्जुआ चीज है, बुर्जुआ है, इसलिए प्रगति-विरोधी है अर्थात् अगर समाज बदलना है, अगर प्रगति में गत्यात्मकता लानी है तो संस्कृति को मिटाना होगा।14 अज्ञेय की स्पष्ट मान्यता है कि संस्कृति न तो बुर्जुआ है, न प्रगति-विरोधी है, वह समाज को स्थायित्व देती हैं। संस्कृति एक क़ब्र नहीं है, वह तो ज़मीन है, जिस पर पैर टेके बिना प्रगति हो ही नहीं सकती। संस्कृति पूरे समाज की चीज़ है, जीवनदायिनी है और गौरव की वस्तु है।15 वस्तुतः समाज, संस्कृति और व्यक्ति के बारे में विकृत और दुराग्रहपूर्ण चिन्तन की जड़ में बहुत दूर तक हमारी राजीनति रही है। तथ्य और सत्य यह है कि संस्कृति समग्र समाज की सार्थक दृष्टि, उसकी निर्मात्री प्रतिभा है, जो व्यक्ति के माध्यम से व्यक्त होती है।16

अज्ञेय संस्कृति का घनिष्ठ सम्बन्ध परिवेश से मानते हैं, उनकी यह दृढ़ धारणा है कि कोई संस्कृति न तो अपनी ज़मीन को छोड़कर पनप सकती है और न चारों ओर से बहकर आनेवाली हवाओं के प्रति अपने को बन्द कर सकती है। अपनी ज़मीन से सम्बन्ध टूटने पर वह परोपजीवी और निर्भर हो जाएगी।17

भारतीयता स्वाधीनता-प्राप्ति के बाद महत्त्वपूर्ण प्रत्यय के रूप में उभरी यद्यपि भारतेन्दु युगीन साहित्य से ही इसकी व्यंजना मिलती है। अज्ञेय के लिए भी भारतीयता महत्त्वपूर्ण विचार बिन्दु है। अज्ञेय अपने लेखन में परम्परा और भारतीयता पर बल देते हैं और उसे पहचानने तथा स्वीकार करने को आवश्यक मानते हैं। वे उन साहित्यकारों और चिन्तकों को आड़े हाथों लेते हैं जो भारतीयता के सवाल को उपहास की दृष्टि से देखते हैं- "नव स्वतन्त्र अफ्रीकी देशों का साहित्यकार अपनी अस्मिता की आक्रोश भरी खोज को श्यामत्व (नेग्रिच्यूड) का नाम देता है और हमारे आलोचक प्रशंसा के मारे आपे से बाहर हो जाते हैं। पर भारतीय साहित्यकार भारतीयता की बात करता है तो वे ही आलोचक लट्ठ लेकर उसके पीछे पड़ जाते हैं... क्योंकि भारतीय अस्मिता नाम से उन्हें चिढ़ है।"18

इस भारतीयता का गहरा सम्बन्ध राष्ट्रबोध से हैं, अज्ञेय के शब्दों में कहे तों ‘देशबोध’ से है। ‘भारतीयता’ और ‘देशबोध’ से परहेज़ करने वाले और इसे अन्तराष्ट्रीयता और विश्वमानवता में बाधक माननेवालों को अज्ञेय आड़े हाथों लेते हैं- "कुछ लोग अपने को देश से कटा हुआ पाकर अपने को यह कहकर दिलासा देते हैं कि क्या हुआ, वे विश्व नागरिक हो गए हैं। पर यह भ्रम दिलासा ही है, अपने को भ्रम देना ही है। देश से टूटकर विश्व नागरिकता नहीं मिलती, देश से एकात्म होकर उसकी सीमा का अतिक्रमण करने से मिलती है।"19 अज्ञेय की यह मान्यता चाणक्य की प्रसिद्ध उक्ति- ‘त्यजेदेकं कुलस्यार्थे ग्रामस्यार्थे कुलं त्येजेत् ग्रामं जनपदस्याथें आत्मार्थे पृथ्वीं त्यजेत्’ की याद दिलाता है। अज्ञेय का यह कहना बिल्कुल तर्कसंगत और समीचीन है कि राष्ट्रीय हुए बिना अन्तर्राष्ट्रीय हुआ ही नहीं जा सकता और जो होने का दावा करते हैं वे हिप्पोक्रेट हैं, परम व्यक्तिवादी हैं।

आज़ादी के बाद चिन्तकों के समक्ष धर्म और धर्मनिरपेक्षता का विचार महत्त्वपूर्ण रहा है। भारतीय संस्कृति में धर्म का अनन्य महत्त्व रहा है। पर जब से रेलीजन और मज़हब के साथ जोड़कर इसकी व्याख्या की जाने लगी तभी से अवधारणामूलक भ्रान्ति उत्पन्न हुई। स्वातन्त्र्योत्तर निबन्धकारों में अज्ञेय और निर्मल वर्मा ने इन प्रत्ययों पर गम्भीरता से विचार किया है और भारतीय धर्म की विशिष्ट अवधारणा पर प्रकाश डाला है। अज्ञेय इस बात को विशेष रूप से रेखांकित करते हैं कि ‘भारतीय परिभाषा में धर्म वह नहीं है जो पश्चिम एशिया अथवा योरोप में समझा जाता है अर्थात् इसकी जड़ किसी अनिवार्य मत विश्वास में नहीं है, जिससे इधर-उधर हटना ‘हैरेसी’ या ‘कुफ्र’ हो जाता है।20 अज्ञेय ने बहुत ही तार्किक ढंग से अपने विचारों को पाठकों के समक्ष रखा है। भारतीय धर्म एवं साझी मज़हबी व्यवस्था में स्पष्ट भेद है और दोनों में अन्तर संस्कृतियों का अन्तर है जिसमें एक की परिणति उदारता में होती है तो दूसरी की कट्टरता में। अज्ञेय लिखते हैं- "जिसको हम हिन्दू धर्म कहते हैं उसमें जो बुनियादी तत्त्व है वह यह कि इसमें बात का महत्त्व नहीं है कि आप क्या मानते हैं बल्कि आप समाज में कैसे रहते हैं। लेकिन इस्लाम और मसीही धर्म में यह स्थिति नहीं रही। वहाँ महत्त्व का यह सवाल होता है कि आप क्या मानते हैं।"21 भारतीय ‘धर्म’ और पश्चिम का ‘रेलीजन’- दोनों दो भिन्न जीवन दृष्टि का प्रतिबिम्बन करते हैं। अज्ञेय संकेत करते हैं- ‘धर्म’ धारण करता है, ‘रेलीजन’ बाँधता है- दोनों शब्दों की व्युत्पत्ति ही इस भेद को स्पष्ट कर देती है।.... भारतीय दृष्टि से संस्कृति के क्षेत्र में धार्मिक बनाम लौकिक जैसा कोई विरोध सम्बन्ध बनता ही नहीं था। दूसरी ओर पश्चिम के चिन्तन में आरम्भ से ही रेलीजियस बनाम सेक्सुलर अथवा सेक्रेड बनाम प्रौफैन का बुनियादी द्वन्द्व रहा।22 हिन्दू धर्म की दुर्लभ विशेषता है ‘एकं सत् विप्राः बहुधा वदन्ति’। इसकी यही विशेषता इसे अन्य मतों से अलग करती है। अज्ञेय की दृष्टि इस वैशिष्ट्य को ढूँढ़ लेती है- "जहाँ इस्लाम, इंसाइयत और यहूदियत की इमारत एकान्तवादी मान्यता पर बनाई गई है वहीं हिन्दू धर्म की इमारत किसी मत-विश्वास या एकान्तवादी मान्यता पर नहीं बनाई गई है बल्कि सृष्टिमात्र के सम्बन्ध पर आधारित है।"23 हिन्दू धर्म मत या विश्वास के आधार पर अपने-पराए का भेद नहीं करता जबकि इस्लाम और ईसाइयत में यह भेद विद्यमान है- "दूसरे धर्मवत (ईसाई एवं इस्लाम) सबसे पहले अपने आप-पास एक बाड़ा बनाते हैं, जो उसके भीतर हैं वे अपने हैं और बाक़ी ‘ग़ैर’ हैं। कभी-कभी शत्रु माने जाते हैं लेकिन हिन्दू जीवन दृष्टि ऐसे बाड़े नहीं बनाती और किसी को ग़ैर नहीं मानती। मत-विश्वास के आधार पर बाड़े नहीं बनाती है।"24

स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद जिसे एक शब्द ने भारतीय समाज विशेषकर राजनीति, शासन-व्यवस्था, शिक्षा, साहित्य को दूषित किया है, बुद्धिजीवी कहे जानेवाले पश्चिमी शिक्षा प्राप्त, लोगों को दिग्भ्रमित किया है वह है ‘धर्म-निरपेक्षता’ शब्द। निर्मल वर्मा का यह कहना बहुत ही युक्तियुक्त है कि धर्म-निरपेक्षता की प्रचलित अवधारणा हम पर जबरन थोपी गई है। वे लिखते हैं- "स्वतन्त्र भारत में ‘धर्म-निरपेक्षता’ के नाम पर हमने आस्था और जिज्ञासा की खिड़कियों पर परदे गिरा दिए हैं। मनुष्य का धर्म उसका व्यक्तिगत सरोकार बनकर रह गया है। हमारे सार्वजनिक जीवन में विविध धार्मिक विश्वासों का मुक्त आदान-प्रदान नष्ट हो चुका है। हमें डर लगता है कि यदि खुलकर हम विभिन्न धार्मिक विश्वासों पर बातचीत करेंगे तो ‘साम्प्रदायिकता’ के दोषी ठहराए जाएँगे।"25 धर्म-निरपेक्षता निर्मल की दृष्टि में राजनीति में धर्म-निरपेक्षता मुस्लिम मतों को हासिल करने का हथियार बन गई है। इस शब्द ने हमारी राजनीति को समाज-व्यवस्था को ‘हिप्पोक्रेट’ बनाकर रख दिया है। वस्तुतः धर्मनिरपेक्षता का जो सेक्युलरिज़्म का पर्याय है, हमारी सांस्कृतिक पीठीका से दूर का लेना-देना नहीं है, इसका सम्बन्ध यूरोप की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से है, जहाँ चर्च और राज्य के बीच आक्रामक विरोध रहा है।

अज्ञेय भी धर्मनिरपेक्षता के नाम पर भारतीय समाज एवं राजनीति में प्रचलित पाखण्ड पर प्रहार करते हैं। अज्ञेय इस शब्द के प्रयोग पर नीयत पर सवाल खड़ा करते हैं। इस दृष्टि से अज्ञेय का एक महत्त्वपूर्ण निबन्ध है, ‘धर्म निरपेक्षता के दर्जे।’ वे ‘एक नम्बर’ जो ‘दो नम्बर’ की धर्म-निरपेक्षता का सवाल उठाते हैं। वे भारत के तथाकथित प्रगतिशील नेताओं के गर्व भरे कथन का हवाला देते हैं जो यह कहते नहीं अघाते कि ‘भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा मुस्लिम राष्ट्र है।’ ऐसा कहकर वे अपने ऊपर उदारता एवं प्रगतिशीलता का ठप्पा लगा देते हैं। अज्ञेय कहते हैं कि तथ्य के आधार पर यह कथन सत्य है क्योंकि इण्डोनेशिया के बाद सबसे अधिक मुसलमान भारतवर्ष में रहते हैं। पर इसके साथ ही अज्ञेय कहते हैं कि इसी तर्क के आधार पर यह भी कहना चाहिए कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा हिन्दू राष्ट्र है क्योंकि संसार के किसी दूसरे देश की अपेक्षा यहाँ हिन्दू अधिक बसते हैं। अज्ञेय यहाँ के बुद्धिजीवी तथा प्रगतिशील राजनीति एवं समाज-चिन्तक कहे जाने वाले लोगों की नीयत को कठघरे में खड़ा करते हैं क्योंकि एक बात कहने वाला अपने को उदार, प्रगतिशील और धर्म-निरपेक्ष मानता है और दूसरी बात कही नहीं जाती या उसे कहने वाले या सोचने वाले को तुरन्त संकीर्ण, प्रतिक्रियावादी और साम्प्रदायिक मान लिया जाता है।26 अज्ञेय इस पर सवाल करते हैं कि ऐसा क्यों है और समाज से बार-बार विचार करने का आग्रह करते हैं। अज्ञेय इस दोहरे मानदण्ड से मुक्त होने का भी आग्रह करते हैं। अज्ञेय इस दोहरे मानदण्ड से मुक्त होने का भी आग्रह करते हैं। अज्ञेय इस कथन में साम्प्रदायिकता की कोई गन्ध नहीं महसूस करते कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा हिन्दू राष्ट्र है। बल्कि वे इस पर बल देते हैं कि इस देश में धर्म-निरपेक्षता की अर्थवत्ता ही इस बात पर निर्भर करती है कि यह देश इस तथ्य से निकलने वाली अपनी ज़िम्मेदारी को पहचाने और स्वीकार करे। इसे पहचानकर देश धर्मनिरपेक्षता को उसके सही स्थान पर प्रतिष्ठित करे। अज्ञेय कहते हैं कि अभी देशों में ‘दो नम्बर’ की धर्म-निरपेक्षता प्रतिष्ठित है। इसे हटाकर ‘एक नम्बर’ की धर्मनिरपेक्षता कायम करने की ज़रूरत है।

इस प्रकार अज्ञेय मनुष्य-जीवन के विविध पक्षों पर बहुत ही गम्भीरता के साथ तर्कसम्मत ढंग से विचार करते हैं। वे भाषा-साहित्य, सांस्कृति, समाज से जुड़े सवालों पर जातीय चेतना के परिप्रेक्ष्य में विचार करने का आग्रह करते हैं। आज आवश्यकता इस बात की है कि हम समग्रता में अज्ञेय के विचारों का मूल्यांकन करें और यदि उचित लगे तो प्रचलित मान्यताओं में संशोधन करें।

सन्दर्भ:-

1. ‘सांस्कृतिक समग्रता: भाषिक वैविध्य’। केन्द्र और परिधि। नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, संस्करण 1984, पृ.सं.-4
2. ‘असन्तोष की पहली पीढ़ी’, वही, पृ.सं.-33, 88
3. ‘असन्तोष की पहली पीढ़ी’, वही, पृ.सं.-33, 88
4. ‘संस्कृतिक समग्रता’ और भाषिक वैविध्य। केन्द्र और परिधि। पृ.सं.-19
5. ‘संस्कृतिक समग्रता’ और भाषिक वैविध्य। केन्द्र और परिधि। पृ.सं.-10
6. ‘अतीत: एक आत्ममन्थन’। शब्द और स्मृति, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 1976, पृ.सं.-67-68
7. ‘काव्य में अभिव्यंजनावाद’। चिन्तामणि भाग-2, पृ.सं.-132
8. ‘जनमन्त्र में बुद्धिजीवी की भूमिका।’ केन्द्र और परिधि, पृ.सं.-132
9. ‘सभ्यता का संकट।’ केन्द्र और परिधि, पृ.सं.-134
10. ‘समकालीन कविता की दशा’। सर्जना और सन्दर्भ, संस्करण 1995, पृ.सं.-403
11. ‘भाषा और समाज’। केन्द्र और परिधि, पृ.सं.-136
12. ‘भाषा और समाज’। केन्द्र और परिधि, पृ.सं.-148-149
13. ‘हिन्दी का वर्तमान और भविष्य’। केन्द्र और परिधि, पृ.सं.-8-9
14. ‘संस्कृति यहाँ, वहाँ या कब्र में?’। केन्द्र और परिधि, पृ.सं.-194
15. ‘संस्कृति यहाँ, वहाँ या कब्र में?’। केन्द्र और परिधि, पृ.सं.-195
16. ‘शिक्षा का सांस्कृतिक सन्दर्भ। केन्द्र और परिधि, पृ.सं.-398
17. ‘सांस्कृतिक समग्रता: भाषिक वैविध्य।’ केन्द्र और परिधि, पृ.सं.-6
18. अन्तरा, पृ.सं.-105
19. ‘आँखों देखी और कागद लेखी।’ आत्मपरक, पृ.सं.-355
20. रामचरितमानस, उत्तरकाण्ड, दोहा 99 (क)।
21. ‘भारतीय संस्कृति या विश्व संस्कृति’। केन्द्र और परिधि, पृ.सं.-311
22. ‘संस्कृति की चेतना’, केन्द्र और परिधि, पृ.सं.-297
23. ‘धर्म-निरपेक्षता के दर्जे’, केन्द्र और परिधि, पृ.सं.-203
24. ‘धर्म-निरपेक्षता के दर्जे’, केन्द्र और परिधि, पृ.सं.-203
25. ‘संवाद की मर्यादाएँ।’ कला का जोखिम। पृ.सं.-55
26. ‘धर्म-निरपेक्षता के दर्जे’, केन्द्र और परिधि, पृ.सं.-203

डॉ. छोटे लाल गुप्ता
यूजीसी, नेट(हिन्दी), एम.ए (हिन्दी एवं जनसंचार एवं पत्रकारिता)
भारतीय वायुसेना (कार्यरत तकनीकी विभाग)
तेजपुर (असाम)
मो- 9085210132

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