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भारत एवं पाश्चात्य देशों में स्त्री संघर्ष का आरम्भ

साहित्य में स्त्री संघर्ष आने से पूर्व सामाज में स्त्री संघर्ष दिखाई देना शुरू हो गया था। पुरुष सत्तात्मक समाज एक ऐसा दास चाहता था जो उसका प्रिय दास हो इसीलिए वह स्त्रियों के दिमाग़ पर अपना कब्ज़ा जमाने लगा। उसको अपने आधीन बनाए रखने के लिए श्रद्धा ही नहीं दिखायी बल्कि धार्मिक भय और सामाजिक भय से भी उन्हें घेरा। स्त्री संघर्ष का विषय उसके अधिकारों के प्रति सचेत करना और उन्हें अधिकार प्राप्त कराना था। स्त्री संघर्ष जीवन के उन अनछुई, अनजानी पीड़ा को व्यक्त करने का अवसर दे रहा था जो समाज में दिखाई नहीं दे रही थी। यह स्त्रियों के स्थिति पर आँसू बहाना, यथास्थिति स्वीकार करना आदि को नहीं मानता, बल्कि इसके लिए ज़िम्मेदार तथ्यों को खोज कर उसके समस्या का निदान और समाधान करना चाहता था।

स्त्री संघर्ष की शुरूआत 18वीं सदी से पश्चिमी देशों में दिखाई देती है। पश्चिम देशों में स्त्रियों की स्थिति शुरू से ही ख़राब थी जिस कारण आवाज़ तो बहुत बार उठी लेकिन उसको दबाया गया। 18वीं सदी में यह आंदोलन मुख्य रूप से उभर कर सामने आया। जिसका असर आज धीरे-धीरे पूरे विश्व में पड़ने लगा है। पूरे विश्व में इस आंदोलन की एक ही माँग है कि ‘हमें मुक्ति चाहिए’।

पाश्चात्य देशों में स्त्री की स्थिति दयनीय थी उनको पुरुष से हीन माना गया। किसी प्रकार का अधिकार उन्हें प्राप्त नहीं था, उनको लगता था कि नारी का अस्तित्व सिर्फ़ पुरुष के लिए है। क्योंकि यही स्थिति उनके सामने बार-बार आती थी धीरे-धीरे वह समझने लगी यह सारे नियम, क़ानून, संस्कार, रीति-रिवाज, धार्मिक बंधन आदि सब कुछ पुरुषों ने अपनी सुविधा के अनुरूप गढ़े हैं। यहाँ एक ऐसा जाल बनाया गया है जिसमें पुरुष दोषी होते हुए भी वह अपने आप को दोषी नहीं मानता। पुरुष स्त्री से अधिक शक्तिशाली और मज़बूत बनकर उस पर अपना अधिकार जमाता रहा। जिस कारण स्त्री संघर्ष की शुरूआत हुई।

जब भी स्त्री संघर्ष की शुरूआत हुई तो बार-बार परंपरावादियों ने उसको वहीं दफ़नाने का प्रयास किया, किन्तु यह चिंगारी भड़कती रही और 18वीं सदी में मुख्य रूप से सामने प्रस्तुत हुई। इस संघर्ष के संदर्भ में डॉ. रोहिणी अग्रवाल का कथन है, “इसके लिए विश्व में घटने वाली चार प्रमुख घटनाओं का उल्लेख करना बेहद ज़रूरी है, एक 1789 ई. में फ़्रांसीसी क्रांति जिसने स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व जैसी शाश्वत मानवीय आकांक्षाओं को नैसर्गिक मानवीय अधिकार की गरिमा देकर राजतंत्र और साम्राज्यवाद के बरक्स लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था के स्वस्थ और अभिशप्त विकल्प को प्रतिष्ठित किया। दूसरे भारत में राजा राममोहन राय की लंबी जद्दोज़हद के बाद 1829 ई. में सती प्रथा का क़ानूनी विरोध, जिसने पहली बार स्त्री के अस्तित्व को मनुष्य के रूप में स्वीकारा। तीसरे 1848 में सिनेका फ़ॉल्स न्यूयॉर्क में ग्रिमके बहनों की रहनुमाई में आयोजित 300 स्त्री-पुरुषों की सभा, जिसने स्त्री दासत्व की लंबी शृंखला को चुनौती देते हुए स्त्री मुक्ति आंदोलन की नींव रखी। चौथे 1867 ई. में प्रसिद्ध अंग्रेज़ दार्शनिक और चिंतक जॉन स्टुअर्ट मिल द्वारा ब्रिटिश पार्लियामेंट में स्त्री के वयस्क मताधिकार के लिए प्रस्ताव रखा जाना, जिसमें कालांतर में स्त्री-पुरुष के बीच स्वीकारी जानेवाली अनिवार्य क़ानूनी और संवैधानिक समानता की अवधारणा को बल मिला। असल में इस पृष्ठभूमि के बिना स्त्री विमर्श को उसकी समग्रता में जाना नहीं जा सकता। संयुक्त रूप में यह चारों घटनाएँ एक तरह से विभाजक रेखाएँ हैं, जिसके एक ओर पूरे विश्व में स्त्री उत्पीड़न की लगभग एक-सी तड़प और अकुलाहट की संघर्ष कथा है।”1 इस प्रकार स्त्री संघर्ष की शुरूआत हुई। आज पूरे विश्व में स्त्री एक महत्वपूर्ण मुद्दा है। संभावनाएँ, आकांक्षाएँ, विज्ञान, साहित्य, शिक्षा, समाजशास्त्रीय अध्ययन से लेकर वैज्ञानिक शोधों तक चलने वाली चर्चा संवादों और प्रकारों के केंद्र में स्त्री है। सदियों से शोषित होती स्त्री उन सारे बंधनों से मुक्त होना चाहती है और अपनी मुक्ति के लिए जो संघर्ष उसने शुरू किया वह आज भी जारी है।

बार्बरा ने अपनी पुस्तक ‘फेमिनिज़्म एंड द विमेंस मूवमेंट’ में 1968 के दशक की शुरूआत में प्रचलित ‘नारीवाद’ को परिभाषित किया है । “मेरे लिए वह नारीवादी है जो महज़ अपनी शारीरिक भिन्नता के कारण उपजे अन्याय को बर्दाश्त ना करें।”2 कोलंबिया एनसाइक्लोपीडिया के अनुसार “नारीवाद राजनैतिक, सामाजिक और भौतिक क्षेत्र में पुरुषों की बराबरी हेतु चलाया गया आंदोलन है।”3 उस समय इस शब्द का अर्थ पुरुष के शरीर में स्त्री के गुणों का आ जाना अथवा स्त्री को पुरुषोचित होने के संदर्भ में किया जाता था। बीसवीं सदी के प्रारंभिक दशकों में संयुक्त राज्य अमेरिका ने इस शब्द का प्रयोग कुछ महिलाओं के समूह को संबोधित करने के लिए किया जो स्त्रियों की एकता, मातृत्व के रहस्यों तथा स्त्रियों की पवित्रता आदि मुद्दों पर एकजुट हुई थी। धीरे-धीरे इस शब्द का प्रयोग राजनीतिक रूप से उन प्रतिबंध महिला समूह के लिए हुआ जो स्त्री की सामाजिक स्थिति में परिवर्तन के लिए लड़ रहा था। बाद में इन शब्दों का प्रयोग हर उस व्यक्ति के लिए माना जाने लगा जो यह मानते थे कि जैविकीय हीनता के कारण स्त्रियाँ शोषण झेलती है। 18वीं सदी के कई लेखकों और चिंतकों जैसे मेरी वुलस्टन क्राफ्ट, जॉन स्टूवर्ट मिल, बेट्टी फ्रायडन इत्यादि को उस दौर में स्त्री प्रश्नों के इर्द-गिर्द संघर्ष करने के कारण नारीवादी विचारक माना जाने लगा। बहुत लंबे समय तक नारीवाद को अनौपचारिक तथा अवैध ज्ञान समझा जाता रहा। उस दौर में यह बड़ा मुश्किल कार्य था कि स्त्रियों के मन में नारीवाद के प्रति आस्था पैदा की जाए और नारीवाद के विचारों को स्त्रियों के व्यापक समूह तक पहुँचाया जाए। प्रभा खेतान नारीवाद को केंद्रीय मुद्दा बनाकर उनकी समस्याओं को इतिहास और दर्शन में अंकित करते हुए कहती है, “वास्तव में नारीवाद का केंद्रीय मुद्दा है उन समस्याओं को अभिव्यक्त करना, जिन्हें अब तक इतिहास केवल पुरुष संदर्भ में ही देखते रहने का अभ्यस्त है। जिसका परिणाम यह हुआ कि इतिहास और दर्शन द्वारा किए गए अन्याय का ठप्पा स्त्री चेतना पर हमेशा के लिए अंकित हो गया है।”4

नारीवाद को पसंद न करने वाला न ही सिर्फ़ पुरुष तबक़ा था बल्कि एक बहुत बड़ा स्त्री तबक़ा भी था जो न नारीवाद को पसंद करता था और न ही नारीवाद कहलाना। उस समय नारीवाद की यह विचारधारा थी कि स्त्री सिर्फ़ अपनी लैंगिकता के कारण सामाजिक एवं आर्थिक असमानताओं को झेलती है।

उदारवादी नारीवाद -

प्रथम लहर का नारीवाद 1848 ई. से शुरू होकर 1920 ई. तक चला। यह विशेषकर ब्रिटेन एवं संयुक्त राज्य अमेरिका में देखा गया। उदारवादी नारीवाद स्त्रियों की शिक्षा, स्त्री-पुरुष की समानता, समाज में स्त्रियों की स्थिति में परिवर्तन, क़ानूनी परिवर्तन आदि की माँग करता था। यह नारीवाद इस बात से सहमत था कि स्त्री एवं पुरुष अपनी प्रदत्त भूमिकाओं को निभाते हुए घर एवं बाहर के विभाजन को बनाए रखें। मानव देह का विभाजन स्त्री-पुरुष के आधार पर न करते हुए उसे एक उदार दृष्टिकोण से देखना और एक ही भाव-भूमि से तौलना यह उदारवादी नारीवाद की विचारधारा थी। इस नारीवाद ने सामाजिक एवं वैधानिक समानता के सुधार के लिए आवाज़ उठायी थी। नारीवाद के सिद्धांतकार के रूप में मेरी वुलस्टन क्राफ्ट, जॉन स्टूवर्ट मिल, हेरियट टेलर, बेट्टी फ्रायडन इत्यादि को जाना जाता है। इस लहर के नारीवाद में मेरी वोल्स्टोन क्राफ्ट की पुस्तक ‘ए विंडिकेशन ऑफ़ द राइट्स ऑफ़ वूमैन’ (1792) आई, जिसने नारी अधिकारों के प्रति जागरूकता पैदा की और ऐतिहासिक धरातल पर मील का पत्थर साबित हुई। इसमें स्त्री संबंधी पुरानी अवधारणाओं और असमानताओं का ज़ोरदार खंडन किया गया और समानता के भाव, स्त्री-मुक्ति की चेतना, स्त्री जागृति से संबंधित विचारधाराओं को प्रोत्साहन दिया। जॉन स्टुअर्ट मिल की पुस्तक ‘दि सब्जेकशन ऑफ़ वूमेन’ (1861) स्त्री विमर्श को आधार बनाकर लिखी गई पुस्तक है। इस पुस्तक के कारण उन्हें सम्पूर्ण विश्व में नारीवादी चिंतक के रूप में ख्याति प्राप्त हुई। यह पुस्तक स्त्रियों के कार्यों, मनोभावों और क्षमताओं की व्याख्या करती है, साथ ही परम्परागत रूढ़िवादी सोच के विरुद्ध तर्कपूर्ण तथ्य प्रस्तुत करती है। मिल दासप्रथा का एक स्वरूप स्त्री की दासता को मानते हैं और इसे मनुष्यता के विरुद्ध समझते हैं। उन्होंने सवाल उठाया कि स्त्रियों को पुरुषों के बराबर अधिकार क्यों नहीं दिया गया? स्त्री मुक्ति को लेकर वह सत्ता तक को कठघरे में खड़ा करते हैं और यह भी कहते हैं कि अरस्तू जैसा महान दार्शनिक भी दासत्व और स्वामित्व के विषय में परम्परागत सोच का शिकार हो गया है।

इस नारीवाद की प्रमुख माँग थी निजी से सार्वजनिक, पितृसत्ता में परिवर्तन, वोट डालने का अधिकार, शिक्षा तथा रोज़गार तक स्त्रियों की पहुँच, संपत्ति पर वैधानिक अधिकार और विवाह तथा तलाक़ की स्वतंत्रता। इसी दौरान 1857 में राष्ट्रीय मताधिकार सोसायटी संघ का गठन किया गया। जिसकी प्रथम राष्ट्रपति मिलिसेंट सॉकेट बनी। इस संघ के सभी सदस्य मध्यवर्गीय महिलाएँ थी। स्त्रीवादी आंदोलन को आगे बढ़ाने में बहुत सारे आंदोलनों का भी साथ रहा है। जैसे 1830 ई. में गुलाम प्रथा के विरोध में आंदोलन चलाया गया जिसमें साराह और एंजिला ग्रिमिके ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1840 ई. में एंटी स्लेवरी कनेक्शन की स्थापना हुई, जिसका प्रमुख लक्ष्य स्त्रियों को मौलिक अधिकारों की प्राप्ति करना था। जिसका पर्यवेक्षण लूसीरा टिप, सुसान, वी. एंटोनी आदि स्त्रीवादी लेखिकाओं ने किया। इसमें 300 महिलाओं ने भाग लिया तथा यह बैठक पाँच दिनों तक चली। उदारवादी नारीवाद माध्यम वर्गीय महिलाओं और श्वेत महिलाओं द्वारा चलाया गया अभियान था। जिससे अन्य वर्ग की महिलाएँ दूर थी इस कारण यह शीत पड़ता दिखाई दिया।

समाजवादी या मार्क्सवादी नारीवाद -

समाजवादी एवं मार्क्सवादी नारीवाद स्त्री की उद्धमिता, उसकी मेहनत, उसके कार्य आदि पर ज़ोर दे रहा था। इस नारीवाद ने समाज की सभी प्रकार की असमानताओं के ऊपर समानता की माँग की। यह आंदोलनवादी समझते थे कि बिना पुरुष के सहयोग से कोई भी आंदोलन संभव नहीं है। इन्होंने महिलाओं के दमन का मूल कारण निजी सम्पत्ति और पूँजीवाद के विकास को माना। “एंगेल्स ने ‘द ओरिजन ऑफ़ द फ़ैमिली प्राइवेट प्रॉपटी एण्ड द स्टेट' (1884) में नारीवादियों के लिए श्रम के बटँवारे की व्याख्या प्रस्तुत की। इस कृति में उन्होंने कहा है कि महिलाओं का शारीरिक और लैगिंक श्रम, संतान उत्पति, परिवार और निजी सम्पत्ति की देखभाल के लिए सही माना जाता है। हाँलाकि उनका दमन प्राकृतिक रूप से सही नहीं है बल्कि पितृसत्ता के कर्म को पूरा करता दिखाई देता है। निजी सम्पत्ति की संस्था के उदय और पुरुषों के हाथ में सम्पत्ति की स्थापना ने महिलाओं के अस्तित्व की पहचान को अंधेरे में ढकेल दिया।”5 मार्क्सवादी नारीवादियों का मानना है कि पूँजीवाद के तहत वर्गशोषण महिलाओं के उत्पीड़न का मूल कारण है। मार्क्सवादी नारीवादियों के अनुसार समाज में महिलाओं का उत्पीड़न वह सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक संरचना है जिसमें व्यक्ति रहता है। मार्क्सवादी नारिवाद आर्थिक कारकों को ज्यादा महत्व देते हैं, जबकि पितृसत्ता के पीछे आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक सभी कारक समान रूप से ज़िम्मेदार है। महिलाओं की अधीनता का मुख्य कारण महिलाओं की पुरुषों पर आर्थिक निर्भरता है। समाजवादी नारीवादियों का सिद्धांत है कि पूँजीवाद के विकास में महिलाओं के घरेलू कार्य का भी बहुत बड़ा योगदान है, जबकि उसे अनुत्पादक कार्य मानकर महत्व नहीं दिया जाता है। नारीवादियों ने यह माँग उठायी कि औरत गृहिणी बनना चाहती है या नौकरी करना चाहती है या दोनों ज़िम्मेदारियों को निभाना चाहती है, यह निर्णय लेने का अधिकार सिर्फ़ स्त्री को होना चाहिए न की यह निर्णय उस पर कोई अन्य थोपे। इसी विचारधारा के अंतर्गत द्वितीय लहर के नारीवाद का उदय हुआ।

द्वितीय लहर 1960 के दशक में आरंभ हुई। 1963 में बेट्टी फ्रायडन ने अपनी कृति ‘द फ़ेमिनिन मिस्टिक’ में यह घोषणा कर दी थी कि आज स्त्री मुक्ति की अधिक आवश्यकता है। जहाँ प्रथम नारीवाद अपने चरित्र में व्यक्तिवादी तथा सुधारवादी था, वहीं दूसरे दौर में स्त्री मुक्ति का दर्द ज़्यादा सामूहिक और क्रांतिकारी था। द्वितीय लहर का नारीवाद प्रथम लहर के नारीवाद का ही परिमार्जित और परिवर्धित रूप है। यह लहर संयुक्त राज्य अमेरिका, फ़्रांस, ब्रिटेन में विकसित हुई। इस धारा के प्रमुख विदुषियों में जूलिएट मिशेल, एन ओकली, केट मिलेट, रोबिन मारगेन, सुलामिथ फायर स्टोन और जर्मेन ग्रीयर आदि का नाम आता है। परंतु सही अर्थों में सीमोन द बोउवार ने 1949 में अपनी पुस्तक ‘द सेकेंड सेक्स’ (हिंदी अनुवाद ‘स्त्री उपेक्षिता’-प्रभा खेतान) में सैद्धांतिक प्रस्तावनाओं को व्याख्यायित किया। जो उस समय के समाज में स्त्री और पुरुष के बीच काफ़ी व्याख्यायित हुई। सीमोन द बोउवार का कथन है “स्त्री पैदा नहीं होती, बल्कि बना दी जाती है।”6 उनकी पुस्तक को अनुवादित करते हुए प्रभा खेतान लिखती है कि “अपने ‘द सेकेंड सेक्स’ नामक पुस्तक में बोउवार ने स्त्री के विविध पक्षों को लेकर लिखा है जिससे पुरुष समाज में खलबली मच गई और स्त्रियों समेत सभी को एहसास हुआ कि क्या यही हमारी नियति है?”7 वह यह समझाना चाहती हैं कि समाज में स्त्री और पुरुष की समानता बराबर है और होनी चाहिए। लिंग के आधार पर स्त्री को प्रताड़ित करना परंपरा और पुरुष सत्ता का परिचय देता है। सीमोन द बोउवार ने 1964 में नारीवादी आंदोलन की बौद्धिक ज़मीन तैयार की। अपनी रचना में उन्होंने स्त्री को अन्य बना दिए जाने की सांस्कृतिक परंपरा का विश्लेषण किया है। जर्मेन ग्रीयर की चर्चित पुस्तक ‘द फ़ीमेल युनक’ (हिंदी अनुवाद ‘विद्रोही स्त्री’ - मधु बी. जोशी) में समाज में स्त्री की स्थिति को दर्शाया गया है। यह बहुत साहस का काम था कि उन दिनों उन्होंने लिखा स्त्री समाज में निहित स्थितियों को एक हिजड़े की भाँति चुपचाप सहती है। उन्होंने पश्चिम साहित्य को लेकर व्यंग्य किए हैं। उनकी रचनाएँ स्त्रीवादी विचारधारा को मज़बूती प्रदान करती हैं। बेट्टी फ्रायडन की पुस्तक में यह अर्थ निकलता है कि स्त्री के जीवन का उच्चतम मूल्य और उद्देश्य है वह अपने नारीत्व के पोषण को सर्वाधिक महत्व दें। नारीत्व की अवधारणा अत्यंत रहस्यमयी और रोमांचक है बिल्कुल उसी तरह जिस तरह जीवन का सृजन एवं विकास। मानव विज्ञान इस रहस्य को कभी नहीं समझ पाएगा। स्त्रियों की ऐतिहासिक भूल यह थी कि वह अपने नैसर्गिक गुण को स्वीकार करने के बजाए स्वयं को पुरुष के अनुरूप बनाने का प्रयास करने में लगी रही। जिस कारण वह मातृत्व के प्रेम में फँसकर पुरुष वर्चस्व का शिकार बनती रही। इस नारीवाद के दौर में सिग्मन फ्रायड के विचार, केट मिलेट द्वारा लिखित पुस्तक ‘सेक्सुअल पॉलिटिक्स’ (1970) और सुलमिथ फायर की पुस्तक ‘द डायलेक्टी ऑफ़ सेक्स’ आदि सैद्धांतिक रूप में चले। केट मिलेट अपनी पुस्तक द्वारा पितृसत्तात्मक व्यवस्था को परिभाषित किया। उन्होंने पितृसत्तात्मक व्यवस्था को राजनैतिक संस्थान माना जो मानव शोषण का प्राथमिक स्वरूप है। राजनीतिक और आर्थिक शोषण के साथ निरंतर सक्रिय रहने वाला पितृसत्तात्मक वर्चस्व मुख्य रूप से विचारधारात्मक नियंत्रण के माध्यम से स्वयं को कायम रखता है। इसके अलावा इन्होंने परिवार, गर्भपात, यौनिकता, पोर्नोग्राफी, लैंगिक श्रम विभाजन, बलात्कार तथा घरेलू हिंसा के विभिन्न पहलुओं का भी विश्लेषण किया। इस दौर में अनेक पुरुष लेखक भी स्त्री जीवन पर लेखन कर रहे थे। जैसे जॉन स्टूवर्ट मिल की पुस्तक ‘द सब्जेक्शन ऑफ़ वीमेन’, वर्जीनिया वुल्फ़ की पुस्तक ‘ए रूम वन्स ओन’, मार्गेट सेगर की पुस्तक ‘वुमन एंड द न्यू रेस’ अगस्त विवेल की पुस्तक ‘वुमन एंड सोशलिज़्मस’ आदि स्त्री विमर्श के विकास में सहायक होने वाली कृतियाँ हैं। उस दौर की लेखिकाओं ने यह माना कि स्त्रियों ने स्वयं ही नारी के इस विचार को आत्मसात कर रखा है और यह विचार उनके अधीनता का मूल कारण है। द्वितीय लहर की माँग थी समान वेतन का अधिकार, समान शिक्षा एवं रोज़गार का अवसर, 24 घंटे नर्सरी एवं मुक्त गर्भ निरोधक और गर्भपात का अधिकार।

रेडिकल नारीवाद -

रेडिकल नारीवाद का उदय 1960 में हुआ। इसने लिंग विश्लेषण को समझते हुए स्त्री उत्पीड़न के लिए ज़िम्मेदार मूल कारण की तलाश की। इन्होंने लैगिंक दमन और महिलाओं के विरुद्ध हिंसा के महत्वपूर्ण बिंदुओं को दर्शाया और बताया कि इसका मुख्य कारण महिलाओं का दोयम दर्जा और उनकी वंचना है। रेडिकल नारीवाद सिमोन द बोउवार के ग्रंथ ‘द सेकेंड सेक्स’ (1949) से प्रभावित होता हुआ दिखाई देता है। इनका मानना था कि महिलाओं की प्रजनन क्षमता की ज़िम्मेदारियाँ, पालन-पोषण और पारिवारिक चरित्र में महिलाओं की स्थिति के कारण वह उत्पीड़न का शिकार होती है। रेडिकल नारीवाद समझता था कि इन सब कारणों के लिए पुरुष ज़िम्मेदार हैं तो पुरुष इस समस्या के समाधान में अपनी भूमिका नहीं निभा सकते। यह आंदोलन ऐसा राजनीतिक संगठन चाहता था जो पुरुषवाद की विकृति से मुक्त हो। इसलिए इन्हें पुरुष विरोधी एवं समलैंगिकता का प्रबल समर्थक माना गया। और इन्हीं कारण से यह वाद अधिक दिनों तक नहीं चल सका।

रेडिकल नारीवाद के समय ही तृतीय लहर का नारीवाद 1990 से शुरू हुआ। इस दौर का नारीवाद सार्वभौमिक दावे से अलग होकर उसे नस्लीय एवं जातीय संबंधों से देखे जाने की पैरवी करने लगा। इस नारीवाद के विचारक थे कैथरीन रेडर्फन, एलिस वॉकर, नाउमी बुल्फ (फ़ायर विद फ़ायर) आदि। इस लहर के नारीवादी आंदोलन में स्त्री के अधिकारों, समाज में स्त्री का स्थान, लैंगिक वर्चस्ववादिता आदि मुद्दे प्रमुखता से केंद्र में रहें। 2006 में प्रकाशित कृति ‘द राइटिंग कास्ट राइटिंग जेंडर: नैरेटिंग दलित वुमन टेस्टीमोनियल’ में प्रसिद्ध समाजशास्त्री एवं दलित नारीवाद के प्रथम सिद्धांतकार के रूप में शर्मिला रेगे ने इस पर विस्तारपूर्वक चर्चा की है। इस लहर के नारीवाद आंदोलन में अश्वेत दलित मध्यवर्गीय कामगार महिलाओं को केंद्र में रखा था।

उदारवादी नारीवाद, समाजवादी (मार्क्सवादी) नारीवाद और रेडिकल नारीवाद तथा तीनों लहरें और आंदोलन अपने-अपने समय में सक्रिय रूप से समस्याओं का समाधान देने के लिए चर्चा में बने रहे।

पश्चिमी आंदोलन का असर भारतीय समाज और साहित्य पर दिखाई देता है। परंतु भारतीय नारी मुक्ति संघर्ष और पश्चिम के नारी मुक्ति आंदोलन एक-दूसरे से एकदम भिन्न है। यह कह सकते है कि पश्चिमी नारीवादी लेखिकाओं से प्रेरित और प्रोत्साहित होकर भारतीय समाज में भी स्त्री को लेकर लेखन कार्य किया गया। परंतु पश्चिमी आंदोलनों की तरह भारत में हुए आंदोलनों का कोई निश्चित समय नहीं है। “भारतीय स्त्री का मुक्ति संघर्ष कहाँ से शुरू होता है, इसके लिए कुछ निश्चित प्रमाण नहीं मिलते। इतना ही कहा जा सकता है कि उत्तर वैदिक काल से जैसे-जैसे बंधन क्रमशः कसते गए होंगे, उनसे मुक्ति की चाह भी वैसे-वैसे बलवती होती गई होगी।”8

भारत में स्त्रियों की स्थिति सुधारने के लिए स्त्रियों के साथ-साथ पुरुषों ने भी पुरज़ोर कोशिश की। ब्रह्म समाज, आर्य समाज, प्रार्थना समाज तथा थियोसोफ़िकल सोसायटी ने नारी उत्थान में प्रमुख रूप से सहयोग किया। सती प्रथा का विरोध, विधवा विवाह का समर्थन, समान शिक्षा और समान अधिकारों की बात आदि विषयों को लेकर नारी उत्थान के कार्य में उपरोक्त संस्थाओं ने महत्वपूर्ण कार्य किया। 1886 में स्वर्णकुमारी देवी ने ‘लेडीज़ एशोसिएशन’ संस्था स्थापित की। 1892 में पंडिता रामा बाई ने स्त्रियों के लिए ‘शारदा सदन’ खोला। 1927 में अखिल ‘भारतीय महिला सम्मेलन’ नामक गैर राजनीतिक संगठन की स्थापना हुई जिसमें महिलाओं की सामाजिक और शैक्षणिक स्थिति को सुधारने का कार्य किया गया। 1929 में बाल-विवाह निषेध क़ानून का गठन किया गया जिसने भारतीय महिला की स्थिति में सुधार की। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में स्त्री और पुरुष ने समान रूप से भाग लिया जिस कारण 1947 के बाद समानता का एक स्वर्णिम अध्याय शुरू हुआ। इसके बाद ज्ञान-विज्ञान, कला-संस्कृति, राजनीति, साहित्य, सिनेमा, रोज़गार, क़ानून, समाजसेवा आदि सभी क्षेत्रों में महिलाओं ने विशेषरूप से अपना स्थान बनाया। भारत एवं पूरे विश्व में महिला जागृती को देखते हुए वर्ष 1975 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने इस वर्ष को अंतर्राष्ट्रीय महिला वर्ष घोषित किया। स्त्री मुक्ति भारतीय समाज के साथ साहित्य में भी देखने को मिलती है। जो भारतीय स्त्री विमर्श को एक अलग पहचान देती है।

संदर्भ:

1. हरिगंधा, स्त्री विमर्श के संदर्भ में समकालीन हिंदी कथा साहित्य - डॉ. रोहिणी अग्रवाल, अंक-अगस्त 2003, पृ. सं. 29
2. फेमिनिज़्म एंड द विमेंस मूवमेंट - बार्बरा रायन, पृ. सं. 22
3. फेमिनिज़्म एंड द विमेंस मूवमेंट - बार्बरा रायन, पृ. सं. 23
4. हंस - प्रभा खेतान, पृ. सं. 75
5. http://vle.du.ac.in/mod/book/print.php?id=10255&chapterid=17138
6. स्त्री उपेक्षिता - प्रभा खेतान, पृ. सं. 15
7. वही - पृ. सं. 15
8. औरत : कल, आज और कल - आशारानी व्होरा, पृ. सं. 18

प्रियंका कुमारी
मौलाना आज़ाद नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी,
हैदराबाद

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