भ्रष्टाचार
हास्य-व्यंग्य | हास्य-व्यंग्य कविता दीपा जोशी19 Feb 2016
मिला निमंत्रण
एक संस्था से
आकर सभा को
सम्बोधित कीजिए
अपनी सरल व सुलझी
भाषा में
“भ्रष्टाचार” जैसी बुराई
पर कुछ बोलिए
ऐसे सम्मान का था
ये प्रथम अवसर
गौरव के उल्लास में
हमने भी हामी भर दी
समस्या की गहनता को
बिना जाने समझे
हमने इक नादानी कर दी।
वाह, वाही की चाह में
हमने सोचा
चलो भाषण की
रूप रेखा रच लें
अख़बारों व पत्रिकाओं में
इस विषय में
जो कुछ छपा हो
सब रट लें।
जितना पढ़ते गए
विषय से हटते चले गए
जो एक आध
मौलिक विचार थे भी
वो मिटते चले गए
लगने लगा हमें
कि ये हमने क्या कर दिया
अभिमन्यु तो भाग्य से फँसा था
हमने चक्रव्यूह ख़ुद रच लिया
देखते ही देखते
आ पहुँचा वो दिन
किसी अग्नि परीक्षा से
जो नहीं था अब भिन्न
तालियों की गड़गड़ाहट से
हुआ हमारा अभिनंदन
घबराहट में धैर्य के
टूटे सभी बंधन।
ना जाने कैसे
रटा हुआ
सब भूल गए
कहना कुछ था
और कुछ कह गए
मन के किसी कोने में
छिपे उद्गार बोल उठे
ख़ुद को मासूम
व सम्पूर्ण समाज को
भ्रष्ट बोल गए।
उस दोषारोपण ने
सभा का बदल दिया रंग
उभर आई भीड़,
धीरे-धीरे होने लगी कम
देखते ही देखते
वहाँ रह गए बस हम
और इस
तरह दुखद हुआ
एस महासभा का अंत।
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