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डर (सतीश सिंह)

संजय यानी मैं सालों से मुंबई में हूँ। भागम-भाग के जीवन में अपने पिछले जीवन या दोस्तों या रिश्तेदारों के बारे में सोचने की मुझे कभी फ़ुर्सत मिली ही नहीं। घर से ऑफ़िस और फिर ऑफ़िस से घर। यही मेरी दिनचर्या है। मलाड के एवरशाईन नगर में रहता हूँ मैं।  अक़्सर रविवार या छुट्टी के दिन या तो इनफ़िनिटी या इनऑर्बिट मॉल जाता हूँ या फिर मलाड स्टेशन के पास का नटराज मार्केट। मुंबई में सस्ते कपड़ों के लिये प्रसिद्ध है यह। मन जब बहुत ज़्यादा बोझिल हो जाता है तो अक्सा बीच चला जाता हूँ। समंदर के किनारे घंटों बैठना अच्छा लगता है मुझे।  

मुंबई आने के बाद से सपने देखना भूल गया हूँ। सपना देखे सालों हो गये हैं। अचानक! मार्च महीने में कोरोना महामारी आपदा बन देश में आई। इससे बचने के लिये 24 मार्च से देशभर में लॉकडाउन लागू कर दिया गया। मेरा भी घर से निकलना बंद हो गया। सारा वक़्त परिवार के साथ बीतने लगा। दोस्तों और रिश्तेदारों से फोन पर बातचीत होने लगी। बच्चों और पत्नी के साथ शादी की वीडियो रिकार्डिंग भी कई बार देखी मैंने। 

दिल और दिमाग़ को फ़ुर्सत मिली तो सपने फिर से आने लगे। सपनों में कभी पटना चला जाता तो कभी भोपाल। रोज़ सैर करने लगा। सपनों का लॉकडाउन हो भी नहीं सकता था। जहाँ भी कभी घूमने गया था, वहाँ फिर से सपने में सैर करने लगा। एक दिन सपने में मैं मौजूदा झारखंड के क़स्बेनुमा शहर चाईबासा के यशोदा टाकीज़ में सुशांत सिंह राजपूत की नई फ़िल्म “ड्राइव” देखने लगा। किसी को भी सपने में सिनेमा देखना थोड़ा अजीब लग सकता है, लेकिन मेरे लिये यह नया नहीं था। मैंने देखी हुई कई फ़िल्में सपने में दोबारा देखी हैं। लगभग 38 साल हो गये थे इस शहर को छोड़े हुए। इसी शहर में मेरा बचपन बीता था। इसलिये, सपने में इस शहर को देखकर मैं बहुत ज़्यादा एक्साईटेड था।

मेरी उम्र 6 साल की थी, तब पापा का चाईबासा ट्रांसफ़र हुआ था। वे बिहार पुलिस में इंस्पेक्टर थे। पुलिस लाइन के स्टाफ़ कवार्टर में हमलोग रहते थे। सिनेमा देखने का चस्का मुझे दूसरी क्लास में ही लग गया था। पापा भी सिनेमा देखने के शौक़ीन थे। सच कहें तो हमारा पूरा परिवार सिनेमा देखने में माहिर था। एक कारण पापा का पुलिस में होना भी था। हम सिनेमा फ़्री में देखते थे। 

शहर में दो सिनेमाघर थे। एक यशोदा टाकीज़ और दूसरा जेएमपी टाकीज़। जब मैं पहली कक्षा में था, तो पापा मुझे सिनेमा देखने के लिये साथ नहीं ले जाया करते थे, पर यह सिलसिला ज़्यादा दिनों तक नहीं चल सका। हर बार सिनेमा देखने वाले दिन मैं रो-रो कर  घर को सिर पर उठा लेता था। बड़ी मुश्किल से पापा मुझे चुप करा पाते थे। अंत में उन्होंने मुझसे हार मान ली। 

फ़िल्म देखने मैं ज़रूर जाने लगा, लेकिन कहानी मुझे समझ में नहीं आती थी। हालाँकि, सिनेमा के रंग-बिरंगे पोस्टर और विज्ञापन मुझे आकर्षित करते थे। सिनेमा से ज़्यादा मेरी रुचि पोस्टर और विज्ञापन देखने में होती थी। अकेले में मैं हीरो के हाव-भाव की नक़ल उतारने की कोशिश करता था। किसी को सामने देखकर शरमा भी जाता था। उस कालखंड में  रिक्शे पर लाउडस्पीकर के जरिये सिनेमा का प्रचार-प्रसार किया जाता था। रिक्शा पर फ़िल्म के पोस्टर चिपके हुए होते थे। मोहल्ले में रिक्शा के पहुँचते ही मैं और मेरे दोस्त चारों तरफ़ से उसे घेर लेते थे। पोस्टर को हम छू-छू कर देखते थे। मौक़ा मिलने पर उसे उखाड़ भी लेते थे। पोस्टर को हम सम्भालकर रखते थे। कभी-कभार सिनेमा-सिनेमा भी खेलते थे हम। 

धीरे-धीरे सिनेमा देखने के प्रति मेरी दीवानगी बढ़ती गई, जिसका एक कारण मेरे मामा का यशोदा टाकीज़ में नौकरी करना था। वे फ़र्स्ट क्लास का टिकट बेचते थे, जिसकी क़ीमत 95 पैसे थी। यशोदा टाकीज़ बड़े बाज़ार के पास था, जो घर से काफ़ी नज़दीक था। किराना का सारा सामान हम लोग उसी बाज़ार से ख़रीदा करते थे। मैं छोटा था, लेकिन माँ मुझे होशियार समझती थी। बाज़ार से सामान ख़रीदने मैं ही बाज़ार जाया करता था। जब भी बाज़ार जाता तो कुछ देर सिनेमा भी देख आता था। चूँकि, सिनेमा खड़े होकर किश्तों में देखता था, इसलिये, मामा को छोड़कर किसी को मेरे सिनेमा देखने के बारे में मालूम नहीं था। चूँकि, मैं मामा का दुलारा भांजा था, इसलिये, यह राज़ कभी खुला भी नहीं।  

स्कूल से आने के बाद या छुट्टी के दिन मैं अपने गैंग (दोस्त) के साथ पास के क़ब्रिस्तान में गुली-डंडा या कंचे खेला करता था या फिर लट्टू नचाया करता था। क़ब्रिस्तान में मौजूद जामुन, शहतूत, अमरूद, शरीफा, आम, बेर और ईमली के पेड़ हमें ललचाते थे। फ़्री में हमलोग इन फलों का स्वाद लिया करते थे। यह ईसाईयों का क़ब्रिस्तान था। हम बच्चे ताबूत में रखे लाश को दफ़नाते हुए कौतुहल से देखते थे। लाश को दफ़नाने से पहले चर्च का फ़ादर कुछ बुदबुदाता था। माँ हमेशा मुझे क़ब्रिस्तान में खेलने से मना करती थी। वह बोलती थी कि वहाँ भूत रहते हैं। फिर भी, मैं उनकी बात नहीं मानता था। मुझे भूत से डर नहीं लगता था, क्योंकि मेरे नाना भगत थे। मुझे लगता था कि नाना के रहते भूत मेरा कुछ भी बिगाड़ नहीं सकते।  

मैं संत ज़ेवियर स्कूल में पढ़ता था। यह एक मिशनरी स्कूल था। स्कूल के सामने ही चर्च था। मैं रोज़ चर्च जाया करता था। चर्च में फूलों का बाग़ीचा था, जो मुझे बहुत भाता था। कभी-कभार गुलाब का फूल मैं चोरी-छुपे तोड़ भी लेता था। फ़ादर मुझे सफ़ेद रंग का तरल पदार्थ प्रसाद के रूप में पीने के लिये देते थे। वह क्या था, मुझे नहीं मालूम, लेकिन मैं उसे मज़े से पीता था। बहुत स्वादिष्ट लगता था मुझे। फ़ादर मुझे गिटार बजाना भी सिखाते थे। मैं उनका प्रिय छात्र था। तीसरी क्लास में फ़र्स्ट आने के बाद से उनका लगाव मुझसे कुछ ज़्यादा ही हो गया था। 

स्कूल में ब्रदर और सिस्टर विदेशों से आते रहते थे। ब्रदर और सिस्टर की उपाधि उन्हें स्कूल आने के बाद दी जाती थी। स्कूल में सभी लोग उन्हें उनके वास्तविक नाम के साथ इस उपाधि को जोड़कर पुकारते थे। किस देश से वे आते थे, यह तो मुझे नहीं मालूम, लेकिन हम उन्हें अंग्रेज़ समझते थे। स्कूल में पढ़ाना उनका काम नहीं था। वे ग़रीबों को मुफ़्त में कपड़े और दवाइयाँ बाँटते थे और उनकी समस्याओं का समाधान भी निकाला करते थे। वे स्कूल में बने एक आलीशान इमारत में रहते थे। 

रोज़ स्कूल और चर्च में काफ़ी वक़्त गुज़ारने के कारण मैं ईसाईयों के रीति-रिवाज़ और रहन-सहन से परिचित हो गया था। उनका अंतिम क्रिया-क्रम देखना भी मुझे अजीब नहीं लगता था। हालाँकि, दिनभर क़ब्रिस्तान में खेलने के कारण रात को मैं हर दिन भूत का सपना देखता था। सपने में मैं अक़्सर हवा में उड़ते हुए क़ब्रिस्तान पहुँच जाता था और भूत मुझे क़ब्रिस्तान में खींचने लगते थे। फिर भी, मैं डरता नहीं था।  

बड़े-बूढ़े कहते थे कि पुलिस लाइन का निर्माण भी अंग्रेज़ों के क़ब्रिस्तान पर हुआ था। पुलिस कॉलोनी में ईमली और पीपल के बड़े-बड़े पेड़ थे। मेरे घर के पीछे भी पीपल का एक विशाल पेड़ था। रात में अक़्सर पीपल के पेड़ से इत्र और बासमती चावल की ख़ुशबू आती थी। माँ का कहना था कि पीपल के पेड़ पर एक अच्छी परी रहती है, जबकि इमली के पेड़ पर एक बुज़ुर्ग पिशाचनी रहती है, जो चाँदनी रात में सफ़ेद साड़ी पहनकर घूमती है। कई लोग इन्हें देखने का दावा भी करते थे। माँ के अनुसार परी किसी को नुक़्सान नहीं पहुँचाती थी, लेकिन पिशाचनी को देखने के बाद लोग बीमार पड़ जाते थे। 

स्कूल के पास में ही रोड़ो नदी थी, जिसमें सालों भर जल की अविरल धारा बहती रहती थी। बारिश के दिनों में नदी में हर साल बाढ़ आ जाती थी। मैं दोस्तों के साथ उस नदी में अक़्सर मछली पकड़ने के लिये जाता था। इस नदी पर एक डैम बना हुआ था, जो घर से लगभग 2 किलोमीटर की दूरी पर था। वहाँ का दृश्य बेहद ही मनोरम था। चारों तरफ़ जंगल और झरने थे। बाँध से पानी एक लय में गिरती थी, जिसकी आवाज़ मेरे कानों को बेहद ही सुकून देती थी। उस डैम में हर साल कुछ बच्चे डूबकर मर जाते थे। इसलिये, डैम को स्थानीय लोग शापित मानते थे। फिर भी, मैं रोज़ छुपकर वहाँ नहाने चला जाता था।   

एक बार यशोदा टाकीज़ में “जादू-टोना” नाम की फ़िल्म लगी। माँ ने पहले ही घोषणा कर दी कि यह फ़िल्म बेहद ही डरावनी है और बच्चे इसे नहीं देख सकते। पुलिस कॉलोनी के बच्चों के बीच मेरी इमेज बहादुर बच्चे की थी। इसलिये, मैं किसी भी क़ीमत पर यह फ़िल्म देखना चाहता था। यह मेरे लिये अपनी बहादुरी दिखाने का सुनहला मौक़ा था। इसलिये, मैं फ़िल्म देखने के लिये ज़िद करने लगा। थोड़े ना-नुकर के बाद पापा राज़ी हो गये। नाईट शो देखने की योजना बनाई गई। हमारे साथ पुलिस कॉलोनी से और भी लोग फ़िल्म देखने गये। उनमें से पापा के मित्र मेजर साहब भी थे। मैं उन्हें चाचा जी की जगह मेजर अंकल के नाम से पुकारता था। 

फ़िल्म शुरू होते ही बैकग्राउंड में एक डरावनी धुन बजने लगती है। सुनसान सड़क पर एम्बेसडर कार तेज़ गति से अपनी मंज़िल की ओर जा रही थी। सिनेमा के नायक की लम्बाई 6 फ़ीट के आसपास रही होगी। ड्राइविंग सीट के काफ़ी ऊपर तक उसकी गर्दन निकली हुई थी। चाँदनी रात में उसका चेहरा साफ़-साफ़ दिखाई दे रहा था। चेहरे से वह युवा लग रहा था, लेकिन वह गोरा था या काला का पता नहीं चल रहा था। कार एक लय में सरपट दौड़ रही थी। दूर-दूर तक कोई दिखाई नहीं दे रहा था। अचानक! नायक को बिना पत्तों वाला एक पेड़ दिखाई देता है, जिसपर कई गिद्घ बैठे हुए थे। कहीं दूर कुतों की भौंकने की आवाज़ आ रही थी। जैसे-जैसे कार उस पेड़ के नज़दीक पहुँच रही थी, हवा की रफ़्तार भी बढ़ती जा रही थी। कार के बाईं तरफ़ की खिड़की थोड़ी सी खुली हुई थी, जिसके कारण सायं-सायं की आवाज़ भी बढ़ती जा रही थी। पेड़ के पास पहुँचते ही कार एक झटके से रुक जाती है। नायक बहुत कोशिश करता है, लेकिन वह स्टार्ट नहीं होती है। थक-हारकर नायक कार से बाहर निकलता है। वह बोनट उठाकर कार की बीमारी समझने का प्रयास करता है, लेकिन उसे कुछ भी समझ में नहीं आता है। जैसे ही, नायक बोनट से बाहर अपना सिर निकालता है, उसे अपने सिर पर तरल पदार्थ गिरने की अनुभूति होती है। छूकर देखने से भी उसे पता नहीं चलता है कि वह क्या है? वह पेन्सिल टॉर्च जलाता है तो देखता है कि उसके हाथों में ख़ून लगा है। फिर, वह ऊपर देखता है। पेड़ पर सफ़ेद कपड़ों में लिपटी हुई एक लड़की बैठी हुई थी, जिसके लंबे-लंबे बाल थे और पैर उलटे थे। उसकी आँखों से ख़ून टपक रहा था। यह देखकर नायक बेतहाशा भागने लगता है और उसे पकड़ने के लिये उस लड़की का एक हाथ आगे बढ़ने लगता है। यह दृश्य देखकर दर्शकों के रोंगटे खड़े हो जाते हैं। कुछ बच्चे रोने भी लगते हैं। मेजर अंकल की बेटी बेहोश हो जाती है। मैं भी पापा से चिपककर बचाओ-बचाओ चिल्लाने लगता हूँ। मेरी सारी बहादुरी धरी की धरी रह जाती है। 

डर की वज़ह से मैं आँखों को कसकर मींच लेता हूँ। बहुत समझाने-बुझाने पर डरते-डरते मैं अपनी आँखें खोलता हूँ तो देखता हूँ कि मैं मुंबई स्थित अपने घर के बिस्तर पर हूँ और मेरे शरीर के सारे रोयें खड़े हैं। पत्नी पूछ रही है, "क्या हुआ आपको, नींद में आप क्यों चिल्ला रहे थे?"  

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