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काश ! हम कबूतरबाज़ होते. . .

यक़ीन मानिए, कई बार ख़ुद पर बहुत ग़ुस्सा आता है। ग़ुस्से के आलम में यह समझ नहीं आता कि ख़ुद को क्या-क्या न कर लें। अब लेटेस्ट ग़ुस्सा इस बात पर आ रहा है कि हम इस दुनिया में आकर क़लमघिस्सू ही क्यों बने, कबूतरबाज़ क्यों नहीं बन लिए! अगर लेखक बनकर हम काग़ज़ी घोड़े दौड़ा सकते हैं तो क्या सांसद बनकर कबूतरबाज़ी नहीं कर सकते थे? जितनी कठिन विद्या लेखन है, उतनी कठिन विद्या कबूतरबाज़ी थोड़े ही है? जितना रिस्क दूसरों की रचनाएँ चोरी करके अपने नाम से छपवाने में है, उतना रिस्क कबूतरबाज़ी में कहाँ है? कबूतरबाज़ी में तो कोई विरला ही पकड़ा जाता है लेकिन साहित्य में चोरी और सीनाज़ोरी आख़िर कितने दिन चल सकती है? कब तक बकरे की माँ ख़ैर मना सकती है?

वैसा देखा जाए तो सिंपल सांसदगिरी में भी कोई ख़ास स्कोप नहीं है। आप अगर सवाल पूछने के पैसे नहीं लेते, सांसदनिधि में से पैसे नहीं बनाते, कोई गैस एजैंसी या कोई पैट्रोल पम्प नहीं जुगड़वाते, या किसी को दिलवाने के एवज़ में घूस नहीं लेते, विदेशी दौरे पर जाकर वहाँ कोई ’डील‘ नहीं करते तो फिर क्या फ़ायदा ऐसी सांसदगिरी का? ऐसा सांसद बनकर संसद का क़ीमती समय बर्बाद करने से तो बेहतर है कि सरकारी कर्मचारी बनकर लोकल लेवल की राजनीति कर ली जाए। सांसद तो वह होता है जो संसद के वेतन-भत्ते लेने के अलावा कबूतरबाज़ी भी करे। दूसरों की बीवियों को अपनी पत्नी बताकर कभी कनाडा तो कभी टोरटों की उड़ान भर। उड़ते-उड़ते पंख थक जाएँ तो इंडियन वियाग्रा खा ले। फिर दुगने जोश से सरहदें लाँघे।

अब देखो न! जितना पैसा कबूतरबाज़ी में है, उतना संसद में सवाल पूछने का थोड़े ही है। सवाल पूछने के बीस-तीस हज़ार या ज़्यादा से ज़्यादा पचास हज़ार मिल जाते होंगे। इतने पैसों से तो महिला मित्रों के ही ख़र्चे ही पूरे नहीं होते। एक सांसद के और भी छतीस सौ ख़र्चे होते हैं। उन्हें पूरा करने के लिए दिन-रात चिंतन करना पड़ता है...कमाई के नए-नए सोर्स और नए-नए स्कोप तलाशने पड़ते हैं। कबूतरबाज़ी से बढ़िया स्कोप एक सांसद के लिए और क्या हो सकता है? कबूतरबाज़ी में तीस लाख तो एक ही झटके में मिल जाते हैं। हो सकता है कि इससे ज़्यादा भी कमाई भी हो जाती हो? अब हम सांसद नहीं हैं न, इसलिए एक्चुअल रेट बता नहीं सकते। कटारा भाई के हवाले से कह सकते हैं कि तीस लाख से कम तो क्या मिलते होंगे। हो सकता है कि कुछ सांसद इससे ज़्यादा रेट भी वसूलते हों। जनसेवक क्या नहीं कर सकते? कबूतरबाज़ी में वैसे भी इधर का माल उधर ही तो पहुँचाना होता है। माल को इधर-उधर करना वैसे भी कोई मुश्किल काम नहीं है। अगर पुल के निर्माण के लिए आये सरकारी सीमेंट, बजरी, रेता जैसी निर्जीव सामग्री को अपनी कोठी के निर्माण में इस्तेमाल किया जा सकता है तो दूसरों की बीवी जैसी सजीव सामग्री को इधर से उधर क्यों नहीं भेजा जा सकता?

यक़ीन मानिए, हम लेखक न होकर अगर कबूतरबाज़ होते तो हमारी पाँचों उँगलियाँ घी में और सिर कढ़ाई में होता। लक्ष्मी हमारे आगे-पीछे घूमती और हम लक्ष्मी के वाहन में दूसरों को सैर करवाते। पहले हम जनसेवक बनकर इलैक्शन लड़ते, फिर संसद में पहुँचते और फिर डायरैक्टली कबूतरबाज़ी के धंधे में उतर जाते। अपनी लगन, मेहनत, कर्मठता और विल पॉवर के बलबूते कबूतरबाज़ी को हम एक मार्डन उद्योग की शक्ल देते और इस उद्योग में विदेशी पूँजी निवेश को आमंत्रित करते। शुरूआती स्टेज में कबूतरबाज़ी का एक ऑफ़िस खोलकर बाक़ायदा हाई-फ़ाई स्टाफ़ रखते जिसमें एक ख़ूबसूरत स्टैनो, एक ख़ूबसूरत रिसैप्शनिस्ट और एक ख़ूबसूरत फ़ीमेल पीअन होती। कई पात्र लोगों को हम रोज़गार देते। जिनके लिए इंडिया में रोज़गार के अवसर नहीं होते, उन्हें हम कबूतरबाज़ी के ज़रिए सात समंदर पार भेज देते। इससे एक पंथ - दो काज होते। एक तो हम अपने देश से बेरोज़गारी दूर कर देते और दूसरा विदेशी मुद्रा डायरैक्टली हमारी गोद में आ जाती। हम ज़्यादातर सांसदों को अपने इस उद्योग का भागीदार बनाते। सांसद बहुत इज़्ज़तदार प्राणी होता है। हम उसे कबूतरबाज़ बनाकर उसकी व उसकी पार्टी की रैपुटेशन और बढ़ाते। हम सरकार से यह माँग करते कि कबूतरबाज़ी का हक़ सिर्फ़ और सिर्फ़ सांसद को होना चाहिए, दूसरा धंधा करने वालों को कबूतरबाज़ी की क़तई अनुमति नहीं दी जानी चाहिए क्योंकि इससे यह धंधा बदनाम होता है। सांसदों के लिए बाक़ायदा कबतूरबाज़ी के रिफ़्रैशर कोर्स आयोजित करवाए जाते। उन्हें कबतूरबाज़ी की लेटेस्ट तकनीक सिखाई जाती। संसद के सत्र में यही गाना लगातार गूँजता रहता कि ......कबूतर जा...जा ...कबूतर जा...।

लेकिन रोना तो इस बात का है कि हम इस मुल्क में रहते हुए यह भी नहीं जान पाए कि जो सुख कबूतरबाज़ी में है, वह कबूतर उड़ते देखने में कहाँ?

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