(ब)जट : यमला पगला दीवाना
हास्य-व्यंग्य | हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी अमित शर्मा20 Feb 2019
प्रतिवर्ष संसद में आम बजट पेश किया जाता है। इसे आम बजट इसीलिये कहा जाता है क्योंकि ये आम के सीज़न के पहले आता है। बजट पेश करने के पीछे आय-व्यय का वार्षिक लेखा-जोखा रखना तो गौण कारण है; इसके पीछे (सुविधानुसार चाहे तो आगे भी मान सकते है) मुख्य कारण ये है कि बजट पेश करने से जनता में संदेश जाता है कि सरकारें केवल "ऐश और कैश" ही नहीं कर रहीं हैं बल्कि कुछ "पेश" भी कर रहीं हैं। हमारे देश में अभी तक केवल "घाटे का बजट" ही पेश किया जाता रहा है, वो इसीलिए क्योंकि हम भारतीयों की तरह हमारी सरकारें भी अंधविश्वासी होतीं हैं, वो नहीं चाहतीं कि नफ़े या फ़ायदे का बजट पेश करके देश के शत्रुओं/प्रतिद्वंदियों को हमारी अर्थव्यवस्था को नज़र लगाने का मौक़ा मिले। देश के सत्तारूढ़ दलों का शुरू से मानना रहा है कि भले 5 साल पूरे होने के बाद सरकार किसी से नज़र मिलाने के क़ाबिल रहे या ना रहे लेकिन किसी को भी देश और इसकी इकोनॉमी पर नज़र लगाने का मौक़ा नहीं मिलना चाहिए। एक पूर्व वित्तमंत्री ने तो नज़र ना लगे इसके लिए आरबीआई की बिल्डिंग पर "नज़रबट्टू" के रूप में काली हांड़ी लटकाने का भी प्रस्ताव दिया था लेकिन कहीं विपक्ष, सरकार पर देश के "कालेकरण" का आरोप ना लगा दे इसीलिए उनका ये प्रस्ताव प्रधानमंत्री ने ताव खाकर नामंजूर कर दिया था। उल्लेखनीय है कि नज़र लगने के मुद्दे पर ज़्यादातर समय सत्ता में रहने वाले दल का मानना है कि इतने सालों में हमने देश की हालत ऐसी कर दी है कि अब देश को नज़र लगने का ख़तरा नहीं है बल्कि अब तो दूसरे देश चाहें तो नज़र से बचने के लिए हमारे देश के नक़्शे का प्रयोग "नज़रबट्टू" के रूप में कर सकते हैं। हर साल संसद के बाहर मीडियाकर्मियों को "ब्रीफ़" करने के बाद वित्तमंत्री जी "ब्रीफ़केस" की चारदीवारी से बजट को संसद की "चारदीवारी" में लाते हैं और फिर बजट की हर योजना को "ब्रीफ़" में समझाते हैं। बजट पर सत्तापक्ष और विपक्ष की प्रतिक्रियाएँ भी बजट की तरह बजट पेश करने से पूर्व तैयार कर ली जाती हैं ताकि बजट भाषण समाप्त होने के तुरंत बाद "थोक के भाव" में "खुदरा मूल्य" वाली प्रतिक्रियाएँ दी जा सकें और बजट पेश करने के दौरान सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों आराम से सो सकें और वित्तमंत्री को बजट पेश करने में कोई व्यवधान ना आये। अक्सर ये देखा गया है कि बजट भाषण पढ़ते हुए वित्तमंत्री जी घबराहट में इतना पानी पी जाते हैं जितना वो अपने बजट में प्रस्तावित "पानी बचाओ योजना" से बचाने वाले थे। कुछ वित्तमंत्री तो अपने भाषण को सरकार की तरह बोझिल होने से बचाने के लिए कविता और शेरो-शायरी का सहारा लेते हैं। कई लोगों को तो बजट भाषण में केवल कविता/ शेरो-शायरी ही समझ में आती है और वो इसके लिए मन ही मन वित्तमंत्री को धन्यवाद भी देते हैं क्योंकि कविता/ शेरो-शायरी के कारण ही वो पूरा भाषण समझ ना आने की शर्मिंदगी से बच सकें। बजट भाषण समाप्त होने के बाद आम आदमी को ये चिंता रहती है कि उसे आय कर में कितनी छूट मिली और उत्पाद शुल्क /सेवा कर में बदलाव के कारण कौनसी वस्तुएँ महँगी या सस्ती हुई हैं जबकी बजट भाषण सुन कर बाहर निकले सांसदों को ये चिंता सताती है कि उनकी "रटी-रटाई" प्रतिक्रिया सुनने के बाद मीडिया वाले कहीं उनसे बजट भाषण के "कंटेंट" पर कोई सवाल ना पूछ लें। बजट आने के कुछ दिन पहले से ही न्यूज़ चैनल्स अपने स्टूडियो में आर्थिक विशेषज्ञों को बुलाकर, उनसे तरह-तरह के सवाल पूछ कर और डिबेट करवा कर बजट के लिए माहौल बनाना शुरू कर देते हैं। कुछ विशेषज्ञों को सुन कर और देख कर तो ऐसा लगता है की उनके विशेषज्ञ होने की वैलिडिटी,फ़प्रोग्राम पर आने वाले कामर्शियल ब्रेक तक ही होती है और कामर्शियल ब्रेक के दौरान उन्हें छोटा रिचार्ज करके अगले कामर्शियल ब्रेक तक फिर विशेषज्ञ बनाया जाता है। ऐसे विशेषज्ञ "ऑफ द रिकॉर्ड" बातचीत में कहते हैं कि इसमें कुछ भी ग़लत नहीं है क्योंकि उनको आर्थिक मामलों की उतनी ही जानकारी होती है जितनी कि उनसे सवाल पूछने वाले न्यूज़ एंकर्स को पत्रकारिता की। इसलिए हिसाब "फिट्टूश" हो जाता है,मतलब बराबर हो जाता है। बजट पर आम जनमानस की प्रतिक्रियाएँ भी देखने लायक़ होती हैं (सुनने लायक़ नहीं)। जिन लोगों को मोहल्ले का बनिया 100 ग्राम शक्कर भी उधार नहीं देता वो भी सरकार को वर्ल्डबैंक से उधार लेकर अधूरी परियोजनाएँ पूरी करने की सलाह देते हैं। सब्ज़ी के साथ मुफ़्त का धनिया और कढ़ीपत्ता लेने के लिए सब्जी वाले से झगड़ने वाले लोग बजट में नए प्रोजेक्ट्स के लिए सब्सिडी दिए जाने पर सरकार की यह कह कर आलोचना करते हैं कि इससे सरकारी ख़ज़ाने पर बोझ पड़ेगा। जिन लोगों का कहना घर पर उनके बीवी बच्चे भी नहीं मानते हैं वो लोग भी बजट में अपनी माँगे पूरी ना होने पर सरकार को अगले चुनाव में देख लेने की धमकी देते हैं। जो व्यस्त लोग सड़क और चौराहों पर, सड़कछाप मीडिया को बजट पर अपनी प्रतिक्रिया नहीं दे पाते वो अपनी ए.सी. कार में "आईफोन सिक्स -एस" से ट्वीट और पोस्ट करके बताते हैं कि बजट ग़रीब और किसान विरोधी है और इससे आम आदमी पर महँगाई की मार पड़ेगी। |
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
60 साल का नौजवान
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी | समीक्षा तैलंगरामावतर और मैं लगभग एक ही उम्र के थे। मैंने…
बेशर्म इंसान . . . सर्वश्रेष्ठ कृति
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी | अनीता श्रीवास्तवदेखिए, अब तक आपने इस पर ठीक से चिंतन…
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
- (ब)जट : यमला पगला दीवाना
- अंक के लगाकर पंख, डिग्री मारे डंक
- अगले जन्म मोहे “सामान्य” ना कीजो
- अथ श्री आलोचक कथा
- आलसस्य परम सुखम्
- आहत होने की चाहत
- ईमानदार राजनीति पर भारी बेईमान मौसम
- प्रौढ़ शिक्षा केंद्र और राजनीति के अखाड़े
- लांच से ज़्यादा लंच में रुचि
- सोशल मीडिया के रास्ते प्रसिद्धि के वैकल्पिक सोपान
- हिंदीभाषी होने का दर्द
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं