हिंदीभाषी होने का दर्द
हास्य-व्यंग्य | हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी अमित शर्मा15 Jul 2019
भाषा वैसे तो संवाद का माध्यम मात्र है लेकिन हम चीज़ों को मल्टीपरपज़ बनाने में यक़ीन रखते हैं इसलिए हमारे देश में भाषा, संवाद के साथ-साथ वाद-विवाद और स्टेटस सिंबल का भी माध्यम बन चुकी है। हमें बचपन में बताया गया कि हिंदी और अन्य क्षेत्रीय भाषाएँ आपस में बहनें हैं; लेकिन सयाने होने पर इनका झगड़ा देखकर हमें पता चला कि इनका रिश्ता आपस में बहन का नहीं है बल्कि देवरानी-जेठानी सा है। दाल इतनी महँगी होने के बावजूद हम अभी भी घर की मुर्गी को दाल बराबर ही मानते हैं इसलिए भले ही इंग्लिश अच्छे से ना आती हो लेकिन हिंदी बोलने और लिखने में हमें शर्म ज़रूर आती है। निर्बल का बल भले ही राम को माना जाता है लेकिन “स्टेटस सिंबल” का बल इंग्लिश को ही मनवाया गया है। इंग्लिश को जिस तरह से स्टेटस सिंबल से जोड़ा गया है उसे देखकर लगता है कि इसके लिए ज़रूर एम सील और फेवीक्विक के सयुंक्त उद्यम द्वारा उत्पादित माल का इस्तेमाल किया गया होगा। इंग्लिश और स्टेटस सिंबल का जो ये “मेल-जोल” है उसमे बहुत “झोल” है लेकिन फिर भी ये आपस में इतने मिले हुए हैं कि इन्हें अलग करना उतना ही मुश्किल है जितना की राहुल गाँधी में नेतृत्व क्षमता ढूँढ़ना।
भले ही आपने अभी तक लाइफ़ में कुछ ना उखाड़ा हो लेकिन इंग्लिश बोल और लिख सकने की कल्पना मात्र से आदमी अपने आप अपनी जड़ों से उखड़ने लगता है क्योंकि इंग्लिश आने के बाद कपितय सामाजिक कारणों से इंसान का ज़मीन से दो इंच ऊपर चलना ज़रूरी माना जाता है। डॉन का इंतज़ार तो भले ही 11 मुल्कों की पुलिस करती हो लेकिन एक “सोफिस्टिकेटेड- समाज” में बेइज़्ज़ती, हमेशा इंग्लिश ना जानने वालों का इंतज़ार करती है।
हिंदी कहने के लिए (बोलने के लिए नहीं) भले ही हमारी राजभाषा हो लेकिन उसकी हालत हमने राष्ट्रीय खेल हॉकी जैसी करने में कोई क़सर बाक़ी नहीं रखी है। हम स्वाभिमानी और आत्मनिर्भर लोग हैं इसलिए हमें मंजूर नहीं कि हमारे होते हुए कोई बाहरी व्यक्ति या शक्ति हमारी राष्ट्रीय गौरव से जुड़ी चीज़ों को नुक़सान पहुँचाए। मतलब जिन चीज़ों पर राष्ट्रीय होने का तमगा लग जाता है, उनकी हालत हम ऐसी कर देते हैं कि उन्हें ख़ुद अपने राष्ट्रीय होने पर शर्म आने लगे। हम अहिंसा के अनुयायी हैं इसीलिए किसी को नुकसान पहुँचाने के लिए हिंसक नहीं होते, बस केवल उसे अपनी नज़रों में गिरा देते हैं। हम समता और सद्भाव के वाहक हैं, राष्ट्र की सीमाओं पर घुसपैठ रोकना, अतिथी देवो भव: की हमारी कालजयी अवधारणा के ख़िलाफ़ है इसलिए “यूनिफोर्मिटी” बनाए रखने के लिए हमने अपनी राष्ट्रीय भाषा में भी दूसरी भाषा के शब्दों की घुसपैठ को बढ़ावा दिया है ताकि ये संदेश दिया जा सके कि हम अपनी नीतियों को कन्सिसटेंसी से लागू करते हैं। “यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड” का विरोध करने वाले लोग इसी “यूनिफ़ोर्मिटी” का हवाला देते हुए तर्क देते हैं कि हम तो पहले से ही “यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड” का पालन कर रहे हैं।
तमाम क़ाबिलियत के बावजूद हिंदी मीडियम वाले और इंग्लिश ना बोल पाने वालों को हेय दृष्टि से देखा जाता है जो HD से भी ज़्यादा क्लियरिटी वाली होती है। बिना इंग्लिश जाने हिंदी मीडियम वालों की सारी योग्यताएँ ऊँट के मुँह के जीरे के समान होती हैं लेकिन इंग्लिश का ज्ञान मिलते ही वही सारी योग्यताएँ “जलजीरे” जैसी राहत देती हैं। आजकल हिंदी मीडियम के छात्रों को इंग्लिश की जानकारी अपनी “बुक” से कम और “फ़ेसबुक” से ज़्यादा मिलती है जहाँ वो अपने फ़्रेंडस की फोटो पर दूसरों के कमेंट्स देख-देख कर “नाईस पिक” तो लिखना सीख ही जाते हैं हालाँकि उसका मतलब उन्हें तब भी पता नहीं होता है। बुक्स से दूर रहकर भी ये स्टूडेंट्स फ़ेसबुक पर “गुड मॉर्निंग”, “गुड आफ़्टरनून”, “गुड इवनिंग” और “गुड नाईट” लिखना सीख जाते हैं और चूँकि फ़ेसबुक पर कॉपी-पेस्ट की सुविधा भी होती है इसलिए “स्पेलिंग मिस्टेक” जैसी कोई दुर्घटना होने की संभावना भी कम ही रहती है। लेकिन समस्या तब आती हैं जब चैट करनी हो या किसी के कमेंट का जवाब देना होता है, क्योंकि उस समय बड़ा कन्फ्यूजन हो जाता है कि किसी के “हैप्पी बर्थडे” या “आई लव यू” का जवाब “सेम टू यू” से देना है या फिर “थैंक यू” से, और उसी समय किसी भी संभावित बेइज़्ज़ती के ख़तरे को भाँप लेते हुए हिंदी मीडियम के स्टूडेंट्स लोग आउट करके पतली गली से निकल लेते हैं ताकि सामने वाला भी उन्हीं की तरह भ्रम में जीये। हिंदी मीडियम वाले भले ही “फॉरवर्ड” ना माने जाते हो लेकिन तकनीकी विकास की मदद से कोई भी इंग्लिश वाला मैसेज आगे “फ़ॉरवर्ड” करके “सोफिस्टिकेटेड- समाज” के निर्माण में अपना योगदान तो दे ही रहे हैं
स्कूल कॉलेज तक तो हिंदी मीडियम वालों का काम ठीक वैसे ही चल जाता है जैसे ख़राब तकनीक वाले बल्लेबाज़ का काम भारतीय पिचों पर चलता है; लेकिन असली समस्या तब शुरू होती है जब उच्च शिक्षा के लिए इन्हें इंग्लिश से दो-दो हाथ करने के लिए चार पैर वाले पशु की तरह मेहनत करनी पड़ती है। मतलब देश की व्यवस्था ऐसी है कि शिशु अवस्था में चुनी हुई हिंदी आपको व्यस्क होने पर पशुता की तरफ़ धकेल देती है। हिंदी मीडियम वाले किसी छात्र को जब पता लगता है कि कोई कोर्स केवल इंग्लिश में ही कर पाना संभव है तो उसे इंग्लिश लैंग्वेज चुनौती और हिंदी भाषा पनौती लगने लगती है। अगर कोई ग़लती से या उत्साह से, ये पूछ भी ले कि हिंदी राजभाषा वाले देश में इंग्लिश की अनिवार्यता क्यों रखी जाती है तो उसका मुँह, मेन्टोस देकर, “दुबारा मत पूछना” स्टाइल में बंद कर दिया जाता है।
इंग्लिश ना आने के कारण कुछ लोग हीन भावना के शिकार हो जाते हैं और कुछ लोग 7 दिन में इंग्लिश सीखें जैसे कोर्सेज़ के। कुछ लोग अपनी कमज़ोरी को अपना हथियार बना लेते हैं और ऐसी इंग्लिश बोलने और लिखने लगते हैं मानो अँग्रेज़ों से 200 साल की गुलामी का बदला उनकी भाषा से सूद समेत लेंगे। बड़े बुज़ुर्ग कह कर गए हैं, “जहाँ इज़्ज़त ना हो वहाँ इंसान को नहीं जाना चाहिए”, इसलिए हिंदी मीडियम वाले हॉलीवुड की इंग्लिश फ़िल्में देखने नहीं जाते हैं और वैसे भी “सयाने लोगों” ने सही कहाँ है कि, “अपनी सुरक्षा इंसान को स्वयं करनी चाहिए” और इसके लिए, क्रिकेट में ऑफ़ स्टंप से बाहर जाती गेंदों से और जीवन में औक़ात से बाहर जाती चीज़ों से छेड़खानी नहीं करनी चाहिए।
ऐसा नहीं है कि हिंदी की दशा और दिशा सुधारने के लिए कोई क़दम नहीं उठाये जा रहे (हालाँकि कई भाषायी विद्वानों का मानना है कि अब समय आ गया है कि हिंदी की दशा सुधारने के लिए क़दम के साथ-साथ “हाथ” भी उठाया जाए)। ये हमारी दूरदर्शिता का ही परिणाम है कि हम हिंदी की स्थिति सुधारने के लिए बरसों पहले से ही हिंदी दिवस से हिंदी सप्ताह और हिंदी पखवाड़ा मनाते आ रहे हैं। चिंता, चिता समान है इसलिए हिंदी सप्ताह और पखवाड़े के दौरान जानकारों द्वारा हिंदी की दशा पर व्यक्त की गई चिंता को बैठकों के दौरान बिस्कुट और भुजिया के पैकेट्स पर फूँके गए हज़ारों रुपये की अग्नि में स्वाहा कर दिया जाता है। लेकिन फिर भी विद्वानों द्वारा इतनी अधिक मात्रा में चिंता व्यक्त कर दी जाती है कि इसके “रेडियो एक्टिव” प्रभाव से बचने के लिए और चिंता को ओवरफ़्लो होने से बचाने के लिए उसे हिंदी सप्ताह /पखवाड़े के “मिनिट्स” बनाकर फ़ाइलों में दबाकर अलमारियों में रख दिया जाता है और फिर अगले साल तक हिंदी चिंतामुक्त हो जाती है।
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