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खुल गई, खुल गई, आपकी अपनी दुकान!

कुछ दिन पहले फ़ेसबुक पर एक चलता-फिरता सर्वे किया था। दुकान खोलने की इच्छा ज़ाहिर की थी और दोस्तों से दरख़्वास्त की थी कि अपने सुझाव देकर रास्ता दिखायें। पर वही हुआ जिसकी उम्मीद थी। जिसके हिस्से मे ऐसे दोस्त आये हों उसे दुश्मनों की क्या जरूरत। ज़रा धैर्य रखिये, ख़ुलासा भी कर दूँगा। एक ही गुज़ारिश है, इसे मज़ाक़ ही समझें और सीरियसली न लें। हम लोग हँसना भूल गये हैं। पार्कों मे लाफ़्टर क्लब इसके सबूत हैं। ज़बरदस्ती हँसना और
हँसाना पड़ रहा है। 

हाँ तो मैं दुकान खोलना चाहता था। भारतीय नागरिक होने के कारण मेरा हक़ है कि मैं दुकान क्या, कुछ भी खोल सकता हूँ। ७० साल की आज़ादी में इतना भी न कर पाये तो क्या फ़ायदा आज़ादी का? आज़ादी का मतलब मे कम से कम रोटी-रोज़ी कमाने की आज़ादी तो होनी ही चाहिये। साफ़ कर दूँ, कुछ भी खोलने में कपड़े खोलना नहीं है। जाने क्यों लोग हर बात का ग़लत मतलब निकाल लेते हैं। मेरा मतलब है दुकान, स्कूल, हस्पताल, फ़ैक्टरी, रेस्टोरेंट, होटल आदि आदि। इनमें भी कई टाईप हैं। वैसे स्कूल, हस्पताल भी एक प्रकार से दुकान ही हैं, बस नाम का फ़र्क़ है। ज़्यादा महत्वाकांक्षी नहईं हूँ इसलिये एक छोटी सी दुकान का ही सपना है, चलते, करते बड़ी हो जायेगी। 

एक दोस्त ने कहा चाय की दुकान खोल लो, प्रधान मंत्री बन सकता हूँ। ज़ाहिर है मेरी कम और अपने फ़ायदे की ज़्यादा सोच रहा होगा कि मैं प्रधान मंत्री बन गया तो उसकी पाँचो उँगली घी में। सब तो कठोर दिल नहीं होते। मासूम सा दिल है पिघल जायेगा। उसका तो कुछ नहीं होगा, मेरा नया-नया राजनैतिक कैरियर ख़त्म हो जायेगा। सर मुँड़ाते ही ओले।

अंदर जाने की नौबत भी आ सकती है, जो भारत के इतिहास मे पहली बार होगा। 

दूसरे दो मित्रों ने दारू की दुकान खोलने की सलाह दी। जानते हैं चल तो ज़रूर जायेगी पर घाटे में ही रहेगी। दिनभर आकर ख़ुद भी फोकट की पियेंगे और मुझे भी साथ में लपेट लेंगे। घाटा पूरा करने के लिये नक़ली दारू बिकवायेंगे। उनका भी कुछ नहीं होगा, मैं ज़रूर अंदर हो जाऊँगा। 

एक और मित्र ने सरकारी राशन की दुकान खोलने की सलाह दी। पहले तो बिना सोर्स या घूँस दिये सरकारी राशन की दुकान खुलती नहीं है और दूसरे बिना हेर-फेर के चलती नहीं है। यहाँ भी वो तो पतली गली से निकल जायेंगे और मैं अंदर। जिन मित्रों ने होलसेल की और पेट्रोल पंप खोलने की सलाह दी, उनको भी पता है कि वहाँ भी अंदर जाने का ख़तरा है। बिना मिलावट या नक़ली सामान बेचे इस तरह के व्यापार कहीं होते हैं क्या? 

कंसलटैंसी की दुकान खोलने की भी सलाह मिली। मामला कुछ जमता पर देखा गली-गली में सलाहकार बैठे हैं। कई तो फ़ेसबुक पर ही क़ब्ज़ा किये बैठे हैं। ह्वाट्सअप, लिंक्डइन, यूट्यूब अलग। मोबाइल सामने रखो, हो जाओ शुरू व्याख्यान देने। विडियो लाद दो। लगा यहाँ भी दाल नहीं गलेगी। कमाई तो कुछ होगी नहीं, घर से ही जायेगा। दोस्त चाहते भी यही हैं। 

नेता बनाने वाली स्कूल खोलने की भी सलाह मिली। राजनैतिक नेता नहीं, दूसरे टाइप के जो व्यापारिक संगठनों में या अन्य संगठनों में काम करते हैं ।  शायद मित्र यह जताना चाहते थे कि जितने भी असफल लीडर हुये हैं रिटायरमेंट के बाद या तो सलाहकार बन गये या नये लीडर तैयार करने में लग गये। शायद कहना चाह रहे थे कि मैंने कौन से तीर मार लिये थे जो मेरे चेले मार लेंगे। बाद में कहते हमको तो पहले से ही पता था कि चलेगी नहीं। क्यों रही-सही इज़्ज़त भी ख़तरे मे डाली जाय, सोचकर चुप मार गया। 

एक मित्र ने भविष्यवक्ता की दुकान खोलने को कहा। शायद उनका मतलब बाबा बंगाली टाइप की दुकान से था। आजकल बाबा कहलाना कितना महँगा पड़ सकता है, रामपाल, राम रहीम और आसाराम से पूछकर देख लेते। न जाने क्यों सब मुझे अंदर करने की साज़िश में लगे हैं। 

एक और हितैषी हैं। गाँव में चाउमिन और जलेबी की दुकान खोलने को बोल रहे हैं। कहते हैं ख़ूब चलेगी। महिलाओं को बहुत पसंद है। पसंद तो ज़रूर होगी, फिर उधार माँगेंगी, उधार न चुकाने के पच्चीस बहाने बनायेंगी। कुछ सख़्ती करूँगा तो कुछ भी इल्ज़ाम लगा देंगी। अंदर जाने का पूरा इंतज़ाम। ना रे बाबा, मेरे बस का नहीं है। 

अब तक तो आपको पता चल ही गया होगा कि क्यों मेरे पास दुश्मनों की कमी नहीं है। इतने सारे दोस्तों के रहते, दुश्मनों की ज़रूरत है? कुछ दोस्त भले ही मेरा भला चाहते हों पर उससे क्या होगा। ऊपर-नीचे हुआ तो भुगतना तो मुझे ही पड़ेगा। ज़मानत देने भी नहीं आयेंगे, आयेंगे क्या दिखेंगे भी नहीं। 

एक मित्र ने कहा है कि क्योंकि मैं अच्छा लिखता हूँ तो किताब छपवाऊँ। छपवा तो लूँ, अपने ही ख़र्चे पर सही पर, ख़रीदेगा कौन? या तो पहले किताब छपाने के लिये किसी राजनेता की चरण वंदना करूँ ताकि सरकार से कुछ अनुदान मिल जाय और फिर किसी और नेता की उँगली पकड़ूँ कि आकर उसका अनावरण करें! यह सब करने के बाद भी न बिके तो लोगों को पकड़-पकड़ कर मुफ़्त में किताब बाँटता फिरूँ! जिनको पढ़ना है फ़ेसबुक पर पढ़ लेंगे। हींग 
लगे ना फिटकरी, रंग चोखा आये तो ठीक न भी आये तो पल्ले से तो कुछ नहीं गया! 

पर जो एक बार ठान लेता हूँ फिर तो मैं किसी की नहीं सुनता। सलमान खान के डायलाग की नक़ल नहीं कर रहा हूँ। दुकान खोलनी है सो खोल दी। वायदों की दुकान। मेरा वायदा है कि जो मेरी बात पर विश्वास करेगा उसके अच्छे दिन ज़रूर आयेंगे। इस दुकान से आपकी सारी ख़्वाहिशें पूरी होंगी। कोई ख़ाली हाथ वापस नहीं भेजा जायेगा। रोटी, कपड़ा, मकान से लेकर हर बात का वादा है। आपको बस इंतज़ार करना है। अब तक भी तो किया है। अब तक किसी भी वादाखोर को जेल जाते नहीं देखा। बहुत सुरक्षित धंधा है। सबसे बड़ी बात एक ही वादे को कई तरह की पैकिंग में पेश किया जा सकता है। साथ ही पुराने वादों को भी नये नाम से रिसाइक्लिंग किया जा सकता है। 

आइयेगा जरूर! आपकी अपनी दुकान है, मोल-भाव करके हमें लज्जित मत करना प्लीज़। 
 

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