अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

लाल बट्टे कक्का – 1

(लाल बट्टे कक्का– यह गणित का वह क्षेत्रीय सूत्र है जो अक़्सर देहाती क्षेत्रों में बच्चों को त्रिकोणमिति वाली प्रश्नावली को हल करने के प्रयोग में लिया जाता है।)

1.

"अब मैं हमारे विद्यालय के सबसे होशियार विद्यार्थी अंकुर को बुलाना चाहूँगा।" माईक पर प्रधानाध्यापक की आवाज़ सुनते ही अंकुर की आँखें चमक गईं। तालियों की होती करतल ध्वनि, अध्यापकों के मुस्कुराते चेहरे देखकर वह फूले नहीं समा रहा था। क़तारों के मध्य से वह आगे बढ़ा। उसके सामने रंग-बिरंगी धारियों वाले पर्दों से सजा मंच था। जहाँ उसके विद्यालय के अध्यापकों सहित सभी गणमान्य लोग उपस्थित थे। वह अपना पुरस्कार लेने के लिए चढ़ा। उसने पीछे मुड़कर देखा तो हज़ारों की संख्या में लोग उसके लिए तालियाँ बजा रहे थे। उसके माता-पिता के चेहरे खिले हुए थे। उसे अपने आप पर गर्व महसूस हो रहा था।

"शाबाश! अंकुर तुमने हमारे स्कूल का नाम कर दिया। मैं तुम्हें विद्यालय कोष से एक साईकिल व इक्कीस सौ रुपये भेंट करता हूँ। आगे आओ बच्चे।" प्रधानाध्यापक माईक पर घोषणा करके अंकुर की तरफ़ बढ़े। उन्होंने उसकी पीठ थपथपाई। उन्होंने उसे साईकिल और इक्कीस सौ रुपये का चेक भेंट किया। उसने पुरस्कार को गर्व से स्वीकार किया और मंच से नीचे उतर गया। 

"आपने यह कैसे किया?"

"बस ऐसे ही लगातार घंटों पढ़ता रहता था।"

"कितने घंटे पढ़ाई की आपने?"

"बहुत पढ़ता था। बहुत . . .  घंटों।" 

"आपने किस विषय में सर्वाधिक अंक अर्जित किए?"

"गणित में।" 

"कितने?"

"सौ में से सौ।" 

"वाह! क्या बात है। आप तो बहुत होशियार हो," एक टी.वी. चैनल का मुख्य संवाददाता अंकुर की पीठ थपथपाते हुए कहता है,"आप अपनी उम्र के बच्चों को क्या संदेश देना चाहेंगे?"

"बस यही कि ख़ूब मेहनत करते रहो। घंटों पढ़ाई करो। जो विषय आपका सबसे कमज़ोर है। उसमे अच्छे अंक अर्जित करने के लिए रात-दिन एक कर दो। आपको सफलता अवश्य मिलेगी।" वह अपनी सफलता के बारे में विस्तार से बोल रहा था। उसके चेहरे पर ग़ज़ब की मुस्कुराहट थी। 

"अरे! अंधा है क्या? देख के नहीं चल सकता क्या? अभी तो गाड़ी के नीचे आ जाता," एक गाड़ी वाला उसे डाँटता है। वह अपने आप को सँभालता है। उसका चेहरा उतर जाता है।"माफ़ी चाहता हूँ अंकल," वह धीमे से बुदबुदाया और आगे बढ़ गया। 

वह अंधकार रूपी गहरे समंदर में डूब रहा था। लेकिन शायद ऐसा कोई नहीं था जो उसकी बाँह पकड़कर उसे निकाले। वह अकेला ही लड़ रहा था। अपनी पहचान से। या यूँ कह लो कि उसे भी नहीं पता था कि वह किस दलदल में फँसता जा रहा था। घने कोहरे से उसके जूते पर जमी ओस की बूँदें ठंड के चरम सीमा पर होने की परिचायक थीं। सर्दी के मारे उसके दाँत किट-किट की ध्वनि कर रहे थे। सूरज निकलने की आस में वह आसमान की तरफ़ देखता है। किंतु अपने सिर के ऊपर फैली धुँध की सफ़ेद चादर को देखकर वह निराश हो जाता है। उसने जल्दी-जल्दी कुछ क़दम बढ़ाए। उसके क़दम जैसे-जैसे पाठशाला की ओर बढ़ रहे थे, उसके होठों पर उदासी झलकने लगी। यह उदासी कड़कड़ाती ठंड में स्कूल जाने की मजबूरी की वजह से थी या विद्यालय में उसके साथ कुछ ग़लत हो रहा था। यह जानने की शायद किसी को नहीं पड़ी थी। यहाँ तक कि उसकी माँ को भी नहीं। वह उसे विद्यालय के लिए जल्दी ही तैयार कर देती और उसके बाद टिफ़िन में उसके लिए खाना डाल देती। हालाँकि गेहूँ की पतली-पतली दो चपातियाँ भी जब घर वापस आ जातीं, तब भी उसकी माँ का ध्यान उसकी कमज़ोर स्थिति पर नहीं गया। वह वैसे भी बहुत कम बोला करता था किंतु ऊपर से उसका व्यवहार दिन-ब-दिन अजीब ही होता जा रहा था। अभी चौदह बरस का ही तो हुआ था वह। लेकिन लड़कपन की नैसर्गिक मुस्कुराहट ने उसका साथ छोड़ दिया था और उसका स्थान चिरकाल तक स्थायी रहने वाली मायूसी ने ले लिया। वह हमेशा से ही अपनी कक्षा का सबसे कमज़ोर विद्यार्थी रहा था। आठवीं तक वह गिरते पड़ते सफल हुआ था। किंतु नवमी में आते-आते उसकी परेशानियाँ ओर भी बढ़ गईं। इन परेशानियों की वजह उसकी ख़ुद की लापरवाही थी या फिर वह पहलू जिसकी तरफ़ शायद कोई ध्यान ही नहीं देना चाहता था। वह अपनी ही दुनिया में खोया हुआ जब विद्यालय के मुख्य दरवाज़े पर पहुँचा तो उसके दिल को बैठा देने वाली विद्यालय की घंटी बजती है। विद्यालय उसके लिए क़ैदख़ाने से कम नहीं था। वह गाँव के माध्यमिक स्तर के एक सरकारी विद्यालय में पढ़ता था। वर्षों से रंगाई-पुताई व मरम्मत न होने के कारण विद्यालय भवन जर्जर हो चुका था। भवन के कमरा नंबर पन्द्रह की स्थति तो ओर भी ज़्यादा ख़राब थी। जिसमें नवमी कक्षा बैठती थीं। कक्षा कक्ष की खिड़कियों के टूटा होने के कारण उत्तरी हवाओं के थपेड़े सभी बच्चे महसूस कर रहे थे। श्यामपट्ट की हालत को देखकर ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे उस पर बरसों से काला रंग नहीं हुआ था। वह खिड़की के पास वाली जगह जाकर बैठ गया। सभी बच्चे  गणित की पुस्तक निकालते हैं। कुछ ही देर में तरबूज की भाँति गोल मटोल चार इंच बाहर आए हुए पेट वाला अध्यापक उपस्थिति रजिस्टर के साथ कक्षा कक्ष में प्रवेश करता है। 

"गुड मॉर्निंग सर।" सभी विद्यार्थियों ने औपचारिकता पूर्ण की।

"बैठ जाओ।" गणित के अध्यापक ने सभी बच्चों को बैठ जाने का आदेश दिया। अध्यापक हरिदयाल सिंह बहुत खड़ूस थे। बच्चों की बेरहमी से पिटाई करने के लिए पूरे स्कूल में जाने जाते थे। अगर बच्चे किसी अध्यापक से सर्वाधिक डरते थे तो वह कोई और नहीं बल्कि हरदयाल सिंह जी ही थे। सभी बच्चे उन्हें मास्टर जी ही बोलते थे। वे एक चाक उठाकर श्यामपट्ट पर एक समकोण त्रिभुज बनाते हैं। त्रिभुज को पूर्ण बनाते ही वे पीछे की तरफ़ देखते हैं। उसका ध्यान कक्षा कक्ष की खिड़की से बाहर फुदकती गौरैयाओं पर था। वह उन्हें एकटक देख रहा था। मास्टरजी की नज़र जैसे ही उस पर पड़ती है उनकी त्यौरियाँ चढ़ जाती हैं।

"तेरा ध्यान कहाँ है, अंकुर?"

"स . . . सर जी . . . "

"क्या सर जी . . .  सर जी कर रहे हो? चल आगे आ और इस सवाल को कर," मास्टरजी की भारी आवाज़ से वह काँप जाता है। वह डरते हुए अपनी जगह से खड़ा होकर श्यामपट्ट की तरफ़ बढ़ता है। कक्षा कक्ष में पूर्ण निर्वरता छाई हुई थी। 

"यह जो सामने त्रिभुज है। उसका आधार, लम्ब और कर्ण रेखा क्रमशः 3 सेमी. 4 सेमी. व 6 सेमी. है। तो साइन थीटा का मान ज्ञात करो," मास्टर जी ने अंकुर को चाक पकड़ाते हुए कहा। उसके डर के मारे हाथ पाँव फूल गए। वह काँपते हुए श्यामपट्ट की तरफ़ देखता है। तीनों कोणों पर लिखी संख्याएँ उसका उपहास उड़ा रही थीं। उसे कुछ भी समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करे।

"क्या हुआ . . .  नहीं आ रहा है ना?" मास्टरजी के सवाल का अंकुर जवाब नहीं दे पाता है। वह पत्थर की भाँति बिना हिले-डुले खड़ा था।"मैं क्या पूछ रहा हूँ। यह सवाल आता है या नहीं तुम्हें?"

"नहीं, सर।"

"क्या कहा? नहीं आता। रुक मैं बताता हूँ तुम्हें। ऐ! मुकेश जा डंडा लेकर आ," मास्टरजी आग बबूला हो जाते हैं। अंकुर डर के मारे थरथर काँपने लगता है। 

"स . . .  सर . . .  कल तैयार करके आउँगा।

"तू चुप कर। बिल्कुल चुप।" 

"आsss" मास्टर जी ने जैसे ही अंकुर की पिंडलियों पर डंडे से मारा। वह चीख़ पड़ा। 

"तू ऐसे नहीं पढ़ेगा। रुक तू . . ."

"छोड़ दीजिए मास्टरजी . . ."

मास्टरजी ने लगातार कुछ और डंडे उसकी पिंडलियों पर मारे। जिससे वह चीख़ पड़ा। उसने मास्टरजी से उसे बख़्शने की गुहार लगाई लेकिन वे उसे पीटते रहे। कुछ ही देर में पहले कालाँश के ख़त्म होने की घंटी बजी। मास्टरजी डंडे को फेंक कर बाहर चले गए। अंकुर ने जैसे-तैसे करके अपने आप को सँभाला और अपनी जगह पर जाकर बैठ गया उसके मुँह से सिसकियाँ निकल रही थीं। उसके हाथ और पिंडलियाँ दर्द के मारे कराह रही थीं। वह अपनी पुस्तक खोलकर बैठ जाता है। हालाँकि उसके समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था। शाम तक वह ऐसे ही बैठा रहा। अक़्सर ऐसा ही तो करता था वह। दिन भर अपनी जगह से खड़ा होकर बाहर जाने की हिम्मत उसमें नहीं थी।

2.

हर मोड़ पर जगह-जगह गंदगी से अटी पड़ी गलियाँ। घरों की छतों पर लगे टीनशेड और सड़क पर बने एक-एक हाथ के गहरे गड्ढे उस बस्ती की पहचान थी।  इसी गंदी बस्ती की सड़क पर कमल के फूल की भाँति गुलाबी साँचे में ढले होंठों पर मुस्कुराहट लिए एक चौबीस वर्षीय युवती अपने घर की तरफ़ जा रही थी। आँखों पर स्टील की फ्रेम वाला चश्मा और कंधे पर डाला हुआ गुलाबी रंग का दुपट्टा उस पर जँच रहा था। अपने घुँघराले बालों को हवा के झोंके से बिखरने से बचाने के लिए उसने उन्हें काले रबड़ बैंड से बाँध रखा था।"यह साइन-कॉस क्या है? मेरे तो कुछ भी समझ नहीं आ रहा है।" एक घर के बाहर चारपाई पर बैठे लड़के ने झल्लाते हुए अपनी गणित की पुस्तक को फेंका। 

"अरे, क्या हुआ रॉकस्टार? सवाल समझ नहीं आ रहा है क्या?" उस युवती की उस लड़के पर नज़र पड़ते ही वह पूछती है। 

"हाँ! पाखी दी। यह त्रिकोणमिति वाली प्रश्नावली मेरे तो पल्ले ही नहीं पड़ रही है," एक पन्द्रह वर्षीय लड़का जब पहली बार त्रिकोणमिति वाली प्रश्नावली हल करने का प्रयास करता है तो अक़्सर उसके चेहरे पर यही मनोभाव होतें हैं। पाखी उसकी तरफ़ मुस्कुराती है।"अच्छा, अगर एक अदरक वाली चाय मुझे पिला देगा तो मैं अभी तुम्हें यह प्रश्नावली बता दूँगी।"

"सच दी! पर चाय तो . . ."

"पर क्या? चाय पिला देगा तो बता दूँगी वरना नहीं।"

"दी! आपकी चाय सच में जान ले लेगी मेरी। पहले आपको चाय पिलाओ और फिर बर्तन घिसो। मुझसे न होगा।"

"देखो, अगर प्रश्नावली समझनी है तो चाय तो पिलानी ही पड़ेगी।"

"अच्छा, ठीक है। बनाता हूँ।" वह चाय बनाने के लिए घर के अंदर जाता है। घर के बाहर घरेलू सामान बिखरा पड़ा था। रसोई घर के मुख्य दरवाज़े के पास में पानी का एक घड़ा रखा हुआ था। पाखी खड़ी होकर एक गिलास पानी पीती है।

"ये लो दी आपकी चाय। अब तो बता दो।"

"अरे, वाह। मेरे रॉकस्टार,"पाखी ने मुस्कुराते हुए उसकी पीठ थपथपाई और चाय की चुस्की ली।

"अच्छा, त्रिकोणमिति को हल करने के लिए लाल बट्टे कक्का सूत्र का प्रयोग किया जाता है। यह इसका आसान तरीक़ा है। इस सूत्र से सभी के मान आसानी से याद रह जाते हैं। समझे?"


"हाँ! दी . . . "

"अच्छा अब आगे बताती हूँ,"पाखी उसे सवाल समझाने लगी। उसे बताते हुए यह आभास ही नहीं हुआ कि कब शाम हो गई और अँधेरा छा गया।

"अरे, पाखी सात बज गए। तू घर नहीं गई अब तक," चिंटू की माँ ने पाखी को सचेत किया।

"ओ तेरी! मुझे तो घर जाना है। मैं तो भूल ही गई। चल बाक़ी की प्रश्नावली कल बताऊँगी चिंटू। मैं चलती हूँ।"

"ओके, दी।"

पाखी ने तुरंत अपनी सैंडल पहनी और दौड़ते हुए चिंटू के घर से बाहर निकल गई। वह जल्दी-जल्दी अपने घर की तरफ़ बढ़ने लगी। उसकी चाल में एक युवती की शालीनता की जगह चंचलता और जल्दबाज़ी नज़र आ रही थी। यही चंचलता ही तो थी जिस कारण पूरी बस्ती के बच्चे उसे पसंद करते थे। अपने नाम के अनुरूप ही वह पंछी की तरह कभी एक जगह नहीं टिकती थी। वह कभी इस घर तो कभी उस घर। जहाँ उसे प्यार और स्नेह मिलता वह वहीं की होकर रह जाती। लेकिन उसके इस व्यवहार के चलते उसकी माँ उसे हमेशा टोकती रहती। कारण साफ़ था, आख़िर जब जवान बेटी शाम के सात बजे तक भी घर नहीं आए तो चिंता होना तो लाज़िमी ही था। लेकिन पाखी को उनकी डाँट का कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता था।

"अब आई है, साहबज़ादी। शाम के सात बजने को हैं। माँ को तेरी फ़िक्र हो रही है या नहीं इस बात का बिल्कुल भी ख़याल नहीं है तुम्हें। कितनी बार समझाया है पाखी तुझे, कि आज का वक़्त बहुत बुरा है। आज एक जवान लड़की अपने घर में भी सुरक्षित नहीं है। लेकिन तुझे तो मेरी बातें समझ में ही नहीं आती है। ऐसा लगता है जैसे पूरा एक तेल का टीन किसी ने तेरे सिर पर उड़ेल दिया हो। शायद यही कारण है कि मेरी बातें तुझ पर टिकती ही नहीं।"

"माँ, अगर तेरा हो गया हो तो मैं अपने कानों में से रुई निकाल लूँ?" पाखी ने हमेशा की तरह अपने चिर-परिचित अंदाज़ में अपने कानों से रुई निकालते हुए कहा।

"तेरी तो . . .  रुक तू। आज तेरी ख़ैर नहीं। आज तो तेरा सिर फोड़ कर ही रहूँगी।"

"माँ . . .  ओ . . . प्यारी माँ . . .  देख . . .  देख ये बेलन है ना रोटियाँ बेलने के काम आता है ना कि अपनी नन्ही सी, प्यारी सी, दुलारी सी पाखी का सिर फोड़ने के," पाखी शरारती अंदाज़ में बोलते हुए दरवाज़े के पीछे छिप गई।

"देख, पाखी। अब चुपचाप सामने आ जा। मेरे हाथों में खुजली हो रही है। जब तक नहीं मारुँगी तब तक मिटेगी नहीं। आज तेरी ख़ैर नहीं।"

"बस माँ। आज-आज माफ़ कर दे। आगे से घर टाइम से आ जाऊँगी। वैसे भी मैं क्या करूँ? बेचारे चिंटू को गणित की प्रश्नावली नहीं समझ आ रही थी। इस कारण बताने लगी।"

"अच्छा, तो कब तक यह समाज सेवा करती रहेगी तू?"

"माँ . . . अब तू फिर शुरू हो गई। देखो, अब मैं अपनी बस्ती के बच्चों को नहीं पढ़ाऊँगी तो कौन पढ़ाएगा? वैसे भी चार महीने के बाद तो मेरा जॉइनिंग लेटर ही आ जाएगा तो फिर कैसे पढ़ा पाऊँगी इन बच्चों को?"

"पर . . . "

"पर- वर . . .  कुछ नहीं मेरी प्यारी माँ चल अब खाना दे; मुझे भूख लगी है," उसने अपनी माँ को पीछे से गले लगाते हुए कहा। 

वह मुस्कुराई, "तू नहीं सुधरेगी पाखी कभी . . ."

"तो तुम्हें क्यों सुधारना है, बता . . ."


"अच्छा, चल अब बातों में मत उलझा मुझे खाना बनाने दे," पाखी की माँ खाना बनाने चली गई। ऐसी ही तो थी पाखी। अपनी बातों से किसी का भी मन मोह लेती थी। करीब पाँच वर्ष की ही रही होगी जब उसके पिताजी की अधिक दारू पीने के चलते मौत हो गई थी। उसके पिताजी की मौत के बाद उसकी माँ बाई का काम करने लगी थी। औरत स्वाभिमानी थी। इस कारण चाहती थी कि उसकी बेटी बाई का काम ना करें। उसने अपनी मेहनत के पैसों से पाखी का स्कूल में दाख़िला करवा दिया। वह हमेशा से ही पढ़ाई में होशियार थी। गणित तो उसका प्रिय विषय था। एक कप अदरक वाली चाय और गणित की पुस्तक के अलावा उसे कुछ नहीं चाहिए होता था। गणित विषय से बी.एड. पूर्ण करने के बाद उसने द्वितीय श्रेणी अध्यापक पात्रता परीक्षा दी और पूरी दिल्ली में उसने 50 वीं रैंक हासिल किया। उसकी ही तरह बस्ती के अन्य बच्चे भी पढ़ाई को गंभीरता से लें इस कारण वह अतिरिक्त समय में बच्चों को पढ़ाती भी थी। उसके बदले में अगर कोई उसे पैसे देने लगता तो वह मुस्कुराकर एक ही बात कहती,"मुझे बस एक अदरक वाली चाय पिला दो ओर कुछ नहीं चाहिए।"

सच में जितनी नटखट पाखी थी उसके उलट अंकुर था। चौदह वर्ष की उम्र में ही मुस्कुराहटों से उसका नाता सा टूट गया था। वह हर वक़्त अपनी ही दुनिया में खोया रहता। उसकी काल्पनिक दुनिया के कैनवास पर गहरे सतरंगी रंग बिखरे पड़े थे। जहाँ वह रंगीन सपने देखता था। जहाँ वह अपने दिल को तसल्ली देने के लिए पंछी बनकर उड़ता था। हाथ फैलाकर खलिहानों में दौड़ लगाता था। हँसता था। मुस्कुराता था। थककर बैठ जाता था। आम के पेड़ों पर चढ़कर आम खाता था। कुछ को तोड़कर नीचे फेंकता था। वहाँ पेड़ पर उसके साथ बंदर भी बैठे होते थे। जो उन पेड़ों पर एक डाल से दूसरे डाल पर कूदते रहते थे। वहाँ कोयल भी होती थी। जो मधुर राग अलापती थी। उसकी दुनिया में सब कुछ था। हिलोर खाती नदी, उफनता समंदर, मंद-मंद बहती पवन, घुमड़-घुमड़ कर बरसते बादल, हरे-भरे पहाड़, फूलों-फलों से अटे पड़े बाग़-बग़ीचे, नाचते मोर, कलरव करते पक्षी आदि-आदि। उसका घर भी बाक़ी लोगों की तरह ईंट-पत्थर से नहीं बना था। बल्कि वह एक सुंदर घास-फूस की कुटिया थी। वह भी ज़मीन पर नहीं बनी हुई थी। बल्कि ज़मीन से ऊपर हवा में एक पेड़ की डाल पर लटकती हुई। ठीक वैसे ही जैसे बया का घोंसला होता था। उसकी उस दुनिया में वह अकेला ही रहने वाला था। उसने अपने पिताजी के लिए उस कुटिया में कोई स्थान नहीं दिया था। क्योंकि वे उसे डाँटते रहते थे। उसने अपनी कुटिया में अपनी माँ को भी स्थान नहीं दिया था। क्योंकि वह भी उसके प्रति सहानुभूति नहीं रखती थी। उसने पुस्तकों व विद्यालय को भी जगह नहीं दी थी। वह नहीं चाहता था कि वहाँ हरिदयाल जैसे अध्यापक हों। जो बिना उसकी कमज़ोरी जाने उसको मारना पीटना शुरू कर दें। वह अपनी ही दुनिया में चैन की साँस लेना चाहता था। वह दिनभर अपनी ही दुनिया में खोया रहता। अध्यापकों द्वारा दिया गया गृहकार्य करते वक़्त भी वह अपनी ही दुनिया में खोया रहता। "अरे, अंकुर . . . " उसकी माँ ने उसे काल्पनिक दुनिया से यथार्थ के धरातल पर लाकर पटक दिया। वह चौंका। "क्या हुआ तुझे? तू ऐसे डर क्यों गया?"

"क . . . कुछ नहीं माँ बस ऐसे ही . . . "

"अच्छा, तबियत तो ठीक है न तेरी?"

"हाँ . . .  माँ . . . "

"चल फिर दूध पी ले और होमवर्क करने बैठ जा।"

"ठीक है, माँ।"उसकी माँ दूध का गिलास उसके सामने टेबल पर रख कर चली गई। वह पुन: उदास हो जाता है। क्योंकि उसकी यथार्थ की दुनिया उसकी काल्पनिक दुनिया से बिल्कुल विपरीत थी। वह इस दुनिया में सामंजस्य बैठा पाने में असमर्थ था। यहाँ उसे माता-पिता की डाँट व मास्टर जी की मार मिलती थी। उसने बेमन से गिलास अपने होठों पर लगाया और दूध पीने लगा।

— क्रमशः

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

......गिलहरी
|

सारे बच्चों से आगे न दौड़ो तो आँखों के सामने…

...और सत्संग चलता रहा
|

"संत सतगुरु इस धरती पर भगवान हैं। वे…

 जिज्ञासा
|

सुबह-सुबह अख़बार खोलते ही निधन वाले कालम…

 बेशर्म
|

थियेटर से बाहर निकलते ही, पूर्णिमा की नज़र…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

कहानी

नज़्म

सांस्कृतिक कथा

लघुकथा

बाल साहित्य कविता

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं