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प्रकृति के सौन्दर्य की चित्रशाला

समीक्ष्य पुस्तक: पेड़ बुलाते मेघ (हाइकु संग्रह) 
लेखक: रमेश कुमार सोनी– बसना
प्रकाशक: सर्वप्रिय प्रकाशन – दिल्ली, 
मूल्य: 310.00 रु
संस्करण: 2018

जापानी विधा के हिंदी साहित्य लेखन के लिए छत्तीसगढ़ ही नहीं वरन पूरे भारत वर्ष में बसना, एक जानी-पहचानी जगह है। ये वही स्थान है जहाँ छत्तीसगढ़ का प्रथम हिंदी हाइकु संकलन "रोली अक्षत" रमेश कुमार सोनी द्वारा सन 2004 में लिखा गया। ये वही स्थान है जहाँ भारत का दूसरा तांका संग्रह - "सहमी सी जिंदगी" (2014) एवं भारत का दूसरा सेदोका संग्रह- "सुधियों की कंदील" (2013) लिखा गया। हाइकु लेखन के माध्यम से हमारी मातृभाषा हिंदी भारत वर्ष की सीमाओं से बाहर पल्लवित हो रही है और बहुत से यहाँ के लेखक अपनी पत्र-पत्रिकाओं, किताबों से निकलकर सोशल मीडिया में ब्लॉग के रूप में तो कोई व्हाट्स एप पर इस विधा को निभा रहे हैं। इस विधा के भी यहाँ कई पाठक समूह हैं। हमें हिंदी की प्रत्येक विधा को प्रोत्साहित करना चाहिए, ऐसा करते हुए वास्तव में हम हिंदी साहित्य के साथ न्याय कर पाएँगे।

रमेश कुमार सोनी के दुसरे हाइकु संग्रह - ‘पेड़ बुलाते मेघ’ जो सर्वप्रिय प्रकाशन- नई दिल्ली से प्रकाशित है। इस संग्रह की भूमिका वरिष्ठतम हाइकु लेखिका - डॉ. सुधा गुप्ता - मेरठ ने लिखी है। लेखक ने इस संग्रह को अपने स्व.माता-पिताजी को समर्पित किया है। हाइकु 5, 7, 5 = 17 वर्णों के विन्यास में  जापानी विधा की एक त्रिपदी सम्पूर्ण हिंदी कविता है; इसमें कविता के समस्त तत्व मौजूद होते हैं। इसके लिए कहा गया है कि- देखन में छोटे लगे घाव करे गंभीर ...। गागर में सागर वाली कहावत भी इसके लिए लागू होती है। आजकल यह विधा किसी परिचय की मोहताज़ नहीं है वैसे मुझे इसे पढ़ने में ज़्यादा आनंद आता है। 

इस संग्रह में - शारदे का सहारा, चीखें बेटियाँ, वो क्या है, प्रीत नगर, सृष्टि महके, चिड़िया रानी, मौसम के अंदाज़, मौसम बिगड़ा है, स्वच्छता अपनाएँ, पानी बाज़ार, भोर से साँझ, चौदहवीं का चाँद, उत्सव, रिश्तों की संजीवनी, जीत का बीज, किराये का मकान और दुनियादारी जैसे उपशीर्षकों में लगभग 705 हाइकु समाहित हैं। यह अब के किसी लेखक के द्वारा एकल प्रकाशित हाइकु में सबसे ज़्यादा हाइकु के साथ प्रस्तुत हुआ है। भूमिका में इसे डॉ. सुधा गुप्ता जी ने - प्रकृति के सौन्दर्य की चित्रशाला.... की उपमा दी है। आपके सभी हाइकु बिलकुल नए अंदाज़ के साथ आपकी संवेदनाओं का अद्भुत चित्रण करते हैं। ठेठ गाँव से लेकर वैश्विक स्तर तक आपकी सोच, विचार को शब्दांकित करते हुए ये हाइकु सभी को पढ़ने के लिए बरबस ही आमंत्रित करता है। आप सभी पाठक इनके हाइकु को ब्लॉग - अक्षरलीला में भी पढ़ सकते हैं। आपने अपनी नयी हाइकु पीढ़ी को तैयार करने के लिएकई कार्यशालाओं का भी आयोजन अपने विद्यालय में किया है। 

अपनी साहित्यिक सक्रियता से प्रकृति के अनुभूत क्षणों का सुन्दर वर्णन इन हाइकु में एक नया सौन्दर्य बोध उत्पन्न कर रहा है – 

बाँस जंगली/कमसीन हसीना/बैले नाचती॥
भुट्टे का स्वाद/भीगा मौसम जाने/पींगें बढ़ाते॥
फूल चाहते/ख़ुशबू ज़िंन्दा रहे/इत्र हो जाते॥
लू, बाढ़, ठण्ड/बैरी मौसम मारे/चुन-चुन के॥

मौलिक विचारों से लैस हाइकुकार पर्यावरणीय समस्याओं का ना सिर्फ़ मार्मिक चित्रण करता है बल्कि इसके समाधान को भी प्रस्तुत कर रहा है –

चिल्ल पों शोर/बैंड,फटाके, जोर/तमाशा मोर॥
पाखी बुलाने/पेड़ लगाया मैंने/वे जा चुके थे॥
जग बीमार/धुल, धुआँ, मच्छर/दौड़ो बचाओ॥

आपके सामाजिक हाइकु का यहाँ कोई सानी नहीं है क्योंकि ये रिश्तों की मर्यादाओं को घर की चहारदीवारों से पुकार लगाते हुए वैश्विक स्तर तक इसके चित्रण को ले गए हैं; आप इन रिश्तों की अहमियत को बड़ी शिद्दत से बताने के साथ-साथ इन्हें बचाने/संवारने की भी अपील करते हैं –

रिश्ते निभाने/सब पीछे रहते/भुनाने आगे॥
गधे को काका/वक्त बदले रिश्ता/स्वार्थ से नाता॥
रिश्तों की खेत/प्यार सौहाद्र माँगे/खुशी उगाने॥

मौसम की मस्ती, प्रकृति का संगीत, बसंत की रंगीनियाँ, पतझड़ का शोक, परिंदों का कलरव, के अलावा नयी दुनिया की समस्याएँ– कन्या भ्रण हत्या, पानी बाजार, दुनियादारी और स्वच्छता अपनाएँ जैसे ज्वलंत विषयों पर भी आपने अपनी बेबाक राय इस प्रकार रखी है –

भ्रण में कन्या/किसकी सजा भोगे/हत्यारे बचे॥
आबादी बढ़ी/‘यूस-थ्रो प्रणाली में/आबाद कूड़ा॥
पानी महँगा/दूध की मत पूछ/छांछ बिकता॥
नेता के सगे/अधिकारी से रिश्ते/चरो बगीचे।

इस अंक के ये हाइकु आध्यात्म की दुनिया तक हमें ले जाने में कामयाब हुए हैं – 

मन परिंदा/दुनिया है पिंजड़ा/चार दिन का॥
दुःख गुर्राता/नाचे सुख नटनी/पैसों की रस्सी॥
जग पिंजड़ा/सीखता वही बोले/तोता आदमी॥

प्रीत नगर, चौदहवीं का चाँद और उत्सव पर ग्लोबल विलेज के कारण होने वाले परिवर्तनों की भी आपकी चिंता स्पष्ट रूप से परिलक्षित हुई है –

अम्बर शय्या/पसरे फैला चाँद/देखो तो भैया॥
तन रंगने/दौड़ती सारी टोली/मन ना रंगे॥
सागर जाने/राज खारेपन का/वो नहा गयी॥

आपके हाइकु संसार में छत्तीसगढ़ के माटी की सोंधी गंध को महसूस किया जा सकता है –

गोदना फूल/चिर श्रृंगार सजे/सदा महके॥
गेहूँ, सरसों/मड़ई-मेला घुमे/खुशी से झूमे॥
फुगड़ी खेले/गिलहरी-परिंदे/पेड़ गिनते॥
चोर का शोर/गायों की खड़फड़ी/चिल्लाते बोली॥

पेड़ बुलाते मेघ के सभी हाइकु में अपनी अलग शैली की कसावट है जो पाठक को अकेला नहीं छोड़ती बल्कि ये उन्हें अपनी दुनिया में बहा कर ले जाती हैं। प्रत्येक विषयों के लिए अलग-अलग उत्कृष्ट हाइकु प्रस्तुत हैं इनमे एक अनोखे प्रकार का नयापन है जो आसानी से पाठकों के दिलों में गहराई से उतर जाने की क्षमता रखते हैं। आशा है कि ये हाइकु पाठकों को अवश्य पसंद आएगी और यह संग्रह हाइकुकार को हिंदी साहित्य के क्षेत्र में एक नयी पहचान देगा तथा इस संग्रहणीय अंक के साथ छत्तीसगढ़ को भी गौरव प्राप्त होगा।

मेरी अशेष शुभकामनाएं एवं बधाई!

डॉ लोकेश्वर प्रसाद सिन्हा
सहायक प्राध्यापक 
स्नातकोत्तर हिंदी विभाग 
दुर्गा महाविद्यालय रायपुर (छत्तीसगढ़)
lokeshwarprasadsinha@gmail.com 

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