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 सरोज राम मिश्रा के प्रेमी-मन की कविताएँ:  तेरी रूह से गुज़रते हुए

समीक्षित कृति: तेरी रूह से गुज़रते हुए (कविता संग्रह) 
कवयित्री: सरोज राम मिश्रा
प्रकाशक: मधुराक्षर प्रकाशन, फतेहपुर
मूल्य: रु 180/-

काव्य विधा पर बहुत कुछ लिखा गया है, कविताएँ लिखी गयी हैं और आज भी दुनिया भर में काव्य-सृजन अपनी पूर्णता के साथ हो रहा है। वैसे कोई दावा नहीं है, लगता है, काव्य मनुष्य की सर्वाधिक प्रिय विधा है। सृष्टि के प्रारम्भ से ही मनुष्य ने सुखद-दुखद परिस्थितियों के अनुसार हँसना, गुनगुनाना, दुखी होना या रोना शुरू किया होगा। संवाद के लिए शब्द गढ़े गये होंगे, भावनाओं, अनुभूतियों की अभिव्यक्ति के लिए मनुष्य ने मुखरित होना सीख लिया होगा तथा उन्हीं दिनों कविता और गद्य का प्रादुर्भाव हुआ होगा। सदियाँ बीत गयी होगी कविता और गद्य को परिष्कृत होने में। आज दुनिया भर में, हर बोली, भाषा में साहित्य लिखा, पढ़ा जा रहा है। मनुष्य के विकास के साथ-साथ सभ्यताएँ विकसित हुई हैं, संस्कृतियाँ पनपी व उन्नति को प्राप्त हुई हैं और इन सबको सहेजता, सँवारता साहित्य विकसित हुआ है। साहित्य ही है जो हमारे सम्पूर्ण जीवन को, दुख-दर्द को, सुख और उल्लास को सँजोकर रख़ता है और भावी पीढ़ियों तक पहुँचाता है। 

साहित्य में रसों की चर्चा होती है। काव्य में रस ऐसे घुले-मिले होते हैं, कवि, श्रोता, पाठक सभी आनंदित होते हैं। यह कहना कि कविता के पाठक कम होते जा रहे हैं, सही नहीं है। कविता कब लिखी जाती है? कवि का मन करुणा, प्रेम, भक्ति, जीवन में संगति-विसंगति से भर जाता है, वह सृजन में लग जाता है। जिसका मन जितना प्रभावित होता है, उसका सृजन उतना ही विराट, श्रेष्ठ और जन-जन तक पहुँचने वाला होता है। कविता लेखन की दुनिया अद्भुत और निराली है। प्रकृति में, बाग़-बग़ीचों में, बिना रोपे, बिना बोए लाखों पेड़-पौधे अपनी उपस्थिति दिखाते रहते हैं, उनका सौन्दर्य, उनकी आभा, उनकी ख़ुश्बू, हरियाली से पृथ्वी सौन्दर्यवान, ऐश्वर्यवान होती है। आज शहरों में भी लोगों ने अपने-अपने घरों में नाना तरह के फूल खिला रखे हैं। उसी तरह साहित्य जगत में काव्य प्रतिभाएँ और साहित्यिक चेतना से भरे लोग भीड़ से दूर साहित्य साधना में लगे हुए हैं। वे जीवन की त्रासदी से परिचित हैं, शहरों के उमस से, हवा, पानी से परिचित हैं, उनकी अनुभूतियाँ सीधे उनके संघर्षों से जुड़ी होती हैं, कोई बनावटीपन नहीं, कोई मिलावट नहीं। ऐसे लोगों की दुनिया सचमुच समझने, देखने, जानने लायक़ होती है। युवा कवि या कवयित्री की कविताओं में प्रेम भी युवा होता है, उनका अनुभूत प्रेम पाठकों को रिझाता है और आनन्द देता है। प्रेम की चाह हर प्राणी, हर जीव-जन्तु सबको होती है परन्तु सब अपनी भावनाओं को व्यक्त नहीं कर पाते। कवि, लेखक प्रेम की गहरी अनुभूति रख़ते हैं और अपनी रचनाओं में बुलंदी से व्यक्त करते है। कोई-कोई अपना प्रेम ईश्वर को समर्पित करता है और भक्ति से भरा सृजन करता है। 

हर कवि, हर साहित्यकार श्रेयस्कर है, आदर और सम्मान का पात्र है क्योंकि ईश्वर ने उन्हें लिखने की क्षमता दी है, वह अपने लोगों की संगतियों-विसंगतियों, संघर्षों, दुख व पीड़ा को महसूस करता है और अपनी लेखनी के माध्यम से समाज की पीड़ा व्यक्त करता है। यह सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कार्य है किसी लेखक का और इन्हीं भावनाओं के साथ हर लेखक, रचनाकार के प्रति श्रद्धा भाव रखना चाहिए। किसी की श्रेष्ठता, महानता का आकलन उनकी कृतियों से स्वतः होता चलता है। 

ऐसी ही एक युवा कवयित्री हैं सरोज राम मिश्रा और उनकी प्रथम कृति ‘तेरी रूह से गुज़रते हुए’ अभी-अभी आयी है। मूल रूप से वह लेख, कविता, कहानी तथा लघुकथाएँ लिखती हैं और पत्र-पत्रिकाओं में छपती हैं। आजकल ‘प्रांजल धारा’ पत्रिका के प्रबंध संपादक की ज़िम्मेदारी उठा रही हैं। इस संग्रह का आवरण प्रसिद्ध कवि व चित्रकार श्री प्रयाग शुक्ल जी द्वारा तैयार किया गया है। कवयित्री का ‘सरोज राम मिश्रा’ नाम किंचित परम्परा से भिन्न लगता है। दरअसल उनके पिता का नाम ‘राम शंकर’ है जिसमें से ‘राम’ शब्द को सरोज ने अपने नाम के साथ जोड़ लिया है और अपने संग्रह में प्रायः हर पृष्ठ पर रेखांकन किया है। यह कवि के साथ उनके कलाकार होने का प्रमाण है। उनके चित्र बहुत कुछ कह रहे हैं, शायद यह भी उनके कृष्ण प्रेम की पुकार हो। 

संग्रह के शुरू में उनका छोटा सा ‘वक्तव्य’ छपा है, जिसमें कविता और प्रेम सम्बन्धी उनकी भावनाएँ व्यक्त हुई हैं। यह उनके कृष्ण-प्रेम की स्वीकृति है। वे लिखती हैं, “एक दिन इन्हीं शब्दों में मैंने अपने लिए किसी छवि की पुकार सुनी और लगा मेरे शब्द कृष्ण का रंग ले मेरे रेशे-रेशे में समा गए। मेरा अन्तर लोक और बहिर्लोक कृष्णमय हो गया।” सरोज लिखती हैं, “बरसों बरस तुम्हारे प्रेम की कस्तूरी मुझे सहलाती रही और मैं भटकती रही तुम्हें पाने की खोज में आदि से अंत तक। आख़िर मैंने तुम्हें पाया भी तो कहाँ—मेरी ही फिरती गुफा में, मेरे भीतर, मेरे साथ। ये कैसा गोपन है कान्हा? कैसा प्रेम है मेरा! तुम्हारा पल भर का वियोग सह नहीं पाती मैं।” कवयित्री स्वीकार करती हैं, “मैं तुम्हारी राधा नहीं, तुम्हारी मीरा नहीं, पर मैं भी तुम्हारे प्रेम सागर में डूबती हुई एक बूँद हूँ। तन-मन-धन से अर्पित होने को तैयार तुम्हारी प्रेयसी! यही मेरा सत्य है। यही मेरा अपना है। इसी प्रेम से ओत-प्रोत हैं मेरी रचनाएँ ‘तेरी रूह से गुज़रते हुए’।” सरोज के इस सम्पूर्ण वक्तव्य में गहरे भाव हैं, कृष्ण के लिए गहरा प्रेम है और अपना सब कुछ समर्पित कर देना है। साहित्य में पहले भी ऐसे भावों को लिखा गया है और भविष्य में भी लिखा जाता रहेगा। काव्य विधा के सन्दर्भ में चिंतन करने वाले विद्वतजनों को निराशा हो सकती है क्योंकि यहाँ काव्य शास्त्र कवयित्री के मनोभाव में नहीं है, वह कृष्ण प्रेम में है। पाठक निश्चित ही सहृदयता पूर्वक उनकी मूल भावना का अवगाहन करेंगे, आनंदित होंगे और कृष्ण-भक्ति-प्रेम का पाठ पढ़ेंगे। 

हिन्दी, उर्दू, फारसी, भोजपुरी के शब्दों से भरी उनकी कविताएँ, अपनी शैली में, अलग-अलग भाव-दशाओं का सृजन करती दिख रही हैं। कुछ लोग इन कविताओं पर प्रश्न खड़ा करेंगे और नाना तरह के विमर्श छेड़ेंगे। कवयित्री के पास सहज समर्पित प्रेमी का मन है, उसका सृजन ऐसा ही होगा, उसने अपनी गहनतम चाह को प्रस्तुत किया है। लोग भाषा, शैली और व्याकरण में उलझे रहते हैं। इस संग्रह में कुल 22 कविताएँ हैं और उन सबका संदेश एक ही है—कृष्ण प्रेम। 

'मेरे साथी मेरे हमसफर’ संग्रह की पहली कविता है, कवयित्री की संवेदना सिपाही बनकर अपने प्रियतम को ढूँढ़़ रही है, हो सकता है कृष्ण ने हृदय चुरा लिया हो। “एक-दूजे को ढूँढ़ रहे थे”, कवयित्री को विश्वास है, जैसे वह ढूँढ़ रही है कृष्ण को, कृष्ण भी ढूँढ़ रहे होंगे उसे। किसी साँझ उसे अनुभूति होती है, “तेरी ही रूही छाया/आ बैठी मेरे पास।” प्रेम का यह कोई नया अहसास है, वे लिखती हैं, “अपना दामन समेटे जब मैं उठी/सिमट गई रूह और काया/इश्क़ की परिधि में।” सदियों से हम दोनों साथ-साथ चल रहे हैं/चलते रहेंगे/समय से परे—मैं और तुम। ‘बेतासीर इश्क़’ कविता में लेह की नदी श्योक ने सब कहा/कुछ अनकहा। सरोज लिखती हैं—न जाने कौन सी फ़रियाद सब्ज थी/किसी कोने/दिल में मेरे/जो तुम/अचानक आ गये/मेरे सपनों की बन हकीकत/मेरे सामने/और मैं/मैं हवा के झोंके में/आसमां तेरे संग/बह गई। कवयित्री को पता है, उन्हें मिलना नहीं है। यहाँ आँसुओं का मौन शोर है, गहरी तनहाई है, बेपनाह रुसवाई है, जुदाई है और मेरे इश्क़ का यही अंजाम होना है। 

‘उतरता सूरज’ दोनों को जोड़ता रहा, कुछ गिरह/मन की हमारी/खोलता रहा। संवाद चलता रहा, न जाने कितने जन्मों से। साँझ ढल गयी, हवा बहने लगी और तुम्हारी महक जर्रे-जर्रे में फैल गयी। कवयित्री कहती हैं-ले एक कतरा ख़ुश्बू का/अपने बदन पर ज्यों-ज्यों मली/सिहर उठी काया मेरी/धड़कने दिल की बढ़ी/सोयी कामनाएँ उन्मुक्त हुईं। सरोज ने अंत में लिखा:

ख़ामोश रूहें तेरी मेरी
बाँहों में मौन पड़ी

'सूरज बना दरवेश’ कविता में सूरज प्रेयसी के इश्क़ में नीचे उतर आया है। कवयित्री साहस पूर्वक लिखती हैं: उसकी सूखी बाँहों के घेरे से/रंगीन हुई मेरी अँधेरी गुफा/और उसकी साँसों का घूंट/जब मेरी साँसों ने पिया/एक अलौकिक चेतना का/जन्म हुआ। आगे लिखती हैं—जहाँ सूरज मेरे अंजुलि भर प्रेम में भीग/ले ली थी समाधि कभी/बना था कभी दरवेश/मेरी अँधेरी गुफा। ‘नींद को जगह कहाँ?’ कविता में प्रेम-मिलन के क्षणों का अद्भुत जीवन्त चित्रण सरोज के अनुभवों का सुन्दर भाव प्रकट हुआ है। ‘मेरा अस्तित्व’ कविता में कवयित्री स्वयं को मिटाकर अपने प्रियतम में ही अपना अस्तित्व ढूँढ़ती है। ‘तलब’ कविता में प्रेम की तलब, प्यास और बाँहों में समेटना, फिर सूरज का मंद पड़ना और दोनों के बीच का संवाद कवयित्री को हैरान करता है। ये लौकिक जगत की जीवन्त अनुभूतियाँ हैं जिसे कवयित्री ने कृष्ण प्रेम में अपने तरह से अनुभव किया है। 

‘एहसास’ कविता में कवयित्री ने प्रियतम के स्पर्श के जादुई प्रभाव का चित्रण किया है और कहती है—मेरे पतझर से जीवन में/मधुमास बहाकर/मुझे इश्क़ का/अधखिला फूल बना गया। ‘इल्जाम’ कविता में सरोज ने विरह और मिलन की आतुरता का जीवन्त वर्णन किया है। ‘कौन हो तुम?’ कविता में कवयित्री के प्रश्न भावुक कर देते हैं—अक्सर मैं सोचती हूँ/कौन हो तुम मेरे साँवरे? नाना तरह के भावों में बहता कवयित्री का मन सब कुछ अर्पित कर चुका है अपने साँवरे को और प्रेम के कारण स्थिति यह है कि वह उनके आग्रह को अस्वीकार कर ही नहीं सकती। प्रेम की यह अद्भुत अभिव्यक्ति है। ‘मुझे मेरी तलाश है’ के भाव देखिए-अपने इश्क़ के नरम फूल को मैं/खुद मसलने लगी/अब यह मेरा सुलगता जिस्म है/तेरी यादें हैं। आगे लिखती हैं—रेतीले तूफ़ान की तरह/मेरे इश्क़ की ठंडी बुझी राख में/मेरी सुबकती चिंगारी है/आज फिर मुझे मेरी तलाश है। ‘क़दमों के निशां’ कविता में अपने ईश्वर से मिलन की चाह, मिलन की सुखद कल्पना और अचानक विछोह की पीड़ा, सरोज ने लिखा है—पर तुम–/ तुम चले गये–/दे गये मुझे गाढ़ा दरद–/कर गये मुझे तन्हा–/छोड़ गए बस अपने क़दमों के निशां। 

‘मैं तुम्हारी कनुप्रिया’ कविता में तीसरे पहर रात में राधा की याद आते ही कृष्ण उनके पास आ बैठे। सरोज जी लिखती हैं—कृष्ण के प्रेम भरी छुअन से/लाज की कई परतों में सिमटते हुए/सिहर उठा राधा का मौन मन/स्निग्ध अधखुली गुलाब की पखुरियाँ बन/समा गया कनु के विराट ऊर्जा में/उसका काँपता तन। राधा कृष्ण की माया है, शक्ति व भक्ति है और कृष्ण को गले लगाकर कनुप्रिया बन गयी है। ‘मैं चाँदनी झील’ में सरोज ने स्वयं को शान्त झील माना है, कृष्ण ने शब्दों के कंकड़ फेंककर हलचल मचा दिया है। वे लिखती हैं—कई बरसों से सोई पड़ी/मेरे राग को छूकर/प्रेम का/संवेदना का/ सपनों का/जादू भर/ज्वाला भरी नदी बना दिया। वे कृष्ण को सम्बोधित करती हैं, देखना मेरे विरह आँसुओं में कहीं तुम्हारा प्रेम संसार डूब न जाए। ‘चाँद आकाश का’ कविता में कृष्ण के लिए लिखती हैं—सोलह कलाएँ धरे/आकाश में ठहरा हुआ/मैं सफ़ेद /दूज का चाँद। ‘सफ़ेद बारिश’ में आकाश से बरसते ओले प्रेम की फुहार हैं या वेदना का विस्तार है। प्रेम की दीवानी सरोज लिखती हैं—मैं ठगी-सी हूँ खड़ी/ अंजुरी फैलाए/आकाश के सीने से बिखरते/सफ़ेद बारिश में। ‘गोधूलि में पुकार’ कविता में सरोज ने अद्भुत विम्बों का सहारा लिया है, लिखती हैं—हलचल हुई/सोई धरा के अन्तर्मन में/नहर के रुके हुए जल में/औचकी मैं/ठहर गई। 

‘समाधिस्थ लकीर’ कविता में कवयित्री स्वयं को कोई लकीर मानती हैं, कहती हैं, आने लगी बंशी की तान/बिन बादल/भीग गई/पोर-पोर/बाहर-भीतर/बावरी हुई/मूक लकीर। दूसरा चित्र खींचती है—चँवर रूप धरती हुई/रास-रंग रचती हुई/कृष्ण में घुलती हुई/मोह को तजती हुई/बिछोह को सहती हुई/समाधिस्थ हुई/सुर्ख सुषम लकीर। ‘कुछ अधूरा’ कविता संदेश देती है, जीवन में कुछ अधूरे ख़्वाब, अधूरे ख़त, गीत, उनींदी कहानियाँ मेरे दिल में सिमटे पड़े हैं और पूछते हैं/आओगे कब? ‘शेष क्या रहा?’ कविता में सरोज जी अत्यन्त निराशा में लिखती हैं—शेष क्या रहा? /शून्य हुआ मेरा प्रेम संसार। आहिस्ता-आहिस्ता सब कुछ ख़त्म हो रहा है। ‘काल का पंछी’ जीवन के अंतकाल की अनुभूति की कविता है। यहाँ का अध्यात्म समझना सहज नहीं है—न कोई गंध है/न कोई रंग है/न कोई दिशा/न लिए कोई सुगबुगाहट। सरोज लिखती हैं—चुग रहा है दाना/पहने प्रेम भरा चीवर काला/अतुराया पंछी काल का। संग्रह की अंतिम कविता है ‘यशोधरा बनी बुद्ध’ जिसके विम्ब चमत्कृत कर रहे हैं। यशोधरा को बाँसुरी का गहन आलाप सुनाई दिया। सरोज लिखती हैं—बुद्ध बुलाए हैं मुझे/जलती लकड़ियों की प्रदक्षिणा में/मसान के मध्य। आगे लिखती हैं—बढ़ाया मैंने अपना कदम/चली बन मैं उसकी सहयात्री/रगड़ लिया मैंने अपने तन पर/प्रेम का महकता जलता भस्म/ले लिया आज मैंने समाधि/बोधि प्रेम वट तले/बन गई आज मैं/शक्ति/लोक माया/यशोधरा/मैंने थिरकते हुए/छोड़ा महल/बन गई अपने प्रेम में/मैं बुद्ध। 

सरोज का सांसारिक अनुभवों के आधार पर ईश्वरीय प्रेम में डूबना, उनके जीवन की बड़ी घटना तो है ही, हिन्दी साहित्य को भी उन्होंने समृद्ध किया है। हो सकता है, जन-मानस किंचित भ्रमित हो, अर्थ का अनर्थ करे परन्तु भाव को ग्रहण करने वाले सुधीजन इसका सम्यक बोध करेंगे। यह काव्य संग्रह शीघ्र ही लोक-विमर्श में शामिल होगा और इस पर चर्चाएँ होगी। भाषा-शैली में अनुभवों की अपरिपक्वता उनके भविष्य के काव्य लेखन में कोई बाधा नहीं बनेगी। उनके पास शब्द हैं, गहरे भाव हैं परन्तु अभिव्यक्ति की त्वरित ललक है। यह कोई काव्य दोष नहीं है। उन्हें प्राचीन ग्रंथों के साथ-साथ समकालीन लेखन से जुड़ना चाहिए, ख़ूब पढ़ना चाहिए। हिन्दी कविता में दूसरी भाषा-बोलियों के शब्दों का प्रयोग करते समय संतुलन बनाना चाहिए। उनका भाव व प्रेम पक्ष प्रबल है, निश्चित ही साहित्य में विद्वतजनों का ध्यान आकृष्ट होगा। 

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टिप्पणियाँ

Pankaj Kumar 2022/12/05 08:16 AM

प्रांजल प्रेम की प्रांजल धारा

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