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दालचीनी की महकः श्रीलंका यात्रा की सुखद अनुभूतियाँ

समीक्षित कृति: श्रीलंका यात्रा-दालचीनी की महक
कृतिकार: कमलेश भट्ट कमल
प्रकाशक: अनन्य प्रकाशन, दिल्ली
मूल्य: ₹300/-

यात्रा करना मनुष्य का ही नहीं, अन्य जीव-जन्तुओं का भी स्वभाव है। आज दुनिया का जो स्वरूप हमारे सामने है, उसके पीछे आदिम काल से जुझारू, संघर्षशील, बेहतर जीवन की तलाश, नयी खोज और आनन्द प्राप्ति के लिए की गयी यात्राएँ हैं। यात्रा करना मनुष्य की मूल प्रवृत्ति है। वह अपने परिवेश से बाहर निकलना चाहता है, एक स्थान पर रहते-रहते ऊब जाता है और इस एकरसता को तोड़ने के लिए यात्राएँ करता है। यात्राओं से उसे अद्भुत ऊर्जा मिलती है। नये स्थानों, नयी सभ्यता-संस्कृति, नये लोगों से मिलकर उसमें स्फूर्ति और जोश भर जाता है। वह बहुत कुछ सीखता है और बहुत कुछ सिखाता भी है। आधुनिक भूगोल का जन्मदाता हम्बोल्ट दक्षिणी अमेरिका के एण्डिज़ पर्वतीय शृंखलाओं में भ्रमण करते हुए खोज निकाला कि धरती पर विभिन्नता में एकता के सूत्र भरे पड़े हैं। वैसे तो यात्राओं के अलग-अलग ऐतिहासिक कारण और उद्देश्य रहे हैं परन्तु साहित्यिकों ने अपनी देश-विदेश की यात्राओं के अनुभवों को सहेज कर साहित्य में एक नयी विधा की परम्परा शुरू कर दी है। पर्यटन उद्योग को इससे बहुत लाभ होता है, सभ्यता-संस्कृति का प्रचार होता है और लोग एक-दूसरे को समझने की कोशिश करते हैं। 

यात्री अपने यात्रा वृत्तान्त में स्थान विशेष की प्राकृतिक दृश्यावली, सामाजिक संरचना, लोगों के रहन सहन, व्यवहार-विचार, भाषा, आगंतुकों के प्रति सोच आदि को अपने लेखन में स्थान देता हैं। यात्री अपनी सोच के अनुसार उस अपरिचित स्थान, देश को देखता है, अनुभूत तथ्यों को एकत्र करता है और लोकहित में उसका उपयोग करता है। यात्रा-वृत्तान्त प्रामाणिक होता है क्योंकि वह किसी के द्वारा देखा और भोगा हुआ अनुभव है। यात्रा से वापस आने के बाद बहुत से रहस्यों का उद्घाटन करता है जो मिथक के रूप में पहले से प्रचलित होते हैं। यात्रा एक तटस्थ नज़रिया देती है, जो दैनिक जीवन में देखने को नहीं मिलती। नये देश या वातावरण में जाकर व्यक्ति कुंठा मुक्त होता है, अपने निकट वातावरण के दबाव से मुक्त होकर, नये स्थानों, नये लोगों से सम्बन्ध स्थापित करता है। 

ऐसी ही एक दस्तावेज़ी पुस्तक “दालचीनी की महक” मेरे सामने है जो वरिष्ठ साहित्यकार कमलेश भट्ट कमल एवं उनके बेटे-बहू द्वारा पड़ोसी देश श्रीलंका की यात्रा पर आधारित है। कमल जी के अनेक कहानी संग्रह, ग़ज़ल संग्रह, यात्रा वृत्तान्त, हाइकु संग्रह, साक्षात्कार संग्रह तथा बाल साहित्य प्रकाशित हुए हैं और उन्हें साहित्य-सेवा के लिए अनेक पुरस्कार/सम्मान मिले हैं। 

‘अपनी बात’ में कमल जी लिखते हैं, “उनकी यह यात्रा कोरोना-काल से पहले की है। तब श्रीलंका पर्यटकों की चहलक़दमी से भरा एक ख़ुशहाल देश था-अपनी प्राचीन सभ्यता और संस्कृति पर गर्व करता हुआ दूसरे देशों जैसा।” पुस्तक के प्रकाशन में विलम्ब का एक कारण कोरोना भी रहा। ‘दालचीनी की महक’ शीर्षक के पीछे तथ्य यही है, दरअसल श्रीलंका ही दालचीनी का असली स्रोत है। रामायण प्रसंग में श्रीलंका का उल्लेख और भगवान बुद्ध के कारण श्रीलंका भारत से गहरे तौर पर जुड़ा हुआ है। वहाँ का राष्ट्रीय धर्म बौद्ध धर्म है और वह देश हर क्षण इसी में जीता है। मेरे लिए भी सुखद है, इसी बहाने श्रीलंका की संस्कृति-सभ्यता, रहन-सहन, जीवन, व्यापार, जलवायु, धरातलीय स्थितियाँ और रीति-रिवाज़ को समझ सकूँगा। 

कमलेश भट्ट कमल जी पुस्तक के शुरू में लिखते हैं, “मनुष्यों की तरह ही हर यात्रा की भी अपनी एक कुंडली होती है, जिसे तमाम तरह के ग्रह-नक्षत्र अपनी-अपनी तरह से प्रभावित करते हैं।” दरअसल उनकी पहली यात्रा की तैयारी श्रीलंका में हुए बम विस्फोटों के चलते स्थगित करनी पड़ी थी। कोरोना महामारी की शुरूआत हो चुकी थी परन्तु उसके संक्रमण से श्रीलंका बचा हुआ था। यात्रा 9-14 जनवरी 2020 के लिए प्रस्तावित थी। इसी बीच दुखद घटना हुई, श्रीलंका में ही कार-दुर्घटना में हिन्दी के यशस्वी साहित्यकार डॉ. गंगा प्रसाद विमल की मृत्यु हो गयी। उसमें उनकी बेटी कनुप्रिया और नाती श्रेयस की भी जान चली गयी। ऐसी दुखद परिस्थिति में नये साल के आगमन और दिल्ली के पुस्तक मेले में पुस्तकों के लोकार्पण कार्यक्रमों ने थोड़ी राहत दी। 

1972 तक श्रीलंका सीलोन के रूप में जाना जाता था जिसे बाद में लंका किया गया और 1978 में सम्मान सूचक शब्द ‘श्री’ जोड़कर श्रीलंका कर दिया गया। कमलेश भट्ट कमल जी रामायण के सन्दर्भ में श्रीलंका से परिचित हैं और अपने शुरूआती दौर में रेडियो सीलोन पर ‘बिनाका गीत माला’ को याद करते हैं। भारत के विशाल नक़्शे के नीचे लटकी हुई बूँद की तरह श्रीलंका कौतूहल जगाता है। यह उनकी चौथी विदेश यात्रा है और उड़ान एयर इंडिया के विमान से 9 जनवरी 2020 को दिल्ली से होने वाली है जिसकी व्यवस्था यात्रा। काम कम्पनी के माध्यम से है। कम्पनी ने अंग्रेज़ी भाषा में ‘श्रीलंका ट्रावेल जरनल’ नाम की रोचक सूचनाओं से भरी डायरी भेजी है। शुरूआत ‘वेलकम टु दि लैंड ऑफ़ सेरेंडिपिटी’ से हुई है। इसमें श्रीलंका के राष्ट्रीय ध्वज ‘लायन फ्लैग’ को दुनिया के सबसे पुराने ध्वजों में से एक बताया गया है। 162 ई.पू. के ध्वज में सुनहरा शेर दायें हाथ में तलवार लिये हुए है, श्रीलंका के सिंहलियों की बहादुरी का प्रतीक है। डायरी के अनुसार श्रीलंका के दो उपनाम हैं—पहला “पर्ल ऑफ़ इंडियन ओसन” और दूसरा “टियर ड्राप ऑफ़ इंडिया।” श्रीलंका ऐसा पहला देश है जहाँ कोई महिला देश की प्रधानमंत्री बनी। यहाँ की संस्कृति में चिड़ियों को भाग्य का प्रतीक और धर्म को जीवन का प्रमुख हिस्सा माना जाता है। दुनिया का पहला मानवरोपित वृक्ष श्रीलंका में ही है। बोधगया के वृक्ष की टहनी लाकर यहाँ रोपा गया है जिसके नीचे बैठकर महात्मा बुद्ध ने ज्ञान प्राप्त किया था। 

‘श्रीलंका की खोज दिल्ली में’ शीर्षक से अपने लेख में कमलेश भट्ट जी दिल्ली के पुस्तक मेले में अपनी और अन्य मित्रों की पुस्तकों के लोकार्पण का उल्लेख करते हैं। साथ ही उनकी खोज किसी ऐसी पुस्तक की है जो श्रीलंका के बारे में जानकारी दे सके। डॉ. दिविक रमेश जी ‘बुद्धिस्ट पाली यूनिवर्सिटी’ के दो प्राध्यापकों निरोशा और डब्लू.पी. सेका कालानी का सन्दर्भ देते हैं। ‘बिसरख में रावण’ लेख में विस्तार से भट्ट जी ने रावण, पिता ऋषि विश्वश्रवा, रावण का जन्म, पालन-पोषण, रावण की शिव भक्ति, शिव दर्शन आदि का वर्णन किया है। रावण ने प्रसिद्ध शिव तांडव स्तोत्र की रचना की है। वह महाप्रतापी विद्वान था। बिसरख के प्राचीन मन्दिर में अष्टमुखी शिव की प्रतिमा है। शिव पुराण में रावण के जन्म स्थान के रूप में ग्रेटर नोयडा स्थित बिसरख का उल्लेख है। बिसरख के शिव मन्दिर को रावण का मन्दिर कहा जाता है। भट्ट जी लिखते हैं—रामचरित मानस के नायक के रूप में मर्यादा पुरुषोत्तम राम अमर हैं तो खलनायक के रूप में रावण का चित्रण भी अपूर्व है। 

कमलेश भट्ट कमल ने ‘तीसरे विश्व युद्ध की परछाई’ लेख में लिखा है—‘जो भी हो, हमारी श्रीलंका यात्रा इस नये वैश्विक तनाव की ही छाया में होनी है।’ साथ ही उन्होंने रवीन्द्र नाथ टैगोर के मार्मिक पत्र का उल्लेख किया है जो श्रीलंका प्रवास में 08 जून 1928 को लिखा था। तब उनकी मनःस्थिति बिखरी हुई सी थी और उन्हें आराम की ज़रूरत थी। कमलेश जी मीडिया सूचनाओं पर अधिक ध्यान देते हैं और तद्‌नुसार उत्साहित या भयभीत होते रहते हैं। आज का मीडिया तो नित्य विश्व युद्ध करवाता रहता है। हर व्यक्ति को चाहिए कि वह सूचनाओं के पीछे की सच्चाई को समझे और ख़ुश रहा करे। हम अनमोल सुखों की अनुभूति करने के लिए निरंतर प्रयास में रहते हैं। संसार में घूमना, दुनिया देखना, देशों को परखना, दुनिया को जानना दुनिया से सीखना, यह सिर्फ़ यात्रा करने से ही सम्भव है। यात्रा करने से हमें प्राकृतिक दृश्य देखने के सुख की अनुभूति होती है, हम वहाँ की संस्कृति-सभ्यता और इतिहास का भी अवलोकन करते हैं। कोई व्यक्ति जीवन में सुखी रहने के लिए बहुत कुछ करता है, यात्रा उन्हीं सुखों की ओर बढ़ते क़दम की पहली कड़ी है। 

अगले खण्ड का शीर्षक है ‘दिल्ली से कोलम्बो’। कमलेश भट्ट जी हर विवरण विस्तार से लिखते हैं—तापमान, दूरी, उड़ान का समय, सीट संख्या आदि-आदि। दिल्ली से कोलम्बो की 2537 किमी की यात्रा 3 घंटा 30 मिनट में पूरी होने वाली है। भट्टजी रामायण कालीन प्रसंग जोड़ते चलते हैं, तुलनात्मक विवेचना करते हैं। उड़ान के क्रम में यथासुलभ प्राकृतिक दृश्यावली—आसमान नीला, समुद्र नीला, बादल, नीचे की बस्तियाँ, पहाड़ियाँ, चाय के बाग़ान, नारियल के बाग़ान आदि का उल्लेख करते हैं। भंडारनायके अन्तर्राष्ट्रीय एयरपोर्ट पर विमान उतरता है, वहाँ का तापमान 35 डिग्री है। एयरपोर्ट से बाहर छरहरे बदन वाले अनिल बोटेजू अपने कैब के साथ मुस्कुरा कर स्वागत करता है। आसपास का इलाक़ा क़स्बाई है, सड़क के दोनों ओर नारियल, आम और कटहल के पेड़ हैं। माहौल भारत जैसा ही है। पपीता, नीबू सहित फलदार वृक्ष हैं। कोलम्बो से कैंडी जाना है, लगभग 110 किमी की दूरी है। रास्ता सँकरा और पहाड़ी वाला है। 55% आबादी सिंहलियों की है, शेष कैथोलिक व तमिल हैं। यहाँ की कुल आबादी 2.19 करोड़ है। आबादी के हिसाब से श्रीलंका घूमना, दिल्ली घूमने जैसा है। कैंडी तक के रास्ते में क़स्बों, चौराहों पर बुद्ध की प्रतिमाएँ लगी हुई मिलीं। रास्ते में केले, अन्नानास और पपीते के फल ख़ूब बिकते हुए दिखे। कैंडी नैनीताल जैसा लगा और यहाँ कैंडी झील है। शिरीन गार्डेन होटल के कमरे आरामदेह हैं। 

वे लोग 10 जनवरी की सुबह ‘बुद्धा टुथ टेम्पल’ देखने पहुँचते हैं। कैंडी झील के किनारे, अत्यन्त आकर्षक परिसर में मन्दिर बना है। कमल पुष्प बिक रहे हैं। विदेशियों को रु. 1000/ मन्दिर प्रवेश शुल्क देना है। यहाँ भगवान बुद्ध का दाँत संरक्षित है जिसे तस्करी करके श्रीलंका लाया गया है। विस्तार से भट्ट जी ने वहाँ की बुद्ध मूर्तियों आदि का वर्णन किया है। उसके बाद अगला पड़ाव है ‘राॅयल बाॅटनिक गार्डेन।’ यहाँ रु 2000/-प्रति व्यक्ति शुल्क है। यहाँ की वानस्पतिक विविधता, समृद्धि, हरियाली और रखरखाव हैरान करने वाला है। ऐतिहासिक सन्दर्भ लेते हुए भट्ट जी ने विस्तार से चित्रण किया है। यहाँ अनेक गार्डेन हैं जो पर्यटकों को आकर्षित करते हैं। पेराडेनिया से निकलकर वे लोग ‘जेम म्यूज़ियम’ पहुँचे जहाँ मूल्यवान पत्थरों के बारे में जानकारियाँ दी जा रही थीं। उनका अगला पड़ाव था ‘वुडकार्विंग शोरूम’ जहाँ लकड़ियों से हस्तशिल्प की वस्तुएँ बनाई जाती हैं। ये सारे सामान बहुत महँगे हैं। 

श्रीलंका यात्रा का अगला लेख ‘वाटिका कला एवं सांस्कृतिक सन्ध्या’ में उन्होंने वहाँ की कला और सांस्कृतिक पहचान का विस्तृत उल्लेख किया है। उनके लेखन में एक प्रवाह है जिससे स्थितियों को समझना सहज हो जाता है। वाटिका शिल्प वस्त्रों की छपाई का कोई प्राचीन और लोक से जुड़ा हुआ तरीक़ा है। यहाँ की रोटियाँ मोटी और सख़्त होती हैं। पर्यटकों को यहाँ का दोसा पसंद आता है। भट्ट जी सांस्कृतिक सन्ध्या के कार्यक्रम के बारे में विस्तार से लिखते हैं। दर्शक प्रायः विदेशी हैं—हिन्दू-मुस्लिम और ईसाई। वहाँ के इस दैनिक कार्यक्रम में कुल 10 प्रकार के नृत्य प्रस्तुत किए गये। इन सबके नाम जैसे पूजा डांस, थेल्मे डांस, पंथरु, पीकाॅक, रावन, सालुपलिया, आदि हैं। नर्तक दल में स्त्रियाँ और पुरुष दोनों हैं। दर्शक बहुत उत्साहित और आनन्द में थे। एक विशेषता यह दिखी कि कहीं भी कोई भोंडापन नहीं था। संग्रह का अगला लेख ‘इतिहास में कैंडी’ है। गीता प्रेस की पुस्तकों का उल्लेख लेखक के भक्ति-प्रेम को दर्शाता है। रामायण के सुंदरकाड की पूरी पृष्ठभूमि लंका और उसके आसपास की है। कैंडी से बाहर निकलना है, अगली यात्रा के लिए। यहाँ अधिकांश महिलाएँ सफ़ेद वस्त्र धारण करती हैं। यहाँ के नारियल सुनहले रंग के दिखे। यहाँ की महिलाएँ श्याम वर्ण और 5 फुट के आसपास, औसत कदकाठी की होती हैं। कैंडी हिल स्टेशन जैसा पहाड़ी इलाक़ा है जहाँ ख़ूब हरियाली है, सुहाना मौसम और पर्यावरण है। यहाँ के चाय बाग़ान और कैंडी झील की अपनी ख़ूबसूरती है। यह यहाँ की आध्यात्मिक राजधानी भी कहा जाता है। कमलेश जी ने विस्तार से यहाँ का इतिहास-भूगोल लिखा है और बहुत सी जानकारियाँ दी है। 

वे अपने अगले लेख “टी-फैक्ट्री एवं स्पाइस गार्डेन“में किसी साँवली नवयुवती के साधारण पहनावे और हल्के-फुल्के मेक-अप के बावजूद सौम्य व आकर्षक लगने से पाठकों को परिचित करवाते हैं। यह उनकी सौन्दर्य-चेतना है और उस युवती का साड़ी बाँधने का अंदाज़ उन्हें प्रभावित किया है। हर देश की अपनी शैली होती है जो खान-पान, पहनावा में झलकता है। पहले वह क्यारियों में चाय के पौधे दिखाती है फिर इमारत के भीतर चाय बनाने की पूरी प्रक्रिया समझाती है और तीसरे तल्ले पर ले जाकर चाय पिलाती है। गोल्डेन टी व व्हाइट टी का प्रति 50 ग्राम मूल्य रु 11,000/-व 10,000/-है। उसके बाद स्पाइस गार्डेन में वैनीला, दालचीनी, सफ़ेद चन्दन, काफ़ी, लौंग आदि के पेड़-पौधों का परिचय मिलता है। यहाँ भी उन्हें हर्बल चाय मिली। फार्मेसी में दवाइयाँ काफ़ी महँगी हैं। उसके बाद अगला पड़ाव पीनावाला है। टिकट लेकर प्रवेश करना है। धरातलीय चित्रण, पर्यावरण और प्रकृति की अद्भुत समझ है भट्ट जी को। हर दृश्यावली को उनकी आँखें पकड़ती हैं और उनका लेखक-मन गहराई तक उतरता है। यात्री को ऐसा ही होना चाहिए। श्रीलंका सरकार ने हाथियों के संरक्षण पर बल दिया है वरना अँग्रेज़ों ने तो इन्हें शिकार करके समाप्त ही कर दिया था। यहाँ हाथियों के झुंड को नहलाते हुए देखना रोमांचक दृश्य होता है। वे परेड की तरह एक-दूसरे के पीछे चलते हैं और उनका अनुशासन देखते बनता है। बहुत ऊँचाई पर हू-ब-हू हाथी की मूर्ति चौंकाती है। पर्यटक हाथी के बच्चों को बोतल से दुग्धपान करते देख आनंदित होते हैं। हाथी की संख्या आदि के बारे में उन्होंने विस्तार से लिखा है। 

‘काजूगामा से गुज़रते हुए हिबिस्कस बीच होटल’ और ‘समुद्र तट के प्रांगण में ‘हिबिस्कस बीच’ दोनों लेखों में लेखक ने बड़ा मनोहारी चित्रण किया है। वे लिखते हैं—‘यहाँ के गाँव ख़ासे सम्पन्न नज़र आते हैं, हर तरह की सुविधाओं से लैस। उनका यह कथन सही है—‘समुद्र है ही ऐसी चीज़ जो मनुष्य को अपनी ओर सहज ही आकर्षित कर लेता है। समुद्र ही क्यों, प्रकृति की सभी विराट निर्मितियाँ पहाड़, जंगल, झरने, नदियाँ सभी अपनी ओर आकर्षित करते हैं।’ अगला लेख है ‘बेन्टोटा और मादुगंगा रिबर सफारी‘। श्रीलंका की नदियों के नाम के साथ गंगा शब्द जुड़ा हुआ है। इस लेख में उन्होंने विस्तार से वहाँ के बारे में लिखा है जिससे अनेक जानकारियाँ प्राप्त होती हैं। उनकी एक विशेषता यह भी है, वे स्थितियों का भारत या दुनिया के अन्य देशों से तुलनात्मक विवेचना करते चलते हैं। उन्हें मादुआ द्वीप का दालचीनी वाला कार्यक्रम ख़ूब आकर्षित किया है। दालचीनी का उन्होंने विस्तार से वर्णन किया है और उसके तेल, छाल या पाउडर की उपयोगिता के बारे में लिखा है। उन्हें जहाँ मौक़ा मिलता है, समुद्री बीच का आनन्द लेना नहीं छोड़ते। एक लेख ‘जाॅफरी बाबा ट्रस्टः एक वास्तुकार की स्मृति यात्रा’ को लेकर है। विस्तार से भट्ट जी ने इस ट्रस्ट के बारे में लिखा है। उनका अगला पड़ाव है—‘गंगारमाया बुद्ध मन्दिर’। इसकी शान निराली है क्योंकि यहाँ विभिन्न धातुओं से बनी बुद्ध की छोटी-बड़ी अनगिनत मूर्तियाँ हैं। यह उपासना स्थल के साथ अध्ययन और सांस्कृतिक केन्द्र भी है। यहाँ भी बौधि-वृक्ष है। अगले लेख ‘इंडिपेण्डेन्स स्क्वायर कोलम्बों तथा कॅलणिय विश्वविद्यालय’ में उन्होंने श्रीलंका की स्वतंत्रता की तिथि 04 फरवरी 1948 को याद किया है। यहाँ देश के राष्ट्र पिता और प्रथम प्रधानमंत्री डाॅन स्टीफन सेना नायके की प्रतिमा लगाई गयी है। भट्ट जी कोलम्बो की ख़ूबसूरती, हरियाली के साथ बड़ी-बड़ी इमारतों और महात्मा गाँधी की कोलम्बो यात्रा का उल्लेख करते हैं। 

‘नेगोम्बो यानी श्रीलंका का गोवा’ लेख में कमलेश भट्ट जी लिखते हैं, ईसाई बहुल नेगोम्बो हमारी यात्रा का आख़िरी पड़ाव है। यहाँ भी रिसॉर्ट की यात्रा हुई। कमरे के ताला न खुलने के प्रसंग को लेखक ने विस्तार से लिखा है। ऐसी स्थितियाँ परेशान कर ही देती हैं। नेगोम्बो डच संस्कृति का कभी बड़ा केन्द्र रहा है। आज यह औद्योगिक नगर है और मत्स्य उद्योग तो बहुत प्राचीन काल से होता रहा है। यहाँ रोमन कैथोलिक चर्च हैं और इसे लिटिल रोम भी कहा जाता है। स्वाभाविक है, अगला लेख ‘कोलम्बो से दिल्ली’ ही होना है। अपनी लेखन कला का परिचय देते हुए कमलेश भट्ट कमल ने विस्तार से हर गतिविधि का उल्लेख किया है। वे लिखते हैं—रावण के जन्म स्थान से शुरू हुई हमारी यात्रा उसकी राजधानी लंका में भ्रमण के बाद फिर उसके जन्म स्थान पर आकर पूरी हो गयी है। 

“दालचीनी की महक“ लेख में भट्ट जी ने दालचीनी को लेकर बहुत कुछ लिखा है, पहले पुर्तगाली आये, फिर डच और बाद में अँग्रेज़ों ने अपना शासन स्थापित कर लिया। यह रईसों की ख़ास पसन्द रही है और सौदागरों ने इसे मिश्र सहित यूरोपीय देशों तक पहुँचाया। दालचीनी का प्रयोग तीन तरह से होता है—छाल, पाउडर और तेल। दालचीनी मसाला के साथ-साथ औषधीय गुणों से युक्त होती है। ‘श्रीलंका और हिन्दी’ उनका महत्त्वपूर्ण लेख है जिसमें श्रीलंका में हिन्दी भाषा, साहित्य को लेकर किए जा रहे कामों का उल्लेख है। यहाँ 1959 से हिन्दी की शिक्षा दी जा रही है और हिन्दी भाषा ख़ूब पसंद की जाती है। इसी क्रम में कमलेश भट्ट कमल ने ‘लंकाः असली लंका’ शीर्षक लेख में इस प्रचलित भ्रम पर प्रकाश डाला है। आये दिन प्रश्न उठता है कि आज जो लंका है, क्या वही रामायण कालीन लंका है। ‘श्रीलंका का इतिहास’ लेख में उन्होंने श्रीलंका के इतिहास को नाना सन्दर्भों से समझने-समझाने का प्रयास किया है। श्रीलंका के 25 ज़िले 9 राज्यों में फैले हुए हैं। भारत से बौद्ध धर्म, हिन्दू धर्म, वैष्णव व शैव मत का यहाँ प्रचार और विस्तार हुआ है। अंत में उन्होंने ‘स्मृतियों में श्रीलंका’ लेख के माध्यम से अपनी भावनाओं को चित्रित किया है। 

यात्रा-संस्मरण लिखने में प्रवाह बनाए रखना सहज नहीं होता, भाव-संवेदनाएँ अक़्सर सम्यक मात्रा में उभर नहीं पाती और चीज़ें छूटती रहती हैं। हालाँकि भट्ट जी ने बहुत कुछ लिख डाला है और पाठकों को पूरी जानकारी मिल जाती है। उनकी भाषा-शैली ठीक-ठाक है। कुल मिलाकर श्रीलंका यात्रा “दालचीनी की महक” सार्थक, समर्थ यात्रा संस्मरण है और लेखक को बहुत-बहुत साधुवाद व बधाई। 

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