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साझे का संसार की झकझोरती कविताएँ

समीक्षित कृति: साझे का संसार
कवि: कुमार बिन्दु
मूल्य: रु 250/-
प्रकाशक: अभिधा प्रकाशन

किसी ने बड़ी अच्छी चर्चा की और कहा कि कविता सुख देती है, सुकून देती है और लिखने-पढ़ने वालों को बहुत सारी समस्याओं से नजात दिला देती है। कविता सुकून और चैन का हरण भी करती है और लिखने-पढ़ने वाले दोनों को उलझा देती है। कविता के साथ दोनों होता है क्योंकि वह हमारे अन्तरतम को छूती है, सहलाती है और हमें अपने दायरे में ले लेती है। जब-जब कविता के मृत्यु की घोषणा हुई है, वह पूरी मज़बूती से खड़ी होती है। ये उन लोगों के षड्यन्त्र हैं जिन्हें कविता से डर लगता है। कविता किसी को डराती नहीं, लोग ख़ुद डरते हैं। 

पाली, डेहरी आन सोन के कुमार बिन्दु हम सभी के लिए सुपरिचित हैं। मैं उन्हें अपने पटना प्रवास के दिनों से जानता हूँ। उनकी आज तक की लिखी कविताओं का ‘साझे का संसार’ प्रथम काव्य संग्रह है जो बड़े संघर्ष के बाद अभिधा प्रकाशन से आया है। स्वाभाविक है, उनके जीवन के सारे उतार-चढ़ाव की अभिव्यक्ति या झलक इन कविताओं में दिखाई देगी। वैसे ही वैचारिक संघर्ष भी दिखने, उभरने चाहिए क्योंकि कुमार बिन्दु बँध कर रहने वालों में नहीं है। उन्होंने स्वयं ‘मेरी बात’ में बहुत कुछ स्पष्ट किया है, उनकी स्वीकारोक्ति देखिए, “बचपन से ही संगीत और सौंदर्य के प्रति मेरी गहरी आसक्ति रही है। मैं भले संगीतज्ञ नहीं बन सका, लेकिन हिन्दुस्तानी म्यूज़िक का रसिया ज़रूर हूँ।” अपने सौंदर्य बोध पर बचपन की कहानी का उल्लेख करते हुए उन्होंने लिखा है, “आज उस घटना की मनोवैज्ञानिक विवेचना करता हूँ तो यह समझ में आता है कि खेत लंबे समय से परती थी। जब उसकी जुताई हुई तो उसकी जड़ता ख़त्म हो गई। खेत नूतन अवस्था में था। नूतनता सौंदर्य है और उसी सौंदर्य ने मुझे अभिभूत कर दिया था। खेत में दौड़ना उस सौंदर्य से एकाकार होना या प्रसन्नता से नृत्य करना भी कहा जा सकता है।” ‘अपनी बात’ में कुमार बिन्दु ने बड़ी बेबाकी से अपनी विचारधारात्मक साहित्यिक यात्रा के साथ-साथ तत्कालीन साहित्याकाश के चमकते सितारों से सान्निध्य-स्नेह प्राप्ति का उल्लेख किया है। किसी भी नवोदित रचनाकार के लिए यह गौरव की बात है। इस संग्रह में उनकी कुल 78 कविताएँ हैं। 

इस संग्रह का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष यह भी है कि इन कविताओं को लेकर आज की तारीख़ के महत्त्वपूर्ण कवि अरुण कमल ने सशक्त टिप्पणी की है। उनके वाक्यों को उद्धृत करना अनुचित नहीं होगा, वे लिखते हैं, “कुमार बिन्दु की कविताएँ मार्मिक, बेधक और प्रचलित मान्यताओं का ध्वंस करने वाली हैं। कवि बिन्दु केवल चित्रांकन नहीं करते, या केवल भाव-प्रकाश ही नहीं करते बल्कि पाठक को भी सम्पूर्ण प्रवाह में साथ लिए चलते हैं जो एक विरल कर्म है। कुमार बिन्दु की स्वाभाविक और सहज प्रतिबद्धता दलितों एवं पिछड़ों के प्रति है जिनके जीवन के कुछ अविस्मरणीय बिम्ब प्रस्तुत करते हुए वे समस्त व्यवस्था और सत्ता को चुनौती देते हैं।” अरुण कमल जी ने आगे लिखा है, “कुमार बिन्दु ने अनेक प्रकार की और अनेक स्वरों की कविताएँ रची हैं जिनका उद्बोधन हमें भीतर तक तिलमिला देता है। वे बेहद प्रयोगशील और साहसिक कवि हैं।” शायद इसके बाद कुमार बिन्दु के रचना संसार पर अलग से कुछ कहने-सुनने की आवश्यकता नहीं है। 

‘साझेदारी’ कविता में ही इस काव्य संग्रह के शीर्षक ‘साझे का संसार’ छिपा हुआ है और कवि की तलाश भी—मैं वो शब्द तलाश रहा हूँ/जो प्रेम का बीज-मंत्र बन सके/मैं वो गीत तलाश रहा हूँ/जिसे दिल नितांत अकेले में गुनगुना सके/मैं वो सपने तलाश रहा हूँ/जो हम जैसे अनगिनत लोगों की आँखों में/प्रेम पुष्प खिला सके। कवि ऐसी कविता तलाश रहा है जिसमें पूरी दुनिया समायी हुई हो, सबके दुख-दर्द हों और सब कुछ साझे का हो। ‘मैं चाहता हूँ’ मानवता, जीव-जन्तुओं के लिए प्रेम, संवेदना और करुणा से भरी कविता है। वहीं ‘आवारागर्दी’ किंचित भिन्न भाव-तेवर दिखाती है। ‘गुमशुदगी’ में कवि के ठहरे जीवन की पीड़ा है जिसे वह अनेक बिम्बों में अनुभव करता है, खोजता है, दुनिया के मसीहाओं से आग्रह करता है और ख़ुदा को भी चुनौती देता है। कवि अपनी कविताओं में संवाद करता है, प्रश्न उठाता है और उत्तर तलाशता है। उसके संवाद का दायरा व्यापक है, मनोजगत से बहिर्जगत, एकल से सम्पूर्ण सृष्टि और आत्म से परमात्म तक। वह इतिहास के पन्नों को पलटता है और प्रश्न करता है, वह प्रकृति के विधान को समझना चाहता है और मानवता की तलाश करता है। वह कभी स्वयं को बड़ा नहीं कहता परन्तु बड़ी-बड़ी बातें बताता है, रोचक, ज़रूरी और सारगर्भित। हो सकता है, लोग सहमत हों या न हों, उसने ठान लिया है अपना कोई कर्तव्य मानकर। ‘आत्मालाप’, ‘अब मैं शहर नहीं जाऊँगा’, ‘हम कहीं नहीं जायेंगे’, ‘मैं चाहता तो यह था’ और ‘मैं शहर नहीं जाऊँगा’ जैसी कविताओं में कवि का अन्तर्द्वन्द्व, अन्तर्विरोध प्रतिध्वनित होता है। कुमार बिन्दु की कविताओं में कहानी के तत्व फैले हुए हैं। ‘पोटली’ कविता में संवेदना की कथा है, विरासत है और गुम हो जाने का दर्द भी। इस तरह देखा जाए तो उनकी कविताओं में भाव-बोध, सौंदर्य-बोध और जीवन की ललक है। 

कुमार बिन्दु की अनेक कविताओं का विषय स्त्री है। ‘औरत’ कविता के विस्तार में कुछ भी शेष नहीं है, सारे बिम्ब हिलाकर रख देते हैं और चमत्कृत करते हैं। ऐसे बिम्ब-विधान विरले मिलेंगे। ‘मेरे गाँव की औरतें’ स्त्री के कर्मठ जीवन, ज़िम्मेदारी उठाने और स्वयं को किसी से कमतर न मानने के बोध की कविता है। ‘दुनिया की सबसे हसीन औरत’ की भाव-संवेदनाएँ चमत्कृत करती हैं, लगता है कवि संघर्ष में प्रेम के ऐसे ही आत्मीय आदान-प्रदान की भावनाओं से ओत-प्रोत है। ‘नदी और स्त्री’ दोनों कवि के भीतर प्रवहमान है, दोनों की आपस में मौन वार्ता होती है। कवि स्त्री को ऐतिहासिक सन्दर्भों में खोजता है, पर पहचान नहीं पाता। उसका उजास देखिए—मैं नहीं जानता/मेरे अंतर में एक स्त्री क्यों रहती है/मेरे अंतर में एक नदी क्यों बहती है/हाँ, मैं यह ज़रूर जानता हूँ/पहाड़ी नदी के तट पर बैठी/मेरे अंतर की स्त्री/इस गोबर-गनेस से/गीत-कविता लिखवाती है। ‘खूँटे से बँधी गाय’, ‘ओ मेरी बिटिया’, ‘तुम्हारे बग़ैर मुमकिन नहीं’, ‘मन खिड़की से झांका’, ‘मछेरा मन’, ‘जाग मेरे मन मछेरे’ और ‘समर्पण’ जैसी कविताओं में कवि के गहन चिन्तन, भाव-प्रवणता और स्त्री को श्रेष्ठतर स्वीकार लेने का मनोभाव है। कवि उड़ान भरना चाहता है, उसका प्रेमी-मन प्रकृति से बहुत कुछ लेकर अपनी प्रेमिका को सजाना-सँवारना चाहता है। वह अपने मछेरे मन को जगाता है, बिटिया को लड़ना, जूझना सिखाता है, गाय को बेवक़ूफ़ कहता है। उसके पास इन सबके पीछे के कारण हैं, तर्क हैं, इसलिए सचेत करता है, सावधान करता है। बिम्ब रचने में माहिर कुमार बिन्दु के भीतर कोई विरोध सुलगता रहता है साथ ही कोई प्रेम कुलबुलाता रहता है। शायद एक साथ बहुत कुछ साधना और सबके प्रति संवेदन होना चाहते हैं। 

‘रिश्ता-नाता’ कविता में कवि पेड़, पहाड़, नदी, जंगल से रिश्ता ढूँढ़ रहा है और अपने तीव्र आकर्षण का कारण समझना चाहता है। ‘यह कौन सा साल है’ कविता में वह उन्नीस सौ सैंतालीस में अटका हुआ है, उसकी समस्या है, यह है, वह होता तो क्या होता। ‘ऐसा क्यों होता है’ कविता में दूर देश की घटना कवि के मर्म को छूती है, वह विचलित होता है। ‘ऐसा क्यों हुआ’ कविता में कवि का संकेत है, ग़ज़ल, संगीत या कोई भी कला जाति, धर्म और देश की सीमाओं से परे है। 

‘सुनो कबीर’ के बहाने कुमार बिन्दु अपने मन की बात करते हैं, कोई भिन्न विमर्श छेड़ते हैं और भावनाएँ निरूपित करते हैं। कबीर के चिन्तन का धरातल दूसरा है, उन्हें ललकारने की ज़रूरत नहीं है और ना ही वे रोकने-टोकने आयेंगे। उनका नाम लिए बिना भी कविता लिखी जा सकती है बल्कि उनकी अन्य कविताओं में ऐसे भाव भरे पड़े हैं। ‘ओ पितरों’ कविता में कवि अपनी सोच बताता है, रामलीला व दशहरा पर और कृष्ण की वंशी पर मुग्ध होता है। कृष्ण ने भी तो कंस सहित अनेक राक्षसों का वध किया है। ‘बोलो शंकराचार्य बोलो’ दबे-कुचले लोगों के पक्ष में खड़ा होने की कविता है, कवि पुरज़ोर तरीक़े से अपना विचार रखता है। ‘मुझे ईश्वर की ज़रूरत नहीं’ कविता में कवि को सब कुछ चाहिए, ईश्वर के सिवा। लोग सहमत हो सकते हैं, असहमत हो सकते हैं और कुछ लोग विमर्श छेड़ सकते हैं। ‘तथागत से सवाल’ कविता में संघर्षरत आमजन, किसान या स्त्री की चिन्ता है। प्रश्न अपनी जगह सही हो सकते हैं और कवि सरीखे दुनिया भर के लोग चिन्तन में लगे हुए हैं। ‘हे ईश्वर’ कविता में कुमार बिन्दु के प्रश्न चिन्तन के नये-नये द्वार खोलते हैं और मिथकों पर नाना तरीक़े से संभावनाएँ तलाशते हैं। अंत में कवि ईश्वर से प्रश्न पूछने में धैर्य खोकर अपना परिचय देता है। ईश्वर तो ईश्वर है, भला वह क्यों बोले। इन्हीं सब कारणों से शायद उन्हें साहसिक माना जायेगा। ‘चतुर्भुज’ कविता में यथार्थ के साथ किंचित हास्य भी है जो पाठकों को मुस्कराने का अवसर देती है। यह भी कोई तरीक़ा होता है आत्म-सिद्धि का, सदियों से इतर धाराएँ हमारे साहित्य में, चिन्तन में और समाज में प्रवाहित होती रहीं हैं। आधार तो एक ही है, जो सत्य होगा, टिका रहेगा। 

‘रक्तबीज’ कविता कवि की ललकार है, कोई उम्मीद भी। हमारे यहाँ रक्तबीज की अवधारणा है, बार-बार नष्ट करो, बार-बार प्रकट हो जायेगा। पंक्तियाँ देखिए—मैं मरा नहीं हूँ/मैं मिटा नहीं हूँ/क्योंकि मैं रक्तबीज हूँ/ मैं ज़िन्दा हूँ लोकगीतों में/लोकोक्तियों में, लोक गाथाओं में। ‘भूगोल की किताब’ रोज़ी-रोटी के लिए बाहर जाते लोगों के मर्म को छूने वाली कविता है। यहाँ पूरी धरती से अपने गाँव और लोगों की तुलना कवि की नयी चेतना है। ‘मौसम बदल गया है’ कविता में कवि अपने सामाजिक जीवन में बदलाव महसूस करता है, चतुर्दिक मरघट की आग दिखती है और लोग रक्त पिपासु प्रेत की छाया में बदल गये हैं। कवि को दुख है, वह संगीत, भजन, इश्क़ की बातें किसे सुनाए? कवि भी कम रईस नहीं है, जुआ खेलना चाहता है अपनी सखी के साथ, दाँव में दिल रखता है और हार जाना चाहता है ताकि सखी का पूरा आधिपत्य हो जाए। कवि उफनती नदी होना चाहता है, चाँद पर जाना चाहता है और कोहबर में जुआ खेलना चाहता है। उद्देश्य यही है, जो उचित नहीं है, उसे नष्ट किया जाए और नये गीत, गालियाँ और कहानियाँ सीखी जाएँ। कवि को दुख है, पेड़ कुछ नहीं जानता और उसका मालिक उसे मंडी का माल समझता है। कवि जानना चाहता है—लेकिन क्या होगा उस दिन/जब सब कुछ जान पायेगा पेड़। दुनिया भर में हुई हत्याओं और युद्धों को याद करते हुए कवि स्वयं को हारा हुआ नहीं मानता और अपने तरीक़े से तैयारी करता है। यह उसका हौसला है और जीवन को संघर्षरत बनाये रखने का संदेश भी। इस संग्रह में इस चिन्तन की अनेक कविताएँ हैं। भले कोई हुंकार लगता हो या नारेबाज़ी, कवि जोश से भरा हुआ है। 

‘कितनी अजीब बात है’ में कवि को गाँवों के लुप्त होते जाने की पीड़ा है, देश के मानचित्र में शहर हैं, महानगर हैं परन्तु गाँव नहीं हैं। कुमार बिन्दु की विशेषता है, वे अपनी कविताओं में देश की महान विरासत, महान लोगों और बड़ी-बड़ी घटनाओं को पूरी गरिमा के साथ याद करते हैं। अपनी सुविधा के अनुसार उन्हीं पर प्रश्न भी करते हैं और गुणगान भी। साहित्य में ऐसी चीज़ें छिपाई नहीं जा सकती। ‘नाच रहा प्रेत’ का वीभत्स दृश्य व मुक्ति के लिए कवि की हुंकार और आह्वान रोचक है। ‘ठीक इसी वक्त’ के सारे बिम्ब और उड़ान कवि की पक्षधरता बताते हैं। ‘ओ रघुनिया पासी’ की पंक्तियाँ देखिए—ओ रघुनिया पासी! नींद तोड़ो/झोपड़ी छोड़ो/चाँद की सुनहरी ज़ुल्फ़ों से/सुरमई नोच लो/और उसे पत्नी की उदास आँखों में/अपने बेटे-बेटियों की ख़ाली जेब में/अपनी प्रेयसी नैना जोगिन के अंग-अंग में/चुपके से धर दो। ‘अजीब आदमी’ की चिंता कवि को है, उसे उसकी दुनिया से बाहर निकालने की चिंता है, कोई चेतना जगाने की चिंता है क्योंकि गनपत में बहुत सी बातें हैं जो कवि की सोच में नहीं है। ‘ऐसा क्यों हो रहा है’ कविता के प्रश्न कवि को विचलित करते हैं। वैसे ही ‘डरा हुआ आदमी’ का मनोविज्ञान कवि अपने उदाहरणों से समझाता है और निष्कर्ष निकालता है—डरा हुआ आदमी/न जीता है, न मरता है/एक ज़िन्दा लाश बन जाता है। गाँवों में दीवाली की पूर्वसन्ध्या पर सूप बजाकर दरिद्दर भगाने का प्रचलन है। कवि का कहना है, दरिद्दर चुपके से पुनः घुस आता है घर में, वह कहीं नहीं जाता। बड़ी मार्मिक स्थिति है, घर की दरिद्रता कभी ख़त्म नहीं होती, पीढ़ियाँ बीत गयीं और अब तो नयी पीढ़ी की बारी है। 

कुमार बिन्दु के गाँव के पास ही शेरशाह का मक़बरा है। कवि के पास अपना चिन्तन है, अपनी सोच है, तदनुसार ही वह इतिहास को देखता है और अपने तरह से कविता की पंक्तियाँ रचता है, शेरशाह को जगाना चाहता है। ‘बदल जाती है दुनिया’ स्वाभाविक तौर पर भावुक कर देने वाली कविता है। नन्हा बच्चा, उसकी मुस्कान सबको प्रभावित करती है, कवि की पंक्तियाँ देखिए—मेरी बाँहों में/मेरी गोद में/आता है कोई नन्हा सा बच्चा/वह मुस्कुराता है तो/मेरे होंठों पर भी आ जाती है मुस्कान/वह हँसता है तो/खिलखिला उठता हूँ मैं भी। ‘ठठाकर मत हँसो कवि’ एक तरह से व्यंग्य की कविता है, थोड़ी सियासत भी है। कवि पुराना खिलाड़ी है, मँझा हुआ, इसलिए कविता प्रभाव डालती है। ‘ग्रहण’ कविता में बड़ी गहराई से ग्रहण महसूस करता है और बचाने की गुहार लगाता है। ‘सूर्य देवता ने सिर झुकाया’ कविता में उसके चिन्तन की पुनरावृत्ति है, वह बार-बार स्वयं को सबसे ऊपर दिखाने की कोशिश करता है। ‘कहीं चोर तो नहीं है चाँद’ कविता में कवि उन्हीं उलझे विचारों में खोया है, उसके प्रश्न अब कोई कुतूहल पैदा नहीं करते। जिस क्रान्ति की कल्पना है, उसके संकेत तो मिलते हैं परन्तु दूर तक यात्रा संदिग्ध लगती है। 

‘बंदूक की नली से’ कविता में कवि बहुत सी अच्छी-अच्छी बातें करना चाहता है और सहारा उन्हीं बिम्बों का लेता है। वह कैसे कह सकता है, फ़ौजी के बंदूक की नली से अपराधी और आदिवासी एक समान दिखते हैं, वह भी केवल मांस का लोथड़ा। ‘मोहब्बत की किताब’ कविता में भी वह बहुत कुछ चाहता है और नागासाकी, हिरोशिमा, गोधरा, भिवंडी का चक्कर लगा आता है। सारा आधार उसके वैचारिक चिन्तन का है, सारी दुनिया वैसी ही दिखाई देती है। विडम्बना ही है, चाहना और, देखना कुछ और। ‘वसंतोत्सव’ और ‘बसंत फिर लौट आया है’ दोनों कविताओं में कवि बसंत की अनुभूति कर रहा है और नाना बिम्बों को देख हुलसित है। बार-बार लगता है, उसका असली भाव यही है, उन्मत्तता, प्रेम, बौराना और नशे में झूमना, शेष सब ओढ़ी हुई कोई चादर। ‘तानाशाह का सपना’ मनोविज्ञान का चिन्तन है और कवि ने वही लिखा है जो उसके ज़ेहन में है। ‘बदलाव’ की मार्मिकता और मनोवैज्ञानिकता मन को कहीं गहरे छूती है। ‘ओ भइये’ कवि के उलझन की कविता है। ‘बहुत कठिन है’ कविता में स्त्री को लेकर कवि में बहुत उहापोह है। ‘फिर कैसा जीना’ कविता के भाव-विचार बिल्कुल सही लगते हैं। पुनरावृत्ति की समस्या कवि के सामने बार-बार उभरती है। 

आजकल कवियों को कोई होड़ लगी है, अच्छी बात है, वे उड़ान भरना चाहते हैं, उड़ते-फिरते हैं, नये-नये बिम्ब, प्रतिमान गढ़ते हैं और कविता का कोई नया आलोक फैलाते हैं। ‘आज सूर्य कुछ इस तरह मिला’ अपने आप में नई तरह की कविता है जो कवि को सूर्यमुखी बनाती है, प्रेयसी को महुआ का फूल और बच्चे इंक़िलाब ज़िन्दाबाद के नारे लगाने लगे हैं। ‘मेरी हथेली पर हवा’ के प्रश्नों में उलझा है कवि, कबीर, रैदास, बिस्मिल्लाखान को खोज रहा है, उसे बनारस में बनारस नहीं, अयोध्या मिलती है। ‘किन आँखों में नहीं उतरी नींद’ बड़ी मासूमियत के प्रश्न हैं। रात में सभी की आँखें बोझिल होती हैं, लोग नींद में डूब जाते हैं, परन्तु कुछ आँखें जागती रहती हैं, सो नहीं पातीं। ‘रिश्तों की मंडी’ में कवि को सर्वत्र बाज़ारवाद दिखता है जिसके वह ख़िलाफ़ है—मैं आदमी से बस आदमी की तरह/पेश आना चाहता हूँ। ‘तुम हो तो‘, ‘तुम हँसो‘, ‘ऐ मेरे मीत‘, ‘तुम आओगे तो’ और ‘चढ़ते सावन’ जैसी कविताएँ कवि के प्रेमी मन की थाह देती हैं। मूल तो प्रेम ही है उसके जीवन में जिसके पीछे भागता फिरता है, नाना तरीक़ों से अपने प्रेम की ताप दिखाता, समझाता रहता है। ‘आओ दोस्त’, ‘इससे पहले’, ‘संसार का सबसे सुन्दर दृश्य’ जैसी कविताओं में प्रेम के भाव हैं और मित्रता के भी। 

भाषा-शैली की दृष्टि से देखा जाए, ये कविताएँ कवि के नये अंदाज़ को दिखाती हैं। हिन्दी के साथ-साथ उर्दू, भोजपुरी के शब्द ख़ूब प्रयुक्त हुए हैं। कवि का कोई ख़ास लहजा है जो आकर्षित और चमत्कृत करता है। महत्त्वपूर्ण है भाव-चिन्तन और विचार। कविताएँ दो-तीन तरह की हैं। कुछ व्यक्तिगत हैं, कुछ सामाजिक और अधिकांश वैचारिक या राजनैतिक। कवि इतिहास में जाता है और चरित्रों के आधार पर बिम्ब खड़ा करता है। उसपर दो-तीन तरह के दबाव दिखते हैं। एक तो उसकी अपनी पृष्ठभूमि है और दूसरा आयातीत विचारों का प्रभाव। साथ ही सुखद है, वह अपनी भारतीयता को छोड़ नहीं पाया है। साहित्य के संसार में देर-सवेर सबका मूल्यांकन होता है, टिका वही रहेगा जो सच के साथ रहता है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है, कुमार बिन्दु ने किंचित भिन्न तरीक़े से हिन्दी कविता में अपनी उपस्थिति प्रस्तुत की है, उनका स्वागत किया जाना चाहिए। 

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