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गाँव से महानगर तक रिश्तों के टूटने-जुड़ने की कथाः अँगूठे पर वसीयत

समीक्षित पुस्तक: अँगूठे पर वसीयत (उपन्यास) 
लेखक: शोभनाथ शुक्ल
प्रकाशक: साक्षी प्रकाशन संस्थान
संस्करण: 2020 प्रथम
मूल्य:₹300 सजिल्द, 
पृष्ठ:252

उपन्यास विधा पर चिन्तन करना तनिक दुरूह तो लगता है परन्तु उसमें डूबने का आनंद अलग है। नदी के किनारे बैठकर नदी की ओर से आती हवाओं की शीतलता महसूस की जा सकती है, उसके प्रवाह को देखा जा सकता है परन्तु उसकी बेचैनी और बहुत कुछ जो वह कहना चाहती है, उसको समझना सहज नहीं होता। हमारा जीवन भी कुछ वैसे ही सतत प्रवाहित हो रहा है और बहुत कुछ समानता है हमारे जीवन का नदी के साथ। कोई उपन्यास जीवन का बहुत कुछ अपने में समेटे रहता है और पाठकों के सामने सारा रहस्य खोलकर प्रस्तुत करता है। यहाँ नदी के साथ तुलना करना उद्देश्य नहीं है, उद्देश्य है नदी में उतरने के लिए आग्रह करने का, उपन्यास में डूबने का। उपन्यास हमारे जीवन को खोलता है, बहुत सारे रहस्यों को उजागर करता है और हमारे चरित्र पर प्रकाश डालता है। जीवन के विविध पक्षों का समावेश कुछ इस तरह होता है कि उपन्यास में सच्चाई के साथ कल्पनात्मकता मिली होती है। वैसा ही एक अनूठा उपन्यास ‘अँगूठे पर वसीयत’ मेरे सामने है जिसे सुल्तानपुर, उत्तर प्रदेश के डॉ. शोभनाथ शुक्ल जी ने लिखा है। शुक्ल जी ‘कथा समवेत’ नामक साहित्यिक पत्रिका का संपादन लम्बे अरसे से कर रहे हैं। उनके कहानी संग्रह, कविता संग्रह प्रकाशित हैं और वे सम्मानित-पुरस्कृत भी हुए हैं। 

‘अँगूठे पर वसीयत’ के आवरण पर, श्री विभूति नारायण राय ने उस छोटे-से अंचल की साहित्यिक गतिविधियों के बारे में, अपना अनुभव बताते हुए उपन्यास को लेकर लिखते हैं, “उपन्यास अपने कलेवर में गँवई जीवन के उस छुये-अछुये पहलुओं के विस्तार में जाता है जहाँ अभावों और पारिवारिक द्वन्द्व के बीच कठिन संघर्ष की चेतना जीवित है, स्त्रियों के साथ व्यभिचार और राजनीति में उनके देहदान की कथा समाई हुई है और आज़ादी के बाद बहुत कुछ बदलने के बाद भी गाँव के जीवन में रोज़ी-रोटी का प्रश्न जहाँ उत्तर की प्रतीक्षा में अब भी मौजूद है।” राय जी कुछ गहरी बातें बताते हुए लिखते हैं, “यह उपन्यास गँवई जीवन के चप्पे-चप्पे की पड़ताल में यह ख़ुलासा करता है कि सिर्फ़ साधन सम्पन्नता ही विकृतियों की जननी नहीं होती बल्कि अभावग्रस्त जीवन भी अपने आदिम इच्छाओं की पूर्ति का रास्ता तलाश लेता है, शीलता-अश्लीलता के कतिपय दृश्यों में मानव इच्छाओं की चंचल स्वीकारोक्ति इस उपन्यास को सच का आईना बना देती है।”

डॉ. शोभनाथ शुक्ल ने ‘वसीयत की बिसात पर पड़ा टुकड़ा-टुकड़ा सच’ शीर्षक से सारगर्भित, महत्त्वपूर्ण चिन्तन प्रस्तुत किया है। उपन्यास की कथा-वस्तु, कथ्य-कथानक बहुत कुछ यथार्थ और घटित घटनाओं को जोड़ता दिखता है। ये घटनाएँ लेखक को बेचैन करती हैं, वर्षों पहले इसी समाज के किसी कोने में घटित हुई हैं और यह ग्राम्य-कथा उपन्यास की शक्ल धारण करती चली गई। शुक्ल जी की इन पंक्तियों को उद्धृत करना ज़रूरी लगता है, वे लिखते हैं, “इस उपन्यास में वर्णित घटनाएँ, परिस्थितियाँ, कारण-अकारण पाप-पुण्य के भागीदार बने पात्र समाज के एक सीमित क्षेत्र की ज़िन्दगी का जो ताना-बाना बुनते हैं, अपनी प्रामाणिक स्थिति में ये आधा सच, आधा झूठ ही है, जहाँ एक तरफ़ टूटते-बिखरते पारिवारिक द्वन्द्व और अभावों में भी कठिन संघर्ष का माद्दा रखने वाले लोग हैं, लुके-छिपे स्त्रियों के साथ व्यभिचार और राजनीति के दाँव-पेंच में हारती नारी अस्मिता की पीड़ा है, हारते हुए भी हैं, तो कशमकश भरी ज़िन्दगी में जीत के लिए आकुलता भी है, बहादुर भी हैं तो कायरता में आत्महंता भी हैं–और दूसरी तरफ़ धन-सम्पत्ति के ख़ातिर अपने अफ़सर बेटे से मार खाते वे लोग भी हैं जो अपना सर्वस्व लुटाकर भी अपने बच्चों के लिए डिग्रियाँ और नौकरियाँ बटोरते रहे हैं।” समाज के प्रति इन्हीं कारणों से यह उपन्यास अपनी ज़िम्मेदारी का अहसास तय करता है। आगे शुक्ल जी लिखते हैं, “आज़ादी के बाद समाज में बहुत कुछ बदला—पर जो चीज़ नहीं बदली वह है रोज़ी-रोटी के सवाल पर उनके संघर्षों की दशा–दिशा, ग़रीब–अमीर के बीच का फ़ासला, उनका जीवन स्तर जिसके लिए जाने कितनी सरकारें बनी-बिगड़ीं। गाँव के हालात बद से बदतर होते गये।” शुक्ल जी साहित्य को राजनीति का पिछलग्गू बनता देख दुखी हैं। उनके अनुभव का दायरा व्यापक है और समाज के नाना विमर्शों में टकराव की समझ भी। लेखक के इस वक्तव्य को देखने की ज़रूरत है, उन्होंने लिखा है—यह उपन्यास अपने कथानक में एक अंचल के समाज को अपने इसी रूप में प्रस्तुत करने वाले टुकड़े-टुकड़े सच को बतौर आईना इस्तेमाल करता है। शीलता–अश्लीलता किसी भी समाज व व्यवहार का ही हिस्सा है पर जो कार्य-व्यवहार मनुष्य को बेहतर इंसान बनने की सीख से भरा हो वही प्रणम्य है। शुक्ल जी का यह विचार भी समझने लायक़ है—जिस देश को तीन-चार दशक पहले आत्म-निर्भर हो जाना था उसके प्रयास अभी पगडंडियों पर लड़खड़ा रहे हैं। 

डॉ. शोभनाथ शुक्ल ने अपने उपन्यास “अँगूठे पर वसीयत” को कुल पैंतीस खण्डों में विस्तार दिया है। शुरूआत मार्मिक और अचम्भित करने वाले प्रसंग से हुई है। क्रूरता ही कही जायेगी, कोई पुत्र पिता की मृत्यु की कामना करता है। पिता राम बरन ग़रीब का बीमारी की हालत से तेईसवें दिन उठ बैठना पुत्र के लिए असहनीय है। पुत्र बलराम आरक्षण के आधार पर ‘एम टेक’ करके मिल में इंजीनियर के पद पर है। राम बरन ग़रीब बेटी की शादी करके आधी ज़िम्मेदारी से मुक्त हो गये हैं, हालाँकि यह शादी महँगी पड़ी और वे काफ़ी ऋणी हो गये। बलराम की शादी धूमधाम से हुई, यह रिश्ता ख़ुद लड़के ने तय किया। माँ-बाप के लिए यही बहुत है, वह उसे अरेन्जड मैरिज का रूप दे रहा है। बहू का सुख तब मिलता जब वह दो-चार दिन आकर गाँव में रुकती। बलराम बड़ा अधिकारी है, गाँव आने की फ़ुरसत नहीं है। माँ-बाप शहर पहुँचते हैं। बलराम के पसंद की चीज़ें ले जाते हैं। पत्नी, बच्चों के साथ मायके गई है। बलराम बेमन से स्वागत करता है। मित्रों के साथ शराब पीने में लगा है, कार्यालय के महिला सहकर्मियों को लेकर चटखारे लिए जा रहे हैं। माँ का हृदय अपमान-तिरस्कार से चीत्कार कर उठा है। बलराम भी क्षणिक महसूस करता है, कोई खोखली ज़िन्दगी जी रहा है। शराब के नशे में नयी टाइपिस्ट काजल मुखर्जी पर ध्यान केन्द्रित होता है। पात्रों के चरित्र, विचार, मनःस्थिति का दमदार वर्णन हुआ है। 

उपन्यासकार ने पात्रों के जीवन की जटिलताओं, मन की भावनाओं को जोड़ने, जुड़ने और टूटने के रूप में चित्रित किया है। घटनाएँ विचलित और अचंभित करने वाली हैं। बलराम ग़रीब बड़ा अधिकारी है परन्तु घर में उसकी एक नहीं चलती। पत्नी अंजली की अपनी दुनिया है, अपनी सोच है कि गाँव-गँवई के लोग तो वैसे भी शहरों में आकर बौरा जाते हैं। बलराम माँ-पिता से कतराते फिरता है। घर में काम करने वाले राधे के माँ-बाप नहीं हैं, वह भावुक होता है परन्तु कुछ कर नहीं सकता। डॉ. शोभनाथ शुक्ल ग्रामीण भारत को समझते हैं, वहाँ की हवा, वहाँ का पानी और गँवई मन भी। अंजली ने बच्चों को समझाया था कि दादा-दादी के पास बहुत नहीं रहना है। वे लोग गाँव-गँवई के मनई हैं—छुआछूत से संक्रामक रोग के होने का ख़तरा रहता है। रात में राम बरन ग़रीब ने टायलेट जाते हुए बलराम-अंजली की बातें सुन ली, काटो तो ख़ून नहीं। सुबह शीघ्र ही तैयार हो गये, पत्नी को भी तैयार होने को कहा। बच्चों से उन्होंने कहा, ”कभी महसूस हो कि यहाँ के अलावा भी तुम्हारी जड़ें और किसी घर में है तो कभी भी आ जाना, मेरे लिए वह सबसे ख़ुशी का दिन होगा—और हाँ, फोन पर दादी से बातें कर लोगे तो तुम्हारी दादी को कुछ ज़्यादा ही सुकून मिलेगा।” बलराम हक्का-बक्का खड़ा है। 

गाँव-जवार का अपना हिसाब-किताब है। राम बरन की चिन्ता है, लोगों को क्या बोलेंगे, देनदारों को क्या समझायेंगे। उन्होंने दो बीघा खेत बेचने की योजना बना ली। नींद में डरावने सपने आने लगे। रमई सिंह पटेल धमकाते मिले। परधानिन बुआ आ धमकीं। राम बरन डर गये। उन्होंने कहा, “तुम्हारी पीड़ा समझती हूँ। खेत मत बेचना, ज़रूरत हो तो बोलना, कोई रास्ता निकालूँगी।” राम बरन विह्वल हो उठे और फफक कर रोने लगे। अचानक नींद खुल गई, पत्नी ने घबड़ाकर पूछा, “कोई बुरा सपना देखा क्या?” रविकान्त चौबे से दो बीघा ज़मीन का बयाना हो गया। शोभनाथ शुक्ल ने क़दम-क़दम पर पात्रों के मन के भीतर चल रहा अन्तर्विरोध लिखा है। जीवन का ज़बरदस्त मनोविज्ञान यह भी है जिससे हम भागना चाहते हैं, पसंद नहीं करते, बार-बार पाला उसी से पड़ता है। बलराम की चोरी-छिपे शादी करवाने में चौबे जी का बड़ा हाथ है। उन्होंने देनदारी धीरे-धीरे चुकानी शुरू कर दी। वे अकेलापन महसूस करते और घर में ही पड़े रहते हैं। परधानी का चुनाव होने वाला है। राम बरन परधानिन बुआ के पास पहुँचे। ख़ूब राजनीतिक बातें हुई। गाँव की बची-खुची राजनीति की बातें चाय के कुल्हड़ पर सड़क किनारे चाय की दुकान पर होने लगीं। 

खण्ड सात में चाय की दुकान पर चाय की चुस्की के साथ डॉ. शोभनाथ जी ने बैठकी का जीवन्त दृश्य चित्रित किया है। सबका चरित्र, व्यवहार-विचार, रोज़गार और बोली सब उजागर हो रहा है। राम बरन साँझ ढले घर लौटे। नयी दुश्चिन्ता उभरी, कहीं चौबे ने धोखा दिया तब क्या होगा। सोचते-सोचते वे पसीना-पसीना हो गये। उठने की कोशिश में धड़ाम से गिर पड़े। किसी तरह रात बीती। सुबह तक तबीयत थोड़ी सम्हल गयी। चौबे जी का भतीजा आ गया। कुछ बातें हुई। उसके जाने के बाद राम बरन कई तरह के सवालों, आशंकाओं से घिर गये। चौबे ने बेटी और बलराम का नम्बर माँगा है। उपन्यासकार का अपना अंदाज़ है, रसिकता सबको आकर्षित करती है। कहानी जब से शुरू हुई है, केवल समस्याएँ हैं, गम्भीरता और दुश्चिन्ताएँ बनी हुई हैं। इस एकरसता को तोड़ना ज़रूरी है। राम बरन ग़रीब अपनी पत्नी को चूम लेते हैं। वह धत् कहती है और उम्र का ख़्याल करने की नसीहत देती है। दोनों एक-दूसरे के आत्मीय स्पर्श से पिघलने लगते हैं। यह प्रसंग लेखक का अति उत्साह दिखाता है। डाकिया पाँच हज़ार रुपये दे गया है। भरोसे लाल भास्कर के लड़के राम नरेश ने हाबड़ा से भेजा है। डाकिया ने चिट्ठी दी है, नातिन बिट्टू ने भेजी है। जन्मदिन पर बुला रही है। पंचायत बैठने वाली थी। नोहरी ने अपनी भतीजी सुमीता पर घर की इज़्ज़त ख़राब करने का इल्ज़ाम लगाया है। पंचायत नहीं बैठी, टल गई। 

दुनिया की विचित्र स्थिति है, जिसके पास धन है, भोग करने के लिए सन्तान नहीं है। खण्ड नौ, गाँव की कहानी परत-दर-परत खुलती जा रही है, ग़रीबी, लाचारी और अनैतिक संबंधों की विवशताएँ। शुक्ल जी लिखते हैं, “नोहरी के अनुभवहीन शारीरिक हरकतों और अवयवों को सधे हाथों से अपने अनुकूल बनाती हुई चौधराइन उसे अपने में समेट लेती हैं।” अद्भुत है शुक्ल जी का दृश्य चित्रण, घटनाओं का चित्रण और स्मृतियों के बहाने पूरे जीवन का चित्रण। यहाँ यथार्थ है, भावनाएँ हैं और संगतियाँ-विसंगतियाँ हैं। नोहरी के माध्यम से लेखक ने समाज के अनेकों अनैतिक संबंधों की नंगी सच्चाई को लिखा है, कुछ ज़्यादा ही लिखा है। संकेतों या बिम्बों से भी मन्तव्य पूरा हो सकता था, पाठक सब समझते हैं परन्तु लेखकीय वासना भी तो पूरी होनी चाहिए। नोहरी, सुमीता, गाय, बछड़ा, उनके कृत्य-कुकृत्य। शुक्ल जी लिखते चले जा रहे हैं, सब कुछ खोलकर। नोहरी ने सुमीता के साथ जो किया, मादा पशु हो या स्त्री–अपनों से ही घायल है। लेखक के मन में दोषी-निर्दोष का चिन्तन चल रहा है। शुक्ल जी लिखते हैं, “बहुत नैतिक सदाचारी कहे जाने वाले समय और समाज के लोगों में सुरक्षित सेक्स के नाम पर तमाम क़रीबी पारिवारिक सदस्यों में कामुक रिश्ते स्थापित हो जाते रहे हैं।” सुमीता को नोहरी के प्रति घृणा के गहरे भाव हैं, उसका जीवन नरक बन गया है। वह पिता के पास चली जाती है। सेठानी उसे जानती मानती है। रोशन लाल मिलता है। दोनों को अपने-अपने भीतर गुदगुदी-सी होती है। दशहरा पूजा की भीड़ में सुमीता और रोशनलाल दबाव के कारण बहुत क़रीब आ जाते हैं। कहानी में प्रश्न है, उत्तर है, उम्मीदें हैं और निराशाएँ भी। सुमीता सोचती है, कभी ख़ुश होती है, कभी निराश। 

सुमीता को रोशनलाल के साथ बाइक से जाना है। रामलीला चल रही है। लौटते समय शुक्ल जी बाइक प्रसंग, चाट-इमरती खाने-खिलाने का प्रसंग ख़ूब आनंद में लिखे हैं, रस ले-लेकर। रोशन लाल एकान्त में चाँदनी में सुमीता से मनुहार करता है और चुम्बन शुरू। शुक्ला जी इस प्रसंग को बढ़ाते जा रहे हैं, दोनों कपड़ा ख़रीदने बाज़ार जाते हैं, गिफ़्ट पैक होता है, स्टुडियो में मिलन के दृश्य हैं, फिर फोटो खिंचवाना। सुमीता को गाँव पहुँचाने का ज़िम्मा रोशनलाल का ही है। शुक्ला जी इस ख़ुशी की तुलना करते हैं—दोनों की ख़ुशी आग पर सिंक रहे भुट्टे की तरह है जो रह-रह कर फूटती रहती है। नोहरी ग़ुस्सा है। गाँव में प्रधान के चुनाव के लिए परधानिन बुआ ने परचा भरा, साथ में दो डमी प्रत्याशी खड़े किए गए। राम बरन ग़रीब ने परधानिन बुआ को आश्वस्त किया। बुआ के संघर्ष की पूरी कहानी विस्तार से शुक्ल जी ने लिखी है। चौबे जी के घर पर भीड़ जमा हो गई। परधानिन बुआ का माथा ठनका—आखिर इतनी भीड़ कहाँ से आ गई। मतदाता कहाँ कब किसके साथ पलट जाए कहा नहीं जा सकता। चौबे जी की माँ ने परचा भरा और उनकी ओर से भी तीन डमी परचे भरे गये। परधानिन बुआ ने चौबे जी को होटल में बुला लिया, नाम वापस के लिए पाँच लाख रुपये का बैग खोल दिया। उसके बाद विस्तार से मन पसंद चित्रण करते हुए शुक्ला जी ने लिखा—एक बार फिर राजनीति जाँघों के बीच वेश्या बन अपनी जीत का जश्न मना रही थी। राजनीति किसी को नहीं छोड़ती और कितना गिराती है, इसका कोई अंत नहीं। यह उपन्यास राजनीति पर ज़बरदस्त लांछन लगाता है, स्त्री विमर्श पर चर्चा करता है और अनेकों प्रश्न खड़ा करता है। परधानिन बुआ का जलवा आसमान छूने लगा है। शुक्ल जी आँखों देखे हाल की तरह कहानी बुनते जा रहे हैं जिसमें घटनाएँ हैं, मनोभाव हैं, परिस्थितियाँ हैं और षड्यंत्र वाली राजनीति है। शुक्ल जी का पत्रकारिता का अनुभव उनके लेखन में झलक रहा है। 

शपथ ग्रहण करते समय परधानिन बुआ को कम्पन जैसा हुआ, उनके माथे पर पसीने की बूँदें चुहचुहा आईं। उन्होंने कहा—‘मंगलवार व्रत है, ख़ाली पेट के कारण थोड़ा चक्कर आ गया।’ घर में वह माँ की आत्मीयता से अभिभूत हो उठी—‘काश तुम्हें सच की जानकारी होती माँ! मैं तुम्हें कैसे बताऊँ—कि मैं चौबे जी के साथ . . .।’ बेचैनी की हालत में रात कटी। शहर जाकर परधानिन बुआ ने नाम बदलकर जाँच करवाई। पैर के नीचे की ज़मीन खिसकने लगी, वे गर्भवती थीं। मनोविज्ञान, शुक्ल जी ख़ूब समझते हैं और ऐसे हालात में परधानिन बुआ की समस्याएँ भी। उनकी समस्या यह भी है—क्या चौबे आसानी से स्वीकार कर लेगा? धीरे-धीरे वह दो हिस्सों में बँट गईं हैं। शुक्ल जी स्त्री की ज़रूरतों पर विशेष बल देते हैं लिखते हैं—‘ये लोग इकतरफा ही क्यों सोचते हैं—मेरी जरुरतें—शारीरिक, मानसिक, दैहिक–भौतिक सब तरह से क्या ख़त्म हो सकती है? दैहिक ज़रूरतों की पूर्ति क्या अपराध है?’ भीतर अन्तर्द्वन्द्व चल रहा है, कोई समाधान नहीं सूझ रहा। चौबे जी मुम्बई एयरपोर्ट पर बुआ का स्वागत करते हैं। होटल के दृश्य शुक्ल जी के मन की उड़ान को उड़ान दे रहे हैं। परधानिन बुआ ने कहा—रवि! मुझे बचा लो। चौबे जी किसी दूसरी दुनिया में हैं। अगले दिन सिरडी की यात्रा होती है। बुआ ने हाथ जोड़ा और अपनी समस्या में साथ देने की प्रार्थना की। उन्होंने मन ही मन कहा, “मैं बच्चे को जन्म देना चाहती हूँ, उसकी माँ बनना चाहती हूँ, बच्चे के पिता का नाम और उसका साथ चाहती हूँ। इतनी कृपा करो बाबा!” रात में सुखद पलों में परधानिन बुआ ने जाँच की रिपोर्ट रवि के सामने रख दी। सहसा चौबे जी परेशान हो उठे। बहसें होनी ही थीं, ख़ूब हुईं। डॉक्टर से सलाह ली गई। मुम्बई से लौटकर परधानिन बुआ काम में जुट गई। 

शुक्ला जी गाँव के विकास के लिए राम बरन ग़रीब के द्वारा लड़कियों के लिए स्कूल खोलने पर विचार कर रहे हैं। परधानिन बुआ, चौबे जी और सभी सरकारी अफ़सरों का सहयोग मिल रहा है। कुछ लोगों को समझ में नहीं आ रहा है। स्कूल का काम तेज़ी से चल रहा है। बुआ बेचैन हैं। चौबे जी भी कम परेशान नहीं हैं। नोहरी सुमीता को लेकर पंचायत पर अड़ा हुआ है। कहानी कुछ सपाट तरीक़े से आगे बढ़ रही है। सारे पात्रों की स्थिति उलझी हुई है। 

डॉ. शोभनाथ शुक्ल जी गम्भीर अध्येता, साहित्य चिन्तक हैं और उन्हें अपने आसपास के जीवन की गहरी समझ है। समाज की नंगई उजागर करना सबके बस का नहीं होता, यह साहस का काम है और शुक्ल जी ने अपने उपन्यास लेखन में दिखाया है। गाँव के पंचायत भवन में पंचायत बैठी है, जिरह-बहस जारी है और मामले के तह तक पहुँचने की कोशिश चल रही है। खण्ड इक्कीस, पंचायत का विस्तार से वर्णन, ऐसे मामले में लेखक के अनुभवी होने का प्रमाण है, उन्होंने बड़ी साफ़गोई से सब कुछ खोलकर रख दिया है। तय हुआ कि बिरादरी को भोज भात, पंचायत को तीन हज़ार रुपये और सुमीता चाहे तो 25 चप्पल मार ले नोहरी को और अपने अपमान का बदला ले ले। शुक्ल जी इसे पुरुष वर्चस्व की बात मानते हैं। परधानिन बुआ का रविकांत चौबे के साथ संवाद शुक्ल जी के लेखन का सशक्त चिन्तन दिखाई देता है। ऐसे मामले में जो जद्दोजेहद होती है, विस्तार से चित्रण हुआ है। स्त्री के मनोविज्ञान और संघर्ष पर शुक्ल जी का चिन्तन ध्यान देने योग्य है, वे लिखते हैं, “स्त्री विषम से विषम परिस्थिति में भी अपना संतुलन नहीं खोती। उसकी भावुकता सिर्फ़ उसकी कमज़ोरी ही नहीं होती बल्कि वह ज़रूरत पड़ने पर कठोरता में भी बदल जाती है। उसके चेहरे पर आई मुस्कुराहट या झेंप सिर्फ़ समर्पण की भावाभिव्यक्ति ही नहीं होती जिसे पुरुष पहली ही बार में इसे अपने हित में महसूस करने लगता है बल्कि स्त्री का यह सुलभ सहज गुण उसकी जीवन जीने की कला से जुड़ा होता है—और इसी के बदौलत वह बड़े से बड़े युद्ध को जीत लेती है।” पंचायत का जो निर्णय था, हुआ। सुमीता ने बीस चप्पल मारे और नोहरी के चेहरे पर थूकते हुए बोली, “बाकी यह पाँच चप्पलें उधार रखती हूँ, उस दिन के लिए जिस दिन तू जेल की सींखचों में पहुँचेगा।” सभी विचलित हैं। थाना प्रसंग और विचलित करता है। पुरुष मानसिकता, पॉवर का दुरुपयोग सब कुछ शुक्ल जी अपनी रचना में स्पष्ट कर रहे हैं। परधानिन बुआ पुलिस अधीक्षक से मिलती हैं और कार्रवाई होती है। नोहरी फ़रार है। भागता फिर रहा है। मीडिया की सक्रियता ने पुलिस को सक्रिय कर दिया है। नोहरी ने सबसे मदद की गुहार की, निराशा हाथ लगी। उसने अपाहिज पत्नी की हत्या कर डाली और उफनते नहर में कूद कर जान दे दी। आत्महत्या का मामला मान पुलिस भी निश्चिन्त हो जाना चाह रही थी। 

माध्यमिक शिक्षा परिषद से विद्यालय की मान्यता मिल जाने से ‘ग़रीब कल्याण न्यास’ की सक्रियता बढ़ गयी। शुक्ला जी का जाना-पहचाना क्षेत्र है, उन्होंने विस्तार से विद्यालय के मूर्त रूप धारण का चित्रण किया है। राम बरन को प्रबन्धक और परधानिन बुआ को अध्यक्ष की ज़िम्मेदारी सौंपी गयी। सुमीता को प्रधान लिपिक और रोशन लाल को प्रवक्ता के पद पर नियुक्ति हुई। छात्राओं ने प्रवेश लेना शुरू कर दिया। शुक्ल जी सावन की हरियाली का चित्रण करना नहीं भूले, युवतियों द्वारा कजरी के गीत और तीज-त्यौहारों का मौसम शुरू हो गया है। स्त्रियाँ हरे परिधान में सज गयी हैं। तीज त्यौहार भारतीय लोक जीवन की असली पहचान है। जीवन उमंग और उत्साह से भर जाता है। स्वतंत्रता दिवस की तैयारी शुरू हो गयी। विस्तार से लेखक ने विद्यालय से जुड़े हर प्रसंग का चित्रण किया है। संघर्ष और राजनीति के साथ मसले भी उठने लगे। सब कुछ बहुत सुचारु रूप से संचालित हो रहा है। शुक्ल जी कहानी आगे बढ़ाते हैं। माँ को शक हो रहा है, बेटी ज़रूर कुछ छिपा रही है। परिवार की प्रतिष्ठा के चलते विचलित हैं, बेहोश हो जाती हैं। डॉक्टर शब्बीर ने जाँच की, दवा दी, कुछ सुधार है। रिपोर्ट आयी तो सब कुछ नॉर्मल नहीं है। 

डॉक्टर की सलाह थी, माताजी को कहीं अच्छी जगह इलाज किया जाय। हृदय की समस्या है। रविकांत चौबे मुम्बई इलाज के लिए माँ और बुआ को ले आये। माता जी का ऑपरेशन हुआ। परधानिन बुआ ने रवि की हथेली को चूम लिया। भतीजा देखकर सकपका गया। बुआ ने बुलाकर चाचा-भतीजा के प्रति हृदय पूर्वक कृतज्ञता ज़ाहिर की। गणेश भगवान की मूर्ति की स्थापना परधानिन बुआ के हाथों तय थी। परधानिन बुआ हाथ जोड़े नतमस्तक हुईं, “हे प्रभु सिद्धिविनायक, हमारी पीड़ा तो आप जानते ही हैं, उसे सार्थक परिणति तक पहुँचाइये, मेरी बिनती स्वीकार करें प्रभु!” शाम में परधानिन बुआ माँ के पास लौट आयीं। 

मुम्बई की यात्रा हो, परधानिन बुआ हों, रविकात जी साथ हो और उपन्यासकार चौपाटी जैसी रुमानी जगह न जाए, हो नहीं सकता। चौबे जी बुआ के साथ भीग रहे हैं, भिगो रहे हैं। इन सुखद क्षणों में परधानिन बुआ किन्हीं भिन्न दार्शनिक चिन्तन में हैं। माँ से खुला संवाद हो नहीं पा रहा है। चौबे जी का मूड बना हुआ है। शुक्ल जी विस्तार से लिखते हैं और पाठकों को आनंदित करते हैं। सपरिवार चौबे जी लालबाग के राजा के दरबार में हैं। उसके बाद सभी माँ को देखने फ़्लैट पर आते हैं। चौबे जी को बुआ बेमन से जाने देती हैं। अगले दिन सड़क पर ज़बरदस्त दुर्घटना देख बुआ बिस्तर पर निढाल हो गईं। अगले दिन चौबे जी बुआ को गेट वे ऑफ़ इण्डिया और ताज होटल में ले गये। उसके बाद एलिफैंटा की यात्रा। शुक्ल जी की विशेषता है, वे इस मिलन को दोनों पात्रों के लिए यादगार बनाना चाहते हैं। दोनों डॉक्टर से मिलते हैं। डॉक्टर ने केस को टिपिकल बताया। सुमित्रा ने कहा, “मैं भ्रूण हत्या करना नहीं चाहती, मैं बच्चे की माँ बनना चाहती हूँ।” डॉक्टर ने रवि से कहा—“सुमित्रा जुड़वाँ बच्चों की माँ बनने वाली है।” दोनों हक्के-बक्के रह गये हैं। थोड़ी ना-नुकर के बाद दोनों बच्चों के लिए तैयार हो गये। डॉक्टर ख़ुश हुई। माँ को भी डॉक्टर ने ठीक पाया। रवि के घर में रिंकी के जन्म दिन में सबको एकत्र होना है। 

रिंकी के जन्मदिन की पार्टी का जश्न, भोजन के टेबल पर दोनों माँओं द्वारा भीतरी पीड़ा व्यक्त करना। एक माँ को अपने बेटे रवि की शादी की तमन्ना है और दूसरी माँ अपनी बेटी सुमित्रा को लेकर चिंतित है। शुक्ला जी के लेखन का चिन्तन देखिए—रात तो एक थी पर सबके लिए अलग-अलग थी। पूरी रात हलचलों में बीती—कुछ सोये, कुछ जागते रहे। आँखों में नींद और स्वप्न लिए सुबह हो गई। आगे का विस्तार लेखक के संवाद लेखन का सुन्दर उदाहरण है जिसमें सब कुछ उजागर भी हो रहा है और छिपाया भी जा रहा है। हर पात्र बेहतरीन तरीक़े से अपना-अपना चरित्र निभा रहा है, परिस्थिति-जन्य भाव-भंगिमाएँ लेखक का लेखन पर मज़बूत पकड़ दिखलाता है। जिस समस्या को लेकर सुमित्रा-रवि कई महीनों से परेशान हैं, वह सहजता से सुलझ गया है। रवि सुमित्रा को कबीर कोठी का चप्पा-चप्पा दिखाता है। सुमित्रा विपुल मात्रा में पुस्तकें देख बहुत ख़ुश होती है। रवि ने पुस्तकों को लेकर कहा—‘मैं मानता हूँ, जिस घर में साहित्यिक पुस्तकें होती हैं . . .उस घर में वास्तु दोष अपने-आप दूर हो जाता है।’ रवि ने नाटक मंचन की भी जानकारी दी। सुमित्रा मुस्कुरा उठी—अच्छा तो आप शुरू से ही नाटकबाज रहे हैं? सुमित्रा की कोई मधुर स्मृति जाग उठी—शकुन्तला के अभिनय के लिए सुमित्रा का चयन हुआ था और उसके सौन्दर्य से अभिभूत होकर प्रोफ़ेसर साहब ख़ुद उसका पार्टनर का अभिनय करना चाहते थे, बाद में प्रणय निवेदन तक मामला पहुँच गया था। पं० लीलाधर शास्त्री शादी की तिथि तय करने में उलझे हुए हैं। 

हमेशा शुक्ल जी अपने पात्रों के मुँह से हँसने और ख़ुश होने के संवाद बुलवाते हैं, माहौल बना रहता है और कहानी आगे बढ़ती रहती है। 25 नवम्बर शादी की तिथि तय हुई है। ज़िन्दगी का दार्शनिक पक्ष उजागर करते हुए शुक्ल जी कहानी को विस्तार देते हैं, संतुष्टि-असंतुष्टि और जिजीविषा का रहस्य समझाते हैं। सुमित्रा की बेचैनी के पीछे रवि को पा जाने की ख़ुशी है या आने वाले दिनों में सामाजिक प्रतिष्ठा को हिला देने वाले झंझावातों के संशय की है। लेखक के रसिक मन का उदाहरण देखिए, वे लिखते हैं, “वह तो इस आधी रात में बेला की खिली-खिली लताओं सी रवि के बाँहों का सहारा चाह रही थी।” ख़बर पाकर राम बरन ग़रीब ख़ुश हैं। गाँव में आग लगनी ही थी, लग गई। लोगों के हज़ार सवाल थे। पट्टीदारों ने तिरिया चरित्तर कहा, “चौबे ने मुर्गी फँसा ही ली।” नाना मुँह, नाना बातें। सबका कमीनापन जोश मारने लगा। उधर परधानिन बुआ का सुझाव है कि रोशनलाल और सुमीता की शादी भी करवा दी जाय, उसी दिन। राम बरन को ही ज़िम्मेदारी दी गई, सबको मनाने, समझाने की। सब कुछ ठीक-ठाक रहा। सब मुम्बई आ गये। मन्दिर, जुहू-चौपाटी, घूमना चल रहा है। डॉ. रश्मि चतुर्वेदी का चौपाटी प्रसंग और ऐसे ही अनेक अचम्भित करने वाले दृश्य शुक्ल जी लिखते हैं। राम बरन ग़रीब को सालों बाद उनके लड़के बलराम का फोन आता है। शुक्ल जी ने विस्तार से इस प्रसंग का उल्लेख और निम्न सोच का चित्रण किया है। रवि-सुमित्रा ने पहले कोर्ट-मैरिज की और सिद्धि विनायक मन्दिर जाकर माथा टेका, मन्नतें माँगी। 

25 नवम्बर को धूमधाम से शादी हो गई। ख़ूब दावत हुई। गाँव आकर रोशनलाल पत्नी सुमीता सहित पहले ‘पारादान बावनी इमली’ पहुँच गया। यहाँ अँग्रेज़ों ने आज़ादी की लड़ाई के दीवानों को पेड़ से लटका कर फाँसी दी थी। दोनों ने शहीद-स्मारक पर फूल-मालाएँ अर्पित कीं। उसके बाद रोशनलाल और सुमीता ने बिन्दकी की धरती के महाकवि सोहनलाल द्विवेदी की प्रतिमा पर माल्यार्पण किया। उधर गाँव में जवाहरी का घर जला दिया गया। दोनों बिरादरी के लोग ईर्ष्या और क्रोध में जल रहे थे। जुग्गीलाल पटेल की दो मुर्रा भैंसें रात में खुल गईं। राम बरन ग़रीब लोगों को यशोभूमि अख़बार दिखाकर पूछने वालों का जवाब दे रहे हैं। शुक्ल जी ने विस्तार से ‘कबीर कोठी’ के विकास की गाथा लिखी है। बलराम अपनी नीचता पर उतर आया है। गाँव के कुछ लोग उसे उल्टा-सीधा पढ़ा आये हैं। उसकी बातों ने राम बरन को दुखी कर दिया। परधानिन बुआ गाँव आने की तैयारी में लगी हैं, इधर राम बरन का मन डूबता जा रहा है। उन्होंने बीमार होकर बिस्तर पकड़ लिया। 

उधर मुम्बई में रविकांत की माँ ने दम तोड़ दिया। राम बरन को सदमा लगा, पुत्र के व्यवहार ने गहरी ठेस पहुँचाई है। बेटी-दामाद आ गये। राम बरन और जसोमति दोनों को राहत मिली। ऐसे में गाँव-घर के लोग तीर छोड़ते रहते हैं और दुख बढ़ाते रहते हैं। गाँव के डॉक्टर ने पीलिया रोग की सम्भावना जताई। जाँच के बाद वही निकला। बलराम आ तो गया, तीन दिनों का अवकाश लेकर। शुक्ल जी ने पूरी मार्मिकता के साथ बलराम जैसे पुत्र के व्यवहार, विचार और वसीयत का उल्लेख किया है। बलराम जैसे पुत्रों पर यह कथा गहरा प्रश्न खड़ा करती है। पुत्र है, पिता के मरने की प्रतीक्षा कर रहा है। राम बरन ग़रीब की स्मृति में बचपन से आज तक का सारा दृश्य जीवन्त हो उठा है। बलराम ने कहा, “इस काग़ज़ पर बाबू का अँगूठा चाहिए, यह वसीयत बनवा कर लाया हूँ।” भीड़ लग गई वहाँ। यह स्थिति मरीज़ के लिए घातक थी और शेष लोगों के लिए अपमानजनक। शुक्ल जी की लेखनी से उस परिस्थिति का हृदय विदारक चित्रण हुआ है। बलराम ने बहन साधना से कहा, “बाबू का कोई भरोसा नहीं है। मैं चाहता हूँ कि खेत-बारी बाबू मेरे नाम वसीयत कर दें।” बहन ने कहा, “मुझे कोई आपत्ति नहीं है। आपको यह कैसे लगा कि बाबू कुछ दिनों के मेहमान हैं? बाबू को इलाज की ज़रूरत है, अपनत्व की ज़रूरत है, इनके साथ रहकर इनकी देखभाल की ज़रूरत है। क्या यह भी किसी वसीयत के तहत इन्हें मिल सकती है?” डॉक्टर ने बेहतर इलाज के लिए मेडिकल कॉलेज ले जाने की सलाह दी। साधना ने कहा, “डॉक्टर साहब! आप जैसा कहेंगे, हम वही करेंगे।” बलराम लाल-पीला होने लगा, लड़का होने का अधिकार जताने लगा। बहन के लिए अनाप-शनाप बोलने लगा। उसने पिता का हाथ थाम लिया और वसीयत पर उनका अँगूठा लगाने के प्रयास में था। बहन ने धक्का दे दिया। बलराम बहन को गालियाँ देने लगा। माँ झकझोरने लगी राम बरन को, बोली, “बल्लू की बदतमीज़ी सीमा पार कर गई है, उठो, नहीं तो मैं अभी इसी वक़्त प्राण त्याग दूँगी।” राम बरन उठे, वसीयत लिया और फाड़ डाला। उन्होंने कहा, “तू मेरे मरने की राह देख रहा है, अरे कमीने, देख, अब मैं नहीं मरूँगा।”

राम बरन ग़रीब का यह अद्भुत रूप देखकर लोग सकते में आ गये। उन्होंने हिक़ारत भरी नज़रों से बलराम को देखा और थूक दिया, बोले, “जा आज से तू मेरे लिए मर गया, मैं पुत्र मोह से बरी हो गया आज—मैं तुझे अपने जीवन से, हर तरह से बेदख़ल करता हूँ।” बाहर मौसम सुहावना है, चिड़िया का जोड़ा घोंसला बना रहा है, वे उर्जस्वित हो उठे। उनके स्वागत में बाहर खड़ी हैं परधानिन बुआ, चौबे जी, बच्चों के साथ सुमीता और रोशन पटेल, हाथों में फूलों का गुच्छा लिए हुए। 

वैचारिक चिन्तन:

1-मनुष्य कितना भी बलशाली, ज्ञानवान क्यों न हो जाए, आख़िरकार है तो मनुष्य ही। वह प्रकृति की परम सत्ता पर क़ाबिज़ कहाँ हो पाता है? 
2-अदृश्य शक्ति तो नियंता की भूमिका में हमेशा से रही है और मनुष्य की स्थिति रंगमंच पर कठपुतली की तरह ठुमके लगाने की होती है। 
3-ईमानदार श्रम के साथ-साथ ईमानदार प्रतिकार या प्रतिरोध भी ज़रूरी है। ईमानदारी एकल नहीं, सामूहिक होनी चाहिए। 
4-आरक्षण उसके लिए पहला वरदान साबित हुआ। 
5-माँ-माँ होती है, शायद उसके दिल को, मन को परख पाना कहाँ आसान होता है। 
6-अपनी ज़मीन से कट जाने वालों की बड़ी दुर्दशा होती है। 
7-समष्टि भाव का तिरोहित होना ही किसी के लिए मर जाने की स्थिति होती है। 
8-साम, दाम, दण्ड, भेद-राजनीति में सब जायज़ है। पाप-पुण्य, नैतिक-अनैतिक, कुछ भी मायने नहीं रखता। चुनाव में जीत पर निगाह वैसी ही होनी चाहिए जैसे अर्जुन की निगाह मछली की आँख पर थी। 
9-धरती घूमती रहती है पर किसी को दिखाई नहीं देती जबकि सूरज स्थिर है पर वह घूमता-चलता दिखाई देता है। बस यूँ ही समझ लो राजनीति में जो है वह नहीं दिखाई देता और जो नहीं है वह ही दिखाई पड़ता है। 
10-भविष्य सँवारने के लिए वर्तमान कहाँ ज़िन्दा रहता है। वह बिना अतीत बने भविष्य की नींव को पुख़्ता कर ही नहीं सकता। 
11-एक स्त्री को यह बिरादरी नंगा करके छोड़ ही देगी और वह ज़िन्दगी भर अपमान का दंश झेलती रहेगी। 

डॉ. शोभनाथ शुक्ल जी के अद्भुत लेखन का प्रमाण है यह उपन्यास। गँवई जीवन, गँवई संघर्ष और सोच यथार्थतः चित्रित हुआ है। मुहावरे, लोकोक्तियों, व्यंग्योक्तियों के साथ भाषा ख़ूब प्रभावशाली, रोचक व रसदार बन पड़ी है। शुक्ल जी के पात्र जब किसी बात पर चिन्तन करते हैं तो उनका मन दूर-दूर तक यात्राएँ कर आता है। कहीं-कहीं पात्रों के चरित्र को अपेक्षित ऊँचाई तक चित्रित करने की ज़रूरत है। हमारा समाज पतित हो गया है या चित्रण में कुछ और भाव भरने की ज़रूरत है। कहीं-कहीं कथा-प्रवाह कमज़ोर या टूटता-सा है। इस उपन्यास में शुक्ल जी ने कुछ अभिनव प्रयोग किए हैं जैसे राम बरन ग़रीब और बलराम ग़रीब में जाति का झमेला ख़त्म हो गया है। प्रायः सभी मुख्य पात्रों की सोच श्रेष्ठ और उत्तम है। उपन्यास घटना प्रधान है और प्रतिक्रियाएँ प्रभावित करती हैं। गाँव का, गाँव की गतिविधियों का, लोगों के बीच आपसी सम्बन्धों का अद्भुत चित्रण हुआ है। मौसम और ऋतुओं के अनुसार गाँव की हलचल उपन्यास को रोचकता प्रदान करते हैं। दृश्यों, भावनाओं और स्थितियों-परिस्थितियों का व्यौरेवार चित्रण शुक्ल जी की साहित्यिक क्षमता का प्रमाण है। हर रचना में अपना प्रवाह होता है, अपनी शब्दावली होती है और जुड़ने-जोड़ने के संस्कार होते हैं। उपन्यासकार ने बहुत बारीक़ी से सम्पूर्ण कथा को बुना और चित्रित किया है। संबंधों की जटिलता, सहजता और पात्रों की मनःस्थिति का चित्रण रोचक है। पात्रों का मनोविज्ञान चमत्कृत करता है। कुल मिलाकर उपन्यास प्रभावशाली है। 

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