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भक्ति और प्रेम के गीत ‘तू अधर मैं बाँसुरी’ के 

समीक्षित कृति: तू अधर मैं बाँसुरी (गीत संग्रह) 
गीतकार: डॉ. उषा किरण
प्रकाशक: सर्व भाषा ट्रस्ट, नई दिल्ली
मूल्य: ₹300/-

किसी नये कवि या कवयित्री को पहली बार पढ़ना अलग तरह की ताज़गी से भर देता है। एक तरह का नयापन, कोई उजास या आलोक फैलता है। काव्य की यह सबसे बड़ी देन है मानवता को। काव्य का चिन्तन सहज भी है और जटिल भी। जटिलता जल्दी पकड़ में नहीं आती क्योंकि वह बिम्बों की आड़ में छिपी रहती है। बिम्ब सुलझाते हैं और उलझाते भी हैं। भाव-चिंतन, प्रेम, करुणा, संवेदना, संघर्ष और सार्थकता बिम्बों के सहारे स्पष्ट दिखाई देते हैं। जीवित रहने के साधनों का अभाव तो व्यथित करता ही है, भावनाओं को प्रभावित करने वाले तत्त्व अधिक दुखी करते हैं। ऐसे में, सहज ही काव्य का प्रवाह फूट निकलता है। काव्य विधा स्वयं में जीवनदायी है, वह जीवन की ओर खींचती है और एक अलग मनो-संसार में ले जाती है। कविता उम्मीद जगाती है। कविता हमारे भीतर भाव का संसार रचती है और अभाव की चुनौती को स्वीकार करती है। हमारे संघर्ष स्वार्थ के चलते हैं और कविता उसे अस्वीकार करती है। कविता सच के साथ खड़ी होती है। 

काव्य विधा में गीत-लेखन महत्त्वपूर्ण है। अतुकान्त काव्य लेखन के पूर्व गीत ही लिखे-पढ़े और गाये जाते थे। सुख-दुख की भावनाओं को गेयता के साथ प्रस्तुत करने में गीत सहायक हैं। साहित्य के मर्मज्ञ गीत को स्वतंत्र विधा के रूप में मानने का दबाव बनाते हैं। कविता और गीत के तत्त्व बहुत हद तक समान हैं, इसलिए एक साथ चिन्तन करने में कोई असुविधा नहीं होनी चाहिए। गीत लेखन बंद नहीं हुआ है, भले ही कविता का आधुनिक स्वरूप बदला है। सुखद है, चर्चित कवयित्री डॉ. उषा किरण जी के गीतों का संग्रह “तू अधर मैं बाँसुरी” मेरे सामने है और इसमें दो भागों में कुल 61 गीत संगृहीत हैं। 

डॉ. सुनील कुमार पाठक ने भूमिका के तौर पर सशक्त विवेचना के साथ गीत विधा को परिभाषित किया है। वे लिखते हैं—रागात्मक और संवेदनशील भावों की अभिव्यक्ति गीतों का आत्म तत्त्व रही है। उनका कहना है—इन गीतों में ईश्वर, प्रकृति, देश, समाज और प्रेमी जन के प्रति आस्था के स्वर प्रबल हैं। आगे लिखते हैं—प्रेम और राग की अभिव्यक्ति के क्रम में आस्था और विश्वास को प्रधानता दी गई है। कवयित्री का सकारात्मक चिन्तन है। कवयित्री के लिए प्रकृति आलम्बन और उद्दीपन दोनों रूपों में सहचरी रही है। उनका यह कथन भी स्वीकार करने योग्य है—अपने संघर्षों पर जब व्यक्ति को भरोसा हो, अपनी शक्ति और गति में आस्था हो तो बंजर धरती में भी आशा के अंकुर निकल आते हैं। उनका मानना है कि दुख और संकट मनुष्य की परीक्षा लेते हैं। शाश्वत प्रेम का भाव उनके गीतों में दिखता है। 

श्री दिव्येन्दु त्रिपाठी ने संग्रह की विशद विवेचना करते हुए लिखा है—डॉ. उषा किरण जी ने बहुत तन्मयता, संवेदनशीलता और गरिमा से आप्लावित होकर इसके एक-एक गीतों को पिरोया है। उनके अनुसार भावावेश की गहनता ही गीत का प्राण तत्त्व है। इसमें भाव प्रवणता, बोध की गहराई और प्रणय का एकालाप है। इस क्रम में त्रिपाठी जी ने जयदेव और जायसी को भी याद किया है। मधु मधुबाला जी ने शुभकामना देते हुए डॉ. उषा किरण में मीरा जैसी सम्भावना व्यक्त की है। ‘मेरी बात’ में उषा किरण ने मधु जी की प्रेरणा को स्वीकार किया है। इस तरह विद्वतजनों ने संग्रह की गहन विवेचना की है ऐसे में मेरे लायक़ कुछ बचा ही नहीं है। 

कवयित्री ने भीतर के कलुष का उद्धार करने वाली माँ सरस्वती से हृदय में व्याप्त अंधकार को दूर करने, निर्मल भाव से हर हृदय को आलोकित करने, हर लेखनी को समृद्ध करने, भारत में ज्ञान-विज्ञान के नये-नये कीर्तिमान बनने और साहित्य में समृद्धि के लिए प्रार्थना की है। अगले गीत में मातृ शक्ति की आराधना करते हुए लिखती हैं—घनेरी रात है, निराशाएँ हैं, भक्तों पर भीड़ है, हे माँ! चाहे जिस वेश में हो, कृपा करो, अपनी करुणा की बरसात करो। अगले गीत में भगवान शंकर, भोले भंडारी की प्रार्थना है। चौथे गीत में कवयित्री सच्ची भक्ति के बारे में बताती हैं। पाँचवें, छठवें गीतों में जन-जन के कल्याण के लिए अपनी निर्मल भावना व्यक्त करती हैं। कवयित्री के सामने देश-समाज की दुर्दशा है, अज्ञान-अंधकार है, पतन है, वह ईश्वरीय सत्ता से कृपा के लिए गुहार करती हैं। यह उनके पवित्र मन की पुकार है। 

अगले गीत में उस समय का दृश्य है जब श्री राम जी, पत्नी सीता और भाई लक्ष्मण जी के साथ अयोध्या वापस आ रहे हैं। पूरी अयोध्या प्रसन्न है, माताएँ पुलकित हैं, पलक बिछाए प्रतीक्षा कर रही हैं और भाई विह्वल हो रहे हैं। आठवें गीत में स्वदेश की महिमा का उत्तम वर्णन डॉ. उषा किरण की लेखनी से हुआ है:

“गूँजती है ऋचाएँ लिए ज्ञान वेदों का सारा। 
है रंगों का अद्भुत संगम सारे जग से न्यारा।” 

कवयित्री माँ भारती की वंदना और देश के लिए भाँति-भाँति की शुभकामनाएँ करती हैं। नदी, झील, समुद्र, पेड़-पौधे, पठार-पहाड़ से भरी प्रकृति की तुलना कवयित्री ने माँ के साथ की है और अपनी श्रद्धा समर्पित करती हैं। ग्यारहवें गीत में उनकी सकारात्मक भावना देखिए:

“हर मन में अटूट आस हो
हर श्वास-श्वास विश्वास हो।” 

देश में माता-पिता और वृद्धों की दुर्दशा पर कवयित्री का मन दुखी है, वे आज की सच्चाई व्यक्त करती हैं, जन-मानस में बुज़ुर्गों के प्रति प्रेम और कर्तव्य भाव जगाती हैं और सचेत-सावधान भी करती हैं। वे अपने मन को धैर्यवान होने की सलाह देती हैं। उनका कहना है, अँधेरा है तो उजाला होगा और मन विचलित हो तो धैर्य रखना चाहिए। अगले गीत में उनका सम्बोधन अपने मीत के लिए है-भय का नाश होगा और हमारी आशाएँ पुष्पित होगी। बदलना और सुधरना हमें ही है। वे लिखती हैं, रात बीत गई, अब उजास हुआ। भोर की लाली का बिम्ब उम्मीद जगाने वाला है। डॉ. उषा किरण सदैव दुख और निराशा से निकलने का संदेश देती हैं:

“जीत सको जो मन के डर को
तुम ना कहना फिर नामुमकिन।” 

बात-बात में दुखी होने की ज़रूरत नहीं है। बार-बार बीते दिनों के दुखों को याद नहीं करना है। यह अँधेरी रात गुज़र जायेगी और हमारे आँगन में ख़ुशियाँ होगी। अठारहवें गीत में उनका चिन्तन देखिए:

“सुख की महिमा न्यारी जग में, पर दुख ही मान दिलाये
सुख जाये दुख आये साथी, दुख जाये फिर सुख आये।” 

कवयित्री को समाज में विसंगतियाँ दिखती हैं, बहुत कुछ असहज करता है, वह प्रश्न खड़ा करती है—अक़्सर ऐसा क्यों होता है? छोटे-छोटे नैनों के सपने बड़े होते हैं, प्यास बढ़ती है परन्तु आशाएँ झर जाती हैं और कहीं कोई सहारा नहीं दिखता है। होली पर सुन्दर भाव-विचार का गीत है। कवयित्री बिहार के चंपारण को याद करते हुए अपने शहीदों, पूर्वजों के बलिदान के प्रति सम्मान का भाव रखने का संदेश देती हैं:

“तुम इतना ना अभिमान करो
कुछ उनका भी सम्मान करो।” 

बेटी की विदाई को लेकर बड़ा मार्मिक चित्रण किया है डॉ. उषा किरण ने इस गीत में। उन्होंने मधु ऋतु बसंत का सुन्दर दृश्य खींचा है—वसुधा विहँस रही है, कोयल गा रही है, अमराई मदमयी हो रही है और बसंत ऋतु मुस्कुरा रही है। मलय सुगंध लिए पवन बावरी हो रही है। हृदय में वेदना है, मिलन की आशा भी और धरती मुग्ध हो प्रफुल्लित हो रही है। नायिका की मनःस्थिति और उसके प्रश्न गहरे बिम्बों के द्वारा स्पष्ट होते हैं, वह अपने ‘मीत’ से पूछती है:

“समझ सकोगे क्या बोलो तुम, कोमल हिय उद्गारों को
मीत! क्या पढ़ पाओगे, मूक नयन मनुहारों को।” 

नायिका बताती है, तुम्हारे बिना मैं वैसी ही हूँ जैसे बिना बंशीवट यमुना, राधा बिना पनघट, बिना माधव मधुबन, बिना सीता रामायण, बिना मोहन गीता, बिना चाँद पूनम, बिना बादल सावन आदि-आदि। छब्बीसवें गीत में प्रियतमा पति की अनुपस्थिति का मार्मिक वर्णन करती है। वह अपना संदेश शुक के द्वारा भेजती है—तुम्हारे बिना सब सूना-सूना है, नैना व्याकुल से प्यासे हैं, मानो सदियाँ ठहर गयी हैं, मैं नित्य वक़्त की सूली पर चढ़ती हूँ, अब जीना क्या और मरना क्या। जीवन में विश्वास के टूटने की पीड़ा के भाव डॉ. उषा किरण के सताइसवें गीत में पाठकों के मन को झकझोरने वाले हैं। उषा जी वियोग की स्थिति में नारी तन-मन की दशा का सजीव चित्रण करती हैं। अनुभूतियों के ये भाव किसी को भी द्रवित कर सकते हैं, लिखती हैं—-बिन प्राण पार्थिव देह है या होती विकल दिन-रात हूँ। उनतीसवें गीत के शब्द-भाव प्रेम की पराकाष्ठा दिखला रहे हैं। कोई प्रियतमा और कितना बोले, उषा किरण ने साहस पूर्वक अद्भुत गीत रचा है। तीसवें-इकतीसवें गीतों में वियोग के गहरे भाव और संयोग के लिए पुकार कवयित्री को कोई विशेष पहचान देते हैं। उनकी तुलना किससे करूँ, वह अपनी तरह की अकेली हैं। 

कवयित्री के गीतों में प्रकृति का जीवन्त चित्रण है—घटा देखकर मोर मगन है, वसुधा पुलकित, आकाश हर्षित है, मेघ बरस रहे हैं और साजन के बिना मन तरस रहा है। पिया की चिट्ठी नहीं आ रही है, पता नहीं कब और कैसे मन को चैन मिलेगा। अभिमानिनी नायिका की यह पुकार देखिए:

“मीत कहो कैसे मन मेरा, निज व्यथा का बखान करे, 
कोई वह क्षण दो फिर जिसपर, मन थोड़ा अभिमान करे।” 

चौंतीसवें-पैंतीसवें गीतों में वही वियोग-संयोग की तड़प, बेचैनी, गुहार, मनुहार है और नायिका अपने साजन की बाँहों के लिए आतुर है। कवयित्री के सारे बिम्ब चमत्कृत, रोमांचित करने वाले हैं। छतीसवें गीत में नायिका मन की व्यथा अपनी सखी से कहती है—सखि री! मन में कहाँ अब धीर! नवोढ़ा नायिका के मन को ख़ूब टटोला है कवयित्री ने और खुलकर मनोभावों का वर्णन किया है। ओ! सखे मेरे साँवरे! गीत में वही प्रेम अपने साँवरे कृष्ण के लिए उमड़ पड़ा है। अगले गीत में प्रिय-प्रियतमा के बीच मिलन के संयोगों की तुलनात्मक विवेचना आकर्षित-चमत्कृत करती है—चंद्र तू मैं चंद्रिका हूँ। इन मनोहर पंक्तियों को देखिए:

“तुम मधुबन के तरुवर माधव, मैं कुञ्ज गली की बेल रे, 
ज्यूँ चंदन पानी का नाता, तुझ संग मेरा मेल रे।” 

चालीसवें गीत में कवयित्री लिखती हैं—हे प्रियतम! नैनों में नव रंग भरे नित/प्रेम का त्यौहार दे दो/सींच उठे तन-मन का उपवन/वह अधर शृंगार दे दो। कवयित्री की उपमाएँ और अलंकरण के दृष्टान्त हिन्दी साहित्य के लिए नये प्रतिमान गढ़ते दिखते हैं, हालाँकि अभी बहुत कुछ सहेजना, सम्हालना है, सीखना, समझना है। कवयित्री में गहरे भाव हैं, अभिव्यक्ति के लिए शब्द सामर्थ्य है और साहस भी। उनका यह भाव देखिए:

“जलता सदा है दीप बन जो, आज भी कुछ टोहता है, 
उस सुरमई सी साँझ को नित, बावरा मन खोजता है।” 

उनके बिम्बों का चमत्कार देखिए—मैं ढूँढ़ती हूँ कुछ नमी सी/रेत हूँ कब से जली सी/झरती रही है पीर निर्झर/ओस बूँदों में ढली सी। अगले गीत में शहनाई गूँजने का भाव नायिका के मन को तरंगित कर रहा है। उनके गीतों में प्रेम बढ़ाने-जगाने वाले संसाधन ख़ूब प्रयुक्त हुए हैं—कोयल की कूक, मन की अमराई, रजनीगंधा, सुरभित अँगनाई, घूँघट काढ़े रात, हँसता हुआ चाँद, मुखरित अधर-पृष्ठ, मुग्ध अलबेली, मदमाती पुरवाई और चाँद की चाँदनी। उनका अपने प्रियतम को निमंत्रित करने का अंदाज़ देखिए—मीठे स्वप्नों को तुम भी गुनगुनाना प्रिय! /मेरी नींदों की गलियों में आना प्रिय। कवयित्री की भावनाएँ और इच्छाएँ चौवालीसवें गीत में देखिए:

“हो न ऐसी सुबह कोई भी, कि ढूँढ़े निगाहें मेरी, 
साँझ ऐसी ना कोई ढले, तन्हा हो बाँहें मेरी।” 

पैंतालीस, छियालीस, सैंतालीस, अड़तालीस, उनचास और पचासवें गीतों में वही वियोग के, संयोग के भाव नाना रूपों में व्यक्त हुए हैं। कवयित्री के मन की उड़ान, उनका सावन के झूलों का अनुभव और अनुभवों को गीतों में रचने की सामर्थ्य चमत्कृत करते हैं। सबसे रोचक प्रसंग बनता है जब व्यक्तिगत प्रेम विस्तार करता हुआ कृष्ण तक पहुँचता है। सामान्य प्रेम ईश्वरीय भाव से भर उठता है तो भक्ति स्वतः जाग उठती है। प्रेमी ही गहरा और बड़ा भक्त बनता है। 

कवयित्री के अनेक गीत एक ही भाव-संवेदना के साथ बार-बार रचे गये हैं, बार-बार मन को खींचते हैं, शायद वह मन चिर-प्यासा है और उनके जीवन में वियोग की लम्बी-लम्बी अवस्थाएँ बनती रहती हैं। ऐसे गहरे भाव बिना यथार्थ अनुभव के नहीं उमड़ते। प्रमाण में निम्न पंक्तियाँ देखिए—तू अधर मैं बाँसुरी प्रिय, राग तू मैं गीत रे! (गीत-51), मन तार झंकृत हो उठे, तुम वही संगीत भर दो। (गीत-52), गीत अधर के रूठ गये, हुआ पिया हरजाई (गीत-53), प्रियतम जब-जब ये साँझ ढले, मैं सम्मुख तुमको पाऊँ (गीत-55), मेघ उमड़ते नैनों में, हिय की प्यास न बुझ पाती (गीत-56), जन्मों का अनुबंध मगर, पिया बैठा मुख मोर (गीत-57), जो कौन पहुँचा पाये मुझे, वहाँ मेरे प्रियतम के नगर (गीत-58)। चौवनवें गीत में कवयित्री पुनः कृष्ण को याद करती हैं और कहती हैं, तुम्हारे बिना ग्वाल-बाल, गैया-बछड़े सभी बेहाल हैं। कालिंदी मौन हो रोती रहती है, सखियाँ सुध-बुध खो चुकी हैं। वे लिखती हैं-मधु रातों में आकर रास रचाना रे, फिर से मेरे देश सँवरिया आना रे! 

उनसठवें गीत में कवयित्री के जीवन की वही निराशाएँ हैं, वही इच्छाएँ हैं और वही पुकार है। साठवें गीत में लिखती हैं—स्वप्न में प्रियतम अपनी बाँहों में ले लेते हैं परन्तु नींद खुलती है तो स्वयं को बैरी संसार की राहों में पाती हूँ। वियोग की दुःसह पीड़ा ने कवयित्री को संवेदना से भर दिया है। संग्रह के अंतिम गीत में कवयित्री के भाव बदल गये हैं। वह मधुमास को कुछ दिन ठहर कर आने के लिए निवेदन करती है। उनकी भावना है—दिशाएँ निखर जाएँ, धरती सँवर जाए, मन बसंती झूम तो ले, नूतन स्वप्न अंकुरित हो जाएँ, साँसें मलयानिल से सुरभित हो जाएँ, महुआ की डाली झूमने लगे, अभी-अभी तो प्रियतम आये हैं, आँखें तृप्त तो हो जाएँ, हे बसंत तब आओ। 

इन गीतों में प्रेम है, प्रेम की तड़प है, मनुहार है, मिलन के अनुभव हैं, वियोग है, धैर्य और प्रतीक्षा है। इन गीतों की भाषा, शैली और शब्दावली भाव के अनुरूप है। नायिका-भेद के अनेक रूप यहाँ उभरते हैं। रस की प्रधानता है और दिव्य भावों का ख़ूब चित्रण हुआ है। डॉ. उषा किरण को पहली बार पढ़ रहा हूँ और आनंदित हूँ। उनके सतत सक्रिय लेखन के लिए बधाई और शुभकामनाएँ देता हूँ। 

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