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माँ के गहन-भाव में रची-बसी कविताएँः ‘एक चिट्ठी माँ के नाम’

समीक्षित कृति: एक चिट्ठी माँ के नाम (कविता संग्रह) 
कवयित्री: कल्पना लालजी
मूल्य: रु 200/-
प्रकाशक: स्टार पब्लिकेशंस प्रा. लि., नई दिल्ली

‘एक चिट्ठी माँ के नाम’ मॉरीशस में रह रही, चर्चित कवयित्री, साहित्यकार कल्पना लालजी द्वारा रचित भाव-पूर्ण काव्य संग्रह है। माँ-बेटी के बीच के पवित्र सम्बन्ध, भावनाएँ और विश्वास पर आधारित ये चिट्ठियाँ बहुत कुछ कहती हैं। कल्पना लालजी स्वयं लिखती हैं, “इस प्रकार की चिट्ठियाँ केवल उन्हीं पलों में लिखी जाती हैं जब दर्द हद से गुज़र जाता है। रिक्तता का आभास अपनी पराकाष्ठा को छूता प्रतीत होता है। बीते क्षण और उनकी अनुभूति प्रताड़ित करती है। हर वो याद उभरती है जो कभी जीवन का एक अभिन्न अंग हुआ करती थी।” बेटी भावुक और विह्वल होकर पूछती है:

“माँ, क्या तुम अब सच में नहीं हो? 
कहीं नहीं हो?” 

सहसा उसे विश्वास नहीं होता। जब मातृ दिवस आता है तो हर बेटी स्वयं को बेसहारा और अनाथ सा महसूस करने को मजबूर हो जाती है। वह तड़प उठती है माँ की ममता की छाँव के लिए। कल्पना लालजी की भावनाएँ, संवेदनाएँ और माता-पिता के घर के प्रति गहरा लगाव-जुड़ाव ख़ूब-ख़ूब संवेदित हुआ है संग्रह की कविताओं में। चिट्ठी को आधार बनाकर लिखी गयी ये कविताएँ हिन्दी साहित्य में स्थान बना रही हैं। उन्होंने इसे हर माँ को समर्पित किया है जो ममता की मूर्ति, घर की आत्मा है और जिसके होने मात्र से ही सुख, शान्ति और संतुष्टि है। 

विश्व हिन्दी सचिवालय के महासचिव विनोद कुमार मिश्र ने अपने “अनुशंसा" लेख में कल्पना लालजी के सन्दर्भ में सटीक विवेचना की है। ‘हिन्दी-चेतना’ के प्रमुख संपादक श्याम त्रिपाठी ने विवरण के साथ अच्छा परिचय दिया है। प्रो. हरि मोहन जी ने ‘स्मृतियों में माँ’ बेहद मार्मिक लेख लिखा है। माॅरीशस के श्री राज हीरामन ने लेखन का दायित्व निभाते हुए सारगर्भित भूमिका लिखी है। वे लिखते हैं, “आपकी कविताएँ ब्रह्माण्ड की कविताएँ हैं, जन्मदायिनी की कविताएँ हैं।”

कल्पना लाल जी के इस काव्य संग्रह में छोटी-बड़ी कुल 54 कविताएँ हैं। मातृ शक्ति की प्रार्थना में उन्होंने माँ का अद्भुत विस्तार दिया है। ‘उम्मीद की रोशनी’ भावुक कर देने वाली रचना है। कवयित्री स्वयं स्त्री हैं, वह बुढ़ापे में माँ की प्रतीक्षा और पीड़ा को समझती हैं। यहाँ माँ के न होने की विह्वल करने वाली पीड़ा व्यक्त हुई है। ‘कल रात ज़िन्दगी से’ यथार्थ भाव की कविता है, अक़्सर माँएँ बेटियों के लिए रात-रात भर जागती हैं। ‘उम्र भर बरगद के समान’ पिता की याद की कविता है। ‘मेरी बीती यादों में’ कविता में कल्पना जी मायके के भैया-भाभी सहित सभी सुखद सम्बन्धों की स्मृति में खोयी हुई हैं। ‘आज फिर एक बार’ कविता में बेटी को माँ की लिखी डायरी मिल गयी है। डायरी ने माँ को, उसके संघर्ष और वेदना को जीवन्त कर दिया है। कल्पना जी का मन करुणा से भरा है और बार-बार माँ मानो सामने आ खड़ी हो जा रही है। ‘बड़ी सूनी लगती है’ कविता माँ की याद दिलाती है। माँ थी तो सब कुछ बदल जाता था सर्दियों में और सारे रिश्ते गर्माहट देते थे। ‘कैसे भूल जाऊँ’ में कल्पना जी अपना बचपन याद करती हैं, माँ के आँचल के साथ-साथ उस समय की हर वस्तु जीवन्त हो उठती है यादों में। ‘रोज सवेरे प्यार से’ माँएँ बच्चों को जगाती हैं, कल्पना जी उन स्नेहिल पलों को याद करती हैं और माँ-पिता के बिना ‘अनाथ’ हो जाने की पीड़ा दिखाती हैं। ‘काश, एक दिन ऐसा भी आए’ की भावनाएँ मन को झकझोरती हैं। विज्ञान ने तरक़्क़ी की है, जीवन में बहुत कुछ उपलब्ध हुआ है, कल्पना जी लिखती हैं, काश, माँ से जुड़ने का कोई साधन सुलभ हो जाए। ‘जी चाहता है आज’ में कवयित्री का भावुक मन माँ को लौटा लाना चाहता है। ‘फुरसत’ के क्षणों में सारे पुराने दृश्य उभर आते हैं, वह शोर, हँसी-खुशी के पल, स्मृतियों में जीवन्त होते हैं। ‘जब भी मन उदास’ कविता के माध्यम से कवयित्री बार-बार माँ की स्मृतियों में पहुँच जाती है। कहीं दूर से बैठी माँ, आज एक बार फिर, आ जाओ माँ देखें तुमको, माँ तुमसे ही तो था, इस जीवन में कई पीढ़ियाँ देखी जैसी कविताओं के भाव वही हैं, वही यादें हैं और वही तड़प है। 

कल्पना जी सपने में माँ को देखती हैं, रोती हैं क्योंकि सबने माँ को छोड़ दिया है। यादों के दायरे में, बहुत चाहा भूल जाऊँ, न जाने क्यों आज माँ जैसी कविताओं में माँ की चिन्ताएँ हैं। ‘जाते-जाते पापा बोले’ कविता भावुक कर देती है। ‘हम दोनों दो बहनें हैं’ कविता का भाव है, कल्पना जी दूर विदेश में रहकर माँ की बुढ़ापे में सेवा नहीं कर सकीं, दूसरी बहन ने किया है। बेटी को लगता ही नहीं कि माँ नहीं है, वह पूछती है—माँ, क्या सच में तुम नहीं हो? यह मन के गहरे भाव हैं, मन स्वीकार करता ही नहीं। ‘कैसे भूलूँ बचपन की, आज भी जब लोरी की तान, माँएँ सर्वदा होती ही हैं ऐसी, कुछ रिश्ते मिलते हैं, चल उड़ जा रे पंछी, आज हमें अम्मा की बातें सर्वत्र माँ की ही यादें हैं। कल्पना लालजी माँ की यादें अपने दोहों में सजाती हैं। औरत की शक्ति, कड़ी धूप झुलसाती रही, अकेलापन जिधर देखो, कल्पना जी का मन माँ के सुख-दुख में खोया हुआ है। काव्य की विधा कुण्डलियों में माँ की यादें हैं। ‘माँ वो है’ कविता में माँ को परिभाषित किया गया है। आज बहुत याद आई, मुँह अँधेरे, किसकी साँसों से तू जन्मी, साँझ ढले माई, जब माँ-बाप होते हैं, माँ तो माँ होती है, कहते हैं हर आदमी का, आज भी नज़रों के सामने, मातृ दिवस आने वाला है, अनेकों जिज्ञासा भरी कविताएँ माँ को लेकर हैं, माँ के लिए और माँ की स्मृति में हैं। आशाओं की डोरी में, आज तुमको गये हुए, मन पर न जाने कितनी परतें, माना दुनिया में सब हैं अपने, आज फिर एक बार, हे माता, हे जननी, सभी कविताएँ माँ को मर्यादित तरीक़े से जीवन्त करती हैं। 

कल्पना लालजी ने माँ के रिश्ते को ख़ूब गहरा भाव दिया है। माँ की स्मृति सम्पूर्ण विविधता के साथ, सुख-दुख, संतोष-असंतोष, संगति-विसंगति, विरोध-अन्तर्विरोध, त्याग-तपस्या, करुणा और प्रेम हर रूप में इन कविताओं में उभरी हैं। भाषा-शैली, प्रवाह और शब्द चयन भले ही उतने प्रभावशाली न हों परन्तु कल्पना जी के गहन भाव गहरे प्रभावित करते हैं। कल्पना लालजी स्त्री हैं, माँ हैं, मातृ-भूमि से दूर हैं, स्वाभाविक है उन्हें माँ भुलाए न भूले। यह उनके भीतर की करुणा, संवेदना और सहृदयता है जो इन कविताओं के रूप में हमें पढ़ने को मिल रही हैं। उनके सतत लेखन के लिए बधाई और शुभकामनाएँ। 

विजय कुमार तिवारी
(कवि, लेखक, कहानीकार, उपन्यासकार, समीक्षक) 
टाटा अरियाना हाऊसिंग, टावर-4 फ्लैट-1002
पोस्ट-महालक्ष्मी विहार-751029
भुवनेश्वर, उड़ीसा, भारत
मो०-9102939190

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