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ऐतिहासिक सन्दर्भ की आधुनिक साहित्यिक रोचक, गूढ़ तकनीक: ‘चाणक्य के जासूस’

समीक्षित पुस्तक: चाणक्य के जासूस (उपन्यास)
लेखक: त्रिलोक नाथ पांडेय
प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन
संस्करण: 2020
पृष्ठ संख्या: 343
मूल्य: ₹280.00 

हिन्दी साहित्य की औपन्यासिक विधा पर बहुत कुछ लिखा-पढ़ा जा रहा है, उपन्यासकार नित्य नये-नये प्रयोग कर रहे हैं और हिन्दी उपन्यासों ने व्यापक स्थान घेर रखा है। आजकल औपन्यासिक आधार वाली कहानियाँ भी लिखी जा रही हैं और ख़ूब विस्तार के साथ बृहदाकार उपन्यास भी। जासूसी को आधार बना, उपन्यास लिखने की परम्परा अपने-आप में अनूठी है। इस वर्गीकरण को समझने के लिए कोई नया शब्द अभी तक खोजा नहीं जा सका है। साहित्य की किसी नयी विधा के प्रकटन की सम्भावना बन रही है। जीवन गतिशील है, इसलिए साहित्य रुकने वाला नहीं है, उसमें भी गतिशीलता है। संवेदनाएँ, भावनाएँ, संघर्ष, संगति-विसंगति और मनुष्य पर पड़ने वाले प्रभावों के बिना किसी विधा का सृजन सम्भव नहीं है। साहित्य मनुष्य जीवन की अभिव्यक्ति है। रचनाकार जीवन की अनुभूतियों को व्यक्त करता है, उसके लिए विधा का चयन करता है और स्वतंत्रता पूर्वक लिख डालता है। विधा चयन उसका अपना अधिकार है और कथ्य-कथानक के विस्तार को ध्यान में रखते हुए ही करता है। कुछ आलोचक-समीक्षक इन विषयों पर प्रश्न उठाते हैं और लेखक या लेखन को कटघरे में खड़ा करते हैं। यह एक तरह का अनुचित दबाव है किसी लेखक पर और उसकी स्वतंत्रता पर आक्रमण भी। 

सामान्यतया कौतूहल व मनोरंजक वृत्ति की आपूर्ति के लिए प्राचीन काल से औपन्यासिक कहानियाँ, साथ ही धीर-गंभीर बड़े-बड़े आख्यानों वाले उपन्यास लिखे गये हैं। आज बौद्धिकता ने लेखन को अपने तरीक़े से प्रभावित और मनुष्य के विकास को समाहित किया है। यह काम उपन्यास में व्यापक तरीक़े से सम्भव हुआ है। उपन्यास में विस्तार होने से चीज़ें स्पष्ट होती दिखाई देती हैं, उसमें अलग तरह की धार और पैनापन है। उपन्यास में छोटी से छोटी घटना को विस्तार देने की छूट और स्वच्छन्दता बनी रहती है। साथ ही एक साथ बहुत सी घटनाओं और अनुभूतियों को जोड़ा जा सकता है। प्राचीन समय में गौरव गाथाएँ लिखी और गायी जाती थीं, अब स्थितियाँ बदल रही हैं। हालाँकि आज भी ऐतिहासिक सन्दर्भों को लेकर उपन्यास लिखे और पढ़े जा रहे है परन्तु सामाजिक, मनोवैज्ञानिक चिन्तन को लेकर लेखकों, पाठकों का रुझान बढ़ा है। आज लोग सत्य, यथार्थ की खोज कर रहे हैं, समाज की सच्चाई, विरोध-अन्तर्विरोध और मनुष्य के जीवन पर पड़ने वाले प्रभावों को लेकर चिन्तित हैं। उपन्यास मतलब जो हमारे आसपास को प्रतिबिम्बित करे, हमारे सुखों-दुखों और संघर्षों को रेखांकित करे। यथार्थ जीवन की कलात्मक अभिव्यक्ति, मानव-चरित्र और समाज के बीच के सम्बन्धों को दिशा देना, उपन्यास के माध्यम से सहज हुआ है। 

आज उपन्यास के माध्यम से व्यक्ति या समाज के बीच प्रचलित नये-नये विषय लिखे और प्रस्तुत किए जा रहे हैं। ऐतिहासिक सन्दर्भों को आधुनिकता के साथ दिखाने का प्रचलन चल रहा है। वाराणसी के त्रिलोक नाथ पांडेय द्वारा रचित, बहुचर्चित उपन्यास “चाणक्य के जासूस” पढ़ने का सुअवसर मिला है। उपन्यास के पिछले हिस्से में शशिभूषण द्विवेदी जी का बहुत महत्त्वपूर्ण वक्तव्य छपा है, उन्होंने लिखा है, “‘चाणक्य के जासूस’ अनेक अर्थों में एक महत्त्वपूर्ण कृति है। यह न केवल इतिहास को एक नई दृष्टि से देखती है बल्कि जासूसी के तमाम पुरातन-ऐतिहासिक तकनीकियों का विशद विवेचन भी करती है।” द्विवेदी जी प्रकाश डालते हैं, “चाणक्य ने अपनी जासूसी में व्यावहारिकता और नैतिकता का सामंजस्य हमेशा बनाए रखा और मगध साम्राज्य की जनता के कल्याण के उद्देश्य को कभी नहीं भूला। यह उपन्यास दिखलाता है कि चाणक्य ने सम्राट घनानन्द को ख़ून की एक भी बूँद बहाए बिना अपने बुद्धिबल से साम्राज्य के सिंहासन से अपदस्थ किया और चंद्रगुप्त को उस पर बिठाकर राष्ट्र के सुदृढ़ भविष्य का मार्ग प्रशस्त किया। इसमें इतिहास का निर्माण करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाला वह जासूसी तंत्र अपने पूरे विस्तार में दिखलाई पड़ता है, जो हमेशा से नेपथ्य में रहकर ही अपना काम करता है।” उन्होंने आगे लिखा है, “उपन्यास में लेखक ने जासूसी की आधुनिक विधियों का भी पर्याप्त उल्लेख किया है और तमाम ऐतिहासिक और आधुनिक सन्दर्भों से उसे विश्वसनीय बनाया है। इस लिहाज़ से यह ख़ासा शोधपूर्ण उपन्यास है, ख़ासकर इसलिए भी कि ख़ुद लेखक लम्बे समय तक जासूसी सेवा में रहा है।”

‘चाणक्य के जासूस’ जासूसी या गुप्तचरी के गोपन संसार को उजागर करता औपन्यासिक विधा का ऐतिहासिक ग्रंथ है। उपन्यासकार ने ‘चाणक्य के जासूस’ को अनाम गुप्तचरों को समर्पित करते हुए ऋग्वेद से ऋचा उद्धृत की है जिसका हिन्दी काव्यानुवाद है:

चलते-फिरते तीव्र, रखते दुष्टजनों पर नज़र। 
पलक झपकती नहीं, सर्वत्र हैं ये अथक गुप्तचर। 
बोलें मीठी वाणी, पर कोई पकड़ न पाए इनको, 
रक्षक सहस्रजनों के, पर पीड़ित करते दुष्टजनों को। 

‘आभार’ व्यक्त करते हुए स्वयं त्रिलोक नाथ पांडेय ने लिखा है, “इस उपन्यास की मूल संकल्पना चौथी शताब्दी के संस्कृत के प्रसिद्ध नाटककार विशाखदत्त के नाटक ‘मुद्राराक्षस’ से ली गई है। कथा मगध साम्राज्य के उस काल खण्ड की है जब घनानंद की प्रभावशाली सत्ता को चाणक्य ने चंद्रगुप्त के साथ मिलकर बिना किसी रक्तपात के हस्तगत कर लिया। यह सब सम्भव हुआ, चाणक्य के द्वारा प्रशिक्षित जासूसों की एक छोटी फ़ौज से। चाणक्य ने प्रण किया, वे अपने बुद्धिबल और कूटनीति के ज़रिए घनानंद को परास्त करेंगे तथा उसके अत्याचारी शासन से प्रजा को मुक्ति दिलाएँगे। उन्होंने अपने शिष्यों को मगध की जनता की भलाई के लिए जासूसी में प्रशिक्षित किया। 

‘प्रेम लहरी’ उनका प्रथम उपन्यास है जिसे पढ़ने, समझने और चिन्तन करने का संयोग मुझे मिला है। ‘चाणक्य के जासूस’ को पढ़ते हुए कहना चाहता हूँ, वे ख़ूब शोध करके ऐतिहासिक सन्दर्भ ढूँढ़ निकालते हैं, नये कलेवर के साथ पाठकों को समर्पित करते हैं, इस तरह साहित्य की सेवा में स्वयं को खपाए हुए हैं और हिन्दी साहित्य को समृद्ध कर रहे हैं। 

त्रिलोक नाथ पांडेय ने अपने इस बहुचर्चित उपन्यास को दस खण्डों में भिन्न-भिन्न उप शीर्षकों के अन्तर्गत विस्तार दिया है। कथा कुछ ऐसी बुनी गयी है, पाठक स्वतः जासूसी के सूत्रों को समझते हैं और प्रभावित होते हैं। जासूसी की अपनी भाषा और शैली होती है जिसका प्रत्यक्ष उदाहरण यह उपन्यास है। अक़्सर समृद्धि जीवन की सहजता समाप्त कर देती है, शीर्ष पर बने रहना हर काल में, सभी के लिए चुनौती होती है, ऐसे में लोग षड्यन्त्र करते हैं, एक-दूसरे को मार्ग से हटाने का प्रयास करते हैं और घृणा, अविश्वास, चालबाज़ियों के साथ-साथ हत्याएँ करते-करवाते हैं। मगध साम्राज्य का इतिहास कुछ ऐसे ही उदाहरणों से भरा पड़ा है। हम अपने इतिहास से भाग नहीं सकते, केवल सीख सकते हैं। आज ऐसा हो नहीं रहा है। सीखना, भागना तो दूर, आज इतिहास झुठलाया जाता है, फलस्वरूप बहुत सारे सामाजिक विमर्शों से जूझना पड़ता है। यह उपन्यास इतिहास की सच्चाई से परिचय करवाता है और उन बहुतायत विसंगतियो से भी जिन्हें जानने, समझने और बचने की ज़रूरत है। नन्दवंश के संस्थापक सम्राट महापद्मनन्द की लोमहर्षक कथा के साथ उपन्यास की शुरूआत होती है। 

प्रथम खण्ड 'प्रतिशोध' संघर्ष, ख़ून-खराबे और षड्यन्त्रों के साथ-साथ पात्रों का परिचय देता है। यहाँ प्रेम भी है और छल भी। अनेक रानियाँ होगी, दासियाँ होगी तो छल से भरा प्रेम होगा और नृशंस हत्याएँ होती रहेंगी। महानन्द का प्रेम निपुणिका नामक दासी में है और उसी की संतान है पद्म। पद्म ने एक रात प्रतिशोध में सभी सौतेले भाइयों, रानियों और बूढ़े सम्राट की हत्या कर दी और स्वयं को सम्राट घोषित कर दिया। सत्ताएँ विरोधी मत स्वीकार नहीं करती। महापद्मनन्द ने आचार्य चणक को मृत्यु दण्ड दिया और उनका साथ देने के आरोप में महामात्य शकटार को पद से हटा जेल में डाल दिया। न्यायाधीश नागदत्त महामात्य बना। माँ चणकी की असमय मृत्यु के बाद अनाथ विष्णु तक्षशिला में विश्वविद्यालय के कुलपति के सामने उपस्थित हुआ। कुलपति किशोर विष्णु की प्रतिभा से प्रभावित हुए। यही बालक आगे चलकर राजनीति शास्त्र का महान आचार्य विष्णुगुप्त बना और चाणक्य के विशेषण से विख्यात हुआ। 

पहेली प्रसंग ने नागदत्त पुत्र सुजात को महापद्मनन्द का विश्वासपात्र बना दिया। इतिहास दुहराता है। महापद्मनन्द के नौ पुत्रों में सबसे छोटे घनानन्द ने पिता सहित सभी भाइयों की हत्या करके मगध साम्राज्य का राजसिंहासन हथिया लिया। सुजात उसका विश्वस्त सेवक बना जिसे घनानन्द ने अपना महामात्य कात्यायन बना दिया। विष्णुगुप्त पाटलिपुत्र में घनानन्द से मिलने की योजना में लग गये, वे देश पर आसन्न ख़तरे का संदेश सुनाना चाहते थे। सफल भी हुए परन्तु घनानन्द का कोप भाजन बन बहुत क्रुद्ध हुए। उन्होंने अपनी शिखा खोलते हुए चिल्लाकर कहा, “यह ब्राह्मण अपनी शिखा तब तक न बाँधेगा जब तक दुष्ट, आततायी राजा का नाश न कर देगा।” चाणक्य को लग रहा था राष्ट्र पर आपदा न सिर्फ़ बाहरी आक्रान्ता से है बल्कि भीतरी शासक से भी है। अपने निजी अपमान की अपेक्षा उन्हें राष्ट्र की चिन्ता सताने लगी। उन्होंने मगध सम्राट को समूल नष्ट कर नये योग्य शासक को राजसिंहासन पर बैठाने का निश्चय किया। चाणक्य को चन्द्र नामक सोलह वर्षीय युवक मिला। उन्होंने माँ मुरा व पिता प्रवीर की दुखद कहानी सुनी, चन्द्र का नाम चन्द्र गुप्त मौर्य रखा और तक्षशिला विश्वविद्यालय में शिक्षण-प्रशिक्षण की व्यवस्था की। चाणक्य ने पुरु के साथ मिलकर मगध के विरोध में रणनीति बनानी शुरू कर दी। 

चाणक्य का अपने बीस शिष्यों के साथ ग़ायब हो जाना चर्चा का विषय बना हुआ था। त्रिलोक नाथ पांडेय जी ने आचार्यों, शिष्यों और आवासीय व्यवस्था में शिक्षण का अद्भुत वर्णन किया है। आचार्य विष्णुगुप्त गुरु-दक्षिणा परम्परा के विरोधी थे परन्तु इस वर्ष वे गुरु-दक्षिणा लेने वाले थे। यह आश्चर्य का विषय था। उन्होंने शिष्यों से कहा, “मानव जीवन तीन प्रकार का होता है—निजी, सार्वजनिक और गुप्त। उन्होंने कहा, “इस गुरुमंत्र को हृदयंगम कर लो—अपनी गोपनीयता कभी भंग न करो।” उन्होंने पूछा, “क्या आप परिवर्तन के लिए तैयार हैं? क्या आप भारत के भाग्य को परिवर्तित करने के लिए स्वयं को समर्पित करेंगे?” उन्होंने उन्हें गोपनीयता की शपथ दिलाई और सबको लेकर ताम्रा नदी होते हुए कालवन में प्रवेश किया। चाणक्य ने कालवन की भूत-प्रेत और दस्युओं की कहानी सुनाकर सबका भय दूर किया। 

उपन्यास का तीसरा खण्ड ‘प्रशिक्षण’ है जिसे बहुत सुन्दर तरीक़े से लिखा गया है। युद्ध की भयंकरता पर वाद-विवाद रोचक है। चाणक्य ने पूछा—“युद्ध का विकल्प क्या है?” शिष्य मौन थे। प्रभाष ने कहा, “गुप्तचरों की सटीक सूचनाओं के बल पर लड़ा गया युद्ध सही विकल्प हो सकता है। इससे हानि कम होगी और अच्छे परिणाम मिलेंगे।” चाणक्य प्रसन्न हुए। उन्होंने ऐतिहासिक प्रसंग सुनाकर कहा, “युद्ध की सर्वोत्तम स्थिति वह है जब बिना लड़े ही शत्रु को परास्त कर दिया जाए। यह कार्य सैनिकों से नहीं, गुप्तचरों से होता है। आप सभी इसीलिए यहाँ लाए गये हैं।” मर्म समझना, गोपनीयता छिपाना, शारीरिक, मानसिक तौर पर मज़बूत होना और विश्वास करना जैसे मुद्दों पर चाणक्य ने विस्तार से समझाया। स्वभाववश वे अपने परिवेश के प्रति चौकन्ने रहते थे। उन्होंने तोतों को अपनी योजना का हिस्सा बनाया। वे पौराणिक कथाओं का सहारा लेते थे और अद्भुत तरीक़े से अपनी योजना से जोड़ देते थे। गुप्तचरी में तोता प्रसंग मार्मिक और ध्यान देने योग्य है। चाणक्य सुशान्त को सम्बोधित करते हैं—“तोते को सिर्फ़ तोता न समझना, उससे मानव की तरह व्यवहार करना। गहन संवेदना और समझ के साथ उससे व्यवहार करना क्योंकि तोता अन्य पक्षियों की अपेक्षा अधिक संवेदनशील होता है।” चाणक्य ने गुप्तचरी में वेश बदलने की कला पर विशेष बल दिया। नैतिक-अनैतिक और दुराचरण के प्रश्न पर चाणक्य ने कहा—“व्यक्तिधर्म से बड़ा है राजधर्म। राजधर्म से बड़ा है राष्ट्रधर्म। हम गुप्तचर राष्ट्र के लिए जीते-मरते हैं।” उन्होंने गुप्तचरी में स्त्रियों की महत्ता और सफलता पर ज़ोर दिया। त्रिलोक नाथ पांडेय जी की लेखन शैली और शब्द चयन ऐसे प्रसंग को जीवन्त बना देते हैं। यह उनका प्रियतर विषय है, जब भी संयोग बनता है, वे अपना कौशल दिखा ही देते हैं। इसका सीधा प्रभाव पड़ता है, उनके लेखन की पठनीयता बढ़ती चली जाती है। चाणक्य पुरुषों द्वारा स्त्री का स्वाँग रचाने की चर्चा करते हैं और कहते हैं—“कुछ भी असम्भव नहीं है।” इस तरह चाणक्य ने गुप्तचरी का विधिवत प्रशिक्षण देकर हर दृष्टि से अपने शिष्यों को प्रशिक्षित कर दिया और एक रात वे सभी तक्षशिला विश्वविद्यालय के अपने प्रांगण में लौट आये। 

वैसे ही चौथा खण्ड ‘प्रयाण’ अत्यन्त सारगर्भित, रोचक और चाणक्य की क्षमता के सफल प्रयोगों से भरा पड़ा है। चाणक्य से बढ़कर एक साथ हर विद्या में पारंगत व निष्णात दुनिया में दूसरा कोई नहीं हुआ। उस महान व्यक्तित्व को सम्पूर्ण रोचकता और गम्भीरता के साथ रचकर पांडेय जी ने पाठकों को हमारे ऐतिहासिक गौरव से परिचित करवाया है। उनके लेखन शैली की विशेषता है कि सब कुछ आँखों के सामने मूर्त हो उठता है, हृदय को झंकृत करता है और ऐतिहासिक प्रसंग झकझोरते हैं। एक बार उपन्यास या उसके किसी भी खण्ड को पढ़ना शुरू कीजिए, बिना अंत तक पहुँचे छोड़ना असम्भव है। चाणक्य का ज्ञान, अनुभव व लक्ष्य की पहचान चमत्कृत करता है और हर व्यक्ति बहुत कुछ सीखता है। जीवन के सूत्र भरे पड़े हैं इस कथ्य-कथानक में और कथा-प्रवाह ऐसा कि पाठक सब कुछ संजो लेना चाहता है। बीच-बीच में कविताएँ कविता-प्रेमी पाठकों को आनंदित करती हैं और घटनाओं को जीवन्त करती हैं। पांडेय जी की यह बड़ी विशेषता है, एक साथ इतने पात्रों का चित्रण करना और सबको उनके सम्पूर्ण ऐश्वर्य-महात्म्य के साथ सँभाले रखना। 

पाँचवाँ खण्ड ‘पाटलिपुत्र’, छठा खण्ड ‘प्रहार’ और सातवें खण्ड ‘घात-प्रतिघात’ के चित्रण में पांडेय जी ने अपने ऐतिहासिक धरोहरों से प्रेम, ऐतिहासिक गौरव की समझ, संस्कृत-वैभव से सत्य निकाल लाना और यथार्थ का उल्लेख करना आदि में परिपक्वता दिखाई है। स्वयं गुप्तचरी की सेवा में होना उन्हें ऐसे लेखन का आधिकारिक सृजनकर्त्ता बना देता है। उनके पास ऐतिहासिक वैभव को चित्रित करने वाली दृष्टि है, भाषा है, समझ है, कौशल है और साथ ही आज के पाठकों के नब्ज़ की पहचान भी है। उनके स्वभाव में थोड़ी अक्खड़ता है परन्तु लेखन-कर्तव्य-निर्वाहन में अद्भुत समर्पण है। किसी को महान बनने में समर्पण और प्रतिबद्धता का विशेष महत्त्व होता है। उनके पास समृद्ध भाषा है, सम्यक शैली है और कथ्य-कथानक के यथार्थ को जन-जन तक पहुँचाने की ललक व बेचैनी है। उनमें राष्ट्रवादी प्राण-चेतना की भावना है, प्रेम है, रोमांस है और सब कुछ परोस देने की साहसी प्रवृत्ति भी है। उनकी लेखन शैली में संवाद का बड़ा सटीक विवरण मिलता है। संवाद के माध्यम से पांडेय जी सन्दर्भ को गम्भीर और रोचक बनाते हैं। उनके पात्र अद्भुत गरिमा के साथ उपन्यास में प्रस्तुत होते हैं और अपना प्रभाव छोड़ते हैं। गुप्तचरी में संवाद की बड़ी महत्ता है, चाणक्य ने समझा था और पांडेय जी हमें समझा रहे हैं। हमारे जीवन में भी संवाद का अहम प्रभाव रहता है क्योंकि सफलता का हमारे संवाद से सीधा सम्बन्ध है। 

चाणक्य सक्रिय रहते हैं। सफलता की यह मूल प्रवृत्ति है। आठवें खण्ड ‘प्रत्यावर्तन’ की घटनाएँ प्रमाणित करती हैं और सब कुछ योजनानुसार चल रहा है। चाणक्य असफलता को भी सफलता की दिशा में मोड़ देते हैं और सबको हताशा-निराशा से बचा लेते हैं। वे रुकते नहीं बल्कि नये सिरे से जुट जाते हैं। वे समन्वयन और केन्द्रीय नियंत्रण का कार्य देखते हैं। जीवन में संयोगों का बड़ा खेल चलता रहता है, चाणक्य ख़ूब समझते हैं और उनका उपयोग करने में देर नहीं करते। उनके गुप्तचर जी-जान से लगे रहते हैं और सफलताएँ मिलती जाती हैं। इस उपन्यास में भावनाओं को विशेष महत्त्व दिया गया है, मार्मिक प्रसंग ख़ूब उभरे हैं और चाणक्य के उद्दात्त चरित्र ने दिखा दिया है कि कैसे परिस्थितियों और विरोधी स्थितियों का मुक़ाबला किया जा सकता है। ऐसे लेखन में पांडेय जी की दक्षता स्पष्ट दिखाई दे रही है। ऐसे विषय के लेखन की अपनी सीमाएँ भी हैं, कभी-कभी पांडेय जी प्रवाह में बहते हुए उसके शिकार भी हुए हैं परन्तु इससे उपन्यास की मौलिकता प्रभावित होती नहीं दिखती। महामात्य कात्यायन के पकड़ लिए जाने और चाणक्य के सामने उपस्थित करने जैसी अनेकों घटनाएँ इसका प्रमाण हैं। महामात्य कात्यायन के प्राण ले लेने की याचना पर चाणक्य उत्तर देते हैं, “आपका जीवन अमूल्य है, मित्र कात्यायन! अभी आपको और कई चमत्कारिक कार्य करने हैं।” चाणक्य तोते, घोड़े ही नहीं सियारों की बोली का भी उपयोग करते है अपनी गुप्तचरी में और अद्भुत स्थिति बनाते हैं। चाणक्य कूट शब्दावली का उपयोग करते हैं, इससे गोपनीयता बनी रहती है। मलय के स्कन्धावार का नक़ाबपोशों वाला प्रसंग कम रोचक नहीं है। चन्द्रगुप्त के व्यक्तित्व को चाणक्य ने ऐसा निखारा है, स्वयं चन्द्रगुप्त ने गुरु भक्ति दिखाई है, राष्ट्रधर्म भावना का जीता-जागता उदाहरण है। राजकुमार मलयकेतु को चाणक्य के सामने प्रस्तुत किया गया। कात्यायन मलय को देख हडबड़ा गया। चाणक्य ने शर्त रखी, “कात्यायन को महासम्राट चन्द्रगुप्त का महामात्य बनना होगा।” उन्होंने स्पष्ट किया, “सम्राट चन्द्रगुप्त अभी नौसिखुआ प्रशासक हैं। उन्हें कात्यायन जैसे सलाहकार और सहायक की आवश्यकता है।” उन्होंने मलयकेतु के पौरव के राजा के रूप में राज्याभिषेक पाटलिपुत्र में ही होने की शर्त रख दी। 

उपन्यास ‘चाणक्य के जासूस’ का नौवाँ खण्ड ‘प्रबन्धन’ बहुत महत्त्वपूर्ण है। चाणक्य ने पहले से चली आ रही कुरीतियों पर ना केवल रोक लगाई बल्कि नये-नये सुधारों को लागू किया। चन्द्रगुप्त मौर्य के राज्याभिषेक को चाणक्य एक चिरस्मरणीय उत्सव के रूप में मनाना चाहते थे। दो चरणों में राज्याभिषेक संस्कार मनाने का निर्णय लिया गया। चाणक्य ने कात्यायन से विष कन्याओं के बारे में जानना चाहा। गंगा स्नान से लौटते हुए उन्हें बौद्ध भिक्षुणी बनी विषकन्या मधुछन्दा मिली। उसने विस्तार से चन्द्रगुप्त की जगह पुरु की हत्या की कहानी सुनाई और चरक का नाम लिया जो राजकुमारी यशिता के साथ कहीं भूमिगत हो गये थे। त्रिलोक नाथ पांडेय जी ने तिलस्मी अंदाज़ में कई घटनाओं की कहानियाँ जोड़ी है इस उपन्यास में। चरक द्वारा मधुछन्दा की निर्विषीकरण प्रक्रिया की कथा लोमहर्षक है। कात्यायन, मलयकेतु, शायद चन्द्रगुप्त भी चाणक्य से जानना चाहते थे, गुप्तचर अभियानों के बारे में। उन्होंने इसका ख़ुलासा किया और विस्तार से सब कुछ बताया। अंत में कहा, “आने वाली पीढ़ियाँ मुश्किल से विश्वास करेंगी कि एक युद्ध बिना अस्त्र-शस्त्र के लड़ा गया। इतिहास केवल नायकों को याद रखता है। इतिहास चाणक्य और चन्द्रगुप्त को पहचानेगा। दुर्भाग्य, जिन गुप्तचरों को वर्तमान नहीं पहचान पाता, उन्हें इतिहास क्या पहचानेगा!”

उपन्यास का अंतिम खण्ड ‘प्रस्थान’ भी पांडेय जी ने बड़े सुनियोजित तरीक़े से गौरवपूर्ण रचा है। सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य का भव्य राज्याभिषेक हुआ। चाणक्य ने संक्षिप्त भाषण दिया और कहा, “आततायी घनानंद के विनाश के लिए प्रण करते हुए मैंने अपनी जो शिखा खोली थी, आज लक्ष्य की पूर्ति पर उसे बाँधता हूँ।” लोगों के हर्ष ध्वनि के बीच बड़ी सहजता से चाणक्य ने अपनी बिखरी शिखा को समेट कर बाँध लिया। चाणक्य ने कहा, “अकिंचन का जीवन जीने के लिए गंगा-तट पर पर्णकुटी मेरा नया आवास होगा। वही हमारी साधना-स्थली होगी। साधना सम्राट के संरक्षण से दूर रहकर ही होती है।”

चाणक्य चल पड़े। लोग पीछे-पीछे चलने लगे। उन्होंने हाथ जोड़कर सबको लौटने को कहा। प्रभाष नहीं लौटा, उसने कहा, “गुरुदेव! आप मात्र मेंरे गुरु ही नहीं, मेंरे पिता भी हैं। दस वर्ष के अज्ञातवास के पश्चात मेरी माँ ने आपकी अंगुली पकड़ाते हुए कहा था कि यही तुम्हारे पिता हैं, जाओ इनके पास। इसके बाद न जाने कहाँ माँ अज्ञात में विलीन हो गयी।” आचार्य चाणक्य ने प्रभाष को गले लगाया और रुँधे गले से कहा, “तुम्हारी माँ से मिलना मात्र एक संयोग था। बहुत समझाने के पश्चात भी वह मेरे सन्तान की माँ बनने के लिए अड़ गई।” पिता-पुत्र के बीच का मार्मिक संवाद हृदय को प्रभावित करता है। चाणक्य गंगा-तट की ओर विह्वल हो बढ़ चले। 

यह ऐतिहासिक उपन्यास अनेक अर्थों में महत्त्वपूर्ण कृति है। इतिहास को नई दृष्टि से देखना, जासूसी के तमाम पुरातन-ऐतिहासिक प्रविधियों की विशद विवेचना करना और कथाओं को अद्भुत अंदाज़ में प्रस्तुत करना लेखक की सफलता है। चाणक्य के बारे में अनगिनत मिथक प्रचलित हैं, यहाँ उनका भिन्न यथार्थ रूप दिखाई देता है, जो जासूसी का शास्त्र विकसित करता है और राजनीति का अंग बनाकर मगध साम्राज्य के शक्तिशाली, अहंकारी घनानन्द का अन्त करता है। कात्यायन भी जासूसी में प्रवीण है, वह साम्राज्य का महामात्य है परन्तु उसकी जासूसी विद्या में नैतिकता नहीं है। चाणक्य में व्यावहारिकता व नैतिकता है और मगध साम्राज्य की जनता के कल्याण की भावना छिपी हुई है। चाणक्य ने चंद्रगुप्त को राजसिंहासन पर बिठाकर राष्ट्र के सुदृढ़ भविष्य का मार्ग प्रशस्त किया है। यहाँ जासूसी तंत्र अपने पूरे विस्तार में दिखलाई पड़ता है, जो पीछे से अपनी भूमिका निभाता है, अपना काम करता है। पांडेय जी ऐतिहासिक सन्दर्भों को साहित्यिक औपन्यासिक विधा में प्रस्तुत करने में सफल हैं। उन्होंने नये सिरे से इतिहास को समेटकर साहित्य लिखा है। ऐतिहासिक तथ्यों को साहित्य में प्रस्तुत करने के ख़तरे भी हैं जिसे वे समझते हैं और अपने लेखन की मौलिकता को बचाने में सफल हैं। 

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