अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

प्रेम मसीहा

दरवेशों और पादरियों जैसी सफ़ेद लम्बी दाढ़ी। चमकती देह पर क़िस्सों के मसीहा जैसा एक सफ़ेद लबादा। एक दिव्य छाया इस बर्फ़ीली जन्नत के धुँध में बेसाख़्ता चक्कर काट रही थी। उसकी स्फटिक-सी पारदर्शी और पाक हथेलियों में ताज़े गुलाबों के पुष्प थे, गुलाबों की सुगंध स्वर्गिक थी। उसके नीलम-जैसे नेत्रों में अश्रुजल था।

वह धुँध भरे मौसम में बादलों को चीरकर कहीं से आया था। उसके दिव्य, ओजस्वी मुखमण्डल पर गहरी वेदना की छाया थी। उसके चिकने उन्नत ललाट पर विषाद की धूमिल रेखाएँ थीं। उन रेखाओं में स्वेदबूँदें अटकी थीं।

आज दुनिया भर के प्रेमी-जोड़े उसे पुकार रहे थे। उसकी छवि को अपने महबूब में निरख रहे थे। उसकी स्तुति और प्रशंसा में गीत-संगीत की महफ़िलें सज रही थीं। प्रेम के तरह-तरह के उपादान शीशे के दुकानों में विक्रय के लिए रखे गए थे। संसार की हज़ारों बोलियों और भाषा में उसके नाम का भिन्न-भिन्न उच्चारण किया जा रहा था।

समाचारपत्रों ने पहले से भरपूर सामग्री आज के दिन प्रकाशित करने के लिए छाँट रखी थी। इस मसीहा का जीवन-वृतांत सोशल मीडिया के हरे समुन्दर में तैर रहा था।

कलीदार गुलाबों की बिक्री में किसी बढ़िया शेयर के भाव की तरह अप्रत्याशित उछाल था। आज प्रेमी-प्रेमिकाओं की आँखों में धरती गोल नहीं ‘हार्ट शेप्ड’ थी। सूरज भी ‘हार्ट शेप्ड’, समोसा भी ‘हार्ट शेप्ड’, पिज़्ज़ा भी और टॉयज़ भी।

इस हार्ट शेप्ड वाली दुनिया में कुछ लोग डंडे लिए जगह-जगह प्रेमालाप में लीन प्रेमियों को दौड़ा भी रहे थे। किन्तु विरोध करने वालों की संख्या पुष्पों से लदी डालियों में छिपे ततैये सी अल्प थीं।

उस मसीहा को आज सुबह तक यह सोचकर हर्ष हो रहा था कि उसका सैकड़ों वर्ष पूर्व दिया हुआ प्रेम सन्देश पीढ़ियाँ भूली नहीं हैं। उसने जिस प्रेम के ज्योतिपुंज को प्रज्ज्वल्लित रखने के लिए क़रीब दो हज़ार वर्ष पूर्व प्राणों की आहुति दे दी थी, वह लौ आज करोड़ों हृदयों के दीये में निर्भय रूप से प्रकाशवान है।

किन्तु दोपहर होते-होते उसके मुख पर उदासी की कलुषित छाया छा गयी। एकाएक बादलों के पार के गीत-संगीत, क़समों-वादों की ध्वनियों की जगह चीखें कैसे सुनाई देने लगीं? बसंत की सुगंध में बारूद की महक कहाँ से आ गयी?

क्षण प्रति क्षण अचानक बदलते चले गए। प्रेम मसीहा तुरंत नीचे आया तो हृदय विदारक दृश्य देख कर उसके मुख से आह निकल आई।

प्रेम मसीहा की पोटली में पिछली शताब्दियों के ख़ुशबूदार प्रेमपत्र हुआ करते थे, किन्तु आज उसकी पोटली के पत्र अधजले मिले।

प्रेम मसीहा अपनी पराश्रव्य ध्वनि में प्रतिदिन प्रेमी-प्रेमिकाओं को सुरक्षा प्रदान करने, उन्हें संसार के दुश्म-ए-इश्क़ से हिफ़ाज़त करने की दुआ परमात्मा से करता था।

वह प्रतिदिन प्रार्थना करता था, "हे ईश्वर, प्रेमीगण के हृदय को निर्भयता से भर, नूर से भर, वफ़ादारी से भर, प्रेम से भर।"

वह ख़ुद भी अपनी सीमित मसीहाई शक्तियों से वरदानों की वर्षा करता था। आज मसीहा का वरदहस्त नमस्कार की मुद्रा में था। कभी सैंकड़ों-हज़ारों रूहें प्रेम में डूबकर उसके सामने घुटने टेके बैठी रहती थीं। परमानंद की अनुभूति से सराबोर रहती थीं।

लेकिन आज मसीहा ख़ुद उस सुन्दर वादी की कोलतार की सड़क पर घुटने टेके बैठा है। चारों ओर ऊँचे बर्फ़ीले सुन्दर पर्वत हैं, इन बर्फ़ीले पर्वतों पर रक्त के धब्बे दृष्टिगोचर हो रहे हैं। वासंती वायु में सिसकियों के स्वर और गनपाउडर की गंध है। 

प्रेम मसीहा सैनिकवाली वर्दी पहने चिथड़े-चिथड़े चालीस से अधिक शवों के मध्य बैठा है,  कुछ भी साबुत नहीं हैं। कुछ के फेफड़े साँसें ले रहे हैं तो कुछ के  दिल बाहर पड़े धड़क रहे हैं।

ये सैनिक अद्भुत प्रेमी थे। ये अपने गर्भिणी पत्नियों, अपनी प्रतीक्षारत प्रेमिकाओं और स्वप्न बुनती मंगेतरों से दूर आज प्रेम के दिवस को मातृभूमि की रक्षार्थ ड्यूटी पर थे। 

प्रेम मसीहा इनकी रूहों को गले लगा रहा था। प्रेम मसीहा हर रूह से कह रहा था, "वेलेंटाइन डे के दिन वतन पर प्राणों के उत्सर्ग करने वाले हे सैनिको! तुम्हारी क़ुरबानी,मेरी क़ुरबानी से भी श्रेयस्कर है। आने वाली पीढ़ियाँ शायद चौदह फरवरी को अब इस बड़ी क़ुरबानी के लिए याद रखे।“

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

......गिलहरी
|

सारे बच्चों से आगे न दौड़ो तो आँखों के सामने…

...और सत्संग चलता रहा
|

"संत सतगुरु इस धरती पर भगवान हैं। वे…

 जिज्ञासा
|

सुबह-सुबह अख़बार खोलते ही निधन वाले कालम…

 बेशर्म
|

थियेटर से बाहर निकलते ही, पूर्णिमा की नज़र…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता-मुक्तक

लघुकथा

कहानी

कविता

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं