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संस्‍कृत साहित्य में रसावगाहन

संस्‍कृत साहित्‍य में रस शब्‍द का प्रयोग विभिन्‍न अर्थों में अतिप्राचीन काल से किया जाता रहा है। वेद, वेदाङ्ग, ब्राह्मण, उपनिषद्, आयुर्वेद, रामायण, महाभारत आदि साहित्‍य में रस शब्‍द का प्रयोग अनेक विभिन्‍न अर्थों में किया गया है। कोष ग्रन्थों के अनुसार रस शब्द के अनेक अर्थ हैं। स्‍वाद, वीर्य, जल, शृंगार आदि काव्‍य रस, विष, द्रव्‍य, पारद राग, गृह, धातु, तिक्‍त आदि 6 भोजन के रस, परमात्‍मा आदि।   

काव्‍य साहित्‍य में रस, शब्‍द से शृंगार आदि रसों का बोध होता है। आयुर्वेद में इससे मधुर आदि भोजन रसों का, विष का, रस नामक धातु का और द्रव का बोध होता है- मधुराम्ललवणकटुकषायतिक्तभेदात् षड्विधम्। सार रूप पदार्थ को भी रस कहा जाता है। वैदिक साहित्‍य में विशेष रूप से उपनिषदों में परमात्‍मा के लिए भी इस पद का व्‍यवहार हुआ है। तैत्तिरीय उपनिषद में परमब्रह्म को रस कहा गया है क्‍योंकि उसको प्राप्‍त करके जीव आनन्‍द का अनुभव करता है। रस सिद्धान्‍त के प्रतिपादन के लिए तथा काव्‍यों को रसात्‍मक प्रतिपादित करने के लिए ‘वाल्‍मीकि रामायण‘ का प्रायः दृष्‍टान्‍त दिया जाता है।

रस अन्‍तःकरण की वह शक्ति है, जिसके कारण इंद्रियां अपना कार्य करती हैं, मन कल्‍पना करता है, स्‍वप्‍न की स्‍मृति रहती है- सरसो रसः। काव्‍य शास्‍त्र के इतिहास में रस सिद्धान्‍त का प्रवर्तन सबसे पहले भरतमुनि ने किया था। व्‍याकरण के अनुसार रस पद की व्‍युत्‍पत्ति चार प्रकार से बताई गई है। 

1    रस्‍यते आस्‍वाद्यते इति रसः-

इस व्‍युत्‍पत्ति के अनुसार जिन पदार्थों का आस्‍वादन किया जाता है, वे रस हैं, इस प्रकार परमात्‍मारूप रस, मधुर पदार्थ, सोम, गन्‍ध, मधु, आदि पदार्थों को रस कहा जाता है। 

2    रस्‍यते अनेन इति रसः-

जिन पदार्थों  के द्वारा आस्‍वादन किया जाता है उनको भी रस कहते हैं। इस आधार पर शब्‍द, राग, वीर्य, शरीर आदि को रस कहते हैं।   

3    रसति रसयति वा रसः-

जो व्‍याप्‍त हो जाता है या व्‍याप्‍त कर लेता है, उसको रस कहते हैं, इस प्रकार पारद, जल-शरीर की रस धातु या अन्‍य द्रव पदार्थों को रस कहते हैं।  

4    रसनं रसः आस्‍वादः-

जो आस्‍वाद है उसको रस कहते हैं।   इस आधार पर शृंगार आदि को रस कहते हैं क्‍योंकि वे आस्‍वादरूप है।

श्रव्‍य काव्‍य के पठन या श्रवण एवं दृश्‍य काव्‍य के दर्शन तथा श्रवण में जो अलौकिक आनन्‍द प्राप्‍त होता है वहीं काव्‍य में रस कहलाता है। रस से जिस भाव की अनुभूति होती है वह रस का स्‍थायी भाव होता है।  काव्‍य में जो आनन्‍द आता है, वह ही काव्‍य का रस है।  काव्‍य में आने वाला आनन्‍द अर्थात् रस लौकिक न होकर अलौकिक होता है। 

रस-स्‍वरूप- विभावानुभावव्‍यभिचारिसंयोगाद्रसनिष्‍पतिः।1 – भरतमुनि

भरतमुनि के अनुसार विभाव, अनुभाव तथा संचारी (व्‍यभिचारी) भावों के संयोग से रस निष्‍पन्‍न होता है। आचार्य भरत के इसी रससूत्र पर उत्तरवर्ती आचार्यों ने अपने रससूत्रों का निर्माण किया है। यही सूत्र अन्‍य सूत्रों का मुख्‍य आधार माना गया है।

महामुनी भरत के रससूत्र की व्‍याख्‍या - भरत के नाट्यशास्‍त्र के रससूत्र पर विभिन्‍न व्‍याख्‍याएं दी गई हैं। संयोगात् एवं निष्‍पत्तिः पदों की व्‍याख्‍या करने में विभिन्‍न आचार्यों ने अलग-अलग मत प्रतिपादित किए हैं। वे इस प्रकार हैं -

भट्टलोल्लट - भट्टलोल्लट का मत उत्‍पत्तिवाद कहलाता है। उन्‍होंने "संयोगात्" पद का अर्थ "उत्‍पाद्य-उत्‍पादक सम्‍बन्‍धात्" तथा "निष्‍पत्तिः" का अर्थ  ‘उत्‍पत्ति‘ किया है। इनके मत का भाव यह है कि जिस प्रकार सीपी में रजत के न होने पर भी दर्शकों में उसके रूप के कारण रजत की भ्रान्ति होती है और उसको देखकर वे प्रसन्‍न होते हैं उसी प्रकार राम आदिगत रति अभिनेताओं में न होने पर भी वह सामाजिकों को उनमें प्रतीत होती है तथा उस भ्रांति से वे आनन्‍द का अनुभव करते हैं।

शङ्कुक - इनका मत अनुमितिवाद कहलाता है। शंकुक ने रस की अनुभूति को अनुमान का विषय प्रतिपादित किया था। शंकुक ने "संयोगात्" पद का अर्थ "अनुमाप्‍य-अनुमापक संबंधात्" और "निष्‍पतिः" का अर्थ ‘अनुमिति‘ किया था।

इनके मत का भाव यह है कि किसी स्थान पर धूम के न होने पर भी धुँध आदि को धूम समझकर उसके द्वारा वह्नि का अनुमान कर लिया जाता है, वैसे ही नट आदि में वास्तविक रति आदि के न होने पर भी उनके अभिनय के कौशल से कृत्रिम विभावों द्वारा रति आदि स्थायी भावों का अनुमान सामाजिक कर लेता है। यह अनुमिति अपने सौन्दर्य के बल से सामाजिकों द्वारा आस्वाद्यमान होकर चमत्कार को उत्पन्न करती हुई रसदशा को प्राप्त होती है।

भट्टनायक - उनका मत भुक्तिवाद कहलाता है। भट्टनायक ने "संयोगात्" पद का अर्थ "भोज्यभोजकसम्बन्धात्"  तथा "निष्पत्ति" का अर्थ भुक्ति किया।

भट्टनायक के अनुसार काव्य के शब्द अन्य शब्दों से विलक्षण होते हैं। इनमें एक तो अभिधा व्यापार होता है तथा उससे भिन्न दो अन्य व्यापार भावकत्व और भोजकत्व होते हैं। इनमें अभिधा व्यापार वाच्यार्थविषयक और भोजकत्व व्यापार सहृदय विषयक होता है। काव्य में यदि केवल अभिधा व्यापार को ही माना जावे तो रसनिष्ठ काव्य का श्लेष आदि अलंकृत काव्य से तथा तंत्र आदि शास्त्रों में कोई भेद नहीं रहेगा। अतः अभिधा से अतिरिक्त भावकत्व और भोजकत्व व्यापारों को मानना होगा।

अभिनवगुप्त - अभिनवगुप्त ने "संयोगात्" पद का अर्थ "अभिव्यंगय-अभिव्यंजकसम्बन्धात्"  तथा निष्पतिः का अर्थ "अभिव्यक्ति" किया है। इनके मतानुसार - सामाजिक के हृदय में स्थायी भाव वासना के रूप में सूक्ष्म रूप से विद्यमान रहते हैं। रस का आस्वादन अलौकिक होता है। यह हृदय में प्रविष्ट होता सा प्रतीत होता है। अपने अतिरिक्त यह अन्य सब ज्ञानों को तिरोहित कर देता है। यह ब्रह्मज्ञान के आनन्द के सदृश होता है। यह सदा ध्वन्यात्मक (व्यङ्गय) होता है। लोक में रति आदि भावों के जो कारण, कार्य, और सहकारी हैं वे ही काव्य में अलौकिक विभाव, अनुभाव एवं व्यभिचारी भाव कहलाते हैं। काव्य की अलौकिक अभिव्यंजना शक्ति के कारण विभाव आदि का साधारणीकरण हो जाता है। साधारणीकरण हो जाने पर प्रमाता (सामाजिक) के चित्त की सीमाओं के बंधन नहीं रहते। उसकी चितवृति अपरिमित हो जाती है। सामाजिक को यह रसानुभूति अपने से अभिन्न अनुभव होती है। वह अपने अंदर रस की चर्वणा करता हुआ अनुभव करता है। काव्य के शब्द अन्य शब्दों से विलक्षण होते हैं। इनमें एक तो अभिधा व्यापार होता है तथा उससे भिन्न दो अन्य व्यापार भावकत्व और भोजकत्व होते हैं। इनमें अभिधा व्यापार वाच्यार्थ विषयक और भोजकत्व व्यापार सहृदयविषयक होता है। काव्य में यदि केवल अभिधा व्यापार को ही माना जावे तो रसनिष्ठ काव्य का श्लेष आदि अलंकृत काव्य से तथा तंत्र आदि शास्त्रों से कोई भेद नहीं रहेगा अतः अभिधा से अतिरिक्त भावकत्व और भोजकत्व व्यापारों को मानना होगा।

कारणान्यथकार्याणि सहकारीणि यानि च।
रत्यादेः स्थायिनो लोके तानि चेन्नाट्यकाव्ययोः॥
विभावा अनुभावास्तत् कथ्यन्ते व्यभिचारिणः।
व्यक्तः स तैर्विभावाद्यैः स्थायी भावो रसः स्मृतः॥2 – मम्मट

आचार्य मम्मट के अनुसार लोक में रति आदि रूप स्थायी भाव के जो कारण, कार्य और सहकारी होते हैं वे यदि नाटक या काव्य में (प्रयुक्त) होते हैं, तो क्रमशः विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भाव कहलाते हैं और उन विभाव आलम्बन या उद्दीपन आदि (रूप कारण, कार्य तथा सहकारियों के योग) से व्यक्त वह (रति आदि रूप) स्थायी भाव रस है।

विभावेनानुभावेन व्यक्तः संचारिणा तथा।
रसतामेति रत्यादिः स्थायी भावः सचेतसाम्॥3 - आचार्य विश्वनाथ

आचार्य विश्वनाथ के अनुसार विभाव (आलम्बन-स्थायीभाव को जागृत करने के मुख्य कारण, शृंगार के संबंध में नायक-नायिका, रौद्र के सम्बन्ध में शत्रु तथा उद्दीपन अर्थात् सहायक कारण जो उस भाव को उद्दीप्त रखें, जैसे शृंगार में चाँदनी, गीतवाद्य और आलम्बन की चेष्टायें) अनुभाव (भावों के बाह्यव्यंजक जैसे क्रोध में मुख का लाल हो जाना, ये कार्यरूप होते हैं) तथा संचारी (स्थायी भावों को पुष्ट करने वाले जैसे करुणा में दैन्य भावों) के द्वारा अभिव्यक्त होकर इत्यादि। (रति, हास, आदि) स्थायी भाव सामाजिकों के (हृदय में) रसता को प्राप्त होते हैं अर्थात् रस रूप से परिणति को प्राप्त होते हैं।

विभावानुभावसात्त्विकव्यभिचारिसामग्रीसमुल्लासितः स्थायीभावो रसः।4 - आचार्य विद्यानाथ

आचार्य विद्यानाथ के अनुसार विभाव (आलम्बन, नायक एवं नायिका अनुभाव (उनकी चेष्टायें यानी हाव भाव क्रिया कलाप) सात्विक भाव (स्तम्भ रोमांचादि) आदि व्यभिचारि (निर्वेदादि-33 भाव) रूपी सामग्री दृश्य काव्य में निपुण नटादि के द्वारा दिखाए गए अभिनय से सामाजिक के हृदय में, श्रव्य काव्यों में गायक के द्वारा गायी गई राग एवं रागिनियों से श्रोता के हृदय में, गद्य, पद्य एवं उभयात्मक चम्पू के पठन से पाठक के मानस में एवं चित्र्य खङ्ग, मुरज एवं पदमादि के आकार में लिखे गए चित्रों को देखने एवं पठन से देव देवी नायक, नायिकादि विविध व्यक्तियों के और भवनादि के रूप में रेखाओं से अंकित किए गए चित्रों के केवल देखने से दर्शक के मन में समुल्लसित होकर अनुभूयमान निजानन्द सम्बलित स्थायी भाव रस है।

स्थायी भाव
रतिर्हासश्च शोकश्च क्रोधोत्साहौ भयं तथा।
जुगुप्सा विस्मयश्चेति स्थायिभावाः प्रकीर्तिताः॥5 – भरतमुनि

भरतमुनि ने आठ रसों के आठ स्थायी भावों को स्वीकार किया है। उसके अनुसार ये स्थायी भाव हैं: रति, हास, शोक, क्रोध, उत्साह, भय, जुगुप्सा और विस्मय।

आचार्य मम्मट ने जिस प्रकार आठ रसों के लक्षण में भरतमुनि का अनुसरण किया है उसी प्रकार आठ स्थायी भावों के लिए भी भरतमुनि का ही अनुसरण किया है। परन्तु मम्मट ने यह भी कहा है - 
निर्वेदस्थायिभावोऽस्ति शान्तोऽपि नवमो रसः।6 - आचार्य मम्मट

मम्मट के अनुसार - निर्वेद जिसका स्थायी भाव है इस प्रकार शान्त रस भी नवम रस होता है।

विरूद्धैरविरूद्धैर्वा भावैर्विच्छिद्यते न यः।
आत्म भावं नयत्यन्यान् स स्थायी लवणाकरः॥
रत्युत्साहजुगुप्साः क्रोधो हासः स्मयो भयं शोकः।
शममपि केचित्प्राहुः पुष्टिर्नाटयेषु नैतस्य॥7 - आचार्य धनंजय

धनंजय के अनुसार जो रति आदि भाव अपने से प्रतिकूल अथवा अनुकूल किसी प्रकार के भावों के द्वारा विच्छिन्न नहीं होता और लवणाकार (नमक की खान या समुद्र) के समान अन्य सभी भावों को आत्मसात कर लेता है वह स्थायी भाव कहलाता है। स्थायी भाव है - रति, उत्साह, जुगुप्सा, क्रोध, हास, विस्मय, भय, तथा शोक। कुछ आचार्य शम को भी (नवम) स्थायी भाव कहते हैं किन्तु उस (शम) की पुष्टि रूपकों में नहीं होती।

अविरूद्धा विरूद्धा वा यं तिरोधातमक्षमाः।
आस्वादाङ् कुरकन्दोऽसौ भावः स्थायीति संमतः॥
रतिर्हासश्च शोकश्च क्रोधोत्साहौ भयं तथा।
जुगुप्सा विस्मयश्चेत्थमष्टौ प्रोक्ताः शमोऽपि च॥8 - आचार्य विश्वनाथ

आचार्य विश्वनाथ के अनुसार अविरुद्ध अर्थात् अनुकूल या विरुद्ध अर्थात् प्रतिकूल (भाव) को छिपाने के लिए असमर्थ है। (अपने आप अप्रधान होने के कारण असक्त है) तथा आस्वाद रूप रस के अंकुर का मूलभूत है वह भाव स्थायी माना गया है। रति, हास, शोक, क्रोध, उत्साह, भय, जुगुप्सा, विस्मय ये आठ स्थायी कहे हैं और शम भी।

रतिर्हासश्च शोकश्च क्रोधोत्साहौ भयं तथा।
जुगुप्साविस्मय शमाः स्थायिभावा नव क्रमात्॥9 - आचार्य विद्यानाथ

आचार्य विद्यानाथ ने 9 रसों को जिस क्रम में माना है उसी क्रम में उनके स्थायी भावों को लिखा है। इनके स्थायी भाव क्रमशः ये हैं - रति, हास, शोक, क्रोध, उत्साह, भय, जुगुप्सा, विस्मय एवं शम ये नौ इनके पहले कहे हुए शृंगारादि नौ रसों के 9 स्थायी भाव हैं। 

व्यभिचारी भाव

निर्वेदग्लानिशङ्काख्यास्तथासूयामदश्रमाः।
आलस्यं चैव दैन्यं च चिन्ता मोहः स्मृतिर्धृतिः॥
व्रीडा चपलता हर्ष आवेगो जडता तथा।
गर्वो विषाद औत्सुक्यं निद्रापस्मार एव च॥
सुप्तं विबोधोऽमर्षश्चाप्यवहित्थमथोग्रता।
मतिव्र्याधिस्तथोन्मादस्तथा मरणमेव च॥
त्रासश्चैव वितर्कश्च विज्ञेया व्यभिचारिणः।
त्रयस्त्रिंशदमी भावाः समाख्यातास्तु नामतः॥10 – भरतमुनि

भरतमुनि के अनुसार तैंतीस (व्यभिचारी) भाव इस प्रकार है-  निर्वेद, ग्लानि, शंका, असूया, मद, श्रम, आलस्य, दैन्य, चिन्ता, मोह, स्मृति, धृति, व्रीडा, चपलता, हर्ष, आवेग, जडता, गर्व, विषाद, औत्सुक्य, निद्रा, अपस्मार, सुप्त, प्रबोध, आमर्ष, अवहित्था, उग्रता, मति, व्याधि, उन्माद, मरण, त्रास तथा वितर्क।

विशेषादाभिमुख्येन चरन्ती व्यभिचारिणः।
स्थायिन्युन्मग्ननिर्मग्नाः कल्लोला इव वारिधौ॥
निर्वेदग्लानिशङ्काश्रमधृतिजडताहर्षदैन्यौग्रयचिन्ता-
स्त्रासेष्र्यामर्षगर्वाः स्मृतिमरणमदाः सुप्तनिद्राविबोधाः।
व्रीडापरस्मारमोहाः सुमतिरलसतावेगतकविहित्था
व्याध्युन्मादौ विषादोत्सुकचपलयुतास्त्रिंशदेत त्रयश्च॥11 - आचार्य धनंजय

धनंजय के अनुसर विविध प्रकार से (स्थायी भाव के) अभिमुख (अनुकूल) चलने वाले भाव व्यभिचारी भाव कहलाते हैं, जो स्थायी भाव में इसी प्रकार प्रकट होकर विलीन होते रहते हैं, जिस प्रकार सागर में तरंगे। व्यभिचारी भाव तैंतीस होते हैं - निर्वेद, ग्लानि, शंका, श्रम, धृति, जडता, हर्ष, दैन्य, औग्रय, चिन्ता, त्रास, ईष्र्या, अमर्ष, गर्व, स्मृति, मरण, मद, सुप्त, निद्रा, विबोध, व्रीडा, अपस्मार, मोह, सुमति, अलसता, वेग, तर्क, अवहित्था, व्याधि, उन्माद, विषाद, औत्सुक्य तथा चपलता।

विशेषादाभिमुख्येन चरणाद्वयभिचारिणः।
स्थायिन्युन्मग्न निर्मग्नास्त्रयस्त्रिंशच्च तद्भिदाः॥
निर्वेदावेगदैन्यश्रममदजडता औग्रयमोहौ विबोधः
स्वप्नापस्मारगर्वा मरणमलसतामर्षनिद्रावहित्थाः।
औत्सुक्योन्मादशङ्का स्मृतिमतिसहिता व्याधिसंत्रासलज्जाः
हर्षासूयाविषादाः सधृतिचपलता ग्लानिचिन्तावितर्काः॥12 - आचार्य विश्वनाथ

विश्वनाथ के अनुसार विशेष रूप से अनुकूल होने के कारण उत्पन्न होते हुए स्थायी भाव में आविर्भूत होने वाले तिरोभूत होने वाले व्यभिचारी कहे जाते हैं। व्यभिचारी भाव 33 कहे गए हैं: निर्वेद, आवेग, दैन्य, श्रम, मद, जड़ता, उग्रता, मोह, विबोध, स्वप्न, अपस्मार, गर्व, मरण, असलता, अमर्ष, निद्रा, अवहित्था, औत्सुक्य, उन्माद, शंका, स्मृति, मति, व्याधि, संत्रास, लज्जा, हर्ष, असूया, विषाद, धृति, चपलता, ग्लानि, चिन्ता तथा वितर्क।

निर्वेदग्लानिशंकाख्यास्तथाऽसूयामदश्रमाः।
आलस्य चैव दैन्यं च चिन्ता मोहः स्मृतिर्धृतिः॥
व्रीडा चपलता हर्ष आवेगो जड़ता तथा।
गर्वो विषाद औत्सुक्यं निद्रापस्मार एव च॥
सुप्तिर्विबोधोऽमर्षश्चाप्यवहित्थमथोग्रता। 
मतिव्र्याधिस्तथोन्मादस्तथा मरणमेव च॥
त्रासश्चैव वितर्कश्च विज्ञेया व्यभिचारिणः।
त्रयस्त्रिंशदमी भावा रसस्य सहकारिणः॥13 - आचार्य विद्यानाथ

आचार्य विद्यानाथ के अनुसार ‘वि’ यानि ‘विशेष रूप से’ और ‘अभि’ यानि ‘अभिमुख रूप से’ संचरण करने वाले भाव ‘संचारी’ या ‘व्यभिचारी’ कहलाते हैं। वे रसों के सहकारी 33 भाव ये हैं: 

निर्वेद, ग्लानि, शंका, असूया, मद, श्रम, आलस्य, दैन्य, चिन्ता, मोह, स्मृति, वृति, व्रीडा, चपलता, हर्ष, आवेग, जड़ता, गर्व, विषाद, औत्सुक्य, निद्रा, अपस्मार, सुप्ति, विबोध, अमर्ष, अवहित्था, उग्रता, गति, व्याधि, उन्माद, मरण, त्रास एवं वितर्क।

रस के प्रकार (रस विशेष)

शृंगारहास्यकरुणा रौद्रवीरभयानकाः;
वीभत्साद्भुतसंज्ञो चेत्यष्टौ नाटये रसाः स्मृताः॥14 – भरतमुनि

भरतमुनि ने नाट्य में आठ रसों को स्वीकार किया है: शृंगार, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक, वीभत्स तथा अद्भुत।
आचार्य मम्मट: आचार्य मम्मट ने भरतमुनि के आठ रसों को ज्यों का त्यों स्वीकार कर लिया है तथा समान ही लक्षण काव्यप्रकाश में दिया है, परन्तु मम्मट ने शान्त को भी नवें रस के रूप में मान्यता प्रदान की है। 

शृंगारहास्यकरुणरौद्रवीर भयानकाः। 
वीभत्सोऽद्भुत इत्यष्टौ रसाः शान्तस्तथा मतः॥15 - आचार्य विश्वनाथ

आचार्य विश्वनाथ के अनुसार शृंगार, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक, वीभत्स और अद्भुत इस प्रकार आठ रस माने गए हैं। उसी प्रकार शान्त रस माना गया है। 

शृंगारहास्यकरुणा रौद्रवीरभयानकाः।
वीभत्साद्भुतशान्ताश्च रसाः पूर्वैरुदाहृता॥16 - आचार्य विद्यानाथ

आचार्य विद्यानाथ ने रसों की संख्या को रस विशेष कहकर सम्बोधित किया है। आचार्य विद्यानाथ ने नौ प्रकार के रसों को स्वीकार किया है: शृंगार, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक, वीभत्स, अद्भुत तथा शान्त रस।

निष्कर्ष- 

रस की आनन्दात्मकता तथा प्रधानता के कारण ही काव्यशास्त्र की रचना के प्रारम्भ से आधुनिक समय तक प्रायः सभी आचार्यों ने रस को काव्य की आत्मा प्रतिपादित किया है। रस मनुष्य को आनन्दित करता है तथा काव्य के लिए रस को आवश्यक तत्व माना गया है। इस विवेचन में रस को सुखात्मक तथा दुःखात्मक दोनों प्रकार का बताया गया है। काव्यगत रसों की अनुभूति सत्वप्रधान होती है। करुण आदि रसों से सुखात्मक या दुःखात्मक अनुभूति का होना सहृदय की मानसिक अवस्था पर निर्भर करता है। 

आचार्य भरत के पश्चात् भी आचार्यों ने रस को ही प्रधान तत्व माना है। वाल्मीकि द्वारा प्रतिपादित प्रथम श्लोक में करुण रस को बताया गया है तथा यह पाठक के हृदय को शोकपूर्ण कर देता है। यह रस की अभिव्यक्ति स्थायी भावों के कारण होती है। रस में विभाव, अनुभाव तथा व्यभिचारी भावों का सम्मिश्रण माना गया है। एक नायक की कुशलता का भी करुण रस प्रधान काव्यों की रसानुभूति पर प्रभाव पड़ता है। लोक में जिन कारणों को दुखात्मक समझा जाता है, वे सभी व्यक्तियों के लिए दुःखात्मक हो यह आवश्यक नहीं है, यह नायक के अभिनय पर निर्भर करता है। अतः काव्यगत सभी रसों को अन्ततः सुखात्मक ही माना जाना चाहिए। 

डाॅ. रामकेश्वर तिवारी (सहायक विभागाध्यक्ष),
श्री बैकुण्ठनाथ पवहारी संस्कृत महाविद्यालय, बैकुण्ठपुर, देवरिया, उ. प्र.

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची

  1. नाट्यशास्त्र (ना.शा.)
  2. काव्यप्रकाश (का.प्र.)
  3. साहित्यदर्पण (सा.द.)
  4. प्रतापरुद्रीयम् (प्र.रु.)
  5. दशरूपक (द.रू.)

संदर्भ :

  1. ना.शा. पृ. 228
  2. का.प्र. 4.27
  3. सा.द. 3.1
  4. प्र.रु. पृ. 145
  5. ना.शा. 6.18 पृ. 221
  6. का.प्र. पृ. 138
  7. द.रू. 4.34,35 पृ. 301, 313
  8. सा.द. 3.174.175, पृ. 219-20
  9. प्र.रू. पृ. 146
  10. ना.शा. 19-22 पृ. 222
  11. द.रू. 4.7,8 पृ. 267-68
  12. सा.द. 3.140-141
  13. प्र.रु. पृ. 149
  14. ना.शा. 6.16 पृष्ठ 218
  15. सा.द. 3.182 पृष्ठ 224
  16. प्र.रू., पृष्ठ 146

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