भाव सौन्दर्य: कविकुलगुरु कालिदास के अनुसार
आलेख | शोध निबन्ध डॉ. रामकेश्वर तिवारी5 Nov 2016
कविकुलगुरु कालिदास के अनुसार काव्य की चरमपरिणति रस है। रस ही काव्य का जीवन है "रस एवात्र जीवितम्" इस के बिना भाव और भाव के बिना रस की कल्पना नहीं की जा सकती। "न भाव हीनोऽस्ति रसो न भावो रसवर्तिः" क्योंकि काव्य का उद्भव भी तो भाव से ही हुआ है। इस भाव पद की व्याख्या हमारे साहित्यशास्त्रीयों ने विविध प्रकार से की है। कवेरर्न्तगतं भावं भावयन् भाव उच्यते परन्तु यहाँ मेरा अभिप्राय कालिदास वाङमय मे रत्यादि स्थायीभाव, हर्षादि व्यभिचारिभाव स्तम्भ स्वेदादि सात्त्विक भाव से है। कवि कुलाशिरोमणि कवि बस तो इन भावों के कुशल पारखी हैं। कवि ने अपनी सप्तकृतियों मे इन भावों का बड़ा ही सुन्दर वर्णन किया है। स्थायीभावों की संख्या आठ मानी गयी है।
रतिर्हासश्च शोकश्च क्रोधोत्साहौ भयं तथा।
जुगुप्सा विस्मयश्चेति स्थायीभावाः प्रकीर्तिताः।।
नाट्यशास्त्र 6/7
व्यभिचारीभाव 33 है –
"निर्वेदग्लानिशंकाख्यास्तथासूया मदः श्रमः।
आलस्यं चैव दैन्यं च चिन्ता मोहः स्मृतिर्धृतिः।।
ब्रीडा चपलता हर्ष आवेगो जडता तथा।
गर्वो विषाद औत्सुक्यं निद्राऽपस्मार एव च।।
सुप्तिर्विबोधोऽमर्षश्चाऽप्यवहिथमयोग्रता।
भतिर्व्याधिस्तथोन्मादस्तथा मरणमेव च।।
त्रासश्चैव विज्ञेया व्यभिचारिणः।।
ना.शा. 6/21
इनके अतिरिक्त अष्टविध सात्त्विकभावों की गणना की गयी है।
स्तम्भः स्वेदोऽथ रोमा॰चः स्वरभेदंगोऽथ वेपथुः।
वैवर्ण्यमश्रुप्रलय इत्यष्टौ सात्त्विकाः स्मृताः।।
ना.शा. 6/22
मानव का हृदय संवेगों भावनाओं और मधुर उत्तेजनाओं का मन्द्रमनोरम कोष है, और महाकवि कालिदास इन्हीं भावों को अपनी तूलिका से अमरवत प्रदान करने वाले कलाकार हैं। चाहे महर्षि कण्व पुत्री शकुन्तला के प्रति गृह गमन का करुण प्रसंग हो, चाहे विलास मेखला को आधी गुथी छोड़कर ही प्रिया से इन्दुमति का स्वर्गगमन हो और चाहे वियोगविधुरा यक्षदयिता के हृदय की अश्रु्रस्नाता कथा हो। कवि की लेखनी अविराम गति से भावों के प्रतिपटल को उकेरती हुई शनैः-शनैः रसात्मक सौन्दर्य सर्जना की ओर बढ़ जाती है। कलिदास ने इन भावों को अपने काव्य मे कैसे उकेरा है इसका अवलोकन हम कतिपय दृष्टान्तों के माध्यम से कर सकते हैं।
मानवीय सुलभ भावनाओं मे रति ही सर्वश्रेष्ठ है और शृंगार रस पर तो महाकवि का पूर्णाधिकार है। संयोग तथा विप्रलम्भ दोनों में इनकी समान गति है। व्यंजना के आश्रयण से भगवान शिव के अनुराग स्फुरण का कितना सुन्दर वर्णन करतें हैं:-
"हरस्तु किञ्चिरपरिवृत्तधैर्य चन्द्रोदयारम्भ इवाम्बुराशिः।
उमामुखे बिम्बफलाधरोष्ठे व्यापारयामास विलोचनानि।।"
कुमार संभव 3/67
प्रकृत श्लोक में ‘तु’ का प्रयोग ‘शिव की यह दशा थी’ इस भाव की व्यंजना करता है तो ‘किंचित’ पद उनकी जितेन्द्रियता का संकेत करता है। रसोदर्भ मेघदूत का कान्ताविश्लेषित यक्ष पूर्वास्वादित सुख की स्मृतियों के उद्धेलन से भूरिशः अभिभूत है। रामगिरि आश्रम पर निवास करता हुआ वह अपने प्रिया के अंगों की प्रतिकृति ढूँढ निकालता है।
श्यामास्वङ चकितहरिणमप्रेक्षणे दृष्टिपातं,
वक्त्रच्छायां शशिनि शिखिना बर्हभारेषु केशान्।
उत्पश्यामि प्रतनुष नदीवीचिषु भूमिलासान्,
हन्तैकस्मिन् कचिदपि न ते चण्डि! सादृश्यमस्ति।।
उ.मे. 46
लेकिन कहीं अन्यत्र उसे अपनी प्रिया की छवि जैसी छवि दिखायी नहीं देती तब वह गेरू की रेखाओं के माध्यम से प्रिया को देखने का उपक्रम करता है लेकिन क्रूर दैव को शायद यह भी सम्भव नहीं।
"त्वामालिख्य प्रणयकुपितां धातुरागैः शिलाया,
मात्मानं ते चरणपतितं यादवदिच्छामि कर्तुम्।
अस्रैस्तावन्मुहरूपचितैः दृष्टिरालुप्यते मे,
क्रुरस्तस्मिन्न्पि न सहते संगमं नौ कृतान्तः।।
उ.मे. 17
यहाँ क्रूर दैव के प्रति ‘असूया’ नामक व्यभिचारीभाव है। शोक की चरम परिणति ने तो पाठकों को रोने के लिए विवश कर दिया है। रति विलाप की इयत्तता सचमुच तब पार कर गयी जब उसे देखते ही देखते उसका प्रिय अग्नि की भेंट चढ़ गया और उसकी भष्म को वायु इधर-उधर बिखेर रहा है –
इति चैनमुवाच दुःखिता सुहृदः पश्य वसन्त! किं स्थितम्,
तदिंद कणशो विकीर्यते पवनैर्भस्म कपोत कर्बुरम्।
अयि सम्प्रति देहि दर्शनं स्मर! पर्यत्सुक एष माधवः,
दयितास्वनवस्थितं नृणां न खलु प्रेम चलं सुहृदजने।।
कुमार संभव 4/27, 28
विस्मय नामक स्थायीभाव का सफल दृष्टान्त दृष्टव्य है-
तस्मिन् क्षणे पालयितुः प्रजानामुत्पश्यतः सिंहनिपातमुग्रम्।
अवागंमुखस्योपरि पुष्पवृष्टिः पपात विद्याधरमुक्तहस्ता।।
रघुवंश 2/60
रति के अनुभाव एवं व्यभिचारीभाव भी अत्यन्त रशपेशलता के साथ कालिदास काव्य में उपनिबद्ध हैं। दुष्यन्त पर आसक्त शकुन्तला मर्यादावश आश्रम कुटी की ओर लौटना चाहती है परन्तु स्नेहाभिभूत होकर वह बारम्बार दुष्यन्त को देखना चाहती है –
"दर्भागंरेण चरणः क्षत इत्यकाण्ठे तन्वी स्थिता कतिचिदेव पदानि गत्त्वा।
असद्विवृतवदना च विमोचयन्ती शाखासु वल्कलमसक्तमपि द्रुमाणाम।।
अभि. शा. 2/12
उपर्युक्त श्लोक में कवि ने अवहित्था भाव को कितना सुन्दर व्यक्त किया है। सप्तर्षियों द्वारा विवाह का प्रसंग चलाये जाने पर पार्वती का "लीलाकमलपत्राणि गणयामास" पार्वती अवहित्था का अत्यन्त सुन्दर उदाहरण है।
ब्रह्मचारी के मुख से विवाह का प्रसंग चलाये जाने पर भगवान शंकर की निन्दा करते-करते क्रुध हो पार्वती ज्यों ही वहाँ से जाने हेतु एक पग आगे बढ़ती है तभी भगवान शिव अपना प्रकृत रूप धारण कर और मुस्कराते हुए उनका हाथ पकड़ लेते हैं। इस समय कवि ने उनकी आश्चर्यचकितमुद्रा की जो मूर्ति अंकित की है वह तो भाव सौन्दर्य की इयत्तता पार कर गयी – "शैलाधिराजतनया न ययौ न तस्थौ।"स्तम्भ, स्वेद, रोमान्च आदि सात्तिवक भावों का बड़ा ही सुन्दर वर्णन कालिदान ने किया है
तं वीक्ष्य वेपथुमती सरसांयष्टि र्निक्षेपणाय पदमुद्धततमुद्वहन्ती।
मार्गाचलव्यतिकराकुलितेव सिन्धुः शैलाधिराजतनया न ययौ न तस्थौ।।
कुमार संभव 5/84
व्याभिचारीभाव कभी-कभी प्रधानतया प्रतीत होकर आस्वाद्य बन जाता है तो ऐसे संचारियों के निबन्धन को अवस्था भेद से, भावोदय, भावसन्धि, भावशान्ति, भाव शबलता कहा गया है। इसमें कालिदास पीछे नहीं हैं। सौन्दर्य की प्रतिमूर्ति शकुन्तला को देखकर दुष्यन्त कहता है कि "असाधु खलु तत्रभवान् कण्वः" और कल्पनाओं की धारा में अग्रसरित होते हुए कहता है –
अनाध्रातं पुष्पं किसलयमलूनं कर रूहैः
रनाविद्धं रत्नं मधुमनास्वादितरसम्।
अखण्डं पुण्यानां फलमिव च तद्रूपनधं
न जाने भोक्तारं कमिह समुपस्थास्यति विधिः।।
अभिज्ञान 2/12
सौन्दर्य के असाधु उपयोग का विचार करते-करते अब दुष्यन्त के हृदय में उससे उपभोग करने की "चिन्ता" नामक व्याभिचारीभाव उदित हो रहा है यही भावोदय है अनुरागविद्ध दुष्यन्त के मन में बड़ी उत्सुकता है कि जिस प्रकार मैं शकुन्तला के लिए व्यग्र रहता हूँ तो क्या शकुन्तला भी मेरे लिए व्यग्र रहती है? इस आशक्य भाव का शमन शकुन्तला के निम्न कथन को सुनकर हो जाता है –
"यः प्रवर्त्तति तपोवनरक्षिता स राजर्षिर्मम दर्शनपथं गतः।
ततः प्रभृति तद्गतेन अभिलाषेण एतावदवस्थाऽस्मि संवृत्ता।।
"विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्रसनिष्पत्तिः।"
ना.शा. 6/पृ.सं. 182
सूत्रानुसार रसोत्पत्ति तो विभाव-अनुभाव और व्यभिचारीभाव के संयोंग से होती है परन्तु इनके अभाव में भी रसोत्पत्ति होती है। केवल आलम्बन विभाव के वर्णन से रसोत्पत्ति, यथा –
दीर्धाक्षं शरदिन्दुकान्तिवदनं बाहू नतावंसयोः
संक्षिप्तं निबिडोनतस्तनमुरः पार्श्वे प्रमुष्टे इव
मध्यः पाणिमितोनितम्बिजघनं पादावरालांगुली
छन्दो नर्तयितुर्यथैव मनसि श्लिष्टं तथास्या पयुः।।
मालविकाग्निमित्रम् 2/4
राजा के कथन मे केवल आलम्बन विभाव का ही वर्णन है तथापि अनुरागी की उक्ति होने के कारण औत्सुक्यादि सञ्चारी तथा नयन विस्फार आदि अनुभावों का आक्षेप हो जाता है और रतिभाव अस्वाद्य हो जाता है। केवल उद्दीपन विभाव के वर्णन से रसोत्पत्ति यथा –
कार्यासैकतलीनहंसमिथुना स्रोतोपहा मालिनी
पादास्तामभितौ निषण्णहरिणा गौरीगुरौः पावनाः।
शाखालम्बितवल्कलस्य च तरोर्निर्मातुमिच्छाम्यधः
श्रृंगे कृष्णमृगस्य वामनयनं कण्डूयमानां मृगीम्।।
अभि.शा. 6/17
यद्यपि यहाँ केवल उद्दीपन विभाव का वर्णन है तथापि आलम्बन विभाव के रूप में, शकुन्तला की संचारी के रूप मे स्मृति, विषाद, आदि का आक्षेप शृंगार के वियोगपक्ष को पुष्ट कर रहा है। इस प्रकार वर्णित भावसौन्दर्य के अवलोकनोपरान्त यह स्पष्ट है कि भाव सौन्दर्य अपने पूर्ण सौन्दर्य के साथ इनके काव्य में चित्रित हैं।
रामकेश्वर तिवारी
असिस्टेण्ट प्रोफेसर सह व्याकरण विभागाध्यक्ष
श्री बैकुण्ठनाथ पवहारि संस्कृत महाविद्यालय
बैकुण्ठपुर, देवरिया, उत्तरप्रदेश
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