अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

स्त्री - उत्तर आधुनिकता, भूमंडलीकरण और बाज़ारवाद

आज के आधुनिक काल में जहाँ स्त्री विमर्श अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँच चुका है वहाँ वह उन पुरानी रूढ़ियों को तोड़कर अपने लिए नये समाज, नये विचार की स्थापना कर रहा है। भारतीय समाज के बंधन को (पिता रक्षति कौमारे भ्राता रक्षति योजना, आस्था वीर्यरक्षण की पुत्री स्त्री स्वायत्त माहिती।) जो सदैव से चले आ रहे थे, स्त्री उन्हें तोड़ते हुए आधुनिक काल में अपनी पहचान बना रही है। साहिर लुधियानवी की पंक्तियाँ पुष्ट करती है कि समाज में स्त्री का स्थान क्या है,

“औरत ने जनम दिया मर्दों को, मर्दों ने उसे बाज़ार दिया
जब जी चाहा मसला कुचला, जब जी चाहा दुत्कार दिया।
... ... ...
मर्दों ने बनायीं जो रस्में, उनको हक़ का फ़रमान कहा
औरत के ज़िंदा जलने को, क़ुर्बानी और बलिदान कहा,
क़िस्मत के बदले रोटी दी, और उसको भी एहसान कहा।”1

जैसे-जैसे विकास होता गया स्त्री शोषण के रूप भी बदलते गए। समाज ने कर्तव्य निर्धारित करते हुए जेंडरीकरण का निर्माण किया। जिसके तहत वैचारिक तथा भौतिक प्रक्रियाओं के द्वारा व्यक्ति का समाजीकरण किया जाता है। इस प्रक्रिया के द्वारा स्त्रीत्व और पुरुषत्व की रचना की गई। जेंडरीकरण एक ऐसी प्रक्रिया है जो स्त्री और पुरुषों के बीच लगातार भेद पैदा कर रही है। इस कारण से हमेशा एक सत्ताबोध प्रबल रहती है। “स्त्रियों को तो वही मिला, जो पुरुष ने इच्छा से देना चाहा। इस स्थिति में भी पुरुष दाता के रूप में और औरत ग्राहिता के रूप में हमारे सामने आई। इसका प्रमुख कारण औरतों के पास अपने आप को एक इकाई के रूप में संगठित करने के ठोस साधनों का अभाव है। उनका न कोई अतीत है और न इतिहास, ना अपना कोई धर्म है और ना सर्वहारा की तरह ठोस क्रियाकलापों का एक संगठित जगत।”2

औद्योगीकरण के विकास के कारण जब पूँजीवादी युग में बाज़ारवाद का जन्म हुआ तब समाज और परिवार में नारी शोषण की सीमा अन्तिम चरण तक पहुँच गई थी। उसके बाद जब उनमें चेतना आई तो उसने बाहर क़दम रखा और ख़ुद को आधुनिक एवं स्वतंत्र कहने लगी। परंतु वहाँ भी उसे अप्रत्यक्ष रूप से शोषण का शिकार होना पड़ा।

“स्त्री-स्वाधीनता का अर्थ हुआ कि स्त्री पुरुष से जिस पारंपारिक संबंध को निभा रही है, उससे मुक्त हो। हम स्त्री-पुरुष के बीच घटने वाले संबंध को नहीं नकार रहे। उसका अपना स्वतंत्र अस्तित्व होगा और वह पुरुष की होकर भी जियेगी। दोनों अपनी-अपनी स्वायत्तता में दूसरे को अन्यन रूप में भी देखेंगे। संबंधों की पारस्परिकता और अन्योन्याश्रितता से, चाह, अधिकार, प्रेम और अमोद-प्रमोद के अर्थ समाप्त नहीं हो जायेंगे और नहीं समाप्त होंगे दो संवर्गों के बीच के शब्द देना, प्राप्त करना, मिलन होगा; बल्कि दासत्व समाप्त होगा और वह भी आधी मानवता का, तब व्यवस्था का यह सारा ढोंग समाप्त हो जाएगा। स्त्री-पुरुष के बीच का विभेध वास्तव में एक महत्वपूर्ण नई सार्थकता को अभिव्यक्त करेगा।”3 स्त्री विमर्श यही चाहता है। क्या आज स्त्री बाहर मानसिक रूप से शोषण करवाने के लिए क़दम रखती है? “मेरी समझ से इसका विश्लेषण ही स्त्री विमर्श है, स्त्री के संपूर्ण अंतरंग और बहिरंग को समझने की कोशिश, आवरणों और जकड़नों को भेदकर बाहर आई स्त्री का मन, स्त्री की सोच, दृष्टि, समस्याओं, स्थितियों और मनस्थितियों का विश्लेषण है।”4 वह समाज की सोच को बदलकर अपने लिए चैन की साँस चाह रही है। समाज के जेंडरीकरण को तोड़कर वह एक सशक्त समाज का निर्माण चाहती है।

आधुनिक से हो रहे उत्तर-आधुनिक सामाज में स्त्री के लिए हर रोज़ एक नई समस्या नये रूप में सामने आ रही है। यह एक ऐसा समाज है जो मनुष्य को फैंटेसी में जीने की आदत को मजबूती प्रदान कर रहा है। इस समाज के मनुष्य चाहे वह किसी भी वर्ग के हो इससे अछूते नहीं है। इसके अलावा जनमाध्यमों, संस्कृति, सूचना-प्रौद्योगिकी और विज्ञापन की दुनिया में आए बदलावों के कारण दुनिया में निर्णायक परिवर्तन हुए हैं। इन परिवर्तनों के कारण आम नागरिकों की जीवन शैली में बुनियादी बदलाव आया है। आधुनिकता में भौतिक सुख-सुविधा की शुरुआत होती हुई नज़र आती है तो उत्तर-आधुनिकता में उन सुख-सुविधाओं के मात्राओं को बढ़ाया जाता है। उत्तर-आधुनिकता के कारण आम लोगों के दृष्टिकोण में नये लक्षण दिखाई दे रहे हैं। इस तरह के चौतरफ़ा परिवर्तन पहले कभी देखे नहीं गए। यह युग जहाँ नये-नये विषयों की खोज करता है, नये प्रश्नों का समाधान देता है, वहीं एक नया प्रश्न और एक नई खोज को छोड़ देता है। यह काल मोहन राकेश के नाटक ‘आधे-अधूरे’ की तरह है जहाँ बाहर से हर कोई परिपूर्ण है और अंदर से अकेला, अधूरा, निसहाय कुंठित आदि भावनाओं से ग्रस्त है। यह काल हर समय एक नये वाद, नई बीमारी, नई समस्या, नये सिद्धांत तथा नई परिस्थिति को जन्म दे रहा है। उत्तर-आधुनिकता ने जहाँ नई-नई प्रकार की मशीनों को गढ़ा वही इंसान को मशीन बनाता गया। यह काल व्यक्ति के समाजीकरण को खोकर उसका निजीकरण कर रहा है। इसकी मुख्यत दो इकाइयाँ हैं बाज़ारवाद और भूमंडलीकरण। उत्तर-आधुनिकता के दोनों तत्व बहुत ही मज़ेदार और एक-दूसरे के पूरक भी है। भूमंडलीकरण ने जहाँ अनुकरण सिखाया वही उस अनुकरण की पूर्ति के लिए बाज़ारवाद की निर्मिती हुई। इस काल का समाज सहिष्णुता (जियो और जीने दो) के आधार को छोड़कर व्यक्तिपरक असहिष्णुता (Survival of the fittest) की ओर उन्मुख हो रहा है। आज पूँजीवाद, भूमंडलीकरण और बाज़ारवाद हमारी संस्कृति और जीवन को प्रभावित कर रहे हैं। यह हमारी संवेदनाओं, भावनाओं, विश्वास व खानपान सभी पर अपना वर्चस्व जमा रहे हैं। भूमंडलीकरण ने पूरे विश्व को गाँव की संज्ञा देते हुए उसे बाज़ार में बदल डाला है।

माना जाता है कि ‘आवश्यकता ही आविष्कार की जननी है।’ परंतु इस भूमंडलीकरण में आविष्कार ही आवश्यकता की जननी बनी। जिस कारण से बाज़ारवादी संस्कृति व्यक्ति को उपभोक्ता बनती गयी। वह उन वस्तुओं की ख़रीद करने लगता है जो सामान्यतः जीवन में ग़ैर ज़रूरी है। बाज़ार की सबसे बड़ी उपभोक्ता स्त्री है। स्त्री घरेलू समान से लेकर ब्यूटी प्रोडक्ट, बच्चों के नैपकिन से लेकर कोल्ड ड्रिंक तक सभी वस्तुओं की उपभोक्ता बनी है। पूँजीपतियों ने बाज़ार को स्थापित करते हुए पुरुष वर्ग को इन्वेस्ट करने वाला बनाया, वहीं मध्यमवर्गीय वर्ग को उपभोक्ता और बच्चों को भविष्य का इन्वेस्टमेंट बनाया। लेकिन स्त्री को बाज़ार ने इनवेस्टर से लेकर उपभोक्ता तक और वस्तु से लेकर मनोरंजन के साधन तक बना दिया। बाज़ार ने स्त्री को सेल्स गर्ल का स्थान दिया, उसके लिए घरेलु सामान बनाए, उन्हें बॉबी डॉल बनाकर लुभावने सपने दिखाने के साथ पुरुषों का मनोरंजन करने के लिए बाज़ार भी तैयार किया।

बाज़ार हमेशा पूँजीपति वर्ग के पास रहा है और पूँजीपति हमेशा से पुरुष वर्ग है, पुरुष वर्ग हमेशा से एक डर में जीता आया है कि कहीं उनसे यह सत्ताबोध छिन लिया ना जाए। “औरतों के प्रति जो पुरुष जितना आक्रामक और घृणापूर्ण होता है, वह उतना ही अपने हीन ग्रंथि का शिकार है। जो पुरुष औरत का अधिक अपमान करता है, वह मानसिक रूप से स्वयं अपमानित होने की आशंका से ग्रस्त रहता है। संस्कारवश पुरुष औरत से मिली हुई सुविधाओं को छोड़ना नहीं चाहता, इस आशंका से वह ग्रस्त रहता है। वह सोचता है कि अधिकारों को छोड़ते ही उसकी औरत भी छूट जाएगी। अपनी कल्पना में वह भविष्य की औरत को सम्मान देने में असमर्थ रहता है।”5 आधुनिक काल में स्त्री का संघर्ष बढ़ने लगा तो इन विद्रोहों को शांत करने के लिए पितृसत्तात्मक समाज ने बड़ी चालाकी से ब्यूटी मिथ का कॉन्सेप्ट तैयार किया और स्त्री को फिर से वही खड़ा कर दिया। उत्तर-आधुनिकता, बाज़ारवाद और मीडिया ने मिलकर ब्यूटी का ऐसा फ़्रेम तैयार किया की स्त्री इस बाज़ार के चपेट में आ गई। ऐतिहासिक दृष्टि से देखा जाए तो बॉबी डॉल की छवि रीतिकाल की नायिका की तरह है। जैसे मॉडल के सभी अंग को छाँटा गया उसी तरह रीतिकाल के कवियों ने भी नायिका के हँसी से लेकर उसके कमर, कटि आदि सब का माप तैयार किया। बिहारी ने अपने दोहों में वर्णन किया है जो आज के बाज़ारवाद पर सटीक बैठता है। इस दोहे के तरह आज स्त्री मॉडल या नायिका बनी और पुरुष बना उपभोक्ता या नायक।

“भौहनु त्रासती मुख नटति आंखिनु सौं लपटाति।
ऐचि छुड़वाति करू इंची आगे आवाती जाति॥”6

मॉडल और अभिनेत्रियों के रूप में महंगी यौनकर्मी औरत की गुलामी का एक ऐसा बाज़ार तैयार किया जिसे उत्तर-आधुनिकता में फ़ैशन का बाज़ार माना गया। स्त्री पुरुष और समाज के साथ-साथ बाज़ार की भी शिकार होती गई और दोहरी मार की शिकार बनी। उत्तर-आधुनिकता ने आज़ादी के नाम पर स्त्री को सजाया और उनके हँसने से लेकर झुकने तक का, दिखाई देते, न दिखाई देते हुए अंग सभी का पैसा वसूल किया। जो स्त्री सत्ता में आने की माँग की तो पुरुषवादी समाज ने उनसे कहा कि आपके पास क्या है, न आपके अपने शब्द है, न अर्थ है, है तो बस आपकी देह। वह भी हमारे हिसाब से सही है तो उसका महत्व है अथवा नहीं। फ़िल्म, राजनीति, उद्योग, विज्ञापन, बाज़ार से लेकर शिक्षा तक उसने उसे जगह देने की एवज में उसके देह को अर्थ कमाने का माध्यम बनाया। आज का बाज़ार ईश्वर, कला, संस्कृति, धर्म, इतिहास, खेल आदि के साथ-साथ स्त्री को भी बिकाऊ बना चुका है। स्त्री को वस्तु समझता है इसलिए वह बिकाऊ की श्रेणी में दिखाई देती है। मीडिया, बाज़ार, राजनीति और धर्म ने आपस में गठबंधन कर लिया है इस कारण आज समाज विकृत रूप में प्रतीत हो रहा है। बाज़ार ने स्त्री को दो भागों में बाँटा उसने घर सँभालने वाली स्त्री के लिए बुर्के, दुपट्टे और साड़ीयाँ बनाई और बाज़ार सँभालने वाली स्त्री के लिए अर्धवस्त्र तैयार किए। इस तरह से स्त्री को औजार बनाकर बाज़ार में सभी जगह इस्तेमाल किया और अर्थोपार्जन किया गया। बाज़ार विज्ञापन के द्वारा मीडिया के माध्यम से विकृत व्यवस्था को बेचता है, राजनीति उस व्यवस्था को शक्ति प्रदान करती है और धर्म उसका पोषण करता है। यह चार शक्तियाँ स्त्री को नचाने में भागीदार है। मीडिया जगत स्त्री को सिर्फ आकर्षण का उत्पाद मानता है और उसे सिनेमा में भी उसी ध्येय के लिए रखा जाता है। फ़िल्म में नायक सब्जेक्ट और नायिका ऑब्जेक्ट के तौर पर प्रदर्शित होती है। सब्जेक्ट नायक के लिए भाषा का चुनाव अलग होता है जैसे वीर, रोबीला, संवेदनशील आदि। लेकिन ऑब्जेक्ट नायिका के लिए जिस शब्द का इस्तेमाल होता है वह है आकर्षक, सुंदर, उत्तेजक, हॉट आदि। फिल्मों में नायक और नायिका की इंट्री (प्रवेश) का तरीक़ा अलग-अलग है। नायक अपने शूर-वीरता को दिखाता है तो नायिका के होठ, आँखे, कमर आदि को दिखाया जाता है। परंतु कुछ फ़िल्में मीडिया जगत की उन औरतों पर भी बनायी गयी हैं जो दुर्दशा के दौर से गुज़र रही हैं। जैसे ‘लक्ष्मी’ फिल्म वेश्यावृत्ति समाज को दिखाती है तो ‘फैशन’ और ‘हीरोइन’ जैसी फिल्मे बाज़ार के भावनात्मक वेश्यावृत्ति को दिखाती है।

उत्तर-आधुनिकता के दौर में जहाँ हम अपने आप को आधुनिक से भी आगे मानते हैं वही दृश्यम जैसी फिल्म में एक लड़की का अश्लील वीडियो लड़के द्वारा लेने पर लड़की को उतना ही कमज़ोर, बेबस और लाचार दिखाया गया है, जो आज के समय और समाज का प्रतिबिंब है। आज भी स्त्री को कुछ हरकतों द्वारा कमज़ोर साबित किया जाता है, जैसे किसी शब्द का प्रयोग, वीडियो लेना, अंगों पर कॉमेंट करना, तेज़ाब की धमकी देना आदि। आज भी समाज स्त्री मर्यादा के केंद्र में उसके पद, पोस्ट को न रखते हुए उसके शारीरिक सौंदर्य को रखता है। तभी समाज के छिछोरे और हल्के भाव के पुरुष स्त्री को मानसिक और शारीरिक उत्पीड़न देते हैं। दिल्ली जैसे मेट्रोपोलिटन शहर में एक शिक्षित लड़की के साथ इस तरीक़े का जघन्न, घिनौना अपराध खुलेआम खुली सड़क पर होता है और समाज तथा सरकार कुछ नहीं कर पाती। हम अपने आपको उत्तर-आधुनिकता के दौर के नागरिक मानते हैं किन्तु यहाँ ‘निर्भया कांड’ जैसे अपराध हर पल हो रहे हैं। हमारे समाज में यौन उत्पीड़न, भ्रूण हत्या, घरेलू हिंसा, बलात्कार जैसी विकट घटनाएँ रोज़ नहीं बल्कि पल-पल घट रही हैं। उत्तर-आधुनिक समाज में प्रति मिनट लगभग 84 भ्रूण हत्या, 5 बलात्कार, कई यौन उत्पीड़न और 10 घरेलू हिंसाएँ हो रही हैं। क्या यही उत्तर-आधुनिकता है? क्या आज की स्त्री स्वतंत्र है? क्या स्त्री विमर्श सार्थक होता हुआ नज़र आ रहा है? यह सवाल आज भी हर स्त्री के आँखों में काँटे की तरह चुभ रहे हैं। स्त्री परिवार या विवाह संस्था को छोड़कर स्वतंत्र रूप से सम्मानजनक जीवन क्यों नहीं जी पा रही है। विवाह के अलावा इस आधुनिक दुनिया में क्या उसके पास कोई और विकल्प नहीं हो सकता? क्या स्त्री को शारीरिक संबंधों और देहसंपत्ति के तरीकों से ही पहचाना जाएगा? नेशनल फ़ेमिली हेल्थ सर्वे 2015-16 के अनुसार स्त्री की स्थिति को दर्शाया गया है।

(नवभारत टाइम्स, दिल्ली एवं लखनऊ 28/01/2018, पृ. सं. 18)

बाज़ारवाद का समीकरण देखने के बाद यह प्रश्न पुष्ट होता हुआ नज़र आता है कि स्त्री की अपनी कोई जगह, कोई अस्मिता, कोई अस्तित्व नहीं है। अगर उत्तर-आधुनिकता ने सब चीज़ों पर प्रभाव छोड़ा है तो क्या स्त्री के प्रति मनुवादी विचारधारा और पितृसत्तात्मक धर्म को नहीं बदल पाया। वहाँ भी उसे कर्तव्य का पाठ पढ़ाया गया और बाज़ार में भी विज्ञापन के द्वारा स्त्री को मल्टी-परपस बनाकर उसके कंधों को और बोझिल बना दिया।

समाज और बाज़ार द्वारा निर्मित नियम को स्त्री अगर न माने तो उनको अनेक शब्दों से संबोधित किया जाता है। जैसे बदचलन, कुल्टा, बाज़ारू आदि। परंतु ऐसे कोई भी शब्द पुरुषों के लिए नहीं बनाए गए। यह दौर स्त्री के लिए और भी कष्टमय और द्वंद्वात्मक हो चुका है। जब वह चारदीवारी को लाँघकर बाहर की दुनिया में क़दम रखती है तो उसकी पहचान बुद्धि और निडर भरी चेतना से न होकर शारीरिक सौंदर्य से होती है। इस पहचान को सिद्ध करते है बाज़ार के विभिन्न तरीक़े। यह हमारे लिए और हमारे समाज के लिए बहुत ही शर्मनाक बात है कि हम आधी आबादी को उसकी बुद्धि और मानसिकता के तौर पर न देखते हुए उसे एक अलग तरीक़े से देखते हैं।

आधुनिक होती हुई स्त्री को उत्तर-आधुनिकता के बारे में सवाल उठा कर उस पर व्यंग्य और कटाक्ष किए जाते हैं। इसका कारण है कि पुरुष को आज भी स्त्री घर में पुराने संस्कारों, मनु के बताए हुए मनुवादी विचारधारा धरताल पर चलने वाली, साड़ी में लिपटी हुई चाहिए। अर्थ के क्षेत्र और बाहरी दुनिया उसे जीन्स में और मनोरंजन के लिए अर्ध वस्त्र में चाहिए। एक साथ स्त्री में सारी भावनाओं का समावेश नहीं हो सकता जैसे विज्ञापन में स्त्री के दस हाथ दिखाने से वह दस काम को एक साथ नहीं कर सकती। स्त्री अपनी अस्मिता और अस्तित्व को ख़ुद पहचान कर अपनी पहचान बनाने की कोशिश करें तभी जाकर वह अपनी जगह बना पाएगी और स्त्री विमर्श सफल रूप से सार्थकता पाएगा।

प्रियंका कुमारी (शोधार्थी)
मौलाना आज़ाद नेशनल उर्दू यूनिवेर्सिटी,
हैदराबाद, priyanilpawan@gmail.com

संदर्भ :-

1. फिल्म ‘साधना’ - साहिर लुधियानवी, वर्ष 1958
2. स्त्री उपेक्षिता - प्रभा खेतान, पृ. सं. 25
3. वही, पृ. सं. 386
4. वर्तमान साहित्य - (सं.) कुंवरपाल सिंह, अंक - मार्च 2008, पृ. सं. 55
5. स्त्री उपेक्षिता - प्रभा खेतान, पृ. सं. 28
6. बिहारी - बिहारी सतसई

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

साहित्यिक आलेख

शोध निबन्ध

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं