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तालाबंदी

1.


“छोटू, कल हमें नांदेड़ जाना है। तुम्हेंं याद तो है ना?” बापुराव ने कनारते हुए अपने कमज़ोर शरीर में बल भर कर अपने छोटे भाई विठ्ठल से कहा था। विठ्ठल ने अपने बड़े भाई को सम्मान पूर्वक जवाब देते हुए कहा, “दादा, नांदेड़ क्या, पूरा भारत बंद है। तुम्हें तो पता ही है, पिछले दस दिनों से तालाबंदी-लॉकडाउन चल रहा है।” 

बापुराव ने चिंतित स्वर में अपने शरीर में फिर से बल भरते हुए कहा, “तो क्या, अस्पताल भी बंद होगा? क्या मैं यहीं पड़े-पड़े मर जाऊँगा? विठ्ठल, मैं अभी जीना चाहता हूँ।”

इस पर विठ्ठल ने अपने दादा को ढाढ़स बँधाते हुए कहा, “दादा, मरें तुम्हारे दुश्मन। ऐसी बातें फिर ज़बान पर मत लाना। अभी तुम्हारा छोटू ज़िंदा है। तुम्हें कुछ नहीं होगा। दादा, लॉकडाउन है पर अस्पताल बंद नहीं हैं। इस तालाबंदी में स्कूल, कॉलेज, ऑफ़िस, ट्रेन, बस बंद रहेंगे। पर जीवन आवश्यक दुकानें चालू रहेंगी। किराना, सब्ज़ी, दूध, मेडिकल इन्हें बंद नहीं किया जायेगा।” 

अब तक जो नकारात्मक उर्जा उन में फैली थी, विठ्ठल की इन बातों से बापुराव में उर्जा का संचार हो गया था। विठ्ठल अपने दादा में उर्जा का संचार तो कर पाया था किन्तु अगले ही पल अपनी गर्दन को नीचे झुका लिया और पैर के अँगूठे से ज़मीन को कुरेदने लगा। विठ्ठल को इस प्रकार एकाएक मुँह लटकाए, नीचे गर्दन डाले शांत बैठा हुआ देख बापुराव ने फिर से ज़ोर देकर पूछा, “छोटू, क्या हुआ? अभी तो तू अच्छी बातें बता रहा था। अचानक तुझे क्या हो गया जो इतना शांत हो गया।”

कुछ देर शांत रहने के बाद विठ्ठल ने चिंतित एवं निराशा भरे लफ़्ज़ों में कहा, “दादा, अस्पताल तो चालू है पर वहाँ जाने के लिए बस, निजी वाहन, ट्रेन सब बंद हैं। नांदेड़ यहाँ से अस्सी किलोमीटर दूर है। पर जाने के लिए कोई वाहन भी तो नहीं हैं। हम कैसे जायेंगे? बस होती तो हम दो घण्टे में नांदेड़ पहुँच जाते। अब क्या होगा?”

विठ्ठल सोच में डूब गया था कि वह अपने बीमार भाई को इतनी दूर कैसे ले जायेगा? वह पैदल भी नहीं ले जा सकता। वह मन ही मन ईश्वर के सम्मुख अपना दुःख व्यक्त करने लगा था। उसे कुछ सूझ नहीं रहा था कि अब क्या करे और क्या ना करे! वह अपने भाई की ऐसी दशा नहीं देख सकता था और ना ही वह अपने भाई की मौत की कल्पना भी कर सकता था। उस के मन में रह-रह कर भाई के वे वाक्य गूँजने लगे थे– “छोटू मैं मरना नहीं चाहता। मुझे बचा लो।” उसके मन में तरह-तरह के विचारों का घमासान शुरू हो गया था। बहुत देर तक सोच और विचारों के सागर में चिंता और निराशा को धारण करते हुए डुबकी लगाता रहा और फिर अचानक विठ्ठल ने अपने दादा का हाथ पकड़ते हुए कहा, “दादा, तू चिंता मत करना। मैं हूँ ना। मैं सब ठीक कर दूँगा। हम कल नांदेड़ जा रहे हैं। अब कल नांदेड़ चलने की मानसिक तैयारी कर लेना। बाक़ी मैं सब सम्हाल लूँगा। ठीक है। ...अब रात के दस बज रहे हैं .... सो जाओ। सुबह जल्दी निकलते है।” विठ्ठल ने बाजू में रखी चादर उठाई और खटिया में आराम कर रहे भाई पर ढाक दी। और उठकर बाहर चला गया।

बाहर बैल अम्ब्या की आवाज़ कर रहे थे। विठ्ठल उनके पास गया। उन्हें चारा डाला। उनके मस्तक पर प्यार से हाथ घुमाया और फिर पीठ को सहलाया। दोनों बैल अपनी गर्दन को विठ्ठल के क़रीब लाकर अपना ममत्व प्रकट करने लगे थे। मानों दोनों बैलों ने बापुराव और विठ्ठल दोनों भाईयों की आपस की बातें सुन ली थी। वे दोनों मानों कहना चाहते थे कि हम चलेंगे दादा को नांदेड़ लेकर। तुम्ह चिंता मत करना। विठ्ठल भी समझ गया था कि अब एक मात्र उपाय है कि हम बैलगाड़ी में नांदेड़ जा सकते हैं। दोनों बैल बापुराव और विठ्ठल की प्राण थे। खेत में फ़सल इन्हीं के दम पर हुआ करती थी। दो बैल और दोनों भाई मेहनती थे। अपने मेहनत के दम पर वे काली मिट्टी में ख़ुशियाँ उगाया करते थे। पिछले कुछ महीनों से दोनों बैलों में उत्साह की कुछ कमी भी आ गयी थी। दादा, जब स्वस्थ थे, तो रोज़ उन्हें अपने हाथों से चारा खिलाते थे। माथे पर, गरदन पर और पीठ पर ममत्व से भरा हुआ हाथ फेरते थे। बैलों को रोज़ उनकी आदत हो गयी थी। दोनों बैल अब फिर से वही वात्सल्य...दादा से चाहते थे। वे भी चाहते थे कि दादा जल्द से जल्द ठीक हो जायें। 

2.

 

विठ्ठल तड़के ही उठ गया और अपने दादा को भी उसने जगा दिया था। विठ्ठल बैलगाड़ी की तैयारी में जुट गया था। उसने गाड़ी को अच्छी तरह से साफ़-स्वच्छ कर लिया। फिर सूखी घास को गाड़ी में बिखेर दिया। उस पर बिछौना पसार दिया ताकि जब दादा उस पर बैठे तो उसे कोई परेशानी ना हो। दोनों पहियों में तेल डाला गया ताकि गाड़ी सड़क पर सरपट दौड़े, आवाज़ भी ना करे और बैलों पर अतिरिक्त बोझ भी न पड़े। इसका उसने अच्छी तरह से ख़्याल रखा था। बैलों को सुबह-सुबह तालाब पर नहलाया। घर आने के बाद उनकी मन पसंद ताज़ा घास भी उन्हें खाने को डाल दी गई थी। बैलों को पानी पिलाया और उनके पीठ पर हाथ फेरते हुए विठ्ठल ने कहा था, “सरजा और राजा, आज हमें तुम्हारा साथ चाहिए। अब तक आप ने खेतों में काम किया है। अब तुम्हें यहाँ से अस्सी किलोमीटर दूर नांदेड़ तक हमें ले जाना है। दादा को आज किसी भी हालत में शाम तक अस्पताल में पहुँचाना ही होगा।” सरजा और राजा ने अपनी गर्दन हिलाकर ख़ुशी से सम्मति प्रदान कर दी थी। मानों वे कब से इंतज़ार कर रहे थे कि वे अपने वात्सल्य को स्वस्थ करने में अपना योगदान दें। 

विठ्ठल ने बैलों को खूँटे से खोल दिया और गाड़ी की ओर बढ़ गया। गाड़ी में बैलों को जोड़ दिया गया था। बैल और गाड़ी से मिलकर अब बैलगाड़ी तैयार हो चुकी थी। बापुराव भी नांदेड़ जाने के लिए तैयार हो गया था। बापुराव धीरे-धीरे चलते हुए बैलगाड़ी तक आया था। पर उसे ख़ुद से बैलगाड़ी पर चढ़ना मुश्किल था। वह सोचने लगा था कि वह यदि स्वस्थ होता तो कब का उचककर बैलगाड़ी में चढ़ जाता। पर फिर सोचने लगा कि यदि वह स्वस्थ होता तो उसे इस प्रकार नांदेड़ जाने की क्या आवश्यकता थी? उसने हल्के से अपने हाथ को अपने ही सिर के पीछे मार दिया था। विठ्ठल ने देखा कि दादा स्वयं चलकर आये हैं और बैलगाड़ी पर स्वयं चढ़ने की कोशिश कर रहे हैं। तब वह दौड़ता हुआ आया और अपने दादा को उठाते हुए कहा, “ दादा, अभी आपकी तबीयत ख़राब है। अभी आप ख़ुद से बैलगाड़ी पर नहीं चढ़ सकते हैं। जब तक मैं हूँ तुम्हें चिंता करने की कोई आवश्यकता नहीं है। मैं तुम्हें चढ़ा देता हूँ।” विठ्ठल ने बड़े हल्के हाथों से अपने दादा को आराम से गाड़ी में बिठाया दिया। जैसे एक पिता अपने बेटे को आराम से उठाकर झोली में सुला देते हैं। और बेटे को पता ही नहीं चलता कि उसे कब झोली में सुला दिया गया है। उसी प्रकार से विठ्ठल ने अपने दादा को बैलगाड़ी में बिठा दिया था। बचपन में जब माँ-बाप का साया छिन गया था, तब दादा ने ही उसे अपने बेटे की तरह पाल-पोसकर बड़ा किया था। उसे कभी माता-पिता की याद आने नहीं दी थी। उऋण होने का यही वक़्त था। आज विठ्ठल अपने दादा के लिए यह सब करते हुए भीतर से ख़ुशी महसूस कर रहा था कि वह अपने दादा के काम आ रहा है। 

दादा, बैलगाड़ी में सरक कर आराम से लेट गया था। विठ्ठल की पत्नी ने ज्वार की रोटी, बैंगन-मेथी का कूट, दो-तीन प्याज को कपड़े में बाँधकर बड़े प्यार से दे दिया था। ताकि जब उन्हें भूख लगे तो रास्ते में वे इसे किसी पेड़ की छाया में बैठ कर खा लें। गर्मियों में या सफ़र करते समय भारतीय परम्परा के अनुसार दादा ने सर पर पगड़ी बाँध ली थी। और मुँह पर गमछे को लपेट लिया था। विठ्ठल भी अपने मुँह पर गमछा लपेट कर बैलगाड़ी पर सवार हो गया था। बापुराव और विठ्ठल की पत्नियाँ बाहर आकर खड़ीं थीं। उन्हें जाते हुए देख कर बापुराव की पत्नी की आँखें भर आयीं थीं। अब बैलगाड़ी पूरी तरह से तैयार हो चुकी थी। दादा, विठ्ठल, गाड़ी और बैल सभी तैयार थे। अब बस नांदेड़ पहुँचने की देरी थी। विठ्ठल ने बैलों की रस्सी को हाथ में थाम लिया और बैलों को आगे बढ़ने का आदेश दिया। “चलो सरजा और राजा, हमें नांदेड़ ले चलो,“ बैल आगे बढ़ते इससे पहले ही रस्सी टूट गयी थी। दादा के अनुसार रस्सी का टूटना अपशकुन था। पर नांदेड़ जाना भी ज़रूरी था। विठ्ठल आधुनिक विचारों का था। वह यह सब कुछ नहीं मानता था। उसका मानना था कि मनुष्य अपने कर्म से ही अपने भविष्य को बना सकता है और बिगाड़ भी सकता है। वह सोचने लगा कि बिना रस्सी के आगे कैसे बढ़ा जाये। घर में दूसरी रस्सी भी नहीं थी। लॉकडाउन में बस, ट्रेन, निजी वाहन सब कुछ को तो बंद कर दिया था। एक मात्र मार्ग बचा था। अब वहाँ भी उन्हें अँधेरा दिखायी देने लगा था। वे बैलगाड़ी से नांदेड़ की और जा सकते थे। पर.. उनके पास गाड़ी थी, बैल थे पर रस्सी नहीं थी। विठ्ठल दुःखी था पर अभी हताश नहीं हुआ था। वह धम्म से गाड़ी से नीचे कूदा और बिना कुछ बताये गाँव में घुस गया। 

 

3.

 

विठ्ठल कुछ देर बाद दौड़ता हुआ हाथ में रस्सी और एक बोतल ले आया। फिर से बैलों को नई रस्सी बाँधी गई। अब विठ्ठल बैलगाड़ी पर बैठ गया था। उसने बैलों की रस्सी अपने हाथ में थाम ली थी। बैलों को फिर से उसने प्यार से आदेश दिया। “चल सरजा, चल राजा, हमें नांदेड़ ले चल।” बैलों के गले में बँधी घंटी एक साथ बज उठी और बैलगाड़ी नांदेड़ की ओर चल पड़ी थी। बापुराव और विठ्ठल की पत्नियों ने अपने पल्लू से मुँह छिपाते हुए.. हाथ दिखा कर दोनों को विदाई दी थी। बैलगाड़ी गाँव की कच्ची सड़क से होते हुए आगे बढ़ रही थी। अब इंतज़ार था, नांदेड़ पहुँचने का। रास्ते में बैलों के गले में बँधी घंटियाँ बज रहीं थीं। गाँव की कच्ची सड़क धीरे-धीरे पीछे सरक रही थी। अब गाँव पीछे छूटने लगा था। घर के सामने खड़ी पत्नियों के दो पुतले धीरे-धीरे धुँधले हो गये और फिर ओझल हो चुके थे। बैलगाड़ी ने थोड़ी-सी गति पकड़ी ही थी कि अचानक बैलगाड़ी उछल गई। पहिये के नीचे पत्थर आ गया था। जिस कारण बापुराव के मुँह से दर्द भरी ‘आह’ निकल पड़ी थी। ‘आह’ विठ्ठल के कानों से होते हुए बैलों के कानों तक पहुँची ही थी कि बैलों ने अपने आप अपनी गति और भी धीमी कर ली थी। मानों वेअपने वात्सल्य दाता का दर्द अच्छी तरह से जानते थे।

बैलगाड़ी अब कच्चे सड़क को छोड़कर नांदेड़ जानेवाली प्रमुख कोलतार की सड़क पर आ चुकी थी। बैलगाड़ी अब तेज़ चल पड़ी थी। यहाँ अब पहिये के नीचे पत्थर आने की कोई गुंजाइश ही नहीं थी। कुल मिलकर सफ़र आराम का होनेवाला था। अबतक बापुराव शांत बैठे थे। उसने अपने छोटे भाई से कहा, “छोटे, आज हम पर यह कैसा समय आन पड़ा है? बस, ट्रेन, निजी वाहन होने के बावजूद भी हमें बैलगाड़ी से जाना पड़ रहा है। बस या ट्रेन होती तो हम महज़ दो घण्टे में नांदेड़ पहुँच जाते पर अब इस बैलगाड़ी में हम कब नांदेड़ पहुँचेंगे?” 

विठ्ठल अपने दादा की भावना और पीड़ा को समझ सकता था। वह समझ चुका था कि अपने बड़े भाई में आशा-विश्वास और उत्साह को जगाना आवश्यक है। उसने अपने दादा से कहा, “दादा, यह बात तो सही है कि इस वक़्त सब बंद है। किन्तु ज़रा आज से चालीस साल पहले के गाँव को याद करो। जब कुछ गिने-चुने किसानों के पास ही बैलगाड़ी हुआ करती थी। सारे काम इसी बैलगाड़ी से हुआ करते थे। जिसके पास बैलगाड़ी वह गाँव का धनी व्यक्ति हुआ करता था। सब लोग उसे सम्मान की नज़र से देखते थे। आज के इस तालाबंदी, कोरोना युग में सिर्फ़ हमारी ही बैलगाड़ी इस सड़क पर चल रही हैं। इसका मतलब यह हुआ दादा कि इस वक़्त यहाँ हम ही धनवान व्यक्ति हैं,” और उसने ज़ोर से ठहाका लगा दिया। बापुराव के चेहरे से भी हँसी की आवाज़ गूँज उठी थी। बापुराव के चेहरे पर हँसी को खिलता हुआ देख उस वक़्त विठ्ठल को बड़ी राहत महसूस हुई थी। वह मन ही मन ईश्वर से प्रार्थना कर रहा था कि ईश्वर हमेशा उसके दादा के चेहरे पर ऐसी ही हँसी बनाये रखे। 

उनका सफ़र जारी था। बापुराव इंतज़ार कर रहा था कि कब वह नांदेड़ के अस्पताल पहुँचे और अपना इलाज करवाएँ। बापुराव डायलिसिस पर था। उसे हर चार दिन या पाँच दिन में नांदेड़ के अस्पताल पहुँचाना ही पड़ता था। ताकि किडनी का काम डायलिसिस के ज़रिये पूरा किया जा सके। इसमें देरी का मतलब बापुराव और विठ्ठल अच्छी तरह जानते थे। बचना है..तो डॉक्टर ने जो कहा है, उसे मानना ही पड़ेगा। उस दिन उन पर दोहरा संकट था। पहला संकट की समय पर नांदेड़ पहुँचा जाये। दूसरा कोरोना का संकट। दोनों की अंतिम परिणति मौत ही हो सकती थी। डायलिसिस का इलाज था पर कोरोना का अब तक कोई इलाज विश्व के किसी भी देश के पास नहीं था। डायलिसिस करना ज़रूरी था और तालाबंदी में घर पर रहना ज़रूरी था। घर पर रहता तो मौत...बाहर जाता तो मौत। पर दोनों बैलगाड़ी में बड़ी सावधानी से जा रहे थे। विठ्ठल ने लायी हुई बोतल को देखकर बापुराव ने विठ्ठल से पूछा, “छोटे, इस बोतल में क्या है?” 

विठ्ठल ने जवाब देते हुए कहा, “दादा, ये सेनिटाझर है। कल ही मैंने नीम के पत्तों से इसे बनाया है। हमने मास्क के स्थान पर गमछा बाँध लिया है। हाथ पर लगाने के लिए ये सेनीटाझर भी साथ ले लिया है। कोरोना सामाजिक सम्पर्क या कोरोना मरीज और उनके सम्पर्क में आई वस्तुओं से फैलता है। हमें सरकार द्वारा जारी किये गये नियमों का पालन भी करना होगा। यह नीम और मास्क हमारी रक्षा करेगा।” 

बापुराव ने बोतल का ढक्कन खोल दिया और अपने हाथों पर नीम का रस लगा लिया। अब वह अपने आप को सुरक्षित महसूस करने लगा था। सुबह से दुपहर और अब दुपहर से शाम होने को थी। बैलगाड़ी ने गति पकड़ ली थी। सरजा और राजा अपने मालिक की बातें सुन रहे थे। उनके दौड़ने से उनके गले में बँधी घंटी एक स्वर में बज रही थी। जिससे सुनी सड़क का सुनापन टूट रहा था। इस तालाबंदी में ये बैल ही काम आ रहे थे; जो गाड़ी और दोनों भाईयों को नांदेड़ की ओर ले जा रहे थे। दोनों बैलों ने इससे पहले इतना लम्बा सफ़र पहले कभी नहीं किया था। शायद वे थक चुके थे फिर भी वे अपनी थकान को ज़ाहिर नहीं करना चाहते थे। वे लगातार दौड़ते जा रहे थे। उनके दौड़ने को देखकर ऐसा लग रहा था कि वे कुछ ही घंटों में नांदेड़ पहुँच जायेंगे। दौड़ती बैलगाड़ी के साथ विठ्ठल किमी के पत्थर को भी देखता जा रहा था। नांदेड़ 60 किमी, अब नांदेड़ 50 किमी, अब नांदेड़ 40 किमी। जैसे-जैसे विठ्ठल किमी के पत्थर पर घटने वाले किमी को देख रहा था, वैसे-वैसे सफ़र में थके होने के बावजूद भी विठ्ठल और बापुराव में उत्साह का संचार हो रहा था। अब नांदेड़ 30 किमी बाक़ी था।

विठ्ठल बचा हुआ सफ़र काटने के लिए अपने दादा के सामने सरजा और राजा से जुड़ी हुई कहानी को याद दिलाते हुए कह रहा था। “दादा, तुम्हें याद है। एक दिन जब किसी कारण धनीराव से आपकी अनबन हो गई थी। तुमने उसे अपने हाथ की लाठी से सबक सिखाया था। लेकिन एक दिन जब तुम्हें अकेला पाकर धनीराव अपने आठ-दस लठैतों को लेकर तुम्हें मारने के लिए पहुँचा था। जब उन्होंने तुम्हें घेर लिया और जैसे ही लाठी बरसने से तुम्हारे मुँह से दर्द भरी आवाज़ निकली तब यही सरजा और राजा तुम्हारी मदद के लिए दौड़ कर आये थे। इस सरजा ने अकेले ही आठ लठैतों को सबक सिखाया था। कैसे धनीराव को सरजा और राजा ने घर तक भगाया था। याद है ना तुम्हें?” 

बापुराव विठ्ठल की बातों को सुन अपनी पीड़ा को भूल रहा था। और अपनी पिछली यादों में खो गया था। बापुराव ने कहा, “छोटे, मैं सरजा और राजा के उस उपकार को नहीं भूल सकता। वे सिर्फ़ खेत में काम करने वाले बैल नहीं हैं। वे तेरी ही तरह मेरे दो छोटे भाई हैं। सरजा-राजा अपने मालिकों की बातें सुन रहे थे। उनकी प्रशंसा से उनमें और भी उत्साह का संचार हो गया था। गाड़ी और तेज़ दौड़ ने लगी थी। विठ्ठल ने देखा किमी के पत्थर पर लिखा था। नांदेड़ 20 किमी। विठ्ठल ने ख़ुशी से अपने दादा को कहा, “दादा, नांदेड़ अब सिर्फ 20 किमी बाक़ी है। इस गति से यदि हम चलते रहेंगे तो घण्टे-डेढ़ घण्टे में नांदेड़ पहुँच जायेंगे। दादा, इस बैलगाड़ी की रफ़्तार देखकर तो बस और ट्रेन की गति भी फीकी पड़ जायेगी।” माना कि बैलगाड़ी बस और ट्रेन की गति के आगे नहीं जा सकती थी किन्तु विठ्ठल अपने भाई में उत्साह बनाये रखने में कोई कोताही नहीं बरतना चाहता था। दोनों कोई पुराना गीत गा रहे थे। बैल के गले में बंधी घंटियाँ उसे संगीत देने का काम कर रही थी। सफ़र सुखद चल रहा था। 

 

4.

 

अचानक बैलगाड़ी उछलकर आगे दायीं और झुक गयी। यह सब कब हुआ पता ही नहीं चला था। सब कुछ एक पल में बदल गया था। सरजा का दायाँ पैर टूटने से वह धरती पर गिर गया था। उसके मुँह से झाग निकल रहा था। विठ्ठल भी उछल कर सरजा पर जाकर गिर गया था। बापुराव का सिर बैलगाड़ी के लकड़ी से टकराने से वह वहीं बेहोश हो गया था। उसके सिर से खून निकल रहा था। तो राजा बोझ का भार न सह पाने से नीचे की ओर झुक गया था। जिस कारण उसके गले में लगी रस्सी अब फाँस बन चुकी थी। जिस कारण वह तड़फ रहा था। उस सुनी सड़क पर उनकी मदद करने वाला उस वक़्त कोई नहीं था। शायद कोई आनेवाला भी नहीं था। सब कुछ भगवान भरोसे हो चुका था। सहसा विठ्ठल होश में आ गया। उसने जब अपने सामने यह दृश्य देखा तो वह बहुत दुःखी हो गया था। उसने सरजा, राजा को देखा और अपने दादा की ओर। जब दादा, ख़ून से सने बेहोश पड़े थे। तो उन्हें देख कर विठ्ठल के मुँह से दर्द भरी चीख़ निकल पड़ी थी। वह झट से उठा और अपने दादा को बैलगाड़ी से निकाल कर सड़क के किनारे वाले पेड़ के छाँह में लिटा दिया। साँसों को जाँचा। अभी साँसें चल रहीं थीं। बैलगाड़ी में रखी पानी की बोतल से अपने दादा के चेहरे पर पानी की छींटे फेंके। जिस कारण बापुराव को होश आ गया था। अपने दादा को होश में आता देख विठ्ठल ख़ुशी से उछल पड़ा। आँखों में आँसू भरते हुए अपने दादा को पानी पिलाया। जब दादा उठकर पेड़ को टेक कर बैठ गये तब वह दौड़ता हुआ बैलगाड़ी के पास आया था। उसने सरजा और राजा को सबसे पहले रस्सी के बंधन से मुक्त किया। राजा को पेड़ के साये में बाँध दिया। बैलगाड़ी भी पेड़ की छाया में लगा दी। अब सरजा को वहाँ से हटाकर पेड़ की छाँह तक लाना बाक़ी था। वह उसे खिसकाने में अपने-आप को असमर्थ महसूस कर रहा था। वह अपने दादा से भी मदद नहीं माँग सकता था। ना ही उस सूनी सड़क पर किसी को मदद के लिए बुला सकता था। उस वक़्त वह अपने आप को बहुत विवश महसूस कर रहा था। उसने बोतल के पानी को सरजा के मुँह में और उसके शरीर पर गिराया था। जिससे उसमें चेतना जाग सके। थोड़ी देर बाद सरजा होश में आ गया था। वह उठना चाह रहा था किन्तु अचानक वह लड़खड़ा कर नीचे गिर गया। पैर टूटने से वह चल नहीं सकता था। वह भीतर ही भीतर कराह रहा था। उसकी आँखों से आँसू बह रहे थे। उसकी पीड़ा और दर्द को देख बापुराव, विठ्ठल की आँखों में आँसुओं की धारा बह रही थी। वह अपने आप को दोषी महसूस कर रहा था। वह भीतर ही भीतर अपने आप को सरजा और दादा की इस अवस्था का दोषी मान रहा था। 

अचानक टू व्हीलर बैलगाड़ी के पास आकर रुक गयी थी। उसने विठ्ठल की ओर देखकर पूछा, “क्या हुआ। मैं पीएसआई धीरज ..धीरज पावड़े।” 

विठ्ठल ने सारी बात बता दी थी। धीरज ने उन्हें धीरज रखने और आराम करने के लिया कहा। विठ्ठल धीरज की सहायता से सरजा को पेड़ की छाँह में लाया। कुछ देर बाद धीरज वहाँ से निकल गया। अब वे उस सूनी सड़क के किनारे बैठे थे। समय की सुई तेज़ गति से आगे बढ़ रही थी। उस वक़्त शाम के पाँच बज चुके थे। विठ्ठल के सामने प्रश्न चिन्ह था। अब क्या होगा? हमारी कौन मदद करेगा? दादा को किसी भी हालत में अस्पताल पहुँचाना ही होगा। दो घण्टे बाद रात हो जायेगी। उसे याद आया कि खेतों में जब वह बड़े से बड़ा लकड़ा तोड़कर अपने कंधे पर रखता तो घर पर ही लाकर रुकता था। उसने तय किया कि वह अपने दादा को अपने कंधे पर उठाकर अस्पताल ले जायेगा। उसने दादा से अपने दिल की बात की और कंधे पर उठाकर नांदेड़ की ओर निकल पड़ा। उस वक़्त विठ्ठल का अपने भाई के प्रति समर्पण, प्रेम की भावना को देखा जा सकता था। वह लगातार आगे बढ़ते जा रहा था। उसके भीतर एक ही बात हिचकोले ले रही थी कि अपने दादा को नांदेड़ के अस्पताल पहुँचाना ही है। उसकी निष्ठा, समर्पण की भावना के कारण उसे थकान महसूस नहीं हो रही थी। अब वह नांदेड़ के धीरे-धीरे निकट आते जा रहा था। एक किलो मीटर अब दो किलो मीटर। वह लगभग दो किलो मीटर तक अपने दादा को आसानी से उठाकर ले आया था। आखिर वह भी इन्सान ही था। मशीन होता तो बिना थके नांदेड़ पहुँच जाता। पर वह चाहकर भी आगे नहीं बढ़ने वाला था।

 उसे थोड़ी थकान महसूस हो रही थी। अब नांदेड़ 18 किलोमीटर बाक़ी था। वह मन ही मन चाह रहा था कि उसकी मदद के लिए कोई आ जाये। पर उस सूनी सड़क पर उनकी मदद करने के लिए कौन आनेवाला था। यह सफ़र उन्हें अकेले ही तय करना था। कुछ देर थकान मिटाने के बाद विठ्ठल ने फिर से अपने दादा को कंधे पर उठाया और आगे चलता बना था। वह कुछ सोच रहा था कि अचानक सामने से अम्ब्युलेंस की आवाज़ सुनाई दी। वह बड़ी तेज़ रफ़्तार से उनकी ओर आ रही थी। वह जैसे ही विठ्ठल के क़रीब आई उसने अपनी गति धीमी कर दी थी। विठ्ठल को लगा कि भगवान ने उनकी बात सुन ली, उनकी मदद के लिए भगवान ने यह गाड़ी भेज दी है। विठ्ठल ने अपने दादा को नीचे उतारा। दोनों के चेहरे पर ख़ुशी की मुस्कान दौड़ गयी थी। विठ्ठल अम्ब्युलंस की और बढ़ता इतने में वह अम्ब्युलेंस उन्हें पास से गुजर गयी। और उने छोड़ कर आगे चले गयी। अब तक बापुराव और विठ्ठल के चेहरे पर जो ख़ुशी छलक उठी थी, अचानक निराशा, दुःख, चिंता में बदल गयी थी। 

विठ्ठल हार मानने वालों में से नहीं था। उसने लम्बी साँस ली और साँस छोड़ते हुए अपने दादा को अपने कंधे पर उठाया और आगे बढ़ता चला गया। उसने अब मन ही मन ठान लिया था कि वह अपने दादा को किसी भी हालत में नांदेड़ पहुँचा कर ही रुकेगा। वह नांदेड़ की और चलता जा रहा था कि अचानक बिना आवाज़ किये अम्ब्युलेंस उनके पीछे आकर खड़ी हो गयी। ड्राइवर ने आवाज़ दी, “आप का नाम विठ्ठल है क्या? मुझे पी.एस.आई. धीरज ने आपके लिए भेजा है।”

                                 

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